मंगलवार, 26 मार्च 2024

पुस्तक चर्चा

 

कब तक पुकारूँ

(उपन्यास/रांगेय राघव)

प्रो. ऋषभदेव शर्मा

भारतीय साहित्य में महानायकों और विराट चरित्रों की एक लंबी परंपरा के बावजूद हमेशा साधारण मनुष्यों और दबे-कुचले पात्रों को भी प्रतिनिधित्व मिला है। साहित्य को करुणा से उत्पन्न मानने वाले रचनाकारों ने अपने अनुभव के इस सच को पहचाना है कि समाज का साधनहीन वर्ग तमाम तरह की वंचनाओं के बीच जो त्रासदियों से भरी हुई जिंदगी जीता है, उससे अधिक विडंबनापूर्ण और कारुणिक कुछ और हो ही नहीं सकता। स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों ने इसी कारण लेखकों का ध्यान अपनी शोषित, दमित स्थिति की ओर हमेशा खींचा है।  आधुनिक युग में यथार्थवादी विधाओं के अधिक चलन के साथ समाज की ऐसी कड़वी सच्चाइयों के चित्रण को और भी अधिक महत्व मिला। धीरे-धीरे चमत्कारी महानायकों और वीरांगनाओं को अपदस्थ करके दलित-शोषित समाज के साधारण चरित्र साहित्य के केंद्र में आ गए।  उपन्यास जैसी विधा में वंचितों, उपेक्षितों और साधारण स्त्रियों के जीवन-संघर्ष को उनकी अपनी भाषा के मुहावरे में ढालकर व्यक्त किया गया।  ऐसे जन साधारण के प्रतिनिधि चरित्रों का सृजन करने वाले लेखकों में रांगेय राघव (1923 -1962) का नाम अत्यधिक आदर के साथ लिया जाता है।  

रांगेय राघव मूलतः दक्षिण भारतीय परिवार में जन्मे जो कि कई पीढ़ियों पूर्व राजस्थान में जा बसा था।  उनका मूल नाम तिरुमलै नम्बाकम वीर राघव आचार्य था। उनका बचपन आगरा में बीता और शिक्षा-दीक्षा भी वहीं हुई।  किशोरावस्था से ही उन्होंने लेखन आरंभ कर दिया था।  उन्नीस वर्ष की आयु में अकाल पीड़ित बंगाल की यात्रा की।  इस यात्रा से लौटने पर उन्होंने ‘तूफ़ानों के बीच’ शीर्षक रिपोर्ताज लिखा।  ‘रिपोर्ताज’ विधा के प्रारंभकर्ताओं में वे एक थे।  उन्हें लिखने के लिए मात्र बीस वर्ष का समय मिला क्योंकि केवल 39 वर्ष की उम्र में, 1962 में, उनका असामयिक निधन हो गया।  इस बीच डॉ. रांगेय राघव ने कविता, कहानी, सभ्यता-विषयक खोजपूर्ण ग्रंथ तथा आलोचना के क्षेत्र में 150 से अधिक कृतियों की रचना करके हिंदी साहित्य के भंडार में अद्वितीय योगदान किया।  इन सभी रचनाओं में जीवन और जगत के प्रति उनका प्रगतिशील दृष्टिकोण देखा जा सकता है।  उनके मन में स्त्री जाति के प्रति सच्चा सम्मान और दलित-शोषितों आदिवासी जनजातियों के प्रति गहरा दर्द विद्यमान था।  इसी आत्मीय रिश्ते के कारण उनकी कृतियों में इन समुदायों की पीड़ा के वास्तविक चित्र प्राप्त होते हैं, जो पाठक को झकझोर कर रख देते हैं।  आगरा के आसपास के इलाकों में वर्तमान आदिवासी जनजाति नट/ करनट के जीवन का उन्होंने उनके बीच रहकर सघन परिचय प्राप्त किया था।  इस समुदाय के जीवन-यथार्थ को प्रस्तुत करने वाला उनका उपन्यास ‘कब तक पुकारूँ’ (1957)  वास्तव में एक कालजयी रचना है।  

‘कब तक पुकारूँ’ में मुख्य पात्र सुखराम के माध्यम से आदिवासी समस्या के विविध पहलुओं को उजागर किया गया है।  ऐसा करते हुए लेखक ने भारतीय मध्यकालीन पुरुषवादी सामंती समाज की तमाम सड़ांध-भरी परंपराओं के अवशेषों की पोटली भी खोलकर पाठक के सामने रख दी है।  साथ ही ‘प्यारी’, ‘कजरी’ और ‘धूपो’ जैसे तेजस्वी पात्रों के बहाने भारतीय स्त्री के उस रूप को सामने रखा है जिसमें आँसुओं में गले जाते दिल का लिजलिजापन नहीं है बल्कि हर तरह के शोषण और दमन से लोहा लेने की चारित्रिक दृढ़ता विद्यमान है।  अपनी तेजस्विता में कजरी ‘गोदान’ की धनिया से अगली पीढ़ी की स्त्री प्रतीत होती है, जबकि धूपो संगठन-शक्ति से भरी हुई दलित वर्ग की वह स्त्री है जो रांगेय राघव के समय में विद्यमान नहीं थी।  उस समय वह भविष्य की नारी थी, जिसकी कल्पना बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में जाकर तब साकार हुई जब दलित और आदिवासी समुदायों की स्त्रियों ने व्यापक सामाजिक और राजनैतिक संदर्भों में अपना सार्थक हस्तक्षेप दर्ज किया।  

