विश्व
आदिवासी दिवस
जय
जोहार
भूरिया
सुशीला
‘विश्व आदिवासी दिवस’ आदिवासियों की पहचान को सम्मानित करने का दिन है। हर साल 9 अगस्त को इसे
पूरी दुनिया में मनाया जाता है। यह दिवस दुनिया भर में आदिवासी समुदाय के मूल
अधिकारों को बढ़ावा देने तथा उनके संरक्षण हेतु तथा दुनिया को रहने के लिए एक बेहतर
जगह बनाने में उनके योगदान और उपलब्धियों को स्वीकार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र
द्वारा मनाया जाता है। साथ ही यह दिवस चिंतन का विषय भी है कि वर्तमान समय में
आदिवासी समाज कहाँ खड़ा है तथा देश और दुनिया में उसकी वास्तविक स्थिति क्या है?
यह दिवस “अमेरिका में 12
अक्टूबर को हर साल मनाया जाता है और वहाँ के आदिवासियों का मानना था कि कोलंबस उस
उपनिवेशी शासन व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसके
लिए बड़े पैमाने पर जनसंहार हुआ था। इसके बाद फिर कोलंबस दिवस की जगह पर आदिवासी
दिवस मनाने की माँग उठी। इसके लिए 1977 में जेनेवा में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन
का आयोजन किया गया और इस सम्मेलन में कोलंबस दिवस की जगह आदिवासी दिवस मनाने की
माँग की गई।”1 (www.Indiatv.in)
इस प्रकार 12 अक्टूबर को
कोलंबस दिवस की जगह आदिवासी दिवस मनाए जाने का रिवाज शुरू हुआ। इसके बाद यूनाइटेड
नेशन ने 1994 में अधिकारिक रूप से आदिवासी दिवस को 9 अगस्त को मनाने का ऐलान किया।
वस्तुत: हर वर्ष 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। यह
दिन आदिवासियों के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने तथा दुनिया के विकास
में उनके द्वारा दिए गए योगदान और उपलब्धियों को स्वीकार का है।
इस दिन दुनिया को आदिवासी
समुदाय के अधिकारों को लेकर जागरूक किया जाता है। साथ ही आदिवासियों के द्वारा
विश्व के विकास में दिये गए योगदान और उनकी उपलब्धियों के बारे में दुनिया को
बताया जाता है। विश्व आदिवासी दिवस को ‘वल्ड ट्राइबल डे’ के रूप में भी जाना जाता
है। यह दुनिया भर में आदिवासी समुदाय के जल, जंगल और
जमीन एवं संस्कृति संरक्षण के लिए मनाया जाता है। इस दिन पूरे विश्व में आदिवासी
समाज को लेकर जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं, जिनमें आदिवासी
समुदाय के अस्तित्व एवं अस्मिता के संकट पर बात की जाती हैं।
इस दिन दुनिया भर में
संयुक्त राष्ट्र और कई देशों की सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ आदिवासी समुदाय के लोग, आदिवासी संगठन, सामूहिक समारोह का आयोजन करते हैं, इस दौरान
आदिवासियों की मौजूदा स्थिति और भविष्य की चुनौतियों को लेकर चर्चा होती है और उनसे
संबंधित सभी पहलुओं पर विचार-विमर्श करते हैं और उनसे जुड़ें
जल, जंगल और जमीन के संरक्षण की बात करते हैं। साथ ही उनकी
संस्कृति पर हो रहे बाहरी हस्तक्षेप की निंदा करते हैं।
वर्तमान समय में भारतीय सरकार के विकास मॉडल ने आदिवासियों से उनके जल,
जंगल और जमीन से उन्हें बेदखल कर दिया, जिसके फलस्वरूप
आज उनके अस्मिता एवं अस्तित्व को लेकर संकट खड़ा हो गया है।
वर्तमान
समय में विस्थापन आदिवासियों के जीवन की मुख्य समस्या बन गई है। प्राकृतिक संसाधन
के दोहन हेतु सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ मिलकर उनके जल,
जंगल और जमीन का अधिकरण कर उन्हें अपनी ही जमीन से विस्थापित होने
के लिए मजबूर कर देते हैं।
इस विस्थापन की प्रक्रिया में एक तो उनकी अपनी जमीन छूटती है तो दूसरी
उनकी सांस्कृतिक पहचान भी छूट जाती है। अपनी जगहों से विस्थापित होके वे जिन जगहों
पे जाते हैं वहाँ सबसे पहले जो समस्या उभर कर आती है उनके अस्तित्व की रक्षा की। इस
तरह देखें तो अपने अस्तित्व को स्थापित
करने के जद्दोजहद में उनकी अपनी सांस्कृतिक पहचान खोती जा रही है। शहरीकरण एवं औद्योगीकरण
ने जिस प्रकार अन्य समुदायों को प्रभावित किया है, उसी
प्रकार आर्थिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से आदिवासियों को भी।
इन सारी समस्याओं को लेकर आदिवासी समुदाय के जो बौद्धिक लोग हैं उन्हें
बहुत चिंता है, जिसके लिए वे कई तरह के आयोजन, सेमिनार और जागरूकता अभियान विश्व आदिवासी दिवस के दिन विशेष रूप से चलाते
हैं।
आदिवासी
समाज प्रकृति से जुड़ा हुआ होता है, इसका
संपूर्ण जीवन प्रकृति के इर्द-गिर्द बुना होता है। इनके सारे
त्यौहार प्रकृति के साथ जुड़े होते हैं, इनके पूजा-पाठ भी प्रकृति से जुड़े होते हैं; प्रकृति से ही इन्हें अन्न, जल, फल, फूल, चावल सभी प्राप्त होते हैं, जिसके कारण ये प्रकृति
को ईश्वर मानकर पूजा करते हैं।
आदिवासियों की प्रमुख विशेषता होती है कि ये सब एक परिवार के सामान
मिलजुलकर रहते हैं, सभी के साथ आपसी संबंध रखते हैं, सभी एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। इसके साथ गाँव का
कोई भी मामला हो सभी मिलकर निर्णय लेते हैं, जो कि बहुत बड़ी
बात है।
इन
सब के बाद इनके जीवन की मुख्य समस्या यह
है कि इन्हें बेहतर शिक्षा न मिलने के कारण ये अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं
रहते और फिर अत्याचार और शोषण का शिकार होते हैं। सबसे बढ़ कर यह बात है कि उन्हें
विकास के नाम पर बहला-फुसलाकर उनका अधिकार छिन लिया
जाता है। इन्हीं सब पर ‘विश्व आदिवासी दिवस’ पर बात की जाती
है।
इन
सबके बावजूद आदिवासियों में ‘जोहार’ का बड़ा महत्व है। ‘जोहार’ यानी नमस्ते और ‘जय जोहार’ का मतलब है सबका कल्याण
करने वाली प्रकृति की जय। अर्थात्
प्रकृति
के प्रति संपूर्ण समर्पण का भाव ही ‘जोहार’ है।
‘जोहार’ यह मुंडारी भाषा
का शब्द है। जो ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार से आया है। ‘जोहार’ में ‘जय’ शब्द जुड़ा हुआ
है यानी ‘जय जोहार’। ‘जय जोहार’ शब्द का प्रयोग आदिवासी समुदाय में अभिवादन करने
के लिए किया जाता है। आदिवासी खुद को प्रकृति पूजक मानते हैं और इसलिए देश के
ज्यादातर हिस्सों में इस समुदाय के लोग ये नारा लगाते हैं।
निष्कर्षत: कहा जाए तो उपर्युक्त सभी तरह
की बातों पर ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के दिन बहुत गहन विचार-विमर्श के साथ उस पर अमल भी किया जाता है।
भूरिया
सुशीला
शोध
छात्रा
स्नातकोत्तर
हिंदी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय
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