शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

पुस्तक चर्चा

 



प्रेमचंद और गोर्की

(संपादक – शचीरानी गुर्टू)

डॉ. हसमुख परमार

          शचीरानी गुर्टू संपादित प्रेमचंद और गोर्की(सन् 1955) वैश्विक स्तर पर ख्यात दो आला दर्जे के कथा लेखकों हिन्दी कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद और महान रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की के जीवन और लेखन के वैशिष्ट्य को निरूपित करने वाली 585 पृष्ठ की एक बृहत् व स्तरीय पुस्तक है। प्रेमचंद और गोर्की उभय सर्जकों में विविध साम्य संदर्भों को खोजना या इनमें भेदक तत्वों को बताना, तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हुए दोनों लेखकों के महत्त्व को कम-ज्यादा आँकना इस पुस्तक का प्रयोजन कतई नहीं है। संपादिका के शब्दों में प्रस्तुत पुस्तक प्रेमचंद और गोर्की को एक साथ रखने का यह मंतव्य कदापि नहीं कि वे पूरी तौर पर, बिना किसी नुक्ताचीनी या अंतर-वैषम्य के, यकसाँ हैं अथवा उन्हें छोटा-बड़ा या एक-दूसरे से हीन या श्रेष्ठ सिद्ध करने का हमारा उद्देश्य है। (प्राक्कथन से)

       प्रस्तुत पुस्तक की पूरी विषय-सामग्री प्रेमचंद-गोर्की का तुलनात्मक अध्ययन नहीं है। हाँ, इसमें दो आलेख जरूर ऐसे हैं जहाँ तुलनात्मक विजन दिखता है, जिनमें पुस्तक का प्रथम लेख ‘प्रेमचंद और गोर्की’ भूमिका के रूप में पुस्तक संपादिका शचिरानी गुर्टू द्वारा लिखा गया तुलनात्मक लेख है और दूसरा लेख जो इस पुस्तक का अंतिम लेख  इसी शीर्षक ‘प्रेमचंद और गोर्की’ से लिखा गया है। जिसके लेखक शिवदान सिंह चौहान  है। शिवदान सिंह चौहान प्रेमचंद और  गोर्की को लेकर तुलना करने के पक्ष में नहीं है।  इस संदर्भ में वे लेख के अंतिम परिच्छेद में अपना मत स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - “मैं समझता हूँ कि अब इस संबंध में अधिक ऊहापोह की जरूरत नहीं है। प्रेमचंद अपने स्थान पर महत्त्व पूर्ण रचनाकार है और गोर्की अपने स्थान पर। दोनों की कृतियों का अध्ययन अलग-अलग दृष्टियों से जरूरी है। लेकिन दोनों की कृतियों की तुलना का प्रश्न ही नहीं  उठता इतना तो स्पष्ट है।”(पृ. 585) चौहान जी के लेख में प्रेमचंद-गोर्की की तुलना का विरोध तो है ही पर इस विरोध के कारणों को बताते हुए इसमें तुलना संबंधी कई महत्त्वपूर्ण संदर्भों व मुद्दों पर विचार किया गया है।

          दरअसल उक्त पुस्तक में देश दुनिया के जिन सुधी समीक्षकों के लेख शामिल हैं,  उनमें ऊपर उल्लेखित  शचिरानी गुर्टू और शिवदानसिंह  के आलेख में ही प्रेमचंद और गोर्की दोनों को साथ मे रखकर बात की गई है बाकी अन्य तमाम लेख प्रेमचंद और गोर्की को अलग-अलग रखकर लिखे गए हैं। इन लेखों में प्रेमचंद संबद्ध लेख प्रेमचंद के जीवन, लेखन, लेखन की महत्ता को रेखांकित करते हैं, ठीक इसी तरह गोर्की विषयक लेखों में भी इसी महान रुसी लेखक के जीवन    साहित्य से  जुड़े अनेकों महत्त्वपूर्ण संदर्भों को लिया गया है। “यहाँ आप प्रेमचंद  और गोर्की पर देशी-विदेशी विद्वानों के ऐसे लेख संकलित पाएंगे जिनमें उनके जीवन और कृतित्व की विस्तार से जाँच-परख करने की चेष्टा की गई है।” (प्राक्कथन से)

