फादर कामिल बुल्के की जन्म जयंती पर
सुरेश चौधरी
1968 की बात होगी मैं विज्ञान स्नातक के प्रथम वर्ष का छात्र था , हिंदी हमारे विषय मे नहीं थी केवल फिजिक्स केमिस्ट्री और मैथमेटिक्स । जमशेदपुर की कोआपरेटिव कॉलेज बड़ी कॉलेज मानी जाती थी छात्रों की संख्या के अनुसार भी और क्षेत्रफल के अनुसार भी। एक विभाग से दूसरे विभाग में हम साईकल से जाया करते थे फिर लाइब्रेरी, कैंटीन, कॉमन रूम इत्यादि इत्यादि सब अलग। राँची विश्वविद्यालय में हमारी कॉलेज पड़ती थी और हमारी कॉलेज के हिंदी के विभागाध्यक्ष डॉ सत्यदेव ओझा थे पतले दुबले लंबे , हर छात्र उनकी बहुत इज्जत करता था मेरे जैसा छात्र भी। राँची यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. फादर कामिल बुल्के थे वे जेवियर राँची के भी विभागाध्यक्ष थे।
उनका शब्द कोष नया-नया आया था और पूरे भारत में चर्चा का विषय
था। तभी एक नोटिस लगी कि फलां तारीख को थिएटर नंबर 4 में उनका व्यक्तव्य होगा जो विद्यार्थी सुनना चाहें समय से
पहले स्थान ग्रहण करें। हम कुछ विज्ञान के विद्यार्थी जिन्हें हिंदी से प्रेम था
वे भी गए। अच्छा रोबीला चेहरा दाढ़ी युक्त बोलने का अंदाज़ इतना प्रभावी की व्यक्ति
बर्बस आकर्षित हो जाये। रुक रुक कर शब्दों को चबा चबा कर बोलने का तरीका उनका की
हर शब्द स्पष्ट हृदय में उतरता जाए। उन्होंने बाल्मीकि रामायण और राम पर एक घण्टा
अपना व्यक्तव्य दिया कोई भ्रम नहीं की क्या बोल रहे हैं। आज भी वह व्यक्तव्य कानों
में गूँजता है। बहुत आख्यान तदुपरान्त सुने कई महात्माओं के भी सुने पर सीधे विषय
केंद्रित वैसे एक या दो ही सुने होंगे। कहते हैं विष्णुकांत शास्त्री जी का भी यही
अंदाज़ है पर मैंने उन्हें सामने कभी नहीं सुना हाँ रिकॉर्डिंग जरूर सुनी है। एक
भोपाल में मनोज कुमार श्रीवास्तव हैं उनका
व्यक्तव्य भी उतना ही आकर्षित किया था।
कुछ व्यक्तित्व जो यादों के झरोखों में बस जाते हैं उनमें
निसंदेह फादर कामिल बुल्के सर्वोच्च थे ।
सुरेश चौधरी
एकता हिबिसकस
56 क्रिस्टोफर रोड
कोलकाता 700046
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें