सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

आलेख

 




‘तलब’ : दलित समाज की संवेदनाओं की अभिव्यक्ति

डॉ. प्रदिपकुमार महिडा

          हरीश मंगलम गुजराती दलित साहित्य के प्रतिष्ठित रचनाकार है। चोकी, तिराड़ जैसे लघु उपन्यासों के साथ-साथ दलित कहानी लेखन में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण है, ‘तलब’ कहानी संग्रह इसका प्रमाण है। ‘तलब’ कहानी संग्रह की कहानियों के बारे में कहा जाए तो इसमें दलित जीवन का हर्ष, शोक, उसकी पीड़ा, दुःख, दर्द, दलित समाज में व्याप्त धार्मिक अंधश्रद्धा, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, पारंपरिक रीति-रिवाज, दलित समाज में चेतना लाने का प्रयास, सवर्ण समाज की ज्यादति, दलित समाज की कमियाँ, कमजोरियाँ आदि के साथ-साथ समस्त मानव जीवन की बुराईयों को भी बेपर्दा किया है। मंगलम् की कहानियों से हम गुजरते हैं तो हमें लगता है कि कहानियों की घटना का विषय हमारे आसपास व्याप्त समाज है, उसमें यथार्थता अधिक कल्पना कम दिखाई देती है।

          ‘तलब’ कहानी संग्रह में कुल चौदह कहानियाँ संकलित है, जिसमें सभी कहानियाँ दलित कहानियाँ नहीं हैं किन्तु हम यह अवश्य कह सकते हैं कि सभी कहानियों में कहीं न कहीं दलित समाज का जिक्र अवश्य हुआ है जिसकी विशद चर्चा यहाँ हम करेंगे। ‘तलब’ कहानी संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी ‘दलो उर्फे दलसिंह’ है। प्रस्तुत कहानी में मुसीबतों का मारा दलित व्यक्ति अपने परिवार के पेट की भूख मिटाने के लिए जाति छिपाकर रोजी-रोटी कमाना चाहता है। किन्तु उसकी जाति का भाँड़ा फूट जाता है तभी सवर्ण समाज नेक, इमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, फरजनिष्ठ जैसे उदात्त गुणों के धनी दला के साथ बेहूदा बर्ताव करके उसे मिटाने पर तुले समाज की सोच को बेनकाब करती यह कहानी है। अहमदाबाद में कपड़ा मिल बंद हो जाने की वजह से दलित वर्ग के कई लोग बेरोजगार हो जाते हैं, उनमें दला भी शामिल है। परिवार के पेट की भूख मिटाने के लिए वह कई जगह नौकरी ढुँढने जाता हैं किन्तु जाति से दलित था अतः उन्हें कहीं भी नौकरी नहीं मिलती इसलिए वह दला में से दलसिंह परमार (राजपूत) बनकर धनसुख लाल की दुकान में चौकीदारी की नौकरी पा लेता है, दुकान में रहे कई कर्मचारी उन्हें लालच भी देते हैं किन्तु दला इमानदार, नेक इन्सान था इसलिए उनकी बातों में नही आता, उतना ही नहीं वहाँ काम कर रहे भ्रष्ट कर्मचारियों को पकडवा देता है जिसकी वजह से उन्हें धनसुखलाल जैन मंदिर में चौकीदारी का हवाला देता है। चौकीदारी करते समय मूर्ति की चोरी करते हुए रतनसिंह को रंगे हाथ पकडवा देता है जिसकी वजह से सारा गाँव दला की कर्तव्यनिष्ठा, फरजनिष्ठा से अभिभूत हो जाता है। चारों तरफ दला की किर्ती फैल जाती है, कई सवर्ण तो उन्हें अपने घर भोजन का निमंत्रण देते है। सबकुछ अच्छा चल रहा था किन्तु एक दिन अचानक उनके दूर के रिश्तेदार से मिल जाने से उनकी असली जाति का भंडा फूट जाता है। फिर तो कहना ही क्या था सारे गाँव वालों का रवैया बदल जाता है, सारे सवर्ण एकजुट होकर दला को खोजते हैं, उनको लगता है कि दला ने उनके साथ छलकपट किया है। उसकी कर्तव्यनिष्ठा, फरजनिष्ठा की प्रशंसा करनेवाले उन्हें अब मारने तुले हैं, किन्तु दला कहीं भाग जाता है। यहाँ कहानीकार ने यह बताने की कोशिश की है कि उदात मानवमूल्यों के आगे जातिगत भेदभाव जीत जाता है।

