प्रेमचंद और उनका साहित्य
संघर्ष की तपिश से जन्मा,
गढ़ा-गूँथा जीवन की जद्दोजहद ने !
डॉ. पूर्वा शर्मा
वैसे तो शैशवकाल से ही मैं प्रेमचंद को पढ़ती-समझती और उनसे
प्रभावित होती रही हूँ। समय के साथ-साथ मेरी यह रुचि-अभिरुचि बड़ी और ज्यादा गाढ़ी
होती गई। किंतु खासकर पिछले चार-पाँच वर्षों से किसी न किसी निमित्त प्रेमचंद के पढ़ते-गुनते
तथा उनको लेकर कुछ लिखने-बोलने के दरमियान जो मेरी मनोस्थिति रही,
जिसने मेरे मन में प्रेमचंद संबंधी एक छोटी-सी धारणा को
आकार दिया। इस धारणा को बताने से पूर्व मैं यह जरूर कहना चाहूँगी कि यह धारणा मेरी
है और इसे मैं अपने स्वयं तक ही मर्यादित रखती हूँ, औरों के मानने-मनवाने का आग्रह या ज़िद बिल्कुल नहीं।
प्रेमचंद की एक नियमित पाठक एवं थोड़ा बहुत तत्संबंधी लेखकीय
और वक्तव्ययी स्वभाव होने के नाते मुझे लगता है कि प्रेमचंद पर कुछ लिखना-कहना जितना
सरल है उतना ही मुश्किल! जिन पर विपुल मात्रा में कहा-लिखा गया हिन्दी शोध-समीक्षा
जगत में,
उनके लगभग हर मायने को लेकर, हर आयाम को लेकर। जो इस लेखक की महानता व लोकप्रियता का द्योतक
है। अब इस लेखक को लेकर इतनी सारी सामग्री उपलब्ध है तो उनपर कुछ लिखने में ज्यादा
कठिनाई नहीं होगी । लेकिन दूसरी ओर कठिन या मुश्किल इस अर्थ में कि इन पर कुछ नया,
नई दृष्टि, नये कोण से क्या कहें क्या लिखें? और ऐसे लेखक के संबंध में जिनमें कि कुछ नये की संभावनाएँ आज
भी भरपूर हैं, जो उनकी महानता को ही द्योतिक करता है। बशर्तें नयी दृष्टि एवं
विशेष समझ-क्षमता को विकसित करना। और यह उतना आसान भी नहीं है।
खैर, जो कहा गया - जो लिखा गया उसे कुछ अलग अंदाज में,
उसमें थोड़ा नया जोड़ने के प्रयास के साथ कुछ लिखना-कहना भी
अनुपयोगी और अप्रासंगिक नहीं होगा।
कहते हैं –
“संघर्षेण पुरुषः श्रेष्ठः भवति”
अर्थात् संघर्ष ही मनुष्य को श्रेष्ठ बनाता है। दरअसल
संघर्ष की तपिश व्यक्ति को और उसके व्यक्तित्व को निखारती है, और उनकी कर्मण्यता को
एक मजबूती देते हुए - एक चमक देते हुए उसे मनुष्यता से और मनुष्यता से महानता की
ओर अग्रसर करती है।
कवि विज्ञान व्रत ने क्या खूब कहा है –
तपेगा जो, गलेगा वो ।
गलेगा जो, ढलेगा वो।
ढलेगा जो, बनेगा वो ।
बनेगा जो, मिटेगा वो ।
मिटेगा जो, रहेगा वो ।
एक साहित्यकार का जीवन संघर्ष तथा औरों की ज़िन्दगी की जद्दोज़हद
के प्रति उनकी पूरी लेखकीय संवेदना और प्रतिबद्धता की उसके सृजन-लेखन को एक विशेष
धार व चमक देने में, इसे प्रचारित-प्रसारित करते हुए ख्याति-प्रसिद्धि दिलाने तथा इसकी साहित्यिक
और सामाजिक उपयोगिता व प्रासंगिकता को बनाये रखने में महती भूमिका रहती है।
हिन्दी साहित्य संसार में कबीर,
तुलसी, सूर, निराला, प्रेमचंद, नागार्जुन, शैलेश मटियानी प्रभृति इसके उत्तम उदाहरण हैं;
जिनकी उपस्थिति तथा जीवंतता केवल अकादमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम
तक ही सीमित नहीं रह जाती, बल्कि हमारे जीवन और समाज में भी ये गहरे उतरे हुए हैं।
“संसार का महानतम साहित्य उसके स्रष्टाओं के झेले हुए
संघर्ष का परिणाम है। अंचल जी की एक पंक्ति है ‘फूल काँटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया।’ साहित्य रूपी पुष्प भी संघर्ष के उद्यान में खिलता है।
प्रेमचंद जी का साहित्य भी संघर्ष की एफ अविरत यात्रा है। वे सच्चे अर्थों में ‘कलम के सिपाही’ थे। और आजीवन कलम द्वारा लड़ते रहे। यह संघर्ष अनेक स्तरों
पर देखा जा सकता है।" (युग निर्माता प्रेमचंद तथा कुछ अन्य निबंध,
डॉ. पारुकांत देसाई, पृ.07)
अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्तर पर ही नहीं: साहित्यिक जीवन में भी
प्रेमचंद को बहुत जूझना पड़ा।
प्रेमचंद का हर पाठक बखूबी जानता है कि मानवतावादी दृष्टि
