शनिवार, 29 जून 2024

समीक्षा

 

आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का व्याकरण-चिंतन

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

पंडित किशोरीदास वाजपेयी हिंदी व्याकरण के एक प्रमुख आचार्य के रूप में ख्यात हैं। भाषा-चिंतन तथा व्याकरण संबंधी उनकी दर्जन भर पुस्तकें हैं, जिनमें ब्रजभाषा का व्याकरण (सन् 1943), अच्छी हिंदी का नमूना (1948), राष्ट्रभाषा का प्रथम व्याकरण (1949), हिंदी निरुक्त (1949), भारतीय भाषाविज्ञान (1959), हिंदी की वर्तनी तथा शब्द-विश्लेषण (1968) उनकी कुछ प्रमुख पुस्तकें हैं। किंतु उनके समस्त भाषा-चिंतन तथा व्याकरण-चिंतन की फलश्रुति के रूप में जो ग्रंथ ख्यात है, अथवा जिस ग्रंथ के नाम से वाजपेयीजी का नाम है, वह हैहिंदी शब्दानुशासन’, जो सन् 1958 में नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, से प्रकाशित हुआ।

हिंदी शब्दानुशासनके प्रकाशन का अपना एक रोचक इतिहास है, जिसके परिप्रेक्ष्य में ही आ. वाजपेयी के बारे में कुछ कहना सुविधाजनक रहेगा। वैसे तो आचार्य वाजपेयी सन् 1924-25 से हिंदी भाषा तथा व्याकरण के संबंध में लेख आदि लिखते रहे। परंतु सन् 1943 में उनकी पुस्तकब्रजभाषा का व्याकरणप्रकाशित हुई; और उसके बाद लगातार कई पुस्तकें आईं। फिर भी वे, डॉ. अनंत चौधरी के शब्दों में - अपने अक्खड़ स्वभाव, कटुसत्यवादी नीति तथा धक्कामार आलोचना शैली के कारण हिंदी विद्वानों के बीच उपेक्षा का शिकार बने रहे। (‘हिंदी व्याकरण का इतिहास’, पृ. 558)

उसी बीच महापंडित राहुल सांकृत्यायन की दृष्टि उनके लेखन पर पड़ी। उन्होंने सितंबर, 1954, केनया समाजके अंक मेंआचार्य किशोरीदास वाजपेयीशीर्षक से एक परिचयात्मक लेख लिखा। लेख के अंत में बड़ी तल्ख भाषा में उन्होंने लिखा किक्या यह दुनिया एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त करने लायक है, जिसमें अनमोल प्रतिभाओं को काम करने का अवसर न मिले और ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे गुलछर्रे उड़ाते राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपना नाच दिखाएँ!’

पंडित राहुल सांकृत्यायन के ही प्रयत्न और परामर्श से काशी नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा आचार्य वाजपेयी को हिंदी का एक बृहद् व्याकरण लिखने का कार्य सौंपा गया। नागरीप्रचारिणी सभा के प्रस्ताव के अनुसार वाजपेयीजी को यह व्याकरण हिंदी के आधुनिक स्वरूप और उसकी प्रवृति को ध्यान में रखते हुए लिखना था। साथ ही व्याकरण के उदाहरण हिंदी के मान्य लेखकों के ग्रंथों से देने थे। परंतु वाजपेयीजी तो वाजपेयीजी थे। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। सब कुछ अपने ढंग से किया। ग्रंथ दो सालों में पूरा हो गया और व्याकरण परामर्शक मंडल के सामने रखा गया।

परामर्शक मंडल के दस सदस्य थे

1. श्री करुणापति त्रिपाठी (संयोजक)

2. श्री कृष्णानंद

3. . विश्‍वनाथप्रसाद मिश्र

4. डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी

5. श्री चंद्रबली पांडेय

6. डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी

7. श्री काका कालेकर

8. पं. अंबिकाप्रसाद वाजपेयी

9. पं. राहुल सांकृत्यायन

10. श्रीकृष्णलाल।

व्याकरण परामर्शक मंडल नेहिंदी शब्दानुशासनको सर्वसम्मत तथा सर्वमान्य बनाने के उद्देश्य से आ. वाजपेयी के समक्ष कुछ सुझाव रखे थे, जो इस प्रकार हैं

(1) भाषापक्ष

() भाषा अधिक संतुलित और शास्त्रानुरूप गंभीर होनी चाहिए। () अप्रासंगिक उक्तियाँ और हल्के मुहावरे न रखे जाएँ, तो उत्तम हो।

(2) विषय-पक्ष

() व्याकरणशास्त्र का मेल भाषा के ऐतिहासिक विकास तथा भाषाविज्ञान से होना आवश्यक है। ऐसे वक्तव्य इसमें न रखे जाएँ, जो उपर्युक्त दृष्टियों से संदिग्ध और विवादास्पद हों।

() वैयक्तिक प्रसंग (अपने या अन्य लेखकों के संबंध में) जहाँ तक संभव हो, न आने चाहिए। सावधानी से केवल सिद्धांतों का ही आवश्यक विवेचन और विश्लेषण हो। (प्रथम संस्करण केप्रकाशकीय वक्तव्यसे।)

ध्यातव्य है कि आगे के संस्करणों में से यह प्रकाशकीय वक्तव्य हटा दिया गया।

परंतु वाजपेयीजी तथा व्याकरण परामर्शक मंडल के बीच पूर्ण सहमति नहीं बन सकी। फिरव्याकरण परामर्शक मंडलने निश्चय किया किहिंदी शब्दानुशासनका प्रकाशन आ. किशोरीदास वाजपेयी की शैली, सिद्धांत और वर्तनी के ही अनुरूप किया जाए औरप्रकाशकीय वक्तव्यमें इस बात का स्पष्टीकरण कर दिया जाए।

और इस प्रकारहिंदी शब्दानुशासनका प्रकाशन हुआ।

आज के समय में निश्चय ही इतने विवादों से युक्त इस ग्रंथ का प्रकाशन नहीं हुआ होता। परंतु उस जमाने के लोग कुछ अलग प्रकार के थे। एक प्रकाशकीय वक्तव्य जोड़कर अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए वाजपेयी जी की शर्तों पर ही इस विवादास्पद ग्रंथ का प्रकाशन उन लोगों ने संभव बना दिया। प्रकाशक मंडल के दिग्गज सदस्यों द्वारा उठाई गईं आपत्तियाँ बहुत गंभीर हैं। उनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। परंतु, दुर्भाग्यवश, वाजपेयी जी की नजर में यही उस ग्रंथ की खासियत थी। प्रकाशक मंडल के सुझावों को मान लेने से तो वाजपेयी जी के ग्रंथ कीअद्वितीयताही निरस्त हो जाती। परिणामतः प्रकाशक मंडल द्वारा निर्दिष्ट सारी कमियाँहिंदी शब्दानुशासनमें आज भी मौजूद है।

मेरी नजर में आ. वाजपेयी की सबसे बड़ी कठिनाई यह दिखाई पड़ती है कि वे व्याकरण के दायरे में रहकर योजनाबद्ध तरीके से हिंदी का व्याकरण लिखने के बजाय अपने पूर्ववर्ती (विशेष रूप से पं. कामताप्रसाद गुरु) तथा अपने समकालीन व्याकरण लेखकों की कमियों को बहुत विस्तार के साथ उजागर करने के लिए विशेष उत्सुक थे। अपनी मौलिकता तथा अद्वितीयता प्रकाशित तथा प्रमाणित करने का अति आग्रह भी उनमें बहुत अधिक दिखाई पड़ता है। यही वजह है कि वे केंद्र से भटक गए हैं। सतही तथा महत्त्वहीन उद्घोषणाओं एवं स्थापनाओं से उनकी पुस्तकें भरी पड़ी हैं। इन्हीं सब कारणों से उनकी पुस्तकें न तो ज्यादा पढ़ी गईं और न ही उनकी परंपरा आगे बढ़ी। अपने पूरे लेखन में वे पं. कामताप्रसाद गुरु का लगातार विरोध करते या उन्हें खारिज करते दिखाई पड़ते हैं; परंतु परंपरा पं. कामताप्रसाद गुरु की ही आगे बढ़ी। हालाँकि गुरुजी की सीमाएँ दूसरे प्रकार की हैं, जिनकी अलग से चर्चा की जानी चाहिए।

इसी तरह वाजपेयीजी नेअच्छी हिंदी का नमूनानामक पुस्तक श्री रामचंद्र वर्मा की पुस्तकअच्छी हिंदीके दोष गिनाने के लिए लिखी थी। परंतु वह पुस्तक खुद अनेक दोषों का शिकार है। कोई भी अच्छा कार्य नकारात्मक अभिगम से नहीं हो सकता।

. किशोरीदास वाजपेयी के पांडित्य में किसी को कोई शंका नहीं हो सकती। वे संस्कृत के पंडित तो थे ही; उन्हें प्राकृत, पाली, अपभ्रंश का भी अच्छा ज्ञान था। वे स्वभाव से भ्रमणशील थे। इसलिए उन्हें हिंदी क्षेत्र की लगभग सभी प्रमुख बोलियों की भी अच्छी जानकारी थी।  वे पंजाबी, मराठी, बंगला तथा गुजराती का भी थोड़ा ज्ञान रखते थे। यह सब ठीक है। फिर भी, उनकाहिंदी शब्दानुशासनतकनीकी दृष्टि से हिंदी का व्याकरण नहीं है।हिंदी शब्दानुशासनमें संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश के साथ-साथ हिंदी क्षेत्र की तमाम बोलियों के शब्दों की इतनी ज्यादा चर्चा है कि सहज ही यह सवाल उठता है कि वाजपेयीजी हिंदी का व्याकरण लिख रहे हैं या हिंदी की बोलियों का? इसके लिए बहुत लंबे-चौड़े तर्क की जरूरत नहीं है। आप पुनः उसे पढ़िए और तय कीजिए।

. वाजपेयी स्वभाव सेआत्ममुग्धतथाआत्मश्लाघा प्रियआचार्य थे। यह मैं उन पर कोई आरोप नहीं लगा रहा हूँ। उनकी पुस्तकें ही इसका बयान करती हैं।