          ‘उटाटियों’ (कुकुरखाँसी) कहानी में सभ्य समाज का रवैया कितना तकवादी एवं खोखला है उसका पर्दाफाश किया है। मुसीबतों में फँसा सवर्ण समाज दलित समाज के व्यक्तियों से अपना काम निकाल लेता है, किन्तु जब अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाता है तभी उनका रवैया कितना बदल जाता है, दलित समाज के व्यक्ति को तुच्छ, निम्न समझकर उसकी अवहेलना की जाती है, इस भाव को प्रस्तुत कहानी में कहानीकार ने अभिव्यक्त किया है। गाँव में कुकुरखाँसी का रोग फैल जाता है जिसको मिटाने कचरा एवं रतन अपने चर्मकुंड से गाँव के बच्चों को छींटे पिलाकर रोगमुक्त करते हैं, जिनमें हरगोवन पटेल भी शामिल था। रोगमुक्त हो जाने के बाद गाँव वाले कचरा एवं रतन को सम्मान की नजरों से देखते हैं। किन्तु जैसे ही सरकार के महत्तम जमीन मर्यादा कानून के तहत हरगोवन पटेल की जमीन कचरा को देने का निर्णय लिया तो वहीं हरगोवन पटेल एवं उनकी जाति बिरादरी वाले कचरा को जमीन न लेने की सलाह, धमकियाँ देते हैं, किन्तु कचरा अपने निर्णय पर अडिग था। दलित व्यक्ति सवर्णों की जमीन कैसे ले सकता है यह बात सभ्य समाज कैसे बर्दाश्त कर सकता। अतः खेत जुताई के दिन सारे सवर्ण एकजुट होकर कचरा को मारने आ धमकते हैं।      

‘दायण’ (दाई) मानवमूल्यों को चिरतार्थ करती दलित नारी की एक संवेदनशील कहानी है, साथ-साथ कहानीकार ने यहाँ बाल मनोविज्ञान का सफल विनियोग किया है। मनोविज्ञान के अनुसार बच्चों पर अधिक छाप अपने परिवार एवम् समाज की पड़ती है। बच्चे नहीं जानते कि ऊँच-नीच, जात-पाँत, सवर्ण-अवर्ण क्या है, किन्तु उनके समाज द्वारा सिखाया वही संस्कार पीढ़ी-दर पीढ़ी में हस्तांतरण होता रहता है। दाई के रूप में काम करनेवाली बेनीमा सेवा परायण वृद्धा है। बेनीमा की गहरी सूझ-बूझ से बलदेव पटेल की बहू पशली को सफल प्रसूति होती है। पशली एवं उनका बेटा जिन्दा है उनकी आभारी बेनीमा है किन्तु उनके कार्य को भूला दिया जाता है। पशली का मानना था कि उसे तो राम कबीर की मन्नत फली है। अब कहानीकार हमें पिछले दस साल की घटना में ले जाते हैं जहाँ पशली की देवरानी दलि एवं उनके बेटा डायला को बेनीमां ने ही बचाया था किन्तु वही डायला आज बडा होकर बेनीमा को अपने नजदीक आते देखकर अपमान जनक शब्द कहता है। जिससे बेनीमां के दिल पर गहरी चोट लगती है, किन्तु यह चोट पूरे मानवजात पर लगती है। निरक्षरता एवं अंधश्रद्धा समाज के लिए घातक है। समाज शिक्षित नहीं होगा तो अंधश्रद्धा में बढावा होगा, जिससे समाज की प्रगति संभव नही होगी। आज हम देखते हैं कि पिछड़े समाज की सबसे बड़ी समस्या निरक्षरता है, जिसकी वजह से अनपढ़ समाज अंधश्रद्धा में फँसकर पायमाल होता जा रहा है। अंधश्रद्धा से समाज का आर्थिक, सामाजिक अधःपतन होता जा रहा है। अंधश्रद्धा से समाज का आर्थिक, सामाजिक अधःपतन निश्चित है यह बात कहानीकार ने वरपडुं (भूत-प्रेत) कहानी में प्रस्तुत की है। साथ-साथ माधोभा के पात्र द्वारा कहानीकार ने कहानी के अंत में दलित समाज में व्याप्त अंधश्रद्धा एवं रीत-रिवाजों का खंडन करके दलित समाज में चेतना लाने का प्रयास किया है। माधोभा की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी जिसके कारण पुत्र धर्मेन्द्र को पढ़ा नहीं पाया किन्तु वही धर्मेन्द्र बड़ा होकर शहर में कपड़ा मिल में नौकरी पाकर अपने परिवार को सुख-सुविधाएँ दे रहा है। इसी दौरान धर्मेन्द्र की पत्नी हंसा गोद भराई के बाद पिहर जाती है, वहाँ पुत्र को जन्म देती है। सफल प्रसूति के बाद प्रसूति में लगने वाली बिमारी का शिकार हो जाती है किन्तु गाँववालों को लगता है कि हंसा को भूत-प्रेत ने जकड लिया है इसलिए भूत-प्रेत भगाने वाले जुगा रबारी का संपर्क किया जाता है। जुगा-रबारी धूर्त था वह भोलेभाले गाँववालों एवं माधोभा को समझाता है कि हंसा को शिकोतर लग गई है जिसको भगाने समय लगेगा। किन्तु समयावधि अधिक लगने से हंसा की मौत हो जाती है। गाँववालों को लगता है कि हंसा के आखिरकार भूत-प्रेत ने प्राण हर लिए। माधोभा का सुखी परिवार इस घटना से सहम जाता है। कुछ समय बाद एक दिन जुगा रबारी इस घटना से सहम जाता है। एक दिन जुगा रबारी माधोभा को आश्वासन देने उनके घर आ धमकता है तभी माधोभा सहज रूप से पूछ बैठता है कि तुम्हारी ईहल देवी कहाँ-गई जिससे जुगा शर्मसार होकर अपने पाखंड को ढँकने के लिए कह देता है- अरे भाई ईहल देवी, हरिजन के देह में क्यो प्रवेश करेगी और जब तक वह प्रवेश न कर तब तक भीतर बैठी वंतरी बाहर कैसे निकलेगी।2 जवाब सुनकर माधोभा की आत्मा काँप उठती है, और जगा रबारी को चले जाने के बाद जहाँ ईहल माता का मंदिर था वही जाकर उसे तोड़ देता है।

          ‘खोट’ (कमी) कहानी में कहानीकार ने वर्तमान समय में पारिवारिक संबंध कितने खोखले, बनावटी हो गये हैं यही दिखाने की कोशिश की है। प्रस्तुत कहानी में मगनबापा का दो वक्त की रोटी ठीक से न मिलने की वजह से शरीर अशक्त हो जाता है किन्तु संबंधियों को लगता है कि बूढ़ा अब ज्यादा जीने वाला नहीं है। अतः स्वजन दिखावे का नाता निभाते हुए क्षेम-कुशल पूछकर चले जाते हैं, किन्तु कोई भी स्वजन मगनबापा को अस्पताल नहीं पहुँचाते। इसी दौरान धीरजकुमार का कहानी में प्रवेश होता है वह मगनबापा को अस्पताल पहुँचाता है। डॉक्टर निदान करते हैं, मगनबापा को कोई रोग नहीं है किन्तु सही ढंग से खाना नहीं मिलने की वजह से शरीर अशक्त हो गया है, फिर मगनबापा की अच्छी खातिरदारी की जाती है। कहानी के अंत में कहानीकार लिखते हैं कि आज मगनबापा ठाठ से जी रहा है। यहाँ खोट यानी की सच्चे स्वजनों की कमी।

          ‘वृत्त’ (कुंडालुं) ऴ कहानी की समस्या पूरे मानवजात की समस्या है। शंका का कोई समाधान नहीं वह बढ़ती ही जाती है और आगे जाकर भयानक स्वरूप धारण करती है, इस भाव को प्रस्तुत कहानी में दर्शाया गया है। हरजी का बचपन अभावों में भी बीता था, आर्थिक विपन्नता के चलते उसने अपने घर में कई झगड़े देखे थे। अतः नौकरी पाकर किसी के साथ झगडाटंटा नहीं करने एवं माँ की सलाह पराई कन्या बहन समान और पराई औरत माँ समान3 की सीख को अपने जीवन में उतार लेता है। जिस व्यक्ति को अपने परिवार के पालन-पोषण की पड़ी हो उनके लिए बाहर की दुनिया में झाँकने का अवकाश नहीं रहता, किन्तु हरजी की पत्नी सरला उनके सहकर्मी एवं आसपास रहने वाली औरतों की हरजी पर शंका-कुशंका करके उनका जीवन कष्टसाध्य बना देती है।

          दलित समाज का व्यक्ति पढ़-लिखकर, परिश्रम करके आज अच्छे पद पर बिराजमान हैं। फिर भी जातिभेद का ब्रह्मराक्षस उसका पीछा नहीं छोडता यह बात ‘एबोर्सन’ कहानी में प्रस्तुत की गई है। काफी दिक्कतों के बाद इन्दू को गर्भ ठहरता है इसलिए डॉक्टर उसे आराम करने की सलाह देता है। यदि इन्दू आराम करेगी तो घर का काम कौन करेगा यही सोचकर इन्दू का पति दिनेश वाघरी, रबारी कौम की लड़कियों को अधिक पैसे का लालच देकर घरकाम करने बुलाता है किन्तु दिनेश एवं इन्दु चमार जाति से है इसलिए कोई न कोई बहाना बनाकर लड़कियों के माँ-बाप काम पर नहीं भेजते। प्रस्तुत कहानी में किस हद तक जातिभेद घर कर गया है यह दिखाना कहानीकार का उद्देश्य रहा है।

          ‘मोभ’ कहानी में ईश्वर क्षयग्रस्त है उसका इलाज करने रेवा और मथूर अस्पताल ले जाते हैं किन्तु एक रात गुजारकर वह दोनों सवेरे अस्पताल से छुट्टी लेकर अपने गाँव जाने वाले हैं किन्तु रास्ते में ईश्वर की मौत हो जाती है। शहर में अतिवृष्टि होने की वजह से सन्नाटा छाया है कोई भी वाहन वाला उन्हें गाँव ले जाने तैयार नहीं है इसलिए दोनों असमंजस में पड़ जाते हैं कि यदि ईश्वर की देह को गाँव नहीं पहुँचाया तो गाँव वाले जिंदगी भर ताना मारेंगे अतः बहुत कठिनाई के बाद मृत देह की गाँव  पहुँचाया जाता है। ईश्वर की मौत से सारा गाँव गमगीन हो जाता है। ईश्वर का पिता ईश्वर द्वारा की गई पारिवारिक जिम्मेदारियों को बताकर रो पडता है, जेठुभा कहता है- आज मेरे घर का मोभ टुट गया।4 यहाँ मोभ यानी घर का आधार जिस पर पूरा घर टिका होता है, यदि घर चलानेवाला व्यक्ति मर जाता है तो उनके घर पर आनेवाली मुसीबतों का आभास कहानीकार ने प्रस्तुत किया है।

