मंगलवार, 26 मार्च 2024

कविता

 


श्रमिक

रांगेय राघव

वे लौट रहे

काले बादल

अंधियाले-से भारिल बादल

यमुना की लहरों में कुल-कुल

सुनते-से लौट चले बादल

 

'हम शस्य उगाने आए थे

छाया करते नीले-नीले

झुक झूम-झूम हम चूम उठे

पृथ्वी के गालों को गीले

 

'हम दूर सिंधु से घट भर-भर

विहगों के पर दुलराते-से

मलयांचल थिरका गरज-गरज

हम आए थे मदमाते से

 

'लो लौट चले हम खिसल रहे

नभ में पर्वत-से मूक विजन

मानव था देख रहा हमको

अरमानों के ले मृदुल सुमन

 

जीवन-जगती रस-प्लावित कर

हम अपना कर अभिलाष काम

इस भेद-भरे जग पर रोकर

अब लौट चले लो स्वयं धाम

 

तन्द्रिल-से, स्वप्निल-से बादल

यौवन के स्पन्दन-से चंचल

लो, लौट चले माँसल बादल

अँधियाली टीसों-से बादल

रांगेय राघव

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुंदर रचना, मन में गहरी पैठ बनाने वाली - रवि कुमार शर्मा, इंदौर

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