समालोचकमासिक के पहले अंक (संभवतः सन् 1958) में उनका एक लेख छपा था, जिसमें उन्होंने बड़े जोर-शोर से यह दर्शाया था कि हिंदी की संबंध विभक्तियों (का-की-के) की खोज मैंने की है। (पहली बात तो यह कि का-की-के हिंदी के परसर्ग हैं। हिंदी में विभक्ति जैसी कोई चीज नहीं है। यह अलग से चर्चा का विषय है।) ‘समालोचकके दूसरे अंक में किसी सज्जन ने (उनका नाम मुझे याद नहीं) इसका प्रतिवाद किया कि आपसे बहुत पहले केलॉग, बीम्स आदि ने यह बात कही है। फिर क्या? ‘समालोचकके तीसरे अंक में वाजपेयी जी दुर्वासा (खुद पं. राहुल सांकृत्यायन ने वाजपेयीजी पर लिखे अपने लेख में वाजपेयी जी को दुर्वासा कहा है) बन गए। विषय की चर्चा को आगे बढ़ाने के बजायआत्मश्लाघामें लग गए कि मेरे बारे में आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने, डॉ. अमरनाथ झा ने, राहुल सांकृत्यायन ने क्या-क्या कहा है? और यह तुच्छ प्राणी मेरे बारे में क्या कह रहा है? सन् 1980 के आसपासकादंबिनीमें वाजपेयीजी का एक लेख छपा था, जिसका शीर्षक कुछ इस प्रकार था - ‘चोरी करना कोई विश्वविद्यालय के अध्यापकों से सीखे

. किशोरीदास वाजपेयी को शायद यह भ्रम था या उन्होंने भ्रम पाल लिया था कि मैं जो कुछ कहूँगा या कह रहा हूँ, मुझसे पहले ऐसा किसी ने कहा ही नहीं है। मैं फिर कह दूँ कि यह मेरा आरोप नहीं है। वाजपेयीजी की किताबें ऐसा कहती हैं -

इसमें संदेह नहीं कि इसे हिंदी का पहला व्याकरण लोग कहेंगे। व्याकरण के मूल तत्त्वों का इसमें उद्घाटन हुआ है। ... यह बात तो निःसंदेह सभी पाठक कहेंगे कि हिंदी व्याकरण का श्रीगणेश अब हो रहा है।’ (हिंदी शब्दानुशासन, पूर्वपीठिका, पृ. 74)

सारा हिंदी जगत यह जानता है कि पं. कामताप्रसाद गुरु काहिंदी व्याकरणहिंदी का प्रथम तथा व्याकरण के ढाँचे में लिखा गया अब तक का एकमात्रसर्वांगपूर्णव्याकरण है। लेकिन आ. वाजपेयी की दृष्टि में वह व्याकरण है ही नहीं। जरा गौर फरमाइए -

() ‘सन् 1919 में, जब मैं कुछ सोचने-समझने योग्य हुआ, तब हिंदी में दो विद्वानों के नाम सर्वोपरि थे -1. पं. अंबिकाप्रसाद वाजपेयी और 2. पं. कामताप्रसाद गुरु।हिंदी कौमुदीतथाहिंदी व्याकरण’ (इन दोनों विद्वानों के व्याकरण ग्रंथ) 1920-1921 में प्रकाशित हुए।

सौभाग्य समझिए, चाहे दुर्भाग्य, इन व्याकरणों के मूलभूत सिद्धांत मेरी समझ में न आए। इन्हीं के आधार पर वे सब पुस्तकें बनी थीं, जो पाठ्य रूप में परीक्षाओं में चल रही थीं और मुझे भी पढ़ानी पड़ती थीं। कुछ समझ में न आने परआकर ग्रंथ  देखे (टिप्पणी - कौन-सेआकर ग्रंथदेखे, जबकिहिंदी व्याकरणके अलावा दूसरा कोई व्याकरण ग्रंथ था ही नहीं। अब भी नहीं है।), फिर भी समाधान न हुआ।गुरुजीसे (जबलपुर जाकर) दो बार भेंट की; परंतु फिर भी मेरा भ्रम-संदेह दूर न हुआ। अपनी जिज्ञासा-मान्यता पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराई।’ (हिंदी शब्दानुशासन - आ. किशोरीदास वाजपेयी, पृ. 67-68)

(ख) अपने इस ग्रंथ के नामकरण के बारे में वाजपेयीजी लिखते हैं -

शब्दानुशासन को ही व्याकरण कहते हैं। पाणिनि व्याकरण के महाभाष्यकार महर्षि पतंजलि नेशब्दानुशासनशब्द ही पसंद किया है।व्याकरणकी अपेक्षाशब्दानुशासनशब्द में स्पष्टार्थता अधिक है; तथापिव्याकरणइतना प्रचलित है कि यहाँ वहअर्थस्पष्टतर दिखाई देता है। परंतु योगार्थशब्दानुशासनमें अधिक स्पष्ट है। शब्दों का अनुशासन ही यहाँ सब कुछ है। हिंदी के शतशः प्रचलित व्याकरणों से यह एक पृथक् चीज है, यह ध्वनित करने के लिए हम इस कृति कोशब्दानुशासननाम दे रहे हैं; क्योंकि इससे पूर्व इस नाम का कोई ग्रंथ, इस विषय का, हमने देखा-सुना नहीं है।’ (हिंदी शब्दानुशासन, पृ. 78)

बात स्पष्ट है। वाजपेयी जी ने अपने इस ग्रंथ को अपनी जान मेंशतशः प्रचलित व्याकरणोंसे एकदम भिन्न, अनूठा, अद्वितीय बनाया है। सारा निर्णय वे खुद ही कर लेते हैं। यह कितना अच्छा रहा होता कि वे सिर्फ काम करते; और उनके कार्य का निर्णय पाठक करते। वे इसका ऐसा नाम देना चाहते हैं, जो नाम पहले किसी ग्रंथ को न दिया गया हो। भिन्नता और अद्वितीयता का इतना बड़ा आग्रह! इसी लिए यह ग्रंथ चाहेऔर कुछभले बना हो, व्याकरण तो नहीं बन सका है; क्योंकि इसमें व्याकरण कीडिसिप्लीनहै ही नहीं। जो ग्रंथ हिंदी का एकमात्रसर्वांगपूर्णव्याकरण है, वह वाजपेयीजी की नजर में कुछ है ही नहीं।

वाजपेयीजी खुद ही स्वीकार करते हैं किशब्दों का अनुशासन ही यहाँ सब कुछ है।यह थोड़ा  विचारणीय विषय है। संस्कृतयोगात्मकभाषा है। इसलिए वहाँशब्दों का अनुशासनही सब कुछ हो सकता है। परंतु हिंदीवियोगात्मकभाषा है। योगात्मक भाषाओं में रूप-रचना जटिल होती है और वाक्य-रचना सरल होती है। परंतु वियोगात्मक भाषाओं में रूप-रचना बहुत सरल होती है और वाक्य-रचना बहुत कठिन या जटिल होती है। संस्कृत में दो प्रकार के रूप होते हैं - शब्दरूप तथा धातुरूप। संज्ञा, सर्वनाम तथा विशेषण शब्दों के रूपशब्दरूपकहे जाते हैं और क्रियाओं के रूपधातुरूप। शब्दरूपों के मूल कोप्रातिपदिककहा जाता है। पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग के आधार पर प्रातिपदिकों के भेद होते हैं। उनमें भी स्वरांत तथा व्यंजनांत प्रातिपदिक होते हैं। स्वरांत में अकारांत, आकारांत, इकारांत, ईकारांत ... आदि तथा व्यंजनों में चकारांत, जकारांत, तकारांत, दकारांत, नकारांत, पकारांत, भकारांत ... आदि भेद होते हैं। फिर प्रत्येक प्रातिपदिक के रूप तीन वचनों (एकवचन, द्विवचन, बहुवचन) और आठ विभक्तियों में बनते हैं। इसी तरह संस्कृत की सभी धातुओं को दस गणों में विभाजित किया गया है, जिनके रूप अलग-अलग चलते हैं। प्रत्येक धातु के रूप दस लकारों में चलते हैं। प्रत्येक लकार के रूप तीन वचनों (एकवचन, द्विवचन, बहुवचन) तथा तीन पुरुषों (प्रथमपुरुष, मध्यमपुरुष, उत्तमपुरुष) में होते हैं।

संस्कृत की रूप-रचना की यही जटिलता है। संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया शब्दों के रूप वाक्य में अपनी स्पष्ट भूमिका निभाने में सक्षम होते हैं। इसलिए संस्कृत में वाक्य-रचना जटिल नहीं होती। इससे उल्टी स्थिति हिंदी की है। हिंदी में संज्ञा, सर्वनाम तथा विशेषण शब्दों के अधिकतम चार ही रूप बनते हैं। जैसे - लड़का-लड़के-लड़कों-लड़को (संबोधन में)। हिंदी में क्रियाओं के रूप संस्कृत की तुलना में बहुत कम होते हैं। ऐसी स्थिति में संस्कृत व्याकरण के आधार पर हिंदी का व्याकरण लिखा ही नहीं जा सकता। जबकि हिंदी के अनेक संस्कृतज्ञ विद्वान् अक्सर यह कहते हैं कि हिंदी का व्याकरण संस्कृत व्याकरण की पद्धति (सूत्र-पद्धति) पर लिखा जाना चाहिए। परंतु किसी विद्वान् ने आज तक कोई नमूना पेश नहीं किया है। बातें तो बहुतों ने की हैं। यह स्थिति पं. कामताप्रसाद गुरु के समय में भी थी। इसका उल्लेख उन्होंने अपने व्याकरण की भूमिका में की है। इसका स्पष्टीकरण उन्होंने किया है कि क्यों मैंने संस्कृत की नहीं बल्कि अंग्रेजी की पद्धति पर अपना व्याकरण लिखा है।

ऐसी स्थिति में वाजपेयीजी काहिंदी शब्दानुशासनहिंदी का सर्वांग पूर्ण व्याकरण ग्रंथ कैसे हो सकता है?

(ग) वाजपेयी जीहिंदी शब्दानुशासनके दूसरे संस्करण की भूमिका में लिखते हैं -

हिंदी शब्दानुशासन’ (आदि से अंत तक) ‘अपनेविचार रखता है, जो पुराने विचारों से अलग जाते हैं। इन विचारों को लोगमौलिकभी कहते हैं और कुछ लोग चक्कर में भी पड़ जाते हैं। जो सबसे अलग कुछ कहे, उस पर शंका होती ही है। इसी लिए प्रथम संस्करण के प्रकाशकीय वक्तव्य में डॉ. श्रीकृष्णलाल ने स्पष्ट लिख दिया था - ‘प्रस्तुत ग्रंथ में शैली, सिद्धांत तथा वर्तनी का मूल उत्तरदायित्व लेखक का है।’ ‘वर्तनीऔरशैलीपर तो विवाद भी उठा था। पर सिद्धांत जरा दूर पड़ता है। संदेह था कि हिंदी जगत में भड़कम्प मचेगा। मणि को देखकर शंका कि सूखे पत्तों पर पड़ी यह आग भड़ककर कहीं दावाग्नि न बन जाए। भगवान की दया कि वैसा कुछ नहीं हुआ।

क्या मतलब है इस बड़बोलेपन का? हिंदी जगत में भड़कंप क्या मचेगा? यहाँमणिक्या है? सूखे पत्ते क्या हैं? दावाग्नि क्या है?

