उर्दू
डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र
आज मैंने Facebook
पर एक वीडियो देखा। वीडियो श्रीमती शची मिश्र द्वारा 2017 में पोस्ट किया गया था। वीडियो में जावेद अख्तर साहब किसी
उर्दू किताब के लोकार्पण के समय बोल रहे थे।
उनके भाषण के कुछ ‘जुमले’,
जिन पर उर्दू के बुद्धिजीवी तालियाँ बजा रहे थे,
मैंने लिख लिए, जिनका उपयोग यहाँ एक भाषा अध्येता के रूप में करूँगा -
१. जबान स्क्रिप्ट नहीं
होती। (बिल्कुल सही)
२. लैंग्वेज का अपना ग्रामर
और सिंटेक्स होता है। (यह भी बिल्कुल सही)
लेकिन उर्दू की यही तो तकलीफ
है। उर्दू का न अपना ग्रामर है न अपना सिंटेक्स है। थोड़ा सा असर अरबी-फारसी का
जरूर है। सारी रचना व्यवस्था हिंदी की है।
लेकिन जावेद साहब के भाषण
में ऐसा लगता है, जैसे उर्दू ही भाषा है। हिंदी तो भाषा ही नहीं है।
३. जिसे हम हिंदी कहते हैं,
जिसे हम उर्दू कहते हैं, जिसे हम हिंदुस्तानी कहते हैं,
उसका सिंटेक्स ऑफ ग्रामर एक है।
४. मैं आ रहा हूँ, तुम जा रहे हो, तुम खाना खा रहे हो।
यही हिंदी है। यही उर्दू है।
यही हिंदुस्तानी है।
५. एक आम आदमी सड़क पर बोल
रहा है उसको जब तक हम लिखेंगे नहीं, तब तक यह नहीं कह सकते कि वह क्या बोल रहा है।
वाह जावेद साहब! आप खुद ही
कहते हैं कि जबान (भाषा) स्क्रिप्ट नहीं होती ।
लेकिन बिना लिखे सिर्फ बोलने
से आपको पता नहीं चलता कि एक आम आदमी कौन सी भाषा बोल रहा है!
६. उर्दू की स्क्रिप्ट सिमट रही है और उर्दू जबान
फैल रही है।
कैसी लाजवाब बात आपने कही है
जावेद साहब! जब उर्दू की स्क्रिप्ट सिमट रही है, तब उर्दू फैल कैसे रही है?
स्क्रिप्ट ही तो उर्दू की
पहचान है। स्क्रिप्ट नहीं तो उर्दू नहीं।
यह बात तो खुद जावेद साहब ने
ही स्वीकार की है - मैं जा रहा हूँ। तुम आ रहे हो। यही हिन्दी है,
यही उर्दू है, यही हिंदुस्तानी है - कहकर।
जावेद साहब ने अपने भाषण में
एक मजेदार बात बताई है। उन्होंने अपनी कविता की किताब उर्दू लिपि तथा देवनागरी
लिपि में छपवाई । इतना ही नहीं, जिस किताब का उन्होंने लोकार्पण किया,
उसके लेखक को भी सलाह दी कि वे भी अपनी किताब को देवनागरी
में छपवाएँ।
ऐसा क्यों?
क्योंकि उर्दू लिपि जानने
वालों की संख्या दिनों दिन घट रही है।
फिर भी जावेद साहब अपने भाषण
में कह रहे थे कि उर्दू से प्रेम करने वालों की संख्या बढ़ रही है।
कितनी अजीब बात है!
एक और मजेदार बात -
हिंदी फिल्मों को वे उर्दू
फिल्में मानते हैं।
उन्होंने हिंदी और उर्दू
लेखकों को, गाँधी जी का हवाला देते हुए, यह भी सलाह दी है कि वे एक मंच पर आएँ और अपनी भाषा का नाम
हिंदुस्तानी रखें।
मैंने अपने एक पोस्ट में
लिखा था कि उर्दू एक ऐसी भाषा है, जो भाषा नहीं है। फिर भी भाषा है।
उर्दू का अस्तित्व ही उसकी
लिपि पर है और जावेद साहब के अनुसार, उर्दू की लिपि सिमट रही है।
डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र
40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड
बाकरोल-388315,
आणंद (गुजरात)
लेकिन उर्दू की यही तो तकलीफ है। उर्दू का न अपना ग्रामर है न अपना सिंटेक्स है। थोड़ा सा असर अरबी-फारसी का जरूर है। सारी रचना व्यवस्था हिंदी की है।
जवाब देंहटाएंफिर उर्दू बेहतर कैसे हुई जिसकी लिपि ही सिमट रही है।
आपने सही विश्लेषण किया सुदर्शन रत्नाकर