          पुस्तक में कुल 57 प्रकरण है जिनमें दो तीन प्रकरण को छोड़कर शेष आलेख के रूप में है। प्रथम प्रकरण जो भूमिका के रूप में “प्रेमचंद और गोर्की” शचीरानी गुर्टू ने लिखा तथा पुस्तक का अंतिम लेख हिन्दी के शीर्षस्थ समीक्षक शिवदानसिंह चौहान लिखित। इन दोनों लेखों मे प्रेमचंद गोर्की दोनों की एक साथ, एक जगह मौजूदगी है। प्रकरण सं ०२ से ३४ का  कलेवर प्रेमचंद है और प्रकरण सं. ३५ से ५६ ( भाग – मैक्सिम गोर्की : जीवन और साहित्य ) की विषय वस्तु गोर्की के संबद्ध।

          प्रेमचंद और गोर्की’  शचीरानी गुर्टू का तुलनात्मक निबंध है जिसमें लेखिका ने प्रेमचंद गोर्की की रचनाओं (कतिपय कहानियों व माँ (mother) तथा गोदान उपन्यासों) का हवाला देते हुए दोनों लेखकों के स्वभाव, संवेदना, लेखन-उद्देश्य, रचनाओं का कथ्य, शिल्प-विधान, चरित्र जैसे  बिन्दुओं को लेकर दोनों में साम्य तथा कहीं कहीं थोडा वैषम्य को सोदाहरण स्पष्ट किया है। निबन्ध से कुछ उद्धरण प्रेमचंद और गोर्की दोनों ही कलाकारों की यह विशेषता है कि उन्होंने अपने अपने देश के कथा साहित्य को परिपुष्ट किया, उसे अग्रगामी बनाया और उसमें जीवन फूँका। वे उन तेजवान स्वप्न दृष्टाओं में थे जिनका जीवन निःशेष आत्मदान की दिव्य, भव्य अग्नि शिखा के रूप में प्रज्ज्वलित होकर जनता के जड़ीभूत और तिमिराच्छ्न्न हृदयों को  चैतन्य प्रकाश से जगमगा जाता है और उनमें शक्ति एवं संजीवन डाल  देता है। प्राणों को निचोड़कर मानो लिखते थे ........ प्रेमचंद और गोर्की दोनों ने ही अपने अपने उपन्यासों में किसान और मनुष्य के परवश जीवन, उनके कष्टों और संघर्षों का विशद चित्रण कर जमींदार, मिल-मालिक, पटवारी, पुलिस और कर्मचारियों के ज़ोर-जुर्म और ज्यादतियों पर प्रहार किया है। (पृ. 14 )

          प्रेमचंद और गोर्की –इन दोनों कलाकारों का लक्ष्य एक ही है- मानव जीवन का उत्थान और अपने हमवतन भाइयों का हित चिंतन।

          प्रेमचंद और गोर्की की विश्व प्रसिद्धि का महत्त्वपूर्ण आधार रही इनकी औपन्यासिक रचनाएँ –गोदान और माँ  (mother)। इन दोनों कालजयी रचनाओं में साम्य का केन्द्रबिन्दु बताते हुए लेखिका लिखती हैं – “प्रेमचंद के ‘गोदान’ और गोर्की के प्रख्यात उपन्यास  ‘माँ’ (mother) में बहुत कुछ साम्य है- साम्य इस रूप में कि दोनों उपन्यासों की केन्द्रीय आत्मा एक है, उनमें एक-सी प्रतिध्वनि गूँज रही है।”

