कुण्डलिया
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
1
दुनिया हसरत बो रही , मैंने बोए गीत,
खेती करने मैं चली, करी पीर से प्रीत ।
करी पीर से प्रीत, रोज़ सींचा अँसुवन से ,
निभे लगन से रीत, माँगती नित जीवन से ।
आए नन्हे फूल, नाचती मन की मुनिया ,
गई सभी दुख भूल, सजी गीतों की दुनिया ।
2
चलते-चलते रे पथिक , जले धूप में पाँव ,
पेड़ लगाए जो कभी , देंगें तुमको छाँव ।
देंगे तुमको छाँव , मिलेंगे मीठे फल भी ,
शीतल,
शुद्ध, समीर, आज भी, निश्चित कल भी ।
पँछी गाते गीत, गोद में इनकी पलते ,
सुनो मधुर संगीत , राह में चलते-चलते ।
3
विनती करती आपसे, सुनो लगाकर ध्यान,
कृषक वीर बस आप हो , धरती के भगवान ।
धरती के भगवान , खाद मत ऐसी डालो,
शुद्ध अन्न ,फल, धान्य , उगा कर हमें बचालो
।
दवा न देना डाल, रोग जो तन में भरती,
करना हमें निहाल, आपसे विनती करती ।
4
पाती अब आती नहीं , फोन हुआ है मौन ,
रोज़ टूटती साँस को , आस बँधाए कौन ।
आस बँधाए कौन , नैन धुँधलाते जाते ,
है मनवा बेचैन, खबर कुछ उसकी पाते ।
उठे हूक दिन-रात, तुम्हारी याद सताती,
पिता देखते द्वार , मात भी चैन न पाती ।
5
छोटा-सा मन का भवन, रहने की दरकार,
ख्वाहिश कितनी आ गईं , बनीं किराएदार ।
बनीं किराएदार, न करतीं घर अब खाली,
करने की तकरार , परस्पर, आदत डाली ।
धमा-चौकड़ी खूब, हुआ खुशियों का टोटा ,
गया गमों में डूब, भवन यह मन का छोटा ।
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
वापी, गुजरात
सुन्दर कुंडलियाँ। हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कुंडलियाँ । हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ ज्योत्सना जी । सुदर्शन रत्नाकर
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