डॉ. श्रीकृष्णलाल के जिस प्रकाशकीय वक्तव्य को वाजपेयीजी ने अपने पक्ष में उद्धृत किया है, वह उन्हीं के विरुद्ध जाता है। यही कारण था किनागरीप्रचारिणीजैसी प्रतिष्ठित संस्था को अपने प्रकाशकीयमें यह लिखना पड़ा किप्रस्तुत ग्रंथ में शैली, सिद्धांत तथा वर्तनी का मूल उत्तरदायित्व लेखक का है।इसका उल्लेख इस लेख के आरंभ में कर दिया गया है। वाजपेयीजी का यह कथन किवर्तनी और शैली पर विवाद भी उठा था। पर सिद्धांत जरा दूर पड़ता है।यानी किसिद्धांतपर विवाद इसलिए नहीं उठा; क्योंकि वाजपेयीजी के मत से उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत किसी की समझ में आता, तब न विवाद पैदा होता! परंतु बात ऐसी न थी। वाजपेयीजी केशब्दानुशासनपर उनके समय के किसी भी विद्वान ने कोई टीका-टिप्पणी नहीं की है। सभी मौन हैं। यह बात वाजपेयीजी खुद कहते हैं। उनके मौन को वाजपेयीजीसम्मतिलक्षणम्मानते हैं। जबकि वहअसम्मतिलक्षणम्भी हो सकता है। उस समय के लोग बड़े समझदार थे। कोई वाजपेयीजी के कोप का भाजन बनना नहीं चाहता था। मैं वाजपेयीजी से, उनके अवसान के दो-तीन महीने पहले, कनखल में उनके घर पर मिला था। उस समय उनका शरीर बहुत जर्जर था; परंतु उनका तेवर वैसा ही था।

(घ) वाजपेयीजी की एक पुस्तक हैहिंदी की वर्तनी तथा शब्द-विश्लेषण। इस पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं -

हिंदी वर्तनी की एकरूपता की आवश्यकता तब मालूम पड़ी, जब (सन् 1950 के इधर-उधर) हिंदी को राजकीय मान्यता मिली। अहिंदी प्रदेशों से माँग हुई कि हिंदी शब्दों का वर्तनी-भेद लोगों में भ्रम पैदा करता है।

यानी कि सन् 1950 के पहले, जब तक वाजपेयीजी का ध्यान वर्तनी की तरफ नहीं गया था, लोग वर्तनी पर ध्यान दिए बिना ही लिखते थे। आ. महावीरप्रसाद द्विवेदी, . शुक्ल तथा छायावाद के सभी रचनाकार ऐसे ही अव्यवस्थित वर्तनी लिखते रहे? और फिर आ. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने क्या किया?

(ङ) इस पुस्तक की भूमिका के अंत में वाजपेयीजी लिखते हैं -

इस पुस्तक के बाद मैंने इस विषय पर आगे कुछ लिखना-कहना बंद कर दिया है; यह साहित्यिक जगत को पता है। कुछ कहने को शेष नहीं रहा। सब कुछ संक्षेप में कह दिया गया है।

इस वक्तव्य से वाजपेयीजी कीआत्मश्लाघावृत्तिस्वतः स्पष्ट है।

(च) वाजपेयीजी की एक अन्य छोटी-सी पुस्तक हैराष्ट्रभाषा का प्रथम व्याकरण’ (1949) । यानी इस पुस्तक के पहले राष्ट्रभाषा का कोई व्याकरण ही न था। पुस्तक के प्रथम अध्याय में वाजपेयीजी लिखते हैं -हिंदी ने अपना व्याकरण प्रायः संस्कृत व्याकरण के आधार पर ही बनाया है। 

विद्वान इस पर विचार करें कि क्या हिंदी का व्याकरण संस्कृत की पद्धति का व्याकरण है? वही वाजपेयीजी अपनेहिंदी शब्दानुशासन’ (1958) के प्रथम संस्करण की भूमिका में लिखते हैं - निःसंदेह हिंदी की पद्धति संस्कृत से भी कलात्मक तथा वैज्ञानिक है।इस कथन का मतलब क्या है? व्याकरण कोई कहानी-कविता तो है नहीं कि उसमें हम कलात्मकता खोजेंगे। यह व्याकरण की शैली नहीं है। इसी लिए नागरीप्रचारिणी सभा के परामर्शक मंडल को यह घोषित करना पड़ा था - प्रस्तुत ग्रंथ में शैली, सिद्धांत तथा वर्तनी का मूल उत्तरदायित्व लेखक का है।

नवीनता, मौलिकता तथा अद्वितीयता के अति आग्रह के कारण वाजपेयीजी की व्याकरणिक अवधारणाएँ धुँधली, अस्पष्ट और अर्थहीन हो जाती हैं। इसको स्पष्ट करने के लिए कुछ ही उदाहरण पर्याप्त रहेंगे।क्रिया विशेषणके प्रकरण में वे लिखते हैं - क्रिया की प्रधानता भाषा या वाक्य में होती है। उसी के पीछे शेष सभी शब्द-जगत है - सब उसी के अंग हैं। क्रियापद (आख्यात) विशेष्य है, शेष सब विशेषण। .... ‘राम खाता हैकहने से मतलब निकला कि खाने का कर्तारामहै। यहकर्ताएक तरह का क्रिया का विशेषण ही हुआ। इसी तरहराम फल खाता हैकहने सेफलभी एक तरह का विशेषण ही हुआ। ... इसी तरह करण, अपादान, संप्रदान तथा अधिकरण भी क्रिया के अंग या विशेषण ही हैं।जहाँ-यहाँआदि अधिकरण-प्रधान तथाजब-तबआदि काल-प्रधान (सार्वनामिक) अव्ययों से भी (इस तरह) की क्रिया की विशेषता ही प्रकट होती है। यों सभी शब्द एक तरह से क्रिया-विशेषण ही हैं। (हिंदी शब्दानुशासन, पृ. 319)

