सोमवार, 15 अगस्त 2022

आलेख

 


महाभारत : एक विरासत

(डॉ. नरेन्द्र कोहली के उपन्यासों के विशेष संदर्भ में)

डॉ. हसमुख परमार

          ‘महाभारत’ भारतीय संस्कृति और साहित्य का प्राचीन व प्रसिद्ध उपजीव्य ग्रंथ है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रत्येक भारतीय साहित्यकार कहीं न कहीं भारतीय संस्कृति को ही अपनी रचनाओं में रेखांकित कर रहा है। और यह भारतीय संस्कृति ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे महान ग्रंथों से निरंतर प्रवाहित होती रही है। उभय, भारतीय मनीषा के वे ग्रंथ हैं जिसने विगत ढाई-तीन हजार वर्षों के हमारे सामाजिक-धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन को गढ़ा है। समस्त भारतीय साहित्य में स्रोत ग्रंथ के रूप में निर्विवाद स्वीकृत इन दोनों ग्रंथों ने भारतीय साहित्य तथा भाषाओं को विपुल मात्रा में प्रतीक, बिम्ब, मिथक, सोच, दृष्टि, मुहावरे प्रभृति के रूप में आधार सामग्री दी है।

          काव्यरूप की दृष्टि से महर्षि वेदव्यास प्रणीत ‘महाभारत’ एक बृहदाकार महाकाव्य है। इस आर्षकाव्य के सृजन व लेखन की कहानी भी बड़ी रोचक है। ‘‘वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अंत तक स्मरण कर मन ही मन में ‘महाभारत’ की रचना कर ली। परंतु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन तक कैसे पहुँचाया जाये? क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए ब्रह्माजी के कहने पर व्यास जी गणेश जी के पास पहुँचे। गणेश जी लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि वह कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक के बीच में नहीं रुकेंगे। व्यास जी मानते थे कि यह शर्त बहुत कठिनाइयाँ उत्पन्न कर सकती हैं। अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश जी को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास जी बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे, तो जब गणेश जी उनके अर्थ पर विचार कर रहे तो उतने समय में ही व्यास जी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार संपूर्ण महाभारत तीन वर्षों के अंतराल में लिखा गया।’’ (hi.m.wikipidia.org/w)

          इस विषय के संबंध में एक मान्यता यह भी है कि महाभारतके रचयिता महर्षि वेदव्यास कोई व्यक्तिवाची नाम नहीं है, अपितु वह एक पदनाम है। कहने का मतलब यह कि इस नाम के कई महर्षि-विद्वान-कवि हुए हैं और उन सब के कृतित्व का योग महाभारतहै जो ‘जय’ काव्य (एक बूँद) से प्रारम्भ होकर अंत में महाभारत रूपी महोदधि में रूपायित हुआ है।

          धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक व राजनीतिक विषयों से संदर्भित ‘महाभारत’ विश्व का सबसे बृहत् महाकाव्य है। विषयवस्तु के विस्तार और वैविध्य के लिहाज से सर्वाधिक समृद्ध काव्य के बारे में कहा गया है कि ‘यन्न भारते तन्न भारते’ अर्थात जो यहाँ (महाभारत में) निरुपित व चित्रित है वह कहीं न कहीं अवश्य मिला जाएगा और जो यहाँ नहीं है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलेगा।

‘‘धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ्

यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित।।’’