          प्रेमचंद और गोर्की के साहित्य के संदर्भ में इन दोनों कलाकारों की कल्पना व जीवन व्याख्या की तुलना करते हुए कहा गया है कल्पना की पैठ और जीवन की व्याख्या के आधार पर दोनों  कलाकारों की तुलना करते हैं तो सौंदर्यगत प्रेषणीयता के अनुशासन को स्वीकार करके ऐसा प्रतीत होता है, गोर्की की कल्पना विनिर्मुक्त हो जाती है, वह कोई बंधन नहीं मानती, जबकि प्रेमचंद में अपेक्षाकृत, संयम और बौद्धिक अनुशासन है।

          चिंतन, प्रभाव, कथ्य, चरित्र-चित्रण आदि को लेकर दोनों की महत्ता व सफलता को स्पष्ट करते हुए लिखा है – मार्मिक प्रसंगों, दृश्यों का चुनाव, प्रभाव की व्यंजना और निगूढ़ मनोगतियों की सम और विषम परिस्थितियों में यथार्थ और संभाव्य के नियोजन में ये दोनों ही कलाकार बेमिसाल है। मानवीय जीवन की सर्वांगीण व्याख्या के लिए पात्रों के अन्तर्भाव, विचार और प्रवृतियों का सूक्ष्म साथ ही उनकी निगूढ़ चिंतन प्रक्रिया और मनोरागों की निरपेक्ष अभिव्यक्ति में भी ये दोनों ही समान रूप से सफल हुए है।

          प्रेमचंद और गोर्की दोनों यथार्थवादी कलाकार हैं, दोनों मे सहानुभूति, पैनी अंतर्दृष्टि, विलक्षण प्रतिभा और चित्रण शक्ति है। विचारधाराओं एवं जीवन दृष्टि की समानता में भी वे किसी हद तक एक ही स्तर पर थे।

           आजकल’ से उद्धृत सामग्री ‘जीवन की रेखाएँ’ शीर्षक लेख का प्रतिपाद्य है। जिसमें प्रेमचंद के जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा के विविध पड़ावों, कार्यों, घटनाओं का जिक्र है। जन्म तिथि, जन्म स्थल, परिवार, शिक्षा, व्यवसाय, पत्रकारिता व साहित्य सृजन में योगदान आदि से जुड़ी विविध झाँकियाँ व तथ्य को निरूपित करता यह लेख पाठक को प्रेमचंद के जीवन व साहित्यिक गतिविधियों से बखूबी परिचित कराता है।

          प्रेमचंद जी के ज्यादा निकट रहने, ज्यादा अतरंग होने के नाते मुंशी दयानारायण निगम और बनारसी दास चतुर्वेदी के प्रेमचंद विषयक लेखन में कहीं कहीं संस्मरणात्मक शैली का पुट स्वाभाविक है। पुस्तक में इन दोनों महानुभावों के लेख संकलित हैं। ‘प्रेमचंद की बातें’ (मुंशी दयानारायण निगम) और ‘स्वर्गीय  प्रेमचंद’ (बनारसीदास चतुर्वेदी) में दोनों लेखक हमें प्रेमचंद संबंधी कई अनजानी-अनसुनी बातों से अवगत कराते हैं। मुंशी दयानारायण निगम की प्रेमचंद जी से मैत्री दीर्घकालीन, लगभग तीन दशक की रही। महज मित्रता ही नहीं बल्कि दोनों में परस्पर भाई  सदृश स्नेह व अपनत्व रहा। “तीस साल के करीब मेरी उनकी मित्रता ही नहीं बल्कि सगे भाई का-सा संबंध रहा।... अजीब बात है कि यद्यपि उम्र में वे मुझसे कुछ बड़े थे, लेकिन शुरू से आखिर तक मुझे बड़े भाई के सदृश समझते रहे।” (पृ. 07) निगम जी ने अपने लेख में प्रेमचंद के विवाह, गृहस्थ जीवन व लेखकीय अभिरुचि, प्रेमचंद की रचनाओं, प्रेमचंद के विचार आदि पर प्रकाश डाला है। ‘स्वर्गीय प्रेमचंद’ में लेखक बनारसीदास चतुर्वेदी लिखते हैं कि इन पर प्रेमचंद की बड़ी कृपा थी और वह अपने जीवन के पवित्र संस्मरणों में प्रेमचंद की स्मृति की गणना करते हैं। यहाँ पर लेखक प्रेमचंद लिखित कतिपय पत्रों व इन पत्रों के कुछ अंशों के आधार पर प्रेमचंद के जीवन, उद्देश्य, आकाक्षाएँ, इनकी रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद, पत्रकारिता के क्षेत्र में इनका योगदान, पत्रकारिता के प्रति समर्पण व प्रतिबद्धता जैसे विषय बिंदुओं का परिचय देते हैं।