परंतु आगे पृष्ठ 325-26 पर लिखते हैं - ‘हिंदी केव्याकरणोंमें अब-तब, इधर-उधर आदि सभी अव्ययों को क्रिया-विशेषण मानकर बड़े ही विस्तार से उदाहरणों का गोरखधंधा फैलाया गया है। ... ‘जहाँ-कहाँआदि स्थानवाचक औरइधर-उधरआदि दिशावाचक अव्यय हैं। इनसे क्रिया में कोई विशेषता नहीं जान पड़ती।

(इन दोनों उद्धरणों की व्याख्या की जरूरत नहीं जान पड़ती।)

वाजपेयीजी क्रिया की विशेषता बताने वाले शब्द को क्रियाविशेषण तो कहते हैं, परंतुविशेषताशब्द का बहुत सीमित अर्थ लेते हैं। वास्तव में क्रिया के बारे में किसी भी प्रकार की सूचना देने वाले सभी शब्द क्रियाविशेषण होते हैं। जिन शब्दों को वाजपेयीजीस्थानवाचकतथादिशावाचकअव्यय कहते हैं, असल में वेस्थानवाचकतथादिशावाचकक्रियाविशेषण ही हैं। और सभी क्रियाविशेषण अव्यय ही होते हैं।

हिंदी शब्दानुशासनका प्रथम अध्यायवर्ण-विचारका है (पृ. 77-118)। इसमें वाजपेयीजी ने ध्वनि और वर्ण की बड़े विस्तार से चर्चा की है - परंतु मनमाने ढंग से।

डॉ. अनंतकुमार चौधरी के शब्दों में - ‘दुर्भाग्य से आधुनिक ध्वनिवैज्ञानिक उपलब्धियों तथा निष्कर्षों से अपरिचित होने के कारण अपनी उक्त मान्यताओं में तदनुरूप यथोचित सुधार लाने से वंचित रह गए हैं। एक विचित्र बात यह भी है कि उन्होंने इस प्रकरण में सभी व्यंजनों की तो चर्चा की है, किंतु ड़ और ढ़ का कहीं उल्लेख भी नहीं किया है। (हिंदी व्याकरण का इतिहास, पृ. 618)

वाजपेयीजीभाषाविज्ञानका नाम तो बार-बार लेते हैं (उनकी एक पुस्तक हीभारतीय भाषाविज्ञाननाम की है); परंतु लगता नहीं है कि वे भाषाविज्ञान से परिचित रहे होंगे। व्याकरण तथा भाषाविज्ञान की उनकी निजी तथा बहुत सीमित अवधारणाएँ हैं। किसी शब्द का विच्छेद करके उसकी आकृति का पूरा ज्ञान कराने वाले शास्त्र को वे व्याकरण मानते हैं।

भाषाविज्ञान के बारे में वे कहते हैं - शब्द कहाँ से आए। किस तरह भाषा बनी। यह जिज्ञासा होती है। इस जिज्ञासा का समाधान ही भाषाविज्ञान है।

आगे वे यह भी लिखते हैं कि इन दोनों शब्दशास्त्रों से शब्द का सुष्ठु ज्ञान होता है। (यहसुष्ठु ज्ञानक्या है?) वे यह भी लिखते हैं कि शब्दानुशासन या व्याकरण के बाद भाषाविज्ञान आता है। (भारतीय भाषाविज्ञान - लेखक का प्रासंगिक निवेदन - अथातो भाषाविज्ञानम्)

उनके समस्त लेखन के मूल में उनकी ये ही अवधारणाएँ हैं। ऐसी सीमित अवधारणाओं से इतने व्यापक विषय को कैसे समझा जा सकता है!

असल में, जो उनका विषय नहीं है, उसमें भी वे प्रवेश कर जाते हैं। एक उदाहरण -

हिंदी में भाषाविज्ञान के जो ग्रंथ निकले हैं, उनमें बड़ी मजेदार बातें देखने को मिलती हैं। हिंदी में कोई भीअपनाशब्द हलंत नहीं है; सभी स्वरांत हैं। परंतु भाषाविज्ञान के ग्रंथों में लिख दिया गया है कि हिंदी के पढ़, कर, मर, लिख आदि सभी धातु शब्द हलंत हैं। ... जो हिंदी ऋकारांत, व्यंजनांत तथा विसर्गांत शब्दों को काट-छाँट लेती है, उसके सिर ये भाषाविज्ञानी यह कूड़ा-कचरा थोप रहे है। ... यही नहीं, घर, पीठ, पेट आदि संज्ञा शब्दों को भी ये हलंत बतलाते हैं, पर लिखतेहलंतनहीं।’ (हिंदी शब्दानुशासन, पृ. 261)

वाजपेयीजी की समस्या समझने लायक है। इस उद्धरण से यह स्पष्ट पता चलता है कि वाजपेयीजी को यह पता नहीं था कि बोलते समय हिंदी में शब्द के अंतिमका लोप हो जाता है। अर्थात् अंतिमका उच्चारण नहीं होता। चूँकि हिंदी (यानी देवनागरी) के वर्णअक्षरात्मकहैं। व्यंजन वर्णों मेंस्वर अंतर्निहित होता है; इसलिए लिखने मेंमौजूद रहता है (=क्+)। जैसे कि - हम बोलते हैं घर्, पीठ्, पेट्; परंतु लिखते हैं घर, पीठ, पेट आदि।

संस्कृत में, बोलने में, अंतिमका लोप नहीं होता। परंतु इसके लिए मैं वाजपेयीजी को जिम्मेदार नहीं मान सकता। मूलतः वे संस्कृत के पंडित थे। संस्कृत की ही नजर से हिंदी या भाषाविज्ञान को देखना उनके लिए स्वाभाविक था।

वाजपेयीजी एक तरफ तो यह स्वीकार करते हैं कि अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी, ब्रजभाषा, मैथिली आदि स्वतंत्र भाषाएँ; किंतु दूसरी तरफ इन सबको जोड़करहिंदी संघकी अवधारणा प्रस्तुत करते हैं; और अपनेहिंदी शब्दानुशासनमें इन सबकी संरचना को एकसूत्र में पिरोने की कोशिश करते हैं।भाषा संघकी अवधारणा तो प्रस्तुत की जा सकती है; परंतुभाषा संघका कोई एक व्याकरण नहीं हो सकता। व्याकरण तो सभी भाषाओं के अलग-अलग ही होते हैं।

वाजपेयीजी की एक कठिनाई यह है कि वे एक ही साथ अनेक दिशाओं में गति करते हैं। एक ही समय में वे शब्द के प्रयोग की भी बात करते हैं, शब्द की व्युत्पत्ति की भी बात करते हैं; खड़ीबोली हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी, अवधी, ब्रजभाषा, मैथिली, मगही ही नहीं बीच-बीच में पंजाबी, मराठी आदि भाषाओं की भी बात करने लगते हैं। साथ ही, वे अपने को हर स्तर पर दूसरों से अलग रखने का आग्रह रखते हैं -

1.‘नामको हिंदी व्याकरणों मेंसंज्ञानाम दिया गया है। परंतुनाम’ ‘सर्वनामसीधे हैं। पाणिनि पद्धति में भीनामचलता है।नामधातुका वर्णन हिंदी व्याकरणों में भी आता है।नामकासंज्ञाकहने परसर्वनामकासर्वसंज्ञातथानामधातुकोसंज्ञाधातुकहना ठीक होगा। (हिं. शब्दानुशासन, पृ. 173)

अब यह कुतर्क नहीं तो क्या है? ‘नामऔरसंज्ञाएक ही हैं। हिंदी में जबसंज्ञाशब्द पूरी तरह से प्रस्थापित है, तो फिर इस संदर्भ में व्यर्थ के तर्क का क्या मतलब! क्या सिर्फ इसलिए कि पाणिनि पद्धति मेंनामशब्द चलता है!

2. हिंदी में पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग का निर्णय कैसे होता है, इसके बारे में वाजपेयीजी की सूझ देखिए

पुरुषयाबालकके समान जिनकी बनावट है, वे जल, वन, पर्वत आदि शब्द पुरुष जातीय, पुंवर्गीय या पुल्लिंग कहलाते हैं।स्त्रीके समान जिनका कलेवर है, वे नदी, लकड़ी, मकड़ी आदि शब्द स्त्री जातीय, स्त्रीवर्गीय या स्त्रीलिंग हैं। (हिं. ., पृ. 178)

3. ‘परसर्गको वाजपेयीजीनई बलाकहते हैं। वे कहते हैं किकुछ लोगने’ ‘कोआदि विभक्तियों को परसर्ग कहते हैं। यह एक नया बखेड़ा, नई झंझट।

4. पं. कामताप्रसाद गुरु ने हिंदी की प्रकृति के अनुसार तीनवाच्योंतथा तीनप्रयोगोंकी अवधारणा प्रस्तुत की है। परंतु वाजपेयीजी को इसमें आपत्ति है। वे सिर्फ गुरुजी का विरोध करने के लिएवाच्यतथाप्रयोगको एक ही मानते हैं। उनका यह अनुचित आग्रह है। उन्होंने लिखा है

ऐसा जान पड़ता है कि गुरुजी हिंदी के स्वरूप को ठीक-ठीक समझे बिना ही इसका व्याकरण लिखने बैठ गए और इसी लिएरग पर नश्तरलगा दिया। (हि. ., पृ. 585)

परंतु सच इसके विपरीत है। अपनी तमामसमय सापेक्षसीमाओं के बावजूद गुरुजी ने जितनी तैयारी के साथहिंदी व्याकरणलिखा है, उसका दशांश भी वाजपेयीजी में नहीं दिखता। वाजपेयीजी में व्यक्तिनिष्ठता जितनी प्रबल है, वस्तुनिष्ठता उसकी तुलना में नगण्य-सी है; जबकि गुरुजी में व्यक्तिनिष्ठता नहीं के बराबर है।