          महाभारत को पंचमवेद कहा गया। इसे भारत के सांस्कृतिक विषयों का विराट कोश तथा आचार की संहिता के रूप में भी देखा गया है। विषयवस्तु की विशालता और वैविध्य को लेकर महाभारत के विशिष्ट अध्येता डॉ. जे. आर. बोरसे का मत देखिए- ‘‘महाभारत संस्कृत साहित्य का एक बृहद् विश्वकोश है। वेदव्यास जी ने स्वयं अपनी संहिता के विषयों का निरूपण ब्रह्मा जी से किया था, जो इस प्रकार है- इसमें वैदिक औऱ लौकिक सभी विषय हैं। इसमें वेदांत सहित उपनिषद, वेदों का क्रिया-विस्तार, इतिहास, पुराण, भूत, भविष्य और वर्तमान के वृत्तांत, बुढ़ापा, मृत्यु, भय, व्याधि आदि के भाव-अभाव का निर्णय, आश्रम और वर्णों का धर्म, पुराणों का सार, तपस्या, ब्रह्मचर्य, पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, गृह, नक्षत्र और युगों का वर्णन, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, अध्यात्म, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान, देवता और मनुष्यों की उत्पत्ति, पवित्र तीर्थ, पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन, समुद्र, पूर्वकल्प, दिव्यनगर, युद्ध-कौशल, विविध भाषा, विविध जाति, लोक व्यवहार और सब में व्याप्त परमात्मा का भी वर्णन है। ..... इसके अध्ययन से केवल तात्कालीक सामाजिक, पारिवारिक, वैयक्तिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, भौगोलिक परिस्थितियों का परिचय ही प्राप्त नहीं होता; अपितु धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तत्वों का सांगोपांग ज्ञान भी प्राप्त होता है।’’ (स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी काव्य में महाभारत के पात्र, डॉ. जे.आर.बोरसे, पृ. 68)

          महाकाव्य के एक प्रमुख लक्षण- ‘सर्गबद्धो महाकाव्यम्’ के संदर्भ में हम देखते हैं कि कई महाकाव्य ऐसे हैं जिनमें सर्ग के लिए अन्य नामों का प्रयोग हुआ है। जैसे कांड, पर्व, समय, खंड आदि। महाकाव्य ‘महाभारत’ में पर्व है। इस काव्य की प्रबंध योजना में पूरा ग्रंथ कुल अठारह पर्वों में लिखा गया है। यथा-आदिपर्व, सभापर्व, वनपर्व, विराटपर्व, उद्योगपर्व, भीष्मपर्व, द्रोणपर्व, अम्वमेधिक पर्व, महाप्रस्थानिक पर्व, कर्णपर्व, शैल्यपर्व, सौप्तिकपर्व, स्त्रीपर्व, शांतिपर्व, अनुशासन पर्व, आश्रमवासिक पर्व, मौसलपर्व और स्वर्गारोहण पर्व। इन पर्वों का नामकरण उसके कथानक के मुख्य पात्र या घटना के आधार पर है।

          हमने पहले भी इस बात का उल्लेख किया है कि ‘महाभारत’ भारतीय साहित्य के स्रोत ग्रंथों में प्रमुख है। इस धर्मग्रंथ पर, इस स्मृतिग्रंथ पर, इस शास्त्र पर, इस आख्यान पर तथा इस आर्षकाव्य के महत्व के बारे में अनगिनत साहित्यकारों ने, इतिहास-पुराण के अध्येताओं तथा चिंतकों ने अपने महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए हैं। आचार्य हजारीप्रसाद व्दिवेदी के मतानुसार ‘‘भारतीय दृष्टि  से महाभारत पाँचवा वेद है, इतिहास है, स्मृति है, शास्त्र है और साथ ही काव्य है। कम से कम दो हजार वर्षों से यह भारतीय जनता के मनोविनोद, ज्ञानार्जन, चरित्र निर्माण और प्रेरणा प्राप्ति का साधन रहा है।’’ (हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी, पृ. 183)

          महाभारत को भारतीय साहित्य तथा संस्कृति के प्रमुख उपजीव्य ग्रंथ के रूप में देखते हुए डॉ. रामधारीसिंह दिनकर लिखते हैं- ‘‘महाभारत पिछले दो हजार वर्षों से समस्त भारतीय साहित्य का उपजीव्य रहा । महाभारत से प्रेरणा लेकर लिखे गये काव्यों की संख्या संस्कृत में भी बड़ी थी और हिन्दी काव्य में भी इसकी संख्या विशाल है। महाभारत भारतीय संस्कृति का आधार ग्रंथ है।...... महाभारत ने देश के विभन्न भागों में फैली विचारधाराओं और संस्कृतियों को एक स्थान पर लाकर इस प्रकार गुंफित कर दिया है कि कालिदास से लेकर आजतक के सभी भारतीय भाषाओं के कवि महाभारत की कथाओं पर काव्य रचना कर रहे हैं।’’ (संस्कृति के चार अध्याय, डॉ. रामधारीसिंह दिनकर, पृ. 161-162)

          चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का राजनीति के साथ-साथ विविध सांस्कृतिक विषयों तथा रामायण, महाभारत, गीता जैसे महान ग्रंथों के अनुवाद व अध्ययन के क्षेत्र में भी विशेष योगदान रहा है। महाभारत के संबंध में उनका मत है- ‘‘महाभारत केवल एक महाकाव्य ही नहीं है, यह एक रोमांचक कहानी है जिसमें नायक-नायिकाओं तथा देवताओं की वीरतापूर्ण कहानियों को निरूपित किया गया है। वह एक ऐसा साहित्य है जिसमें जीवन के मूल्यों को उकेरा गया है, उसमें सामाजिक एवं नैतिक विचारों का दर्शन है, मानवजीवन की कठिनतम समस्याएँ हैं किंतु इन सब के ऊपर है गीता, जो विश्व के प्रारंभ से लेकर अभी तक के ग्रंथों में महान है’’

          महाभारत का नायक कौन इस प्रश्न के उत्तर को लेकर हम तीन तरह से विचार कर सकते हैं। एक-तात्विक दृष्टि  से देखें तो युधिष्ठर इस काव्य का नायक है। पांडवों में सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर जो अपनी सत्यता के कारण धर्मराज के नाम से जाने जाते हैं। दो - महाभारत के अलग-अलग पर्वों की कथावस्तु में केन्द्रीय भूमिका के कारण हम भीष्म, कर्ण, अर्जुन, द्रोण आदि को उन पर्वों के नायक के रूप में देख सकते हैं। इन पात्रों के नाम पर पर्वों का नामकरण भी हुआ है। तीन-पूरे महाभारत में केन्द्रीय भूमिका कृष्ण की ही रही है। अतः समूचे महाभारत का यदि कोई नायक है तो वह है कृष्ण। महाभारत के युद्ध में पांडवों को विजय दिलाने (अधर्म पर धर्म की विजय) के पीछे कृष्ण की अहम भूमिका रही। कृष्ण के नायक के साथ कई प्रकार की महानताएँ जुड़ी हैं। मसलन great warrior of the time, great politician of the time, great philosopher of the time and a very unique example of great lover and friend of the time.

          हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में महाभारत के कथानक पर आधारित साहित्य का सृजन करने वाले प्रमुख सर्जकों में डॉ. नरेन्द्र कोहली का नाम विशेष उल्लेखनीय है। दरअसल हिन्दी में पौराणिक उपन्यास की विभावना को स्पष्ट करने में कोहली जी का उपन्यास साहित्य विशेष सहायक रहा है। उनके उपन्यास मूलतः रामायण और महाभारत पर आधृत हैं। महाभारत के कथानक पर आधारित नरेन्द्र कोहली की औपन्यासिक रचनाओं में बंधन, अधिकार, कर्म, धर्म, अंतराल, प्रच्छन्न, प्रत्यक्ष, निर्बन्ध और आनुषंगिक मुख्य हैं। इन उपन्यासों को उन्होंने उपन्यास श्रृंखला ‘महासमर’ के नाम से लिखा है।

