सोमवार, 30 सितंबर 2024

आलेख

संघर्षरत :आदिवासी वर्ग

रूपल उपाध्याय

भारतीय संस्कृति कोष के अनुसार आर्य और द्रविड़ इन दो मानव समाजों को छोड़कर इनसे भी पूर्व भारत में रहने वाले अथवा दूसरे देश से आकर इन वन -पर्वतों में रहने वाले ये मानव समूह आदिवासी कहलाते हैं। इन्हें आदिवासी, वनवासी,गिरिजन और सीमांतवासी आदि नाम दिए गए हैं।विमर्श का अर्थ किसी बात पर विचार करना या उसके संबंध में परामर्श देना माना जाता है ।

आदिवासी समाज का इतिहास उतना ही पुराना माना जाएगा जितना की मानव की उत्पत्ति का। मानव की उत्पत्ति के साथ ही आदिवासी समाज की सभ्यता का इतिहास जुड़ा है। आदिवासी जाति पाँच हज़ार वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता और संस्कृति को संजोए हुए हैं। रामदयाल मुंडा का ग्रंथ "आदिधरम" आदिवासी समाज की प्राचीनता को दर्शाता है। आज भूमंडलीकरण का अश्वमेध यज्ञ निर्बाध रूप से चल रहा है जिसमें मूल्यों,अवधारणाओं एवं संस्कृति के आयामों की आहुति दी जा रही है।औद्योगिक क्रांति जहाँ अन्य सामाजिक वर्गों के लिए नए अवसर लेकर आई वही यह वनवासियों के विस्थापन का दंश बन समक्ष आई ।

आदिवासी वर्ग अपना सरल एवं साधारण जीवन व्यतीत करता आया है ।यह प्रकृति के सहचर हैं।पेड़ -पौधे, झील ,सूर्य ,चंद्र ,नदी ,झरना ,सरोवर, कंद-मूल, भेड़ -बकरी चराना, मेहनत करके अपना जीवनयापन करना और नृत्य- संगीत एवं महुआ रसपान करके अपनी थकान मिटाना यह इनकी दिनचर्या के अंतर्गत आतीं थी किंतु जैसे -जैसे वृक्ष कटे वैसे- वैसे इनके जीवन से इनके अधिकार भी कटते गए ।यह छिन्न-भिन्न होकर यहाँ- वहाँ जाने लगे।आदिवासी जाति की शाखाएँ लगभग हर क्षेत्र विशेष में स्थित हैं। जैसे- उत्तर और पूर्वोत्तर क्षेत्र में भेरिया,नागा व थारू आदि जनजातियाँ बसती है ,वही मध्यक्षेत्र में संथाल ,मुंडा ,भील व गोंड आदि जनजातियाँ निवास करती है ।वहीं पश्चिमक्षेत्र में कटकरी तथा दक्षिण क्षेत्र में कोटा ,इरूला आदि जनजातियों निवास करती हैं। "भारत में आदिवासियों की अनेकों जातियाँ, विभिन्न समुदाय अनादिकाल से चले आ रहे हैं। आज भी उनके वंशज अपनी परंपरा का पूर्ण रूपेण निर्वाह कर रहे हैं।आदिवासियों के इन जातियों में कोल,किरात,भील,उरांव,कोरबा,बोडा ,संथाल,कोकरू, गोंड, मुंडा,कबूतरा,वारली,गुलगुलिया,नागा,धारूँ , खोंड ,मीणा आदि प्रमुख है ।"1 समाज के ठेकेदारों ने इन्हें सदैव मुख्यसीमा से बाहर का ही रास्ता दिखाया है।इन आदिवासी समाज वर्ग के पास इनकी खुद की एक सत्ता थी। यह सत्ता स्वतंत्र थी जो प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ी थी ।जिन पर उनको आधिपत्य प्राप्त था किंतु साम्राज्यवादी ताकतों तथा औपनिवेशीकरण के चलते इन आदिवासी वर्ग पर शोषण का कहर बरस पड़ा।जिसका संघर्ष वे अनादि काल से करते आ रहे हैं।

    आदिवासी जनजातियों में स्थित माँ एवं उसके बच्चे का वर्णन भवानी प्रसाद मिश्र ने इस प्रकार किया है -

" गाँव ...इसमें झोपड़ी है,  घर नहीं है।

 झोपड़ियों के पटकियाँ है,दर नहीं है।

 धूल उड़ती है, धुएँ से दम घूटा है ।

मानवों के हाथों से मानव लूटा है।

 सो रहा है शिशु कि माँ चक्की लिए है।

 पेट पापी के लिए पक्की लिए है।"2

        पर्यावरण से लेकर नर -नारी,संस्कृति,कला,नृत्य,संगीत ,सभ्यता,परिवेश तथा आदिवासी समाज के हर पक्षों को क्षति पहुँचाई गई है।यह संघर्ष आदिवासी समाज के अस्तित्व एवं अस्मिता का है।आदिवासी समाज विस्थापन और अस्मिता के अधिकारों के लिए आज भी संघर्षरत है।

        यह वनवासी मानव मन के एक साफ दर्पण का पर्याय बन कर हमारे समक्ष आते हैं। यह आदिवासी वर्ग हमें बहुत कुछ सिखाते हैं। प्रकृति से जुड़े हर तत्व का पूजनीय स्थान बताना हो ,चाहे सूर्य ,तारे ,नक्षत्र हो ,नदी हो, झरने हो ,ज़मीन ,आसमान हो इन सब का पूजनीय स्वरूप की नींव इस वर्ग ने रखी। पशुपालन व्यवस्था हो या खेती-बाड़ी, चित्र लिपि हो ,नृत्य -संगीत हो इन सब प्रवृत्तियों के यह सूत्रधार है।यह आत्मनिर्भरता सिखाते हैं ,अपने अधिकारों के प्रति सतर्कता सिखाते हैं,अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाते हैं, एकता का पाठ सिखाते हैं,प्रकृति के सानिध्य की गरिमा सिखाते हैं, प्रकृति एवं मानव के अन्तर्सम्बन्धों के जरिए नए ज्ञान की शिक्षा देते हैं,अपनी अस्मिता व गौरव की रक्षा करना सिखाते हैं, यह भारतीय संस्कृति की नींव को उजागर करना सिखाते हैं ,यह ईश्वर द्वारा सौंपी हुई मानवीय मूल्यों का सम्मान करना सिखाते हैं ।

        यह वर्ग किसी भी समुदाय से कोरी संवेदनशीलता की अपेक्षा नहीं रखता। यह अपना अधिकार जानता है व जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्ति की प्रतीक्षा करता है। रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित "रश्मिरथी" के तृतीय सर्ग में हम भगवान कृष्ण के मुख से यह शब्द सुनते हैं -

'दो न्याय अगर तो आधा दो,

पर, इसमें भी यदि बाधा हो,

तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

रक्खो अपनी धरती तमाम।

हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!'

        यह इस बात का द्योतक है कि जब भगवान कृष्ण भी मनुष्य का अवतार लेकर पृथ्वी पर आते हैं तो भगवान को भी अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठानी पड़ी थी।अपनी माँग को सामने रखना पड़ा और इसी का पर्याय हमें आदिवासी विमर्श में साफ़- साफ़ दिखता है।डॉ.मायाप्रकाश पांडेय इस विषय में लिखते हैं कि -"आदिवासियों का विरोध सत्ता और राजकाज से नहीं था उनका विरोध तो साम्राज्यवादी व्यवस्था व सामंती व्यवस्था के खिलाफ था।वे अपने विरुद्ध हो रहे शोषण, अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठा रहे थे ।वे समाज में समान रूप से जी सकें, उनके साथ भी समाज में आदमी की तरह व्यवहार किया जाए, उन्हें भी मानव समझा जाए ,आज भी उनका संघर्ष इसी के लिए है।"3

        अनेकता में एकता की मिसाल कायम करते हुए भारतवर्ष में आदिवासी वर्ग अपने अधिकारों की माँग करता है। विभिन्न वर्गों में विभक्त होते हुए वर्ग वर्ण में परिवर्तित हुए, वर्णों से जाती ,उपजातियाँ तथा प्रजातियाँ बनी और हर वर्ग,समाज, जाति ,प्रजाति  ,उपजाति का अपना स्वतंत्र अस्तित्व रहता है। उनका रहन-सहन ,परिवेश,विचारधाराएँ मान्यताएँ,सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों का विकास भी अलग-अलग होता है । डॉ.कल्पना  गवली लिखतीं हैं कि -"विश्व के अनेक भागों में आज भी ऐसी आदिवासी जन-जातियाँ पाई जाती है जो संभवतःवर्तमान समय में भी 'पाषाणयुग' में रह रही हैं। धरती के प्रत्येक भाग में सभ्यता का विकास समान गति से नहीं हुआ। कहीं पहले और कहीं बाद में आदिवासी मानव -समाज सभ्यता की ओर बढ़े ।उन्होंने खेती करना सीखा, पशुपालन एवं अपनी बस्तियाँ बसायी।"4

        कई रचनाकारों ने आदिवासी समुदाय पर अपनी सशक्त विचारों की कलम चला कर समाज को एक कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है और यह प्रश्न उपस्थित किया है कि कब तक यह आदिवासी वर्ग अपने अधिकारों से अपने सामान्य जीवन जीने के हक से वंचित रहेगा? कबीरदास जी कहते हैं कि-'जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।' मनुष्य सदैव से संवेदनशील प्राणी रहा है इसीलिए क्रोध के साथ-साथ वात्सल्य भाव की अनुभूति तथा हर भावों को स्वीकार करके उस पर अपनी प्रतिक्रिया करने की प्रयास आदि  सब स्वाभाविक प्रक्रिया के अंतर्गत आती है। समय-समय पर कई कवियों ने यातना पीड़ित वर्ग के लिए आशा रूपी द्वार खोले हैं ।लीलाधर जगूड़ी जी लिखते हैं कि-

