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ज्ञान
‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।’
– भगवदगीता
अर्थात् संसार में ज्ञान के समान और कुछ पवित्र नहीं है।
भारतीय मेधा के अन्य महान ग्रंथों – वेद,
पुराण, उपनिषद आदि में भी ज्ञान की सर्वोपरिता को स्वीकार किया गया
है। असल में मनुष्य जीवन की तमाम अर्जित-विकसित उपलब्धियों में ज्ञान और विद्या की
महत्ता सर्वाधिक रही है। कारण स्पष्ट है – हमारे जीवन की समस्त श्रेष्ठताओं का
मूलाधार ज्ञान है। हमारे गुण, कर्म, स्वभाव संबंधी दोषों को दूर कर हमारे चरित्र को औदात्य प्रदान
करने तथा ‘स्व’ के साथ-साथ समाज विकास व हमारे अंदर परहित की
भावना को जगाने का काम ज्ञान ही करता है। अत: ज्ञानार्जन व
ज्ञान का प्रचार-प्रसार मनुष्य का प्रथम और परम धर्म है। “ज्ञान की साधना करना और
उसके अनुसार आचरण कर अपने उपार्जित ज्ञान से दूसरों का मार्गदर्शन करना ज्ञानयज्ञ
कहा गया है। जिसे सर्वोत्कृष्ट बताते हुए गीताकार ने लिखा है – श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञात्ज्ञानयज्ञ:
परंतपः । – हे परंतप ! द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है,
क्योंकि जितने भी कर्म हैं वे सब ज्ञान में ही समाप्त होते
हैं। ज्ञानदान सर्वोपरि पुण्य है, शुभ कार्य है।” [उद्धृत - भारतीय संस्कृति के आधारभूत
तत्त्व,
पं. श्रीराम शर्मा, पृ. 3.147]
दरअसल मनुष्य की एक विशेष पहचान का मुख्य आधार ज्ञान ही है।
हमारे व्यक्तित्व को निखारने, हमारे सत्कर्म- सद् व्यवहार को सक्रियता प्रदान करने में
ज्ञान की महती भूमिका रही है। हम देखते हैं कि देश और दुनिया के कृती व्यक्तित्वों
की ख्याति और महानता का आधार उनका ज्ञान ही था। मसलन – राम,
कृष्ण, महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, शंकराचार्य, चाणक्य, ईसा मसीह, सुकरात, अरस्तू आदि । अपनी प्रतिभा के बलपर इन व्यक्तित्वों ने मनुष्यता
का संदेश जन जन तक पहुँचाया ।
ज्ञान की महत्ता-उपयोगिता स्वयंसिद्ध है,
किंतु ये भी स्मरण रहे कि ज्ञान की प्राप्ति,
ज्ञान का अर्जन उतना सरल और सुलभ नहीं होता। इसके लिए
आवश्यक है साधना, सत्संग, स्वाध्याय, अध्ययन, चिंतन-मनन साथ ही महात्माओं का सानिध्य, सन्मार्ग पर चलना
आदि आदि,
जो है बड़ा पुरुषार्थ का काम। और इस पुरुषार्थ की फलश्रुति
है अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की प्राप्ति । ‘तमसो मा
ज्योतिर्गमय’ अंधकार पर प्रकाश की जीत । भारतीय संस्कृति के केन्द्र में
रहा यह सूत्र ज्ञान रूपी प्रकाश की प्राप्ति हेतु अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करना।
वैसे तो हम जो जानते हैं, जिसे हम समझते-पहचानते हैं, वह भी ज्ञान ही हैं; किन्तु यहाँ हमारी चर्चा का संबंध व उद्देश्य ज्ञान के इस अर्थ,
इतने सतही और सामान्य अर्थ आशय से कुछ ज्यादा ही ऊपर और
विशेष ही है। असल में हमारे अध्येय-विवेच्य विषय के संदर्भ में ज्ञान से अभिप्राय –
चिंतन-मनन, अध्ययन, अनुभव, अभ्यास, ध्यान एकाग्रता से स्वयं को तथा किसी बाहरी तत्व या विषय-क्षेत्र की वास्तविक-विशेष
पहचान,
उसकी प्रकृति-महत्ता-उपयोगिता की सही समझ का विकसित होना
तथा तत्संबंधी विशिष्ट धारणा-मान्यता-स्थापना को समाज के समक्ष रखना ज्ञान है।
पर्यायता की दृष्टि से इस ज्ञान की प्राप्ति के आधार तथा इसके बुनियादी स्वरूप में
मेधा,
प्रतिभा, मनीषा, बुद्धि, प्रज्ञा, विद्या प्रभृत्ति शब्दों को भी देख सकते हैं।
ज्ञानी और उसके ज्ञान को लेकर सामान्यतया हम ये देखते हैं
कि किसी विषय के संबंध में व्यक्ति विशेष की अपनी मौलिक समझ व दृष्टिकोण और इसे और
ज्यादा अध्ययन-मनन से विकसित कर उस विषय को लेकर उस व्यक्ति की महत्वपूर्ण
मान्यताएँ-स्थापनाएँ जो समाजोपयोगी होने पर समाज द्वारा स्वीकृत होती है,
जो ज्ञान है। दूसरी ओर विविध स्रोतों से किसी विषय संबंधी
सूचनाओं-जानकारियों के एकत्रीकरण को भी ज्ञान के अंतर्गत लिया जाता है। चाहे तो
व्यक्ति के ज्ञान के संबंध में उक्त दोनों प्रकार के ज्ञान को हम क्रमशः प्रथम
ज्ञान और द्वितीय ज्ञान भी कह सकते हैं। आध्यात्मिक एवं भौतिक, दोनों प्रकार के