          महासमर की संवेदना व उद्देश्य को रेखांकित करते हुए हिन्दी उपन्यास के विशिष्ट अध्येता गोपाल राय लिखते हैं- ‘‘महासमर के प्रथम खंड यानी बंधन के आवरण पृष्ठ पर लिखीं पंक्तियाँ यह संकेत करती हैं कि मानव सभ्यता तथा संस्कृति की संपूर्ण जातीय स्मृति की पृष्ठभूमि में मानवता के शाश्वत प्रश्नों का साक्षात्कार महासमर का प्रतिपाद्य है। मनुष्यता से जुड़े अनेकों प्रश्नों को महासमर में उठाए गए हैं। महाभारत की कथा मानवीय सम्बन्धों के वैविध्य की दृष्टि  से इतनी समृद्ध है कि उसकी संभावनाओं की सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती । नरेन्द्र कोहली ने महासमर में उन संभावनाओं को सर्जनात्मक रूप देने की कोशिश की है जिसमें उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली है।’’... महासमर मार्मिक प्रसंगों की उद्भावना, युगीन प्रश्नों पर तर्कपूर्ण चिन्तन और पात्रों के मनोद्वंद्व के अंकन की दृष्टि  से एक उल्लेखनीय उपन्यास है। यह महाभारत की पुनः प्रस्तुति या पौराणिक मानवेतर प्रसंगों की व्याख्या मात्र नहीं, वरन एक जीवन्त रचना-संसार है, जिसके प्राणी मानवीय संवेदनाओं से पूर्ण हैं।’’ (हिन्दी उपन्यास का इतिहास, गोपाल राय, पृ. 349)

          भारतीय संस्कृति की अमूल्य थाती महाभारत; भारतीय जीवन, चिंतन, दर्शन, तथा व्यवहार को मूर्तिमंत रूप में प्रस्तुत करता है। हमारे जीवन की ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान इस यथाथर्वादी काव्य में न हो। अनेकों कथानकों, कथासूत्रों, अनेक चिन्तन कणिकाओं से भरे हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज के इस विश्वकोश का जितनी बार मंथन किया जाएगा, उसमें से हमें नये विचार और दृष्टि मिलती जाएगी। वैसे इस ग्रंथ की केन्द्रीय विषय वस्तु कौरव और पांडवों के युद्ध का वर्णन है परंतु इसमें पग पग पर इतनी कथाएँ है जिससे हमें धर्म, नीति, राजनीति, आचार-व्यवहार की पूरी शिक्षा मिलती है। धर्म, राजनीति, समाज, अर्थ, मोक्ष आदि से सम्बद्ध विविध शास्त्रों के इस महाभारत में तत्संबंधी विचारों, सूत्रों व उपदेशों के अनेकानेक प्रसंग हैं।

‘‘अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत्।

कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामिति बुद्धिना ।।’’

(उद्धृत-महाभारत में संचार सूत्र, डॉ. श्रीकांत सिहं, पृ. 42)

          यहाँ आलेख की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए हम ऐसे कुछेक प्रसंगों व पात्रों से संबंधित कतिपय बातों का उल्लेख करेंगे जिसमें हमारे लिए दिशा-निर्देश का संकेत है।

      बाहरी आक्रमण के समय अपनी आंतरिक शत्रुता को भूलकर अपनों के साथ मिलझुलकर बाहरी आक्रमण का सामना करना। इस तरह अपने आंतरिक कलह में हम भले एक-दूसरे के विरोधी हैं, परंतु बाहर से यदि कोई हमारे दोनों पक्षों में से किसी को हानि पहुँचाता है तो हम दो अलग-अलग न होकर एक है। इस बात का संकेत हमें महाभारत के एक प्रसंग में मिलता है, जिसमें चित्रसेन द्वारा दुर्योधन तथा उनकी मंडली को कौरव-स्त्रियों सहित बंदी बना लेने की खबर जब धर्मराज युधिष्ठिर तक पहुँचती है तब वे अर्जुन और भीम को आदेश देते हैं कि वे तत्काल वहाँ जाकर उनको मुक्त करा लाएँ। इस प्रसंग में युधिष्ठिर कहते हैं- ‘‘हमारे आंतरिक युद्ध में वे सौ और हम पाँच हैं, किंतु आक्रमण जब बाहर का हो तो हम एक सौ पाँच है।’’ युधिष्ठिर का यह कथन हमें अपने आंतरिक सामाजिक राजनीतिक मामलों में मार्गदर्शन देता है। (प्रच्छन्न, डॉ. नरेन्द्र कोहली, पृ. 81)

      ‘यक्ष-प्रश्न प्रसंग’ महाभारत का एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रसंग है। इसमें यक्ष और युधिष्ठिर के बीच हुए संवाद, जिसमें यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न तथा युधिष्ठिर द्वारा दिए गए उत्तर का वर्णन है। इस प्रसंग में एक तो धर्मराज की धर्मदृष्टि का उत्तम उदाहरण मिलता है तो दूसरी ओर इन प्रश्नों में अगाध ज्ञान भरा है, जो कई समस्याएँ और उसके समाधान का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यह प्रश्न सिर्फ अध्यात्म, दर्शन और धर्म से ही संबंद्ध नहीं बल्कि यह हमारी व्यावहारिक जिन्दगी से भी जुड़े हुए हैं, जीवन, संसार, सृष्टि, ईश्वर, प्रकृति, ज्ञान, बुराई प्रभृति विषयों से जुड़े हुए है।

यक्ष के प्रश्न तथा इन प्रश्नों के युधिष्ठिर द्वारा दिए गए उत्तर इस प्रकार हैं-

o   पृथ्वी से भारी क्या है? - माता

o   आकाश से ऊँचा कौन है? – पिता

o   वायु से भी अधिक गति किसकी है? - मन की

o   तिनकों से भी अधिक संख्या किसकी है? - चिंताओं की

o   प्रवासी का मित्र कौन है? – सहयात्री

o   गृहवासी का मित्र कौन है? - उसकी पत्नी

o   संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? - संसार में प्रत्येक जीव को मरते देखकर व्यक्ति इस भ्रम में जीता है कि उसकी मृत्य कभी नहीं होगी, यह संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है। (प्रच्छन्न, डॉ. नरेन्द्र कोहली, पृ. 313-316)

आज यह ‘यक्ष-प्रश्न’ हमारी भाषा में एक रूढ़ प्रयोग बन गया है। हमारे जीवन में जब कोई ऐसी समस्या आती है, कोई ऐसा प्रश्न आता है जिसका समाधान, उसका उत्तर किसी के पास नहीं होता तो उसे यक्ष प्रश्न की संज्ञा दी जाती है।

अपने प्रश्नों का युधिष्ठिर से सही उत्तर मिलने के पश्चात यक्ष ने युधिष्ठिर से कहा कि मैं तुम्हारे इन चार मृत भाइयों में से किसी एक को ही जीवित करूँगा, बताओ किस भाई को जीवित करूँ? इस पर युधिष्ठिर ने नकुल को जीवित करने की इच्छा प्रकट की। संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन को नहीं, असाधारण बलशाली योद्धा भीम को भी नहीं बल्कि नकुल को जीवित करने की युधिष्ठिर की इच्छा को जानकर यक्ष पूछता है नकुल क्यों इस पर युधिष्ठिर जो बात बताते हैं, उसमें उनकी धर्मदृष्टि की पराकाष्ठा दृष्टिगोचर होती है। ‘‘मेरी दो माताएँ है। कुंती का एक पुत्र मेरे रूप में जीवित है। यदि मैं कुंती के ही दूसरे पुत्र को जीवित कराने का आग्रह रखूँगा, तो माता माद्री के प्रति वह क्रूरता होगी। मैं अनृंशसता का व्रती हूँ यक्ष। किसी के प्रति नृशंस नहीं होना चाहता।’’ (प्रच्छन्न, डॉ. नरेन्द्र कोहली, पृ. 317)