          प्रेमचंद के सैयद इम्तियाज अली, मुंशी दयानारायण निगम श्री आनन्दराव जोशी, जैनेंद्र कुमार, उपेन्द्रनाथ अश्क, भदन्त, आनन्द कौसल्यायन आदि के नाम लिखे कुछ पत्र प्रेमचंद के पत्र में संकलित हैं।  इन पत्रों के मूल स्रोत के बारे में बताया है - “प्रेमचंद के इन पत्रों में से सैयद इम्तियाज अली ताज को लिखे गए पत्र  “हंस” के अक्तूबर 1948 और मार्च 1949  के अंकों से लिए गए हैं। आनन्दराव जोशी, जैनेंद्र कुमार और भदंत आनन्द कौसल्यायन को लिखे गए पत्र “हंस” के प्रेमचंद स्मृति अंक से उदधृत किए जा रहे हैं और शेष पत्र श्री हंसराज “रहबर” की पुस्तक ‘प्रेमचंदः जीवन और कृतित्व’ से लिए गए हैं।” (पृ. 42)   

          प्रेमचंद के रचनाकर्म का परिचय प्रेमचंद साहित्य में तथा प्रेमचंद कृति (वा. वि. पराड़कर) में औपन्यासिक कृति गोदान  के महत्त्व पर विचार किया गया है।  बी. एस. बेसकवनी के प्रेमचंद शीर्षक आलेख में प्रेमचंद का लेखन, प्रेमचंद जी के सामाजिक सरोकार, प्रेमचंद पर गाँधी और टॉलस्टॉय का प्रभाव, प्रेमचंद के जीवन का उद्देश्य, प्रेमचंद के कुछ विरोधियों द्वारा किया गया कुछ विरोध-आरोप जैसे- (प्रेमचंद  घृणा के प्रचारक) आदि चर्चा का विषय है।

          प्रेमचंद के नवनिधि, सप्तसरोज (कहानी संग्रह) सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि आदि उपन्यासों के आलोक में प्रेमचंद के लेखन की कुछेक सीमाएँ (आलेख लेखक की दृष्टि से) के साथ-साथ प्रेमचंद का व्यक्तित्व-व्यवहार, विविध आलोचकों द्वारा प्रेमचंद को लेकर कही गई कुछ बातें और इनके साथ आलेख लेखक का पूरी तरह सहमत न बताना जैसी बातों को लेकर इलाचंद्र जोशी ने विचार किया है प्रेमचंदः व्यक्तित्व और कला आलेख में।

          प्रेमचंद का मनुष्यत्व तो इनके लेखन से भी ज्यादा महान था।  इस संदर्भ में जोशी जी लिखते है आज हमारी नई पीढ़ी के साहित्यकार प्रेमचंद को केवल ऊँचे दर्जे के कलाकार के रूप में जानते हैं। उनका मनुष्यत्व उनकी कला से भी कितना महान था, इस बात का परिचय केवल उन्हीं लोगों को है जो उनके जीवनकार्य में उनके घनिष्ठ संपर्क में आने का सौभाग्य पा चुके थे। अपनी रचनाओं में जिन दलितात्माओं के  निर्यातित जीवन का सजीव चित्रांकन किया है उनके प्रति उनकी केवल मौखिक सहानुभूति नहीं थी,  वह अपनी सहानुभूति को अनेक बार वास्तविक जीवन में, व्यावहारिक रूप में व्यक्त करके साहित्यकारों के लिए एक महान आदर्श छोड़ गए हैं। कला की मार्मिक अनुभूति का वास्तविक मूल्य यहीं पर है। उन्होंने स्वयं अपने जीवन में जिन कष्टों का अनुभव किया उनसे उन्होंने समाज के पीड़ितों को  यथार्थ रूपमे समझने में सहायता पाई।  और केवल समझकर और कला के माध्यम से उस पीड़न की अभिव्यक्ति करके ही वह चुप नहीं रहे, बल्कि अपनी घोर आर्थिक संकट की दशा में भी वह विभिन्न परिस्थितियों में पड़े हुए परिचित अथवा अपरिचित व्यक्तियों को यथासंभव आर्थिक सहायता पहुँचाने के लिए सदा उद्यत रहते थे,  ऐसा मैंने उन लोगों से सुना जिन्होंने उनकी सहायता पाई थी। हिंदी जगत के घोर स्वार्थपूर्ण वातावरण की संकीर्ण मनोवृति को ध्यान मे रखते हुए जब मैं प्रेमचंद जी के इस उदार मनुष्यत्व की सहृदयता पर विचार करता हूँ तब मेरे हृदय में  विह्वल श्रद्धा गदगद होकर उमड़ उठती है।” ( पृ. 102 )

 प्रेमचंद के महत्त्व को स्वीकार करते हुए भी इलाचंद्र जी प्रेमचंद जी से कला संबंधी अपने मतभेद के बने रहने की बात करते हैं। “प्रेमचंद की प्रतिभा की व्यापकता का महत्त्व मैंने सदा मुक्तकंठ से स्वीकार किया है। उन्होंने आधुनिक हिंदी  कथासाहित्य की प्राणप्रतिष्ठा की है। ऐयारी और तिलस्माती उपन्यासों की बाढ़ से हिंदी साहित्य का उद्धार करके उन्होंने जो महत कार्य किया  वह इतिहास में चिर-स्मरणीय रहेगा। उन्होंने साहित्य को नया जीवन दिया, नई चेतना को उभारा है। उनकी यह महत  साहित्यिक साधना के प्रति में कभी अकृतज्ञ नहीं रहा। उनसे मेरा केवल कला सम्बन्धी मतभेद रहा, जो सदा वैसा ही बना  रहेगा । (पृ.  110)

          हिन्दी के प्रसिद्ध समीक्षक डॉ नगेंद्र अपने प्रेमचंद नामक लेख में प्रेमचंद पर विचार करते हुए इनके निम्न गुण व कुछ सीमाओं की विस्तार से व्याख्या करते हैं –

· प्रेमचंद का सबसे प्रधान गुण है उनकी व्यापक सहानुभूति। उनके व्यक्तित्व का  मानव-पक्ष अत्यन्त विकसित था।

· प्रेमचंद का दूसरा प्रमुख गुण है उनका अत्यन्त स्वस्थ और साधारण व्यक्तित्व। साधारण का प्रयोग नार्मल के अर्थ में उनका दृष्टिकोण मनोग्रंथियों से रहित सर्वथा ऋजु सरल था, उसमें प्रवृतियों का स्वस्थ संतुलन और अतिचार एवं अविचार का अभाव था।

· साधारण नार्मल व्यक्ति निसर्गतः, उपयोगितावादी और नीतिवादी होता है, और प्रेमचंद  के दृष्टिकोण में वे दोनों विशेषताएँ अत्यन्त मुखर है।

· प्रेमचंद के जीवन दर्शन का मूल तत्व है मानवतावाद।

· प्रतिभा के अनेक अंग है; तेजस्विता, प्रखरता, गहनता, दृढता,  सूक्ष्मता और व्यापकता। इनमें से  प्रेमचंद के पास  केवल व्यापकता  ही थी शेष तीन गुण अपर्याप्त  मात्रा में थे। वास्तव में नार्मल व्यक्तित्व की यह सहज सीमा है कि व्यापकता की तो उसके साथ संगति बैठ जाती है, परंतु तेजस्विता गहनता और तीव्रता अथवा सघनता एवं दृढ़ता के लिए उसमें स्थान नहीं होता।  

प्रो. विश्वनाथ प्रसाद प्रेमचंद की महानता को बताते है, विशेषत : डॉ नगेंद्र के प्रेमचंद के प्रति दृष्टिकोण का विरोध करते है। नगेंद्र प्रेमचंद को द्वितीय कोटि का कलाकार मानते हैं, इसी संदर्भ मे प्रो विश्वनाथ प्रसाद मिश्र लिखते हैं “प्रेमचंद जी ने हिन्दी साहित्य को गौरवान्वित किया है, क्योंकि जिन लेखकों और कवियों के कारण हिन्दी साहित्य का प्रचार हुआ है और इसका मान बढ़ा है उनमें प्रेमचंदजी का स्थान प्रथम पंक्ति में है। इस दृष्टि से प्रेमचंद जी का स्थान आधुनिक हिन्दी के साहित्यकारों में सर्वश्रेष्ठ है और इस दृष्टि से वे विद्यापति, तुलसीदास, कबीरदास, बिहारी आदि साहित्यकारों के बीच मे रक्खें जाएँगे। प्रेमचंद जी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का आसन ग्रहण करने योग्य बनाया है। ऐसा महान कलाकार द्वितीय कोटि का कलाकार कैसे हो सकता है। (पृ. 127 )

          प्रेमचंद की रचनाओं से उदाहरण देते हुए नरोत्तमनागर ने प्रेमचंद में घटना वैचित्र्य पर अपने गंभीर व महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं। चंद्रवली सिंह ने प्रेमचंद की कथाकृतियों की संवेदना, इसमें निहित विचार, हंस, जागरण के संपादकीय लेख का उल्लेख करते हुए प्रेमचंद की परंपरा को निरूपित किया है। प्रेमचंद की औपन्यासिक रचनाओं में पात्रों में परस्पर प्रेम-विविध प्रेमप्रसंगों  को रेखांकित करते हुए प्रेमचंद का प्रेम विषय पर प्रो. वी. एल  कौल का लिखा लेख भी महत्त्वपूर्ण है। प्रेमचंद के कथासाहित्य में देहात का परिवेश-ग्रामीण जीवन उपेन्द्रनाथ अश्क के प्रेमचंद और देहात आलेख का केन्द्रीय विषय है। “मैं प्रेमचंद और देहात को पृथक-पृथक नहीं समझता। एक की याद आते ही मेरे सामने दूसरे का चित्र खिंच जाता है और यद्यपि मुझे उनके समीप रहने का सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ और मैं नहीं जान सका कि वह बाह्य रूप से कितने देहाती थे, परंतु उनकी कृतियों को देखकर, उनका अध्ययन करके मैं इसके अतिरिक्त किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका कि देहात की रूह उनकी नस-नस में बसी हुई थी। शहरों में रहते हुए भी वह देहात में साँस लेते थे, शहरों में रहते हुए भी वह देहात की उन्नति तथा प्रगति के विषय में सोचते थे। वह जानते थे, भारत देहात में बसता है, उसकी स्वतंत्रता और उन्नति देहातियों की स्वतंत्रता और उन्नति पर निर्भर है। जब तक देहाती, अंधश्रद्धा, झूठई मर्यादा, अशिक्षा, जहालत और कर्जे के बोझ तले दबे हुए हैं, फ़िजूलखर्ची और दुर्व्यसनों की बेडियों में जकड़े हुए हैं तब तक भारत भी स्वतंत्र नहीं हो सकता, वह भी दासता की बेडियों में जकडा रहेगा।” (पृ. 165) प्रेमचंद के गाँव, देहात के मौसम, देहाती और उनकी दीनावस्था, देहात की जोंकें, आदर्श गाँव आदि मुद्दों की सोदाहरण चर्चा इस लेख में है। महेन्द्र भटनागर प्रेमचंद साहित्य के विशिष्ट अध्येताओं में से हैं, इन्होंने प्रस्तुत पुस्तक में अपने लेख प्रेमचंद के उपन्यासों में स्वाधीनता की गूँज की शुरूआत में ही लिखा है “स्वर्गीय प्रेमचन्द जी भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के निर्भिक व अविचल योद्धा थे। विदेशी सत्ता के साम्राज्यवादी चक्र में दबा-पिसा हिन्दुस्तान उनकी रचनाओं में बड़े ही मार्मिक ढंग से परिलक्षित हुआ है। प्रेमचंद भारतीय राजनीतिक-जागरण का एक स्तम्भ है। देश में स्वाधीनता के विचारों का प्रचार उन्होंने साहित्य के माध्यम से उतने ही जोरों से किया जितना कि क्रियात्मक राजनीति में सत्य व अहिंसा के द्वारा गाँधी जी ने।” (पृ. 176)

          गाँधीवाद, प्रगतिवाद और प्रेमचंद में गोपालकृष्ण कौल ने विविध उद्धरणों व उदाहरणों को देते हुए प्रस्तुत विषय पर गंभीर विचार व इसका विश्लेषण किया है। हिन्दी कहानी के इतिहास में प्रेमचंद के स्थान और अहमियत को बताते हुए डॉ. देवराज उपाध्याय ‘प्रेमचंद की कहानियाँ और मनोविज्ञान’ अपने लेख में लिखते हैं “प्रेमचंद का कहानी काल तीस वर्षों तक फैला हुआ है। 1907 से लेकर 1936 तक इस अवधि में उनकी प्रतिभा के वरदान स्वरूप करीब 400 कहानियाँ हिन्दी साहित्य को प्राप्त हुई और उनकी कला में उत्तरोत्तर विकास होता गया। आज हिन्दी का कथा-साहित्य बहुत ही समृद्ध कहा जाता है उसमें लगभग 7 हजार कहानियाँ परिमाण की दृष्टि से वर्तमान है पर यदि उनमें से प्रेमचंद की कहानियों को हटा लिया जाय तो इस क्षेत्र का गौरव अनेक अंश में नष्ट हो जायेगा। और वह सूना-सूना सा लगने लगेगा। यदि दो-चार लेखकों को अपवाद स्वरूप मान लिया जाय तो आज भी हम पाते है कि हमारे कहानीकार प्रेमचंद के पदचिन्हों का ही अनुकरण कर रहे हैं।” (पृ. 196) मानव-मनोविज्ञान के आनुरूप्य, सामीप्य तथा आधारभूत तत्व की दृष्टि से प्रेमचंद की कहानियों को तीन श्रेणियों में लेखक ने रखा है- (1) प्रारम्भिक कहानियाँ (बड़े घर की बेटी, पंच परमेश्वर, नमक का दरोगा, परीक्षा, रानी सारंधा, ममता, अमावस्या की रात्रि) (2) विकसित कहानियाँ (वज्रपात, मैकू, माता का हृदय, मुक्ति का मार्ग, शतरंज के खिलाडी, डिगरी के रूपये, दुर्गा का मंदिर, आत्माराम) (3) मनोवैज्ञानिक अथवा प्रौढ़ कहानियाँ (मिस पदमा, अलग्योझा, नशा, सुजान भगत, कफन, मनोवृत्ति, घासवाली)

          मनोवैज्ञानिक संदर्भ के आलोक में प्रेमचंद की कतिपय कहानियों के क्रम में यह लेख विशेषतः प्रेमचंद की ‘मनोवृत्ति’ नामक कहानी की विशेष चर्चा को लेकर है। समीक्षक के विचार से “हम प्रेमचंद जी की ‘मनोवृत्ति’ नामक कहानी को उन कहानियों की श्रेणी में रख सकते है जो प्रत्येक दृष्टि से आधुनिक मनोवैज्ञानिक कहानियों से प्रतिस्पर्धा कर सकती है। इसमें किसी मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के आधार पर कहानी की रचना करने का आग्रह नहीं है जैसाकि इलाचन्द्र जी की कहानियों में होता है और न मस्तिष्क के भौगोलिक प्रदेशों के पृथक निवासियों के संघर्ष की ही कथा कही गई है, परंतु एक साधारण-सी घटना विभिन्न मानव के मस्तिष्क में किस तरह चित्र-विचित्र प्रतिक्रिया की लहरों को तरंगित कर सकती है इसकी कथा कही गई है।” (पृ. 204)