ज्ञान में इस तरह की बात कर सकते हैं।
‘स्व’ को जाने-समझे बगैर सचराचर को जानना-ब्रह्मांड को
समझना, सृष्टि-समाज को पहचानना लगभग असंभव। पहले हमें हमारे भीतर के ‘स्व’ का,
स्वयं का बोध जरूरी। इसके बिना तो बाहरी सत्यों का उद्घाटन
संभव ही नहीं। महान यूनानी दार्शनिक अरस्तू के शब्द हैं – स्वयं को जानना
समस्त ज्ञान का आरंभ है।
यह बताने की जरूरत नहीं है कि समस्त जीवसृष्टि में,
सृष्टि के करोड़ों प्राणियों में श्रेष्ठ व सबसे ताकतवर प्राणी
मनुष्य है। कारण है उसके पास सोचने-विचारने की क्षमता है। उसके पास बुद्धि है।
उसके पास भाषा है। आज मानव जीवन की सारी उपलब्धियाँ – दर्शन,
शिक्षा, विद्या, अध्यात्म, साहित्य, व्याकरण, ज्योतिष, विज्ञान, कला, राजनीति आदि आदि सब इस बुद्धि एवं विचार-संपदा से और भाषा से
उपजा है।
ज्ञान की आधारभूमि विचार ही है। कहा भी गया है कि विचारों
का संचय ही ज्ञान है। लेकिन किसी विषय संबंधी विचार के लिए पहले उस विषय के प्रति-उस
वस्तु के प्रति लगाव, उसके वास्तविक रूप को जानने के लिए उसके प्रति स्वयं की
प्रतिबद्धता व समर्पित भाव का होना जरूरी है। परोक्ष की अपेक्षा प्रत्यक्ष अनुभव ज्यादा
जरूरी। क्योंकि ज्ञान की पहचान महज तथ्यों- सूचनाओं को अलग-अलग स्रोतों से एकत्र
करने तक ही मर्यादित नहीं है, अपितु इसके साथ मनुष्य की स्वयं की समझ तथा चिंतन से, उनके
तर्कों से,उनकी विश्लेषणात्मक क्षमता से उसकी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त
बौद्धिक अनुभव से बनी-गढ़ी महत्त्वपूर्ण धरणाएँ
भी हैं।
मनुष्य की सकारात्मक सोच उसकी अज्ञानता को दूर करने का
प्रथम उपाय है। एक रिसर्चर के मतानुसार – “Ten minutes positive thinking counter
balances all the negativities of your whole
day.”
ज्ञान के सृजन-अर्जन तथा उसके प्रयोग-उपयोग को लेकर बिल्स ने ज्ञान के
मुख्यतः तीन चरण बताए हैं – 1. विकासात्मक चरण,
जिसमें ज्ञान विविध प्रकार की संस्थाओं,
समाजों एवं संस्कृतियों द्वारा उत्पन्न किया जाता है। 2. शैक्षिक
चरण,
इसमें शिक्षा के माध्यम से छात्रों को ज्ञान सिखाया जाता
है। 3. व्यावहारिक चरण, ज्ञान के इस चरण में अर्जित किए गए ज्ञान का प्रयोग-उपयोग
वर्तमान की समस्याओं का समाधान करने में किया जाता है।
ज्ञान का क्षेत्र असीमित है। हर विषय व वस्तु ज्ञानमय है।
किंतु मनुष्य का ज्ञान, बड़े से बडे ज्ञानी पुरुष का भी ज्ञान सीमित होता है। कोई
और कई विशेषज्ञ हो सकते हैं, बहुज्ञ हो सकते हैं, परंतु सर्वज्ञ होना संभव नहीं है। किसी ने वैसे तो बड़ी सामान्य
बात कही पर बात बड़ी सत्य कही कि हम जो जानते हैं वो बूँद के बराबर है और जो नहीं
जानते वो महासागर के समान है। हाँ, हमारे यहाँ इस बारे में ईश्वर को लेकर धारणा थोड़ी अलग है। मुंडकोपनिषद्
में कथन है –
यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमय तयः ।
–
भगवान सबकुछ जानने वाले और सर्वज्ञ हैं।
सृष्टि (मानव संस्कृति) के उद्भव से वर्तमान तक मनुष्य नये-नये
विषयों के ज्ञानार्जन का अभिलाषी रहा है। जीवन से जुड़े हुए धर्म,
दर्शन, कला, व्याकरण, विज्ञान, वाणिज्य, ज्योतिष, भूगोल, आयुर्वेद आदि अनेकों विषयों के ज्ञान को अलग-अलग माध्यमों
से व्यक्त होता रहा है। विशेषत: भारतीय ज्ञान परंपरा के संदर्भ में ज्ञान की
महत्ता और उपयोगिता को हमारी बाहरी भौतिक सुख-सुविधाओं की अपेक्षा मूलतः हमारे
नैतिक,
वैचारिक, आध्यात्मिक, शारीरिक-मानसिक स्वस्थता व क्षमता के विकास तथा लोकहित- लोककल्याण
के संदर्भ में देखा गया है। “ ज्ञान का
लक्ष्य मनुष्य की भौतिक सुविधाओं का संवर्धन नहीं है वरन् सबके कल्याण के लिए व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं
का विकास करना है, यह वह अवस्था है, जो ज्ञान को अंतिम एवं निर्णायक रूप में
व्याख्यायित करती है, भगवान बुद्ध ने इसे ‘निर्वाण’ कहा है, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं वरन् समस्त मनुष्य समाज की पीड़ाओं
का निर्वाण’।” (राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की गंगोत्री भारतीय ज्ञान परंपरा,सं. अनिल कुमार
राय, पृ. 17)
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