 "मैं वहाँ तुम्हारे दिमाग में

जहाँ एक मरुस्थल है

आना चाहता हूँ

मैं आऊँगा

मगर उस तरह नहीं

बर्बर लोग जैसे कि पास आते हैं

उस तरह भी नहीं

गोली जैसे कि निशाने पर लगती है।

 मैं आऊँगा

आऊँगा तो उस तरह

जैसे कि हारे हुए

थके हुए में दम आता है।"5

        समय-समय पर कई हिंदी साहित्यकारों ने आदिवासी वर्ग के विभिन्न प्रश्नों को विभिन्न दृष्टिकोण से उनके कल्याण की भावना को ध्यान में रखते हुए अपनी कलम रूपी शक्ति का परचम लहराया है। उदाहरण स्वरूप - गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'रामचरितमानस' में निषादराज एवं शबरी का स्नेह वर्णन। महाश्वेता देवी-'अग्निगर्भ',मैत्रेयी पुष्पा -'इदन्नमम',संजीव-'धार',वृंदावनलाल शर्मा-'कचनार',फणीश्वरनाथ रेणु -'मैला आँचल',नागार्जुन-'वरुण के बेटे', डॉ.मायाप्रकाश पांडेय- 'हाशिये का समाज एवं आदिवासी साहित्य',रांगेय राघव -'कब तक पुकारूँ',डॉ.कल्पना गवली -'आदिवासी संस्कृति तथा मौखिक साहित्य' इत्यादि अनेक रचनाकारों ने अनेक विधाओं में एवं अनेक संदर्भों में आदिवासी समाज की पीड़ा, वेदना तथा प्रश्नों को अपने कलम द्वारा उजागर करने का प्रयत्न किया है।द्रोणाचार्य द्वारा भील आदिवासी जाति के एकलव्य से गुरु दक्षिणा में अंगूठा माँग कर इन जातियों के साथ चले आ रहे छल कपट का प्रमाण दिया। भगवानदास पटेल द्वारा संकलित 'भीलों का भारथ' यह भील लोकगीतों पर आधारित है। जिसमें महाभारत की कथाओं का अलग दृष्टिकोण से वर्णन किया गया है।भुखमरी ,गरीबी,कुपोषण,बीमारी ,शोषण,अशिक्षा, उपेक्षा और विस्थापन का शिकार यह वर्ग बना है। सत्ताधारीओं के पास इन सभी जानकारियों की कोई कमी नहीं है किंतु राजनैतिक ,सामाजिक, भौगोलिक,आर्थिक ऐसे कई कारणों के दुष्प्रभाव से छिन्न-भिन्न होकर आदिवासी समाज अपने अधिकारों को लेकर सदैव भारतीय समाज के सामंती ढाँचे के हाशिए पर रहा है। "आदिवासी समाज दोहरी लड़ाई लड़ रहा है एक तो वह अपनों के बीच अपने पिछड़ेपन से और दूसरी बाहर की दुनिया से जो उसे आगे बढ़ने से रोक रहे हैं ।आदिवासी समाज में से बुद्धिजीवी, लेखक ,साहित्यकार ,चिंतक निकल कर आ रहे हैं और अपने समाज को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। अन्याय ,अत्याचार ,ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं ।अपने अधिकारों की माँग कर रहे हैं। सरकार भी आदिवासी जनजातियों के विकास के लिए अनेकों परियोजनाएँ चला रही है जिससे लाभान्वित होकर यह समाज कष्टमुक्त हो रहा है। सरकार भी इनकी सुरक्षा के प्रति सजग है ,उनके विकास के लिए हरसंभव कदम उठाए जा रहे हैं ।सभी के प्रयत्नों से यह आदिवासी समाज जल्द ही मुख्यधारा में आएगा और सभी की तरह वह भी अपनी आवाज़ बुलंद करेगा।"6

    डॉ. मायाप्रकाश पांडेय जी के इस आशावादी दृष्टिकोण का समर्थन देते हुए मैं अपने विचारों को विराम देती हूँ ।

संदर्भ:

हाशिये का समाज एवं आदिवासी साहित्य- डॉ.मायाप्रकाश पांडेय, पृष्ठ संख्या-29, संस्करण :प्रथम 2022

समकालीन सृजन ,भवानी प्रसाद मिश्र के आयाम, संपादक -डॉ. शंभुनाथ, पृष्ठ संख्या- 249

हाशिये का समाज एवं आदिवासी साहित्य- डॉ.मायाप्रकाश पांडेय, पृष्ठ संख्या-28, संस्करण :प्रथम 2022

आदिवासी संस्कृति तथा मौखिक साहित्य- डॉ. कल्पना गवली, प्रस्तावना, पृष्ठ संख्या -11

हिंदी- कक्षा 9 आऊँगा (कविता)- लीलाधर जगूड़ी, पृष्ठ संख्या- 31 ,गुजरात राज्य शाला पाठ्यपुस्तक मंडल गांधीनगर 382010

हाशिये का समाज एवं आदिवासी साहित्य- डॉ.मायाप्रकाश पांडेय, लेखकीय, पृष्ठ संख्या-22, संस्करण :प्रथम 2022


रूपल उपाध्याय

शोधार्थिनी

हिंदी विभाग, कला संकाय ,

महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय ,बड़ौदा, गुजरात

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