गुरुवार, 14 सितंबर 2023

विमर्श

 


षड्यंत्रों से संघर्ष करती हिंदी

हिमकर श्याम

संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा होने के बावजूद हिंदी षड्यंत्रों से संघर्ष करती रही है। स्वाधीनता के बाद से हमारे देश में, हिंदी के खिलाफ षड्यंत्र रचे जाते रहे हैं। इसी का परिणाम है कि हिंदी आजतक अपना अनिवार्य स्थान नहीं पा सकी है। हम अपनी मानसिक गुलामी की वजह से यह मान बैठे हैं कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम नहीं चल सकता। 

प्रत्येक विकसित तथा स्वाभिमानी देश की अपनी एक भाषा अवश्य होती है जिसे राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त होता है। शायद भारत इकलौता ऐसा देश है, जिसकी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हमारी सरकारी सोच पर अंग्रेजी हावी है। तुर्की जब आजाद हुआ तो एक हफ्ते में वह विदेशी भाषा के चंगुल से मुक्त हो गया था। मुस्तफा कमाल पाशा की इच्छाशक्ति ने अविश्वसनीय समय में तुर्की को राष्ट्रभाषा बना दिया। इससे ठीक उलट 15 अगस्त 1947 की आधी रात को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस देश के 30 करोड़ लोगों को अंग्रेजी में संबोधित किया। नेहरू के विचार में राजव्यवहार के लिए अंग्रेजी अनिवार्य थी। बाद की सरकारें इसी नजरिये से सोचती रहीं। नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रीयता और राष्ट्रभाषा की सोच पीछे छूट गयी।

लोकभाषा को महत्व दिए बिना लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का कोई भी अंग संतोषजनक ढंग से तब तक काम नहीं कर सकता जब तक की उसकी भाषा लोकभाषा के अनुरूप नहीं हो। आज भी भारतीय न्यायालयों में अंग्रेजी में ही कामकाज होता है। हिंदी या अन्य स्थानीय भाषाओं में नहीं।  राज्यभाषा पर संसदीय समिति ने वर्ष 1958 में यह अनुशंसा की थी कि उच्चतम न्यायालय में कार्यवाहियों की भाषा हिंदी होनी चाहिए। लेकिन देश के उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों की कार्यवाहियाँ अंग्रेजी भाषा में ही संपन्न होती रही। संविधान की भाषा संबंधित नीति में कहा गया है कि जब तक हिंदीत्तर क्षेत्रों के तीन-चैथाई सदस्य एकमत से हिंदी स्वीकार नहीं करते तब तक अंग्रेज चलती रहेगी। संविधान के अनुच्छेद 348 में यह कहा गया है कि संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियाँ अंग्रेजी भाषा में होगी।

 

हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा हासिल करने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। यह दर्जा भी केवल कागजों तक ही सीमित रहा। आज भी यह सवाल अनुत्तरित है कि भारत की राष्ट्रभाषा क्या है? गुजरात उच्च न्यायालय के अनुसार ऐसा कोई प्रावधान या आदेश रिकार्ड में मौजूद नहीं है जिसमें हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया हो। हिंदी मातृभाषा है, राजभाषा है अथवा संपर्क भाषा, इस पर चर्चा हमेशा से होती रही है।  वर्ष 1965 में संसद द्वारा हिंदी राजभाषा अधिनियम पारित किया गया था। तभी से हिंदी को स़िर्फ राजभाषा का दर्जा हासिल है, लेकिन राष्ट्रभाषा का नहीं। शासकीय कामकाज, रोजगार और शिक्षा हर जगह हिंदी की उपेक्षा की जा रही है। जब तक अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा हिंदी का बढ़ना मुश्किल है।

