रविवार, 12 नवंबर 2023

विशेष

 



आ गई दीपावली....  

प्रो. बीना शर्मा

            कार्तिक मास, अमावस्या तिथि तो दीपावली का आना बनता है।  दो दिन पहले ही प्रकाश पर्व का आगाज हो चुका है। सप्ताह पूर्व ही बाजार गुलजार हो चुके हैं। घर लिप पुत कर विद्युत लड़ियों की सजावट से अपनी आभा बिखेर रहे हैं।  घरों का कचरा और टूटा फूटा सामान कबाड़ी की भेंट चढ़ चुका है।  अब ये अलग बात है कि आपके घर का कबाड़ भी किसी गरीब की झोंपडी में सज  चुका है और हम अपने-अपने गृह सहायक सहायिका को कबाड़ दे उस पर अहसान लाद चुके हैं। अमीर-गरीब सबने कोशिश तो खूब की है कि घर सज सँवर सके।  तो जिसकी जैसी सामर्थ्य है सब अपनी अपनी चादर में पैर फैला कर दीपावली मनाने को तैयार है।  

मध्यमवर्गीय घरों में चूल्हे पर कढाई चढ़ चुकी है।  भले ही बाजार में सब रेडीमेड मिलता हो।  मिठाइयाँ के थाल के थाल और पैकेट लदे पड़े हो पर गृहणियों को अपने हाथ से बनाए खिलाए बना चैन कब आता है।  सो कहीं बेसन भुनने और मावा मिठाइयों को बनाने का दौर जारी है तो कहीं मीठे नमकीन सकर पारे और मठरी तले जाने की खुशबु आ रही है। जिधर देखो उधर उत्साह का माहौल है।  जिनके पास रेज का पैसा भरा पड़ा है  लक्ष्मी बरस रही है वे सोने-चाँदी के सिक्के आभूषण खरीदने में लगे पड़े हैं और कुछ अपनी गरीबी के चलते दो समय की रोटी की जुगत भिड़ा रहे हैं।  जिनके घर भंडार भरे पड़े हैं उनके घर तो रोज दीपावली-सी है।  दीया तो गरीब की झोंपडी में भी प्रकाशित होगा आखिर तो साल भर का त्यौहार है।  

असल बात तो उजाले की है प्रकाश की है फिर वह मिट्टी का छोटा सा-दीया हो या जगमगाती रोशनी बिखेरती बिजली की लड़ियाँ हों। एक छोटा दीप भी अंधेरे को दूर करता ही है।

याद आते हैं गोपाल दास नीरज –

‘जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना

अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये।’

कितने भी दीप जलाओ पर मन का अंधेरा तो तभी मिटता है जब मनुज स्वयं दीप का रूप धर आए।  दूसरों को प्रकाशित करने के लिए स्वयं दीप्त होना जरूरी है।  जलते दीपक से ही दूसरा दीपक जलाया जा सकता है । उजाले की पंक्ति तैयार की जा सकती है।  माटी का दीपक  स्नेह की बाती  और तेल की स्निग्धता में कैसी रोशनी बिखेरता है कि निशा आने और उषा जाने का साहस खो बैठती है।  सब और प्रकाश ही प्रकाश फैल जाता है।  जगमग-जगमग हो जाता है।  मन कैसा उलसता उमगता  है सुर फ़ूट पड़ते हैं ज्योति कलश छलके।  खुद खुश होते हो तो सामने वाले को भी खुशी दे पाते हो।  सबकी  झोली में खुशियाँ भर देते हो।  तो बस जैसे भी हो मन को खुश रखो और मन की खुशियाँ पैसों  से  कहाँ खरीदी जाती हैं भला । वह तो अपने अंदर से आती है।  मन भरा पूरा हो तो बिना माल जाये भी सारी खुशियाँ झोली में आ गिरती हैं।  

दीप से दीप जलते रहें, सब को खुशियाँ बाँटते रहें, वाणी में मधुरता बनाए रखें, कड़वे बोलों को तिलांजलि दें, सबका शुभ मनाते रहें तो मन गई दीपावली।  असत से सत, अंधकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरत्व की ओर चलना ही तो ध्येय है।  तो बस ज्ञान का दीप जलता रहे रोशनी बिखेरता रहे अज्ञान को  दूर करता रहे  तो  मन गई दीपावली। और क्या चाहिए इस मन को?  बस प्रकाश ही न! प्रकाश हो तो सब साफ़ साफ़ दिखता है।  गलती की गुंजाइश ही नहीं रहती। बस जीवन में प्रकाश भरा रहे उजास फैलता रहे, अंधकार दूर हो, गलतफहमियाँ दूर हों, फासला मिट सके। जो आत्मीय किसी भी कारण से दूर हो गए हैं उनसे मन मिलते रहें, मनमुटाव दूर हों, गले मिल सकें गिले शिकवे दूर हों। आखिर जिंदगी है ही कितनी-सी। आज हैं कल किसने देखा है।  तो जो मन में हैं सब कह लेते हैं सबसे मिल लेते हैं।  होली दिवाली तो आती ही बिछुडो को मिलाने को हैं। तो चलो दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं और मिल कर हँसी खुशी दीपावली मनाते हैं।  

आप सभी को दीपावली शुभ हो।

 

प्रो. बीना शर्मा

पूर्व निदेशक, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा

संप्रति विभागाध्यक्ष अंतरराष्ट्रीय हिंदी शिक्षण विभाग

केंद्रीय हिंदी संस्थान

आगरा 

 

1 टिप्पणी:

  1. हार्दिक बधाई दीपावली की। बहुत बढ़िया आलेख शुभकामनाओं सहित नीलम भटनागर ,आगरा।

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