          प्रेमचंद का कथासाहित्य (नरेश), प्रेमचंद और अन्य कथाकार (नलिन विलोचन शर्मा), प्रेमचंद की कहानियाँ (केदारनाथ अग्रवाल), प्रेमचंद कथाकार (विष्णु प्रभाकर), प्रेमचंद की ऐतिहासिक कहानियाँ (रामावतार त्यागी), प्रेमचंद और उनका नाट्य साहित्य (प्रो. रामचरण महेन्द्र), प्रेमचंद और फिल्म कम्पनियाँ (जियाउलदीन बरनी), भारतीय फिल्में और प्रेमचंद (बच्चन श्रीवास्तव), ‘वरदान’ और ‘प्रतिज्ञा’ (मन्मथनाथ गुप्त), प्रेमाश्रम (प्रो. आर्येन्द्र शर्मा), सेवासदन और ‘निर्मला’ (प्रेमनाथ दर), ‘कायाकल्प’ (प्रो. रामकृष्ण शुक्ल शान्तिप्रिय), ‘कर्मभूमि’ (मालिक राम) कर्मभूमि (प्रो. रामेश्वरलाल खंडेलवाल ‘तरुण’), ‘रंगभूमि’ और ‘मंगलसूत्र’ (हंसराज रहबर), गबन (प्रो. कन्हैयालाल सहल), प्रेमचंद और गोदान (शांतिप्रिय द्विवेदी) ये लेख पुस्तक का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इन सभी लेखों के समीक्षकों ने विषय के मुताबिक विवेचन-विश्लेषण करते हुए प्रेमचंद के जीवन और कृतित्व के विविध पहलुओं को पाठकों के समक्ष रखा है। “स्रष्टा को जनता की अदालत में अपनी हर एक कृति के लिए जवाब देना पड़ेगा।”

          केदारनाथ अग्रवाल ने प्रेमचंद की कहानियाँ में प्रेमचंद के इस कथन को उद्धृत करते हुए एक कहानीकार को कहानी लिखते समय अपने उत्तरदायित्व का बखूबी निर्वाह करना चाहिए-प्रेमचंद के इस निष्कर्ष को स्पष्ट किया और इस संदर्भ में आगे लिखते हैं कि “प्रेमचंद ने अपने कथन को पूरी तरह निबाहा। उन्होंने कहानी का तन और मन दोनों बदला।” विष्णुप्रभाकर प्रेमचंद-कथाकार में प्रेमचंद की जनजीवन से सहानुभूति, ग्रामीण जनता में तादाम्य भाव जिसके कारण इनका साहित्य जीवन का, भारतीय जनता का साहित्य बना है - इस बात को स्पष्ट करते हैं - “उन्होंने भारत की निरीह, उपेक्षित और निराद्रित ग्रामीण जनता की आत्मा से तादाम्य भाव स्थापित किया और उसके सुख दुःख को, उसकी उदारता और महानता को सदा-सदा के लिए साहित्य में अमर कर दिया। यही था उनका यथार्थवाद और यही था आदर्शवाद। इसी कारण उनका साहित्य जीवन का साहित्य और जनता का साहित्य बना” (पृ. 236)

          वैसे तो प्रेमचंद की कहानियों की मूल पहचान सामाजिक यथार्थ से जुड़ी है- अतः इनकी कहानियाँ ज्यादातर सामाजिक कहानियाँ ही कही जाती है - पर प्रेमचंद की कहानियों में कुछ ऐसी भी कहानियाँ है जो ऐतिहासिक विषय को लेकर लिखी गई हैं। रामावतार त्यागी ने प्रेमचंद की ऐतिहासिक कहानियाँ लेख में प्रेमचंद की ऐतिहासिक कहानियों का अध्ययन किया है। अध्येