मानवता की संस्कृति
: कामायनी
कुलदीप आशकिरण
कामायनी एक प्रतीकात्मक
काव्य है, जिसमें प्रस्तुत कथा के समानान्तर अप्रस्तुत कथा भी लगातार चलती रहती है और इसी
के माध्यम से जयशंकर प्रसादने मानवमन तथा 'मानवता की संस्कृति'
के विविध पक्षों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है । या कहा जा सकता
है कि प्रसादजी ने मानवमन अर्थात् मानवता के विकास की क्रमिक कहानी प्रस्तुत की है
। शायद यही कारण है कि यह कृति छायावादयुग की सर्वोत्तम कृतियों में से एक है । इस
कृति के प्रणयन,चिन्ता से आनंद तक की यात्रा में मानव सृष्टि के आदि से अबतक
के जीवन के मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक विकास को पिरोया है ।
आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयीने अपने एक निबन्ध में प्रसादजी को
'मानवीय भावनाओं का कवि'
कहा है । इनका कहना है कि मानवता की शक्ति और सम्भावना के प्रति
इतनी सुदृढ़ आस्था के कारण ही कामायनी महाकाव्य दुखान्त नहीं बना है । प्रसाद के मन
में मानव के प्रति प्रेम और उसकी पहुँच के प्रति अगाध विश्वास था । इसीलिए उनका सन्देश
मानवता की संस्कृति के उत्थान है ।
प्रसादजी कामायनी के सभी
सर्गों में 'मानवता की संस्कृति' के विविध
पक्षों का क्रमिक रूप से विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं । सबसे पहले यह मानवमन में उत्पन्न
होने वाली चिन्ता का यथार्थ रूप प्रस्तुत करते हैं। वस्तुतः अभावग्रस्त प्राणी ही चिन्तातुर
होता है, इसीलिए कवि नेचिन्ता को अभाव की चपल बालिका कहा है । कामायनी में मनु चिन्ता की
स्थित में है । क्योंकि उनका समस्त वैभव खो गया है और इस आभाव से चिन्ता और चिन्ता
से दुःख बड़ा ही विचित्र होता है जिसे प्रसादजी निम्न शब्दों में पिरोते हैं
-
"चिन्ता करता हूँ मैं जितनी उस अतीत के सुख की,
उतनी ही अनंत में बनती
जाती रेखाएँ दुःख की।"
प्रसाद इसी महाकाव्य में
यह भी दिखाने का प्रयत्न करते हैं कि मानवीय चिन्ता के अनेक नाम है किन्तु हर दशा में
वह त्याज्य है -
"बुध्दि, मनीषा, मति आशा, चिन्ता तेरे कितने नाम।
अरी पाप,
है,
तूजा,
चलजा,
यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।"
कामायनी में प्रसादजी
ने प्रलय को दर्शाया है साथ ही यह भी स्पष्ट किया है कि प्रलय का कारण मानवीय भोग विलास
ही थे, जिससे मानवीय संस्कृति का ह्रास हुआ । अतः एक दिन इसका नाश अवश्यम्भावी
है । उस महानाश काल में सुख के अभाव से चिन्ता का प्रादुर्भाव होगा
"ओ चिन्ता की पहली रेखा अरी विश्व वन की व्याली।
ज्वालामुखी स्फोट से भीषण
प्रथम कंप सीमत वाली॥"
मानवता की संस्कृति का
एक पक्ष यह भी है कि कुछ समय तक चिन्ता में डूबे रहने के पश्चात मन में धीरे-धीरे आशा उत्पन्न होने लगती है, क्योंकि मानव-मन आशा और निराशा से ही संचारित होता है । यह आशा का संचार ईश्वर की सत्ता पर विश्वास
के कारण उत्पन्न होता हैー
“देव न थे हम,
और नये हैं,
सब परिवर्तन के पुतले,
हाँ कि गर्वरथ में तुरंग
सा, जितना जो चाहे जुतले।”
वस्तुतः आशा मानवतापूर्ण
एवं सरल होती है, जिसके
कारण मानव का हृदय अधीर हो उठता है । अर्थात जीवन में चिंता के कारण उत्पन्न विराग
को आशा समाप्त कर देती है -
"मैं हूँ यह वरदान सुदृढ़ क्यों लगा गूँजने कानों में।
मैं भी कहने लगा मैं रहूँ
शाश्वत नभ के गानों में।।"
आशा के पश्चात धीरे-धीरे श्रद्धा व आस्था के भाव उत्पन्न होने लगते हैं जो मानवीय
संस्कृति के महत्वपूर्ण पक्षों में है । प्रसादजी कामायनी में दिखाते हैं कि मनु का
हृदय गतिशील हो जाता है और उसमें प्रेम, वेदना, भ्रांति आदि भावों का उदय होता है । इससे श्रद्धा का संचार होता
है और मनु को सुख की झलक मिलने लगती है–
"नीलपरिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखिल अंग ।
खिला हो ज्यों बिजली का
फूल मेघ बन बीच गुलाबी रंग।।"
मनु के खिन्न एवं हतास
हृदय को जब श्रद्धा का सहारा मिला तो श्रद्धा ने सुख और दुःख का रहस्य समझा दिया ।
