रविवार, 12 नवंबर 2023

व्यंग्य

 



लक्ष्मीजी से मुलाक़ात

डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

दीपावली की रात को जब सोने का वक़्त हुआ, तब भी श्रीमती ने घर का दरवाजा खुला छोड़ दिया। हमने उत्सुकता वश पूछा, “क्यों, क्या बात है ?”

आज की रात लक्ष्मीजी आती हैं।” श्रीमती ने उत्तर दिया।

लक्ष्मीशब्द सुन कर हमारी आँखों के आगे लक्ष्मी के अनेक रूप उभर कर आने लगे ।

एक लक्ष्मी वह है, जो बस स्टैण्ड पर फटे कपड़ों में मुसाफ़िरों से भीख माँगती फिरती है।

उसका नाम भी लक्ष्मी है, जो ठेकेदार की बँधुआ मजदूरी में है और ईंटें ढोने का काम करती है।

वह भी तो लक्ष्मी ही है, जो महाशय मलूकचंद के यहाँ बर्तन माँजती है और महाशय जी की कृपा से इन दिनों उसके पाँव भारी हैं।

पड़ोसी की लड़की का नाम भी लक्ष्मी ही है। उसके उद्दण्ड और आवारा भाई पर घर में सब लाड़-प्यार उड़ेलते हैं, पर लक्ष्मी को हर समय लताड़-दुत्कार ही मिलती है, क्योंकि वह बेटा नहीं, बेटी है।

कहने को सब उसे भी लक्ष्मी ही कहते हैं, जो रोज़ रात को अपने शराबी पति से पिटती है और अपने आँचल से बेबसी के आँसू पोंछ कर रह जाती है ।

श्रीमती जी का इन लक्ष्मियों से क्या लेना-देना था। उनका मतलब तो उन लक्ष्मीजी से था, जो भगवान् विष्णु की चंचला धर्मपत्नी और धन की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं।

हमें डर था कि रात को दरवाज़ा खुला देख कर कहीं घर में चोर न घुस आए और आसानी से कबाड़ा कर नौ दो ग्यारह हो जाएँ, लेकिन गृह- लक्ष्मी की बात मानते तो शनीचर कहलाते, सो चुप रहे। थोड़ी देर जागते रहे फिर पता नहीं कब पलकें झपने लगीं और नींद आ गई ।

आदमी के अवचेतन में जो बात रहती है, वही उसे सपने में दिखाई देती है। हम लक्ष्मीजी का ध्यान करते-करते सोये थे, सो सपने में देखा कि सचमुच लक्ष्मी जी सामने खड़ी हैं।

हमने उनके स्वागत में मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर का सहारा यों लिया- आप पधारीं हमारे घर पर खुदा की क़ुदरत है, कभी हम आपको, कभी अपने घर को देखते हैं।

लक्ष्मीजी मुसकराईं। बोलीं, “यह औपचारिकता और मक्खनबाजी छोड़ो। पहले मेरे कुछ सवालों का जवाब दो ।”

हम खुशी के मारे फूल कर कुप्पा हो गए, “पूछिए, जो पूछना चाहें। बंदा हाजिर है।”

लक्ष्मी जी का पहला सवाल था, “तुम अभी कुँवारे हो या विवाहित ? “

प्रश्न सुन कर हमें बड़ा अटपटा लगा। क्या लक्ष्मी जी को यह भी नहीं पता कि हम बैचलर की डिग्री कभी की खो बैठे हैं और हमारी श्रीमती जी बैचलर से मास्टर की डिग्री हासिल कर चुकी हैं, पर हमने बिना कुछ कहे, उत्तर दिया, “पूरी तरह विवाहित हैं ।

बाइ द वे, दहेज के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है ?”

दहेज को हम लड़की वालों के लिए एक अभिशाप मानते हैं और लड़के वालों के लिए लूट का माल । हम दहेज के हमेशा विरोधी रहे। अपनी शादी में तो क्या, हमने अपने दोनों बेटों के विवाह में भी दहेज की माँग नहीं की।” (तभी भीतर से धीरे से आवाज़ आई, ‘जब माँगा ही नहीं, तो कोई देता भी क्यों!’) “लाटरी के टिकट खरीदते हो?”

नहीं, भूल कर भी नहीं । लाटरी भी तो एक जुआ है और जुआ खेलना महापाप है ।”

रिश्वत लेते हो?”

