बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

खण्ड-1

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मध्यकालीन भारत :  ज्ञान एवं शिक्षा के कुछेक संदर्भ

वैसे भारतीय इतिहास का मध्य‌काल बहुत कुछ परिवर्तन का काल रहा। यह परिवर्तन राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, कला व साहित्य से संबद्ध आदि स्थितियों-परिस्थितियों में देखा जा सकता है। इस परिवर्तन काल में यह तथ्य हमारा ध्यान आकृष्ट करता है कि ज्ञान, भक्ति, कला, साहित्य को लेकर इस समयावधि में भी भारत की छवि बड़ी उजली रही।

भाव-संवेदन, सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ, काव्यकला, भाषिक वैशिष्ट्‌य आदि कई संदर्भों के लिहाज़ से अमीर खुसरो सिर्फ हिन्दी साहित्य की ही नहीं बल्कि भारतीय साहित्य की एक महती उपलब्धि रही है। साहित्यिक विषयों को लेकर अपने कृतित्त्व के साथ-साथ इस कवि ने मध्यकालीन भारत की विशेषताओं को लेकर जो कुछ भी थोड़ा-बहुत कहा-लिखा है यह मध्यकालीन भारत की ज्ञान संपन्नता तथा अन्य विषयों में समृद्धि को जानने-समझने में भी सहायक कहा जा सकता है। “पृथ्वीराज की पराजय सन् 1192 ई. में हुई और अमीर खुसरो का जन्म वर्ष सन् 1253 ई० माना जाता है; यानी भारत के इस्लामी राज्य के आरम्भ के केवल इकसठ साल बाद भारत ने उस मुसलमान को जन्म दि‌या जो हिन्दुस्तान के राष्ट्रवादी मुसलमानों का अग्रणी महापुरुष था ।...... खुसरो ने भारत की प्रशंसा केवल देशभक्ति के जोश में आकर नहीं लिखी, प्रत्युत इसके लिए उन्होंने कई ठोस प्रमाण भी दिए हैं। उनके विवरण से यह पता चलता है कि चौदहवीं शताब्दी में भी भारत संसार का सबसे अग्रणी देश था।  खुसरो की दृष्टि में भारत इसलिए वंदनीय है कि – 1. इस देश के लोगों में ज्ञान और विविध विद्याओं का प्रचार है। 2. विश्व की सभी भाषाएँ भारत‌वासी शुद्धता से बोल सकते हैं। 3. ज्ञान सीखने को बाहर के लोगों को भारत आना पड़ता है, किंतु भारतवासियों को बाहर जाना नहीं पड़ता। 4. अंकों का विकास भारत में हुआ। विशेषत: शून्य का प्रतीक भारत का आविष्कार है। 5. शतरंज के खेल का आविष्कारकर्ता भारतवर्ष है। 6. भारतीय संगीत अन्य सभी देशों के संगीत से कहीं उच्चकोटि का है। 7. संगीत पर यहाँ केवल मनुष्य ही नहीं झूमते, उसे सुनकर यहाँ के हरिणों को भी स्तम्भ हो जाता है। (संस्कृति की चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, पृ. 244)

ज्ञान, भक्ति, प्रेम, भाईचारा तथा सामाजिक सरोकार के संदर्भ में मध्यकालीन भक्ति आंदोलन और इस आंदोलन की उपज भक्तों-संतों की वाणी का भारतीय समाज व संस्कृति, खासकर भक्ति, ज्ञान व समाजसुधार की भारतीय परंपरा में विशेष अवदान रहा है। हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचक और हिन्दी भक्तिकाव्य के मर्मज्ञ डॉ. शिवकुमार मिश्र के मतानुसार “मध्यकालीन भक्ति आंदोलन अपने समय का एक महान सांस्कृतिक आंदोलन था। अपने युग संदर्भ में वह एक क्रांतिकारी सामाजिक आंदोलन तथा जन-आंदोलन था। भक्ति के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ इस आंदोलन की क्रांतिकारी लोकोन्मुखता से सामाजिक विषमताओं व विविध प्रश्नों को भक्तों- संतों की वाणी के माध्यम से मुखर किया।”