      महाभारत की कथा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पात्र विदुर जो एक अत्यंत नीतिपूर्ण और न्यायोचित सलाह देने वाले थे। जीवन-जगत के व्यवहार में राजा और प्रजा के दायित्वों की उचित व्याख्या करने वाले इस विचारक की नीति-विदुरनीति की प्रासंगिकता आज भी बनी रही है। ‘‘महाभारत की कथा के महत्वपूर्ण पात्र विदुर कौरव वंश की गाथा में अपना विशेष स्थान रखते हैं। और विदुर नीति जीवन-युद्ध की नीति ही नहीं, जीवन-प्रेम, जीवन-व्यवहार की नीति के रूप में  अपना विशेष स्थान रखती है। राज्य-व्यवस्था, व्यवहार और दिशा निर्देशक सिद्धांत वाक्यों को विस्तार से प्रस्तावना करने वाली नीतियों में जहाँ चाणक्य नीति का नामोल्लेख होता है, वहाँ सत्-असत् का स्पष्ट निर्देश और विवेचन की दृष्टि  से विदुरनीति का विशेष महत्व है।’’ (hi.m.wikipedia.org/w)

      धर्मशास्त्र के साथ-साथ महाभारत हमारा एक महान नीतिशास्त्र भी है औऱ समाजशास्त्र भी। सांप्रत जीवन की वैयक्तिक, सामाजिक व राजनीतिक कोई भी समस्या हो उसका निदान उसके केन्द्र में स्थित ‘गीता’ में मिल जाता है। युगों युगों से यह किसी विशेष धर्म या जाति या वर्ग के लिए ही नहीं बल्कि मनुष्यमात्र के लिए उपयोगी व हितकारी है।

      कभी-कभी बिना सोचे-समझे क्रोध व आवेश में या हास-परिहास में किया गया वाणी का दुरुपयोग कितना विनाशक और विध्वंसकारी हो सकता है उसका उदाहरण भी महाभारत में मिल जाता है। जिसके कारण द्यूत हुआ, द्रोपदी का अपमान हुआ, पांडवों को वनवास हुआ और अंततः महाभारत हुआ। यह घटना यह है कि द्रौपदी परिहास में यह कह बैठती है कि ‘‘अंधे का पुत्र भी अंधा होता है।’’ (धर्म, डॉ. नरेन्द्र, कोहली, पृ. 342)

      महाभारत में शकुनि के पात्र के जरिए हम देखते हैं कि एक दुश्चरित्र की गतिविधियाँ शनै: शनै: एक घर-गृहस्थी की दीवारों को कितनी खोखली कर देती हैं। दुर्योधन आदि को गलत बातों की शिक्षा मामा शकुनि ही देते हैं और उस कुशिक्षा के चलते उनका जो चरित्र-विकास होता है जिसके चलते एक नामांकित और यशस्वी राजवंश का नामोनिशान मिट जाता है।

अंत में प्रो. के.जी. सुरेश के विचार से ‘‘मानव अस्तित्व से सम्बद्ध समस्त जिज्ञासाओं का समाधान यदि किसी ज्ञानपुंज में समाहित है तो उसका नाम है महाभारत। महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित इस सर्वकालिक, कालजयी कृति का सम्पूर्ण आख्यान वह पथ प्रदर्शक मार्ग है जिसका अनुगमन और अनुपालन मानव के इहलोक और परलोक में मुक्ति के द्वार खोलता है, सत-चित आनंद की अनुभूति का संचरण कराता है, मानव से महामानव की संकल्पना को परिपूर्ण और चरितार्थ करता है। दिव्यता और अलौकिकता से परिपूर्ण भारतीय मनीषा के सर्वश्रेष्ठ वाङ्मय की उपमा से युक्त महाभारत वह महाग्रंथ है जिसमें संपूर्ण जीवन-दर्शन-उसकी विधाएँ, कलाएँ, भूत-भविष्य और वर्तमान की चिरंतन गति का दिग्दर्शन होता है।’’ (महाभारत के संचार सूत्र, डॉ. श्रीकांत सिंह, पुस्तक के आमुख से, पृ. 04) ज्ञान के अखूट भंडार महाभारत के रूप में भारतीय मनीषा, भारतीय जीवन दर्शन की विरासत को जानना-सँभालना हो तो विद्वानों को चाहिए कि इस ग्रंथ को निरंतर खंगालते रहें, उसका मंथन और दोहन करते रहें, उन्हें ज्ञान-विज्ञान का नवनीत प्राप्त होगा ही।

 


डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

 

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