इसे प्रसादजी काव्य में कुछ इस तरह पिरोते हैं कि
-
"दुख की पिछली रजनी बीच विकसता सुख का नवल प्रभात ।
एक पर दाव हझी नानील छिपाए
है जिसमें सुखगात॥"
मनुष्य की संस्कृति का
एक आयाम यह भी है कि बाल्यावस्था में श्रद्धा जैसे सहज भावों की उपस्थित होती है,
किन्तु जैसे- जैसे मन किशोरावस्थाव युवावस्था में आता है,
उसमें कामववासना जैसे भाव स्वभावतः उत्पन्न होने लगते हैं जिसकी
जयशंकर प्रसाद कामायनी में विषद व्याख्या करते हुए कहते हैं-
"विकल वासना के प्रतिनिधि के मुरझाए और चले गए।
आह जले अपनी ज्वाला में
फिर वे जल में गले गए॥"
इतना ही नहीं प्रसाद जी
दिखाते है कि 'इड़ा' के संसर्ग में जाकर मनु फिर काम के शिकार होतें है । इडा का
रूप मदिरापान कर वे कह उठते हैं -
'प्रजा नहीं तुम मेरी रानी मुझे न भ्रम में डालो।'
किंतु यही स्थिति जब श्रद्धा
के साथ आती है तो श्रद्धा के माध्यम से कवि काम को बहुत उच्च बताते हुए कह उठते हैं
-
"काम मंगल से मण्डित श्रेय सर्ग इच्छा का परिणाम ।
तिरस्कार कर उनको तुम
भूल बनाते हुए असफल भव धाम।।"
मनाव मन की यह महत्वपूर्ण
विशेषता रही है कि जब किशोरावास्था में वासनाजन्य भाव तो उत्पन्न होते है किन्तु इस
वासनाजन्य भाव के साथ लज्जा का भी समावेश रहता है,
जिसे प्रसादजी ने कामायनी में लज्जा के इस भाव को निम्नप्रकार
से दिखाते हैं -
"वैसी ही माया में लिपटी अधरों पर उगली धरे हुए,
माधव के सरस कुतूहल का
आँखों में पानी भरे हुए ।
पुलकित कदम्ब की माला
सी पहना देती हो अंतर में,
झुक जाती है मन की डाली
अपनी पल भरता के उरमें।
काम,वासना भौर लज्जा जैसे भावों से मुक्त होकर मनुष्य बाहरी जीवन
में भी उपलब्धियाँ हासिल करना चाहता है । साथ ही उसके अधिकार की भावना बढ़ती जाती है
और वह श्रद्धा जैसे भावों से वंचित होकर अति बौद्धिकता व तार्किकता को महत्व देने लगता
है । कामायनी में यह पक्ष कर्म, ईष्या तथा इड़ा सर्गों के रूप में दृष्टव्य है ।
वस्तुतः मन की अबाधित
भावना हर वस्तु को नियंत्रित कर लेना चाहती है,
जिसके परिणाम स्वरूप उसे कठोर संघर्षों का भी सामना करना पड़ता
है और पराजय भी झेलनी पड़ती है । यह मानवीय संस्कृति का महत्वपूर्ण पक्ष है । कामायनी
में इसे संघर्ष व निर्वेद के रूप देखा जा सकता है । प्रसादजी मनु के माध्यम से जिसे
अपने कर्मों का फल मिला है को काव्य में पिरोते हुए कर्म फल को दिखाते है -
" सोच रहे थे जीवन सुख है नयह विकट के पहेली है,
भाग अरे मनु इन्द्रजाल
से कितनी व्यथा न झेली है।"
कामायनी में मानवीय संस्कृति
के ये पक्ष भी उद्घाटित किए गए हैं कि
"सांसारिक द्वंद्वों में लम्बे समय
तक उलझे रहने के बाद मन यह समझ पाता है कि विषमताओं का अन्तिम समाधान आध्यात्मिक उन्नयन
में है । कामायनी के अंतिम सर्गों दर्शन, रहस्य और आनंद में इस पक्ष की ओर संकेत किया गया है।
प्रसादजी यह भी स्पष्ट
करते हैं कि वासना का विचार हटते ही श्रद्धा को आनंद का पाठ पढ़ाने का मौका मिलता है
और वह उन्हें इच्छा कर्मज्ञान के समन्वय का उपदेश दिलाते हैं
-
"ज्ञान दूर कुछ किया भिन्न है इच्छा क्यों पूरी हो मन की,
एक दूसरे से मिल न सकेय
ह विडंबना है जीवन की।"
अंततः कहा जा सकता है
कि कामायनी में प्रसादजी ने 'मानवता की संस्कृति'
के विविध पक्षों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म कर्मो को पकड़ने वाली अपनी
कुशाग्र प्रतिभा के बल पर मानवीय भावनाओं का यथातथ्य विश्लेषण किया है । इस संदर्भ
में नंददुलारे बाजपेयीजी का यह कथन जो बिल्कुल सत्य है कि
'यह मनु और कामायनी की कथा तो है ही,
क्रियात्मक, बौद्धिक और भावात्मक विकास से सामंजस्य स्थापित करने का अपूर्ण
काव्यात्मक प्रयास भी है । यही नहीं, यदि हम और गहरे पैठे तो मानवप्रवृत्ति के शाश्वत स्वरूप की झलक
भी इसमें मिलेगी, को साधारण कवि इस कार्य में कदाचित सफल नही हो सकता ।'
कुलदीप आशकिरण
शोधार्थी- हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभविद्यानगर
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