हिंदी मेंनेपरसर्ग वाली क्रिया का लिंग-वचन कर्म के अनुसार होता है। इसी लिए वाजपेयीजीनेपरसर्ग वाले वाक्यों को कर्मवाच्य का वाक्य मानते हैं। जैसे - मैंने मिठाई खाई। बच्चे ने दूध पिया। तुमने चिट्ठियाँ लिखीं - आदि। परंतु ये सभी वाक्य कर्तृवाच्य के हैं। सिर्फ वाजपेयीजी इन्हें कर्मवाच्य मानते हैं। कर्मवाच्य तथा भाववाच्य की क्रियाएँ हिंदी मेंजानाक्रिया जोड़ने से बनती हैं - किया जाना, पिया जाना, लिखा जाना, उठा जाना, बैठा जाना आदि। इसी आधार पर इन वाक्यों के कर्मवाच्य बनेंगे – मेरे द्वारा मिठाई खाई गई/बच्चे के द्वारा दूध पिया गया/तुम्हारे द्वारा चिट्ठियाँ लिखी गईं। न कि मैंने मिठाई खाई। बच्चे ने दूध पिया। तुमने चिट्ठियाँ लिखीं।

5. वाजपेयीजी की जिस भाषा-शैली पर परामर्शक मंडल को घोर आपत्ति थी, उसका सिर्फ एक नमूना देखिए। वाजपेयीजी हिंदी में लिंग-निर्णय कैसी मौलिक उद्भावना के साथ करते हैं

कहीं कोईपुस्तकजैसा शब्द दौड़कर किताब के साथ जनाने डिब्बे में जा बैठा! वहीं रम गया! ‘पुस्तक अच्छी हैऔरग्रंथ अच्छा है।’ ‘पुस्तक अच्छा हैकुछ जँचता नहीं।पुस्तकशब्दपोथीयाकिताबके स्त्रीवर्ग में चल पड़ा है। संस्कृत मेंपुस्तकशब्द का चलन बहुत प्राचीन नहीं है। बहुत संभव है, ईरान में बोली जाने वाली आर्यभाषा के किसी रूप में यह शब्द चलता हो और वहीं से कुछ रूपांतरित होकर भारतीय संस्कृत में आ गया हो और इसी लिएकिताबके मिलने पर हिंदी में उस ओर फिर झुक गया हो।(सुज्ञ पाठक विचार करें, क्या इस तरह से व्याकरण लिखा जाता है। पूरी पुस्तक की यही अटपटी शैली है।)

6. ‘जानाक्रिया अकर्मक है। इसमें किसी को संदेह नहीं हो सकता। परंतु वाजपेयीजी इसेगत्यर्थक सकर्मकक्रिया कहते हैं - राम काशी गया। लड़की वृंदावन गई। (हिं. . पृ. 142)

7. अंग्रेजी व्याकरण की पद्धति पर हिंदी में तीन प्रकार के वाक्य माने गए हैं - 1. सरल, 2. संयुक्त तथा 3. मिश्र या जटिल। परंतु वाजपेयीजी इसे व्यर्थ का गोरखधंधा मानते हैं। वे सिर्फ दो ही प्रकार मानते हैं - 1. सरल तथा 2. संयुक्त। उनका वाक्य-विवेचन बहुत संक्षिप्त है। कारण कि उनका सारा ध्यान शब्द-विवेचन पर केन्द्रित है।

8. जो बात दो-चार पंक्तियों या वाक्यों में अधिक सार्थक ढंग से कही जा सकती है, उसके लिए वाजपेयीजी कई पन्नों का सहारा लेते हैं। ऐसा करने में ही वे केंद्र से भटक जाते हैं।

यहाँ यह सवाल हो सकता है कि क्या आ. वाजपेयी के लेखन में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो उपयोगी तथा सार्थक हो? क्या सब कुछ निरस्त करने योग्य है? इसका पहला जवाब व्याकरण परामर्शक मंडल के उन सुझावों में निहित है, जिनको आ. वाजपेयी ने मानने से इनकार कर दिया था। उसका उल्लेख पहले किया जा चुका है।

मैं अपनी बात डॉ. अनंत चौधरी के शब्दों में कहना चाहता हूँ - ‘हिंदी शब्दानुशासनके रूप में उन्होंने हिंदी का जो व्याकरण प्रस्तुत किया है, वह अनेक दृष्टियों से मौलिक तथा महत्त्वपूर्ण होने पर भी असंतुलित भाषा, अप्रासंगिक उक्तियों, वैयक्तिक प्रसंगोल्लेख, अनावश्यक आवृत्तियों, विवेचन संबंधी अव्यवस्था तथा शास्त्रानुरूप गंभीर एवं मर्यादित शैली के अभाव के कारण उपवन नहीं, वन बनकर वन ही बना रह गया है। (हिंदी व्याकरण का इतिहास, पृ. 649)

संतुलित दृष्टि तथा सकारात्मक अभिगम के अभाव में कैसे बड़ी-बड़ी प्रतिभाएँ भटक जाती हैं, पं. किशोरीदास वाजपेयी इसके प्रमाण हैं।

आधार पुस्तकें :

1. हिंदी व्याकरण का इतिहास : डॉ. अनंत चौधरी, बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, पटना, प्र. सं., 1972

2. हिंदी शब्दानुशासन : . किशोरीदास वाजपेयी, काशी नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, द्वि संस्करण, सं. 2023

3. भारतीय भाषाविज्ञान : . किशोरीदास वाजपेयी, चौखंबा विद्याभवन, वाराणसी, प्र. सं., वि. सं. 2016

4. राष्ट्रभाषा का प्रथम व्याकरण : . किशोरीदास वाजपेयी, जनवाणी प्रकाशन, कलकत्ता, प्र. सं., 1949

6. हिंदी की वर्तनी तथा शब्द-विश्‍लेषण : . किशोरीदास वाजपेयी, राजधानी ग्रंथागार, दिल्ली, प्र. सं. 1968

 

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र


 

 

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