करोड़ों लोगों की भाषा शासन और न्याय की भाषा क्यों नहीं बन सकती है? राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार पर करोड़ों रुपए का व्यय तो हो रहा है, वांछित फल नहीं प्राप्त हो रहा। शिक्षा से लेकर सरकारी कार्यालयों में हिंदी को व्यवहार में लाने की जरूरत है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हिंदी समेत भारतीय भाषाओं पर जोर दिया गया है। इसमें  हिन्दी के लिए विशेष प्रावधान नहीं है। 'त्रि-भाषा सूत्र’ तीन भाषाएँ हिंदी, अंग्रेजी और संबंधित राज्यों की क्षेत्रीय भाषा से संबंधित है। तमिलनाडु समेत अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों ने इसे खारिज कर दिया है। इसे सर्वप्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में एक आधिकारिक दस्तावेज़ के रूप में वर्गीकृत किया गया था। 

जो सत्ता के केंद्र में हैं, व्यवस्था के अंग हैं या सामाजिक स्तर से मजबूत हैं वे अपनी दुनिया में रमे हुए हैं। ऐसी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है जो हिंदी के प्रश्न पर डटी रहे और हिंदी के लिए लड़ती हुई दिखाई दे। लोकतंत्र के महत्वपूर्ण अंग विधायिका में हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं की हालत पर कभी बहस नहीं होती है। देश की संसद में हिंदी को वह दर्ज़ा नहीं मिल सका है जो एक राष्ट्रभाषा को मिलना चाहिए। हमारे देश में अंग्रेजी ऐसी विभाजन रेखा है, जो तय करती है कि किसी को जिंदगी में कैसा कैरियर और सुख-सुविधाएं मिलेंगी। अंग्रेजी बोलना-लिखना-पढ़ना समाज में बेहतर स्थिति और रोजगार की बहुत बड़ी योग्यता है। ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा, राजनीति, शासन, पत्रकारिता जैसे क्षेत्रों में अंग्रेजी जाननेवालों का अधिकारयुक्त स्थान है।

हिंदी वह समर्थ भाषा है, जो पूरे देश को एक प्रेम के धागे से जोड़ सकती है। हिंदी विश्व में सर्वाधिक बोली जानेवाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। राजनीतिज्ञ और नीति निर्माता हिंदी के जिस महत्व को नहीं समझ पाये, बाजार ने फौरन समझ लिया। हिंदी आज बाजार की भाषा बन गयी है। फिल्म, टी.वी., विज्ञापन और समाचार हर जगह हिंदी का वर्चस्व है। इंटरनेट और मोबाइल ने हिंदी को और विस्तार दिया। हिंदी बढ़ रही है लेकिन इसके सरोकार लगातार घट रहे हैं। जब हिंदी बाजार की भाषा हो सकती है तो रोजगार, शिक्षा और लोकव्यवहार की भाषा क्यों नहीं ? दुनिया के लगभग सारे मुख्य विकसित व विकासशील देशों में वहाँ का काम उनकी भाषाओं में ही होता है।

सामाजिक सक्रियता किसी भी भाषा के लिए एक अनिवार्य शर्त है जिसे हिंदीभाषियों ने पूरी तरह से भुला दिया है। हिंदी समाज ने यह मान लिया है कि राजभाषा होने के बाद ही हिंदी की सारी समस्या सुलझ गयी है। विडंबना है कि हिंदी को वह जगह नहीं मिल रही है, जिसकी वह हकदार है। हिंदी न तो संवैधानिक रूप से राष्ट्रभाषा बन पायी और न ही पूरी तरह से राजभाषा। हिंदी के संस्कारों और उसकी समृद्ध परंपरा को बचाए रखना बड़ी चुनौती है। बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति ज़िंदा नहीं रह सकती। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में हिंदी की जड़ें काफी गहरी हैं। अगर हिंदी को बचाना है तो यह जरूरी है कि शासकीय कामकाज और न्यायालयों में हिंदी को महत्व दिया जाये और इसे शिक्षा और रोजगार से जोड़ा जाये। हिंदी हमारे देश की एकता की कड़ी है। यह  हमारी मातृभाषा, राजभाषा है, इसे राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा मिलना ही चाहिए।

 



हिमकर श्याम

राँची 

 

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