से संपन्न यह कथा लेखक सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि बनकर हिन्दी जगत में आता है।
उन्हीं के शब्दों में “जो दलित हैं, पीड़ित हैं, वंचित हैं यह व्यक्ति हो या समूह,
उसकी हिमायत और वकालत करना साहित्यकार का फर्ज़ है।” एतदर्थ
आधुनिक हिन्दी गद्य में, विशेषतः कथासाहित्य में संवेदना और शिल्प के स्तर पर एक परिवर्तनकारी भूमिका
में आने वाले प्रेमचंद की दृष्टि एवं लेखनी राजमहलों,
सुखी-समृद्ध लोक संस्कृति तथा साहित्य शास्त्रीय - कलागत
सौंदर्य के बजाय गाँवों के झोपडों के पास गई और उनमें रहने वाले साधारण लोगों के
जीवन-संघर्ष तथा अपने वजूद हेतु उनकी जद्दोज़हद को,
यानी उनके श्रम, संघर्ष, समस्याएँ - दुःख-दर्द को शब्दबद्ध करने लगी।
एक अध्येता के मतानुसार “प्रेमचंद को जीवन में ऐसे अनेक
अवसर मिले थे, लेकिन
जान बूझकर अभाव और संघर्ष की उस स्थिति का बार-बार वरण कर लेते थे,
जिसमें रहकर ही शायद ऐसी पुस्तकें लिखी जा सकती हैं जिन्हें
छूने पर,
एक कवि के शब्दों में – हम पुस्तक नहीं,
मनुष्य को ही छूते होते हैं।”
प्रेमचंद होने का एक बड़ा मतलब है - जीवन और लेखन, व्यवहार और साहित्यिक सरोकार में असंगति नहीं – असाम्यता
नहीं। अतः मुखौटे व कृत्रिमता-बनावट लेशमात्र नहीं।
‘जैसा जिया, वैसा लिखा।’ उक्त दृष्टि से ईमानदार लेखकों में विशेष उल्लेखनीय । असल
में प्रेमचंद के साहित्य में वही समाज है, वही संवेदनाएँ व स्थितियाँ-समस्याएँ हैं जिसे उन्होंने
अच्छी तरह से देखा-जिया। इसी अनुभव जगत ने तथा उनके ईमानदार लेखकीय विज़न ने इस लेखक
को यथार्थवादी एवं मानवतावादी साहित्यकारों में शीर्षस्थ स्थान दिलाया।
असंख्य सुधी पाठकों के सकारात्मक प्रतिभावों तथा अनेकों
साहित्य व भाषा सेवियों के लेखकीय सहयोग के चलते विगत चार वर्षों से ‘शब्द-सृष्टि’ के प्रकाशन का क्रम अनवरत बना रहा है। इन चार वर्षीय
समयावधि में बतौर संपादिका मेरा यह आग्रह रहा है कि हिन्दी जगत के कतिपय बड़े
दिवसों - उत्सवों पर तथा इनके ही निमित्त कुछ विशेषांकों का प्रकाशन हो। इसी
दृष्टि व इसके प्रति विशेष लगाव का ही सुपरिणाम है कि प्रतिवर्ष हिन्दी भाषा,
साहित्य व आलोचना के विविध संदर्भों के साथ-साथ खासकर 31
जुलाई तथा 14 सितम्बर, उभय दिवसों, मतलब
‘प्रेमचंद जयंती’ तथा ‘हिन्दी दिवस’ के उपलक्ष्य में क्रमशः प्रेमचंद व उनके साहित्य के कुछेक
मायने और आयाम तथा हिन्दी के स्वरूप व विविध संदर्भों को लेकर जुलाई और सितम्बर
दोनों महीनों में शब्द-सृष्टि के तत्संबद्ध विशेषांकों का प्रकाशन होता ही है।
मजे की बात तो यह है कि प्रस्तुत अंक की तैयारी के विषय में
एक मित्र से जब बातचीत हो रही थी उस समय मित्र ने मानो मजाक में,
चुटकी लेते हुए यह कहा कि ‘आप लोग प्रेमचंद को छोडना नहीं चाहते’ असल में हम सभी के
लिए यह बात बड़ा अर्थ रखती है। मित्र ने इसे जितने हल्के में,
जितनी सहजता से कहा, हमारे लिए यह उतनी ही गंभीर और गौरव की बात है। हिन्दी जगत
में,
भारतीय साहित्य में इस लेखक का कद तथा हमारे जीवन और समाज में इनकी गाढ़ी और मजबूत
मौजूदगी ही हमें उनसे सदैव जोड़े रखती है।
अंत में, मुंशी प्रेमचंद की 144वीं जयंती के अवसर पर उनकी जीवनी व
लेखनी की कतिपय खासियतों को रेखांकित करते इस विशेषांक के साथ इस अवसर पर हिन्दी
जगत को हार्दिक शुभकामनाएँ !
डॉ. पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
बहुत सुंदर सम्पादकीय।सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद होने का एक बड़ा मतलब है तथा प्रेमचंद के निजी जीवन के भोगे हुए यथार्थ के अनुभव को आपने व्याख्यायित किया | हिंदी ही नहीं अपितु सभी को प्रेमचंद के साहित्य के रसपान करने के लिए प्रेरित करेगा |
जवाब देंहटाएंमुकेश चौधरी, शोधार्थी (हिंदी)