नहीं, बिलकुल नहीं।”

बड़े बेवक़ूफ़ हो । रिश्वत तो अब बहुत कॉमन चीज़ है।”

बात यह है मैडम कि हम प्राध्यापक हैं। एक तो मास्टरी के पेशे में रिश्वत है कहाँ? दूसरे हम लेने की नीयत भी करें, तो हमें देता कौन है? लोग परीक्षा के दिनों में नंबर बढ़वाने अवश्य आते हैं, किंतु उनके साथ हमारा कोई घनिष्ठ परिचित अथवा रिश्तेदार भी टिकट-सा चिपका रहता है। वे अपना काम करवाते हैं और गाँठ की चाय भी पी जाते हैं।”

कोचिंग क्लास तो चलाते ही होंगे?”

नहीं, वह भी नहीं। कोचिंग करने का परम सौभाग्य तो कॉमर्स तथा साइंस के टीचरों को मिला है। हम ठहरे राष्ट्र-भाषा हिन्दी के अध्यापक । हिन्दी जैसे विषय में ट्यूशन कौन पढ़ता है। जो भी आता है, घंटे दो घंटे मुफ़्त में पढ़ जाता है और परीक्षा के समय आवश्यक प्रश्नोंपर निशान लगवा ले जाता है। नक़ल करने के लिए बाज़ार में गैस पेपर मिल ही जाते हैं।”

साहित्य में कुछ दख़ल रखते हो? आई मीन, कुछ लिखते-लिखाते भी हो?”

हाँ शुरू-शुरू में कविता लिखते थे, पर नई कविता के ज़माने में छंदोबद्ध कविता मुश्किल से छपती थी। पारिश्रमिक के पैसे भी प्रायः नहीं मिलते थे।”

कवि-सम्मेलनों में तो जाते होगे?”

संयोजकों से हमारी कोई रैट-पैट नहीं। हम खुद संयोजक बन कर कवि-सम्मेलनों के आयोजन का धंधा नहीं करते। जब हम किसी कवि को नहीं बुला पाते तो दूसरा हमें क्यों बुलाने लगा ? यह तो अदले-बदले का बायना है, दो और लो वैसे भी कवि-सम्मेलन अब पहले जैसे कहाँ रहे? आजकल उनमें कविता कम, भँड़ैती ज़्यादा होती है । वह हमारे वश की बात नहीं। इसलिए.....”

कवि-सम्मेलनों में जाने का मन नहीं करता, यही न?” लक्ष्मीजी खिलखिल पड़ीं, “तो कविता के अलावा कुछ और लिखते । कुछ लिखा ?”

हाँ, व्यंग्य के आठ संग्रह छप चुके हैं, जिनकी पाठकों और समीक्षकों ने सराहना भी की है।”

तब तो अच्छी-खासी रॉयल्टी झाड़ते होंगे?”

रॉयल्टी? अजी, भगवान् विष्णु का नाम लीजिए। लेखक को रॉयल्टी तो तब मिले; जब प्रकाशक में लॉयल्टी हो । पहला संग्रह छापते वक़्त प्रकाशक ने लाग की आधी रक़म धरवा ली। बाद में उसके बदले में थोड़ी-सी पुस्तकें चेंप दीं। दूसरी पुस्तक के प्रकाशक ने कुछ लिया नहीं, तो कुछ दिया भी नहीं । सारी पुस्तकें खुद ही बेच खाईं। शेष संग्रह अपनी जेब से छपवाए हैं। उनकी आधी से अधिक प्रतियाँ उपहार तथा समीक्षार्थ चली गईं और बाक़ी प्रतियाँ पीहर की तीहरसी दीमकों का ग्रास बन रही हैं।”

किसी पुस्तक पर कोई पुरस्कार प्राप्त हुआ?”

नहीं, दो बार अख़बार में विज्ञप्ति पढ़ कर एक जगह पुस्तकें भेजी थीं, परंतु पुरस्कार-समिति में कोई जान-पहचान का व्यक्ति नहीं था। पुरस्कार तो अब तिकड़म और साँठ-गाँठ से झटके जाते हैं। हम किसी खेमे में भी नहीं हैं। तीसरी बार पुस्तकें भेजने की हिम्मत नहीं हुई।”

तुम्हारा कोई लड़का डॉक्टर या इंजीनियर है?”

नहीं, दोनों में से कोई भी नहीं ।”

अध्यापन के साथ-साथ कोई साइड बिजनैस भी करते हो? जैसे प्रापर्टी डीलिंग, कॉलोनाइजेशन आदि का काम ?”

नहीं, क्योंकि ये धंधे झूठ, बेईमानी और झगड़ेख़ोरी के बिना नहीं कर सकते।”

पुलिस के दलाल हो?”