          ‘शोध’ (खोज) कहानी नारी जीवन की विडम्बनाओं, उसकी संवेदनाओं को उजागर करती कहानी है। साथ-साथ एन.जिन्टो जैसे उम्दा पुरुष द्वारा नारी को मान-सम्मान देते दिखाकर कहानीकार ने नेक इन्सान का चित्र हमारे सामने अंकित किया है। सीमा का पहला पति राकेश उसे छोडकर अमेरिका में किसी अन्य स्त्री के साथ शादी कर लेता है। दूसरा पति तुषार भी अन्य स्त्रियों से अनैतिक संबंध बनाते फिरता है इसे भी सीमा छोड देती है। कई पुरुष सीमा की सुंदरता को देखकर उनके साथ औपचारिक संबंध बनाना चाहते हैं किन्तु कोई भी उसकी वेदना समझने तैयार नहीं है, इसलिए सीमा थककर अच्छे पुरुष की खोज में निकलती है जिसे एन. जिन्टो जैसा नेक इन्सान मिलता है।

          ‘तलप’ (तलब) कहानी में भला को बीड़ी पीने की आदत है, किन्तु आर्थिक विपन्नता के चलते वह बीड़ी खरीद नहीं पाता, वह गाँव के चौराहे पर फैंक दिये गये ठूँठे से अपना काम चला लेता है। एक रोज उन्हें बीड़ी पीने की तीव्र इच्छा हो गई वह चौराहे पर गया किन्तु वहाँ कोई इन्तजाम न हो पाया इसलिए शवली से बीड़ी के पैसे माँगते वक्त, शवली जहाँ पाकिट रखती थी वहाँ अनायास स्पर्श हो जाता है। भला के स्पर्श से शवली रोमांचित हो जाती है। अब दोनों को एकदूसरे से मिलने की अदम्य इच्छा होती है किन्तु उसी समय शवली की शादी हो जाती है जिससे दोनों की तलब अतृप्त रह जाती है।

          ‘ज्वाला’ कहानी समाज में व्याप्त जातिभेद किस हद तक फैल गया है उसको बयाँ करती कहानी है, कहानी प्रतीकात्मक है। कहानी में कोई घटना या प्रसंग नहीं है। उसे खुजली हुई है और वह खुजलाता रहता है डॉक्टरने उसे मिटाने के प्रयास किए किन्तु खुजली काफ़ी  पुरानी है इसलिए मिटने में देर लगेगी, किन्तु अधिक समय हो जाने के बाद भी खुजली मिटती नहीं। अतः वह दुःखी है। फिर बाद में उसे ज्ञात होता है कि यह खुजली सिर्फ उन्हें अकेले को नहीं हुई, कइयों को हुई है। खुजली को मिटाने का प्रयास हुए हैं किन्तु यह सारे प्रयास सिर्फ दिखावे के लिए है यदि डॉक्टर खुजली को मिटा देगा तो उसकी दुकान कैसे चलेगी यही सोचकर वह खुजली को संपूर्ण मिटाना नहीं चाहता। कहानी में एकाध प्रामाणिक डॉक्टर की बात की गई है वह शायद बाबा साहब अम्बेड़कर की ओर इशारा करती है।

          ‘श्रद्धा’ नारी जीवन को स्पर्श करती कहानी है। संकरभा और माणेकबा का इकलौता पुत्र बचुडा विवाह के कुछ समय पश्चात कहीं खो जाता है जिसकी वजह से संकरभा पागल हो जाता है। और माणेकबा शिवजी पर आस्था लगाये रात-दिन पूजा करती रहती है। नवविवाहित नारियों की भाँति बचुडा की पत्नी धनी भी भविष्य के सुंदर सपने सजाती हैं किन्तु उनकी स्थिति तो बदतर हो जाती है, क्योंकि गाँव वाले उनको ताने मारते रहते हैं कि इस औरत का पैर घर में पडते ही बचुडा कहीं खो गया, ऊपर से घऱ चलाने की पूरी जिम्मेदारी उन पर आ पडती है। इन परिस्थितियों में धनी अंदर से टूट जाती है किन्तु उनकी आशा भी अमर है कि बचुडा कहीं से आ जायेगा। निरंतर मजदूरी से जुड़ी धनी को एक दिन सुंदरलाल सेठ खलिहान में तम्बाकू के अच्छे-बुरे पत्तों को अलग करने की जिम्मेदारी सौंपी। धनी जहाँ काम करती थी वह जगह अन्य मजूदूरों से अलग थी, इसलिए धनसुखलाल सेठ उसका फायदा उठाकर धनी के साथ संबंध बना लेता है और दोगुनी दहाड़ी देता है। इस प्रकार कई दिनो तक चलता रहता है किन्तु अनुभवी तरवी सबकुछ जानकर सुंदरलाल के कारस्तानों एवं उनकी पत्नी की दयनीय दशा की कथनी सुनाती है जिससे नारी हृदय नारी की वेदना सुनकर पिघल जाता है और पुन: स्थिरता धारण कर लेती है।

          पंगदंडी दलित चेतना को उजागर करती कहानी है। गाँव के दलित मजदूर जल्द-जल्द काम पर पहुँचाने के लिए सवर्ण बेचर के खेत से गुजरती पंगदंडी का उपयोग करते है। बेचर फावड़ा लेकर शिवा, धनजी और ईश्वर के पीछे पड जाता है। तीनों जान बचाकर भागने लगते हैं। किन्तु बेचर उन्हे छोड़नेवाला नहीं था दूर तक पीछा करता है। तीनों थककर गाँव के सिरफिरे धूलसिंह का आश्रय पाकर बच जाते हैं। धूलसिंह तीनों को उनका प्रतिकार करने की सलाह देता है। जिससे तीनों का स्वाभिमान जाग उठता है और एक दिन आव देकर बेचर की पिटाई की जाती है। मार खारक बेचर की स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती है क्योंकि वह किसी को दलितों के हाथ मार खाई ऐसा कह भी नहीं सकता। अतः कई दिनों तक गायब रहता है। एक बार स्वाभिमान जाग उठ़ा दलित शिवा फिरसे सबक सिखाने वही पगदंडी का इस्तेमाल करता है किन्तु डर के मारे बेचर उनका प्रतिकार नहीं करता।

          संक्षेप में कहें तो ‘तलब’ कहानी संग्रह की कहानियाँ दलित समाज की संवेदनाओं को उजागर करती कहानियाँ है। जिस प्रकार की दलित समाज की वास्तविक स्थिति-परिस्थितियाँ है उसी प्रकार का वर्णन करने में कहानीकार सफल हुए हैं। सवर्णों द्वारा दलितों को प्रताड़ित करनेवाली कहानियों में ‘दलो उर्फ दलसिंह’, ‘उटाटियो’, ‘दायण’, ‘एबोर्सन’, ‘पगदंडी’ एवं ‘ज्वाला’ है। ‘पगदंडी’ को दलित चेतना संबंधी कहानी कह सकते हैं। नारी की विडम्बनाओं को प्रस्तुत करती कहानियाँ ‘दायण’, ‘शोध’, एवं ‘श्रद्धा’ है। ‘तलब’ एवं ‘प्रेम एज सत्य’ वासनामुक्त प्रेम के आदर्शों को प्रस्तुत करती कहानियाँ है। ‘खोट’ कहानी में खोखले पारिवारिक संबंधों को प्रस्तुत किया है जबकि ‘मोभा’ कहानी में कमानेवाले घर के मुख्य व्यक्ति का देहांत होने से आनेवाली संभवित दिक्कतों को उजागर करती कहानी है। उपर्युक्त सभी कहानियाँ दलित समाज की वेदना, संवेदना को वाणी देने का माध्यम है।

संदर्भ सूची

1.  ‘तलब’, हरीश मंगलम, कुमकुम प्रकाशन, गाँधीरोड अहमदाबाद, पृ. 64

2.  वही, पृ. 128

3.  वही, पृ. 101

4.  वही, पृ. 76            

 

 

डॉ. प्रदिपकुमार महिडा

डगेरीया (दाहोद)

गुजरात

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