हिन्दी ही नहीं, बल्कि लगभग सभी भारतीय भाषाओं के मध्यकालीन काव्य से गुजरने पर भक्ति, ज्ञान, दर्शन, समाज सुधार जैसे विषयों को हम इसमें बराबर देख सकते हैं। इस काल के जितने भी संत- भक्त कवि हुए, सभी ने मनुष्यता को सर्वोपरि तत्त्व के रूप में प्रचारित किया। विविध धर्म संप्रदायों, विचारधाराओं, दर्शनों के इन कवियों की वाणी सामाजिकों के लिए जितनी आनंदकर रही उतनी ही जीवनोपयोगी । कबीरदास, नामदेव, गुरुनानक, तुकाराम, दादू, रैदास, सूरदास, तुलसीदास, नरसी मेहता, मीराबाई जैसे कवियों ने इस भक्ति आंदोलन को जो भक्ति के साथ-साथ ज्ञान, संस्कृति, समाजसुधार का भी आंदोलन था, पूरे भारत में प्रचारित किया। यह एक ऐसा आंदोलन था जिससे समस्त भारत में एक नई चेतना व जागृति पैदा हुई। हमने पहले भी कहा है कि भक्तिकाल के कवियों की वाणी में धर्म, भक्ति, दर्शन, सैद्धांतिक व्यावहारिक ज्ञान के साथ साथ समाज सुधार व समाज को उपदेश देने की भावना भी प्रबल रही। 

मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में नीति के तथ्यों व उपदेश कथनों की मात्रा भी कम नहीं है। कबीर, नानक, दादू, जायसी, तुलसी के काव्यों में यत्र-तत्र नीति संबंधी उपदेश तो है ही, लेकिन इस काल में कुछ ऐसे भी कवि हैं जिन्हों ने नीतिकाव्य की ही रचना की है। मसलन – रहीम ।

यदि शिक्षा और शिक्षा प्रणाली की दृष्टि से देखें तो मध्यकालीन भारत में धर्म, दर्शन, कला, गणित, चिकित्सा प्रभृति विषयों की शिक्षा दी जाती थी और शिक्षा का उद्देश्य भी वही था – व्यक्ति के आध्यात्मिक, नैतिक और बौद्धिक विकास। इस काल में इस्लामी शासन के दरमियान कई नये शिक्षा केन्द्रों और मदरसों का निर्माण हुआ। साथ ही मध्यकाल के पूर्व यानी प्राचीन काल में ही नहीं अपितु थोडी-बहुत गुरु‌कुल वाली प्रणाली मध्यकाल में भी, यहाँ तक कि आधुनिक काल के प्रारंभ तक, लगभग 1850 तक चलती रही, परंतु इसके बाद मैकाले द्वारा शिक्षा के प्रचार के साथ इस प्रणाली का प्रभाव थोड़ा कम होता गया। वैसे तो इस प्राचीन शिक्षा प्रणाली का थोडा बहुत प्रचार-विस्तार आज भी बना रहा है।

मध्यकाल में कहीं कहीं ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जिनमें विशेषत: राजकुमारों को तथा बड़े संपन्न-समृद्ध घरानों के बच्चों को उनके महलों में, घरों में ही गुरुओं-शिक्षकों-प्रशिक्षकों द्वारा राजनीति, भाषा, साहित्य, कला, इतिहास, व्याकरण, कानून जैसे अनेक विषयों की शिक्षा दी जाती थी।

भक्ति आंदोलन व मध्यकालीन काव्य के साथ इस समयावधि में काव्येतर कलाएँ - वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्र कला और संगीत कला का भी अच्छा खासा विकास हुआ। इस संदर्भ में डॉ. नगेन्द्र संपादित हिन्दी साहित्य का इतिहाससे कुछ बातें दृष्टव्य - मध्यकालीन वास्तुक‌ला में हिन्दू-मुस्लिम सम्पर्क का एक परिणाम उसके नये मोडों में लक्षित हुआ। मध्यकालीन देव मूर्तियाँ प्राय: परंपरागत हुआ करती थीं, किंतु भक्ति आंदोलन के प्रभाव से इनमें वैविध्य आया और क्रमशः करुण, कोमल तथा सरस अभिव्यक्तियों को विस्तार मिलता गया। विशेषतः मध्यकालीन चित्रों में विभिन्न रसों को अभिव्यक्ति मिली है न केवल मानवीय चित्रों में, अपितु प्राकृतिक चित्रों में भी। मध्यकालीन भारतीय संगीत का इतिहास अधिकतर संगीत-घरानों का इतिहास है। इस काल में भारतीय संगीत और ईरानी संगीत के मेलजोल से एक नया मोड़ आया।

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