वह भी नहीं। इसका तो मन में कभी ख़याल ही नहीं आया ।”

तस्करी का धंधा भी नहीं करते?”

हमने सोचा, लक्ष्मीजी मसखरी कर रही हैं। मुसकान बिखेरते हुए हमने कहा, “नहीं जी, नहीं। न तो हमें स्मैक वग़ैरह लेने की आदत है और न विदेशी वस्तुओं के प्रति हमारे मन में कोई मोह। हम स्वदेशीके हिमायती हैं। सोने-चाँदी के बिस्कुटों की भी कोई तमन्ना नहीं। फिर तस्करी किसलिए ? यों भी तस्करी में रिस्क बहुत है और इसे हम देश-द्रोह से कम नहीं मानते ।”

क्या राजनीति में आने और नेता बन जाने का कोई इरादा है, कई राजनेता और मंत्री पहले फ-टीचर ही थे।”

“नहीं, राजनीति में घुसपैठ करने का हमारा कोई इरादा नहीं। हालाँकि हमें भाषण देना खूब आता है। छात्र संघ में मंत्री रह कर हम स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री, बाबू जय प्रकाश नारायण, पृथ्वीराज कपूर, प्रेमनाथ डोंगरा जैसे नेताओं और महापुरुषों के सामने एक्सटेम्पोर बोल चुके हैं। हमने तब यूनियन की नाक ऊँची की और अपनी धाक जमाई, लेकिन आज भूखी, ग़रीब और दुखी जनता को राशन की ज़रूरत है, भाषण की नहीं। नेताओं की तरह झूठे आश्वासन देने में भी हम एकदम अनफिट अब राजनीति वास्तव में गंदा खेल हो गई है। हम जैसा अनाड़ी आदमी उसे नहीं खेल सकता, खेलने की कोशिश भी करेगा तो धड़ाम से चारों खाने चित्त गिरेगा।”

हम धड़ाधड़ बोले चले जा रहे थे कि अचानक लक्ष्मीजी का मूड ऑफ हो गया । झुँझलाते हुए बोलीं, “तुम्हारे पास है क्या? कभी तुम्हारे यहाँ चोरी हुई नहीं।  सी. बी. आई. या आयकर वालों का छापा पड़ा नहीं । न ऐसा कुछ करते-धरते हो और न करना ही चाहते हो, जिसके कारण आसानी से अच्छी कमाई-धमाई हो सके।  घिसे-पिटे, कोरे आदर्शों की टूटी-सी बकुचिया लिए बैठे हो और इच्छा करते हो कि तुम्हारे घर छम-छम करती लक्ष्मी चली आए। मेरे लिए तुम मेकअपका सामान तक नहीं जुटा सकते। मैं तो क्या, कोई भी निगोड़ी तुम्हारे यहाँ पैर नहीं रखेगी। मेरी सीधी-सादी बहिन सरस्वती भले ही रह ले। जाओ, मुँह धोकर आओ। तुम लक्ष्मीवान् क्या, लक्ष्मी वाहन भी बनने के क़ाबिल नहीं।”

हमने बुझे मन से सफाई देनी चाही, लेकिन लक्ष्मीजी इसके लिए कतई तैयार न थीं। बोलीं, ‘गोस्वामी जी की चौपाई सुनी ही होगी कि सकल पदारथ हैं जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं।’ तुम सचमुच कर्महीन हो, इसीलिए दीन-हीन हो। तुम मेरी कृपा के पात्र कदापि नहीं हो सकते। तुम्हारे यहाँ आने से तो हज़ार बार बेहतर है कि किसी उठाईगीरे के घर रहूँ।  समझ लेना मिस्टर कि नौकर के लिए इण्टरव्यू में गए थे और रिजैक्ट कर दिए गए।”

आँख खुली तो लक्ष्मीजी नदारद थीं। हाँ, श्रीमती जी जरूर सूप बजा-बजा कर रट लगा रही थीं, “भाग दलिद्दर, लक्ष्मी आई। भाग दलिद्दर....” ।”


 

डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

आगरा

1 टिप्पणी:

  1. रवि कुमार शर्मा इंदौर14 नवंबर 2023 को 4:05 pm बजे

    वर्तमान स्थिति और परिस्थिति का सही आकलन कर लिखा गया व्यंग यदि सच में लक्ष्मी जी ने पढ़ लिया तो वह भी आज की व्यवस्था पर शर्मसार हो जावेगी ।

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