समाज के संपन्न वर्ग ने साधनहीन दलित-शोषितवर्ग को हमेशा अपना गुलाम समझा।  एक ओर तो उसने उन्हें शूद्र और पंचम वर्ण कहकर अछूत करार दिया और यह पाखंड किया कि उनकी छाया तक छू जाने से सब कुछ अपवित्र ही नहीं, बल्कि पापमय हो जाता है।  दूसरी ओर उनकी स्त्रियों को अपने मनोरंजन और उपभोग की सामग्री बनाकर रखा।  मानो अछूत औरतों के साथ बलात्कार और यौनाचार उन्हें छुए बिना ही हो जाता है! जिनका छुआ पानी तक पीने से धर्म भ्रष्ट होता हो उन्हीं की स्त्रियों को छूने से इन उच्च वर्णों का कुछ भी क्यों भ्रष्ट नहीं होता – यह सवाल भी ‘कब तक पुकारूँ’ में प्यारी ने उठाया है।

सच्चाई यह है कि संपन्न और उच्च जातियों के पुरुष अपने घरों और खेतों में काम करने वाली दलित और आदिवासी महिलाओं का यौन-शोषण उनकी गरीबी के कारण ही कर पाते हैं।  ऊपर से उन्हीं को चरित्रहीन भी घोषित किया जाता है।  इस तथाकथित चरित्रहीनता की पोल खोलते हुए सुखराम की माँ बेला अपने पति के सामने यह खुलासा करती है कि पति को जेल से छुड़ाने के लिए ही उसने दारोगा करीमखां का बिस्तर गरम करना स्वीकार किया था।  इसी प्रकार भीषण अकाल पड़ने पर पति और पुत्र की रोटी की व्यवस्था करने के लिए उसे धनपतियों के साथ रातें काटकर कमाई करनी पड़ी।  बेला का यह खुलासा कोई अतिरंजना नहीं है, बल्कि धनपतियों द्वारा दलितों के शोषण की रोज की दास्तान का एक शर्मनाक नमूना भर है।  यहाँ प्रश्न उठता है कि चरित्रहीन सुखराम की माँ है, या फिर वे दारोगा, जमींदार और धनपशु जो निर्लज्जतापूर्वक उसके पत्नीत्व और मातृत्व का मांस भक्षण करते हैं।  इसी प्रश्न से दलित और जनजातीय चेतना का जागरण जुड़ा हुआ है।  

‘कब तक पुकारूँ’ का नायक सुखराम वास्तव में दलित और आदिवासी समुदायों का प्रतिनिधि है।  जब खेचरा चमार की पत्नी धूपो के साथ उच्च वर्ग का एक गुंडा बलात्कार की कोशिश करता है तो धूपो के रोने पर सुखराम उसकी दलित चेतना को जगाते हुए कहता है “तुम रोओ नहीं।  सहो।  और नहीं सहा जाता तो लड़ो। ” सुखराम दलित व आदिवासी चेतना का वाहक है।  उसके और कजरी के माध्यम से रांगेय राघव ने दलितों और आदिवासियों का दिन-रात खून चूसने वाले पुलिस दारोगा, सरकारी कर्मचारी, गाँव के साहूकार, महाजन और राजनैतिक व्यवस्था के प्रतिनिधि नेता जैसे परजीवियों पर व्यंग्य के तेज हमले किए हैं।  उन्होंने उच्च वर्ग की दोहरी नैतिकता को भी घटनाओं के माध्यम से प्रकट किया है।  गांधीवादी ठाकुर विक्रमसिंह का सारा समाजसुधार का ढोंग उस समय धराशायी हो जाता है, जब उन्हें पता चलता है कि उनका पुत्र एक दलित कन्या से प्रेम करता है और विवाह भी करने को तैयार है।  लेकिन विडंबना यह है कि दलित जातियों के प्रति समाज के निम्नवर्णों में ही उनसे उच्चतर समझी जाने वाली जातियाँ भी भेदभाव का व्यवहार करती है।  इसका चित्रण भी लेखक ने बखूबी किया है।  

इन तमाम परिस्थितियों के बीच सुखराम को लेखक ने एक संघर्षशील और जुझारू चरित्र के रूप में दिखाया है जिसमें विद्रोह, साहस, जिंदादिली और मूल्यचेतना भरी हुई है।  वह हाशियाकृत समाज के जागरण का प्रतीक पात्र है।  उसे बार-बार बचपन में पिता द्वारा कही गई यह बात याद आती है कि वह नट नहीं अधूरे किले का मालिक और उत्तराधिकारी है।  दरअसल समाज के अधूरे किले के वास्तविक मालिक और उत्तराधिकारी वे दलित और आदिवासी ही हैं, जिन्हें सैकड़ों साल से सत्ता पर आसीन प्रभु वर्ग ने उनके अधिकारों से बेदखल कर रखा है।  दलितों व आदिवासियों के शोषण और उनमें जागती हुई जुझारू चेतना की प्रामाणिक जानकारी से भरा होने के कारण ‘कब तक पुकारूँ’ दलित व आदिवासी विमर्श से युक्त चेतना संपन्न कृतियों में अप्रतिम है।          

 

प्रो. ऋषभदेव शर्मा

208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स

गणेश नगर, रामंतापुर

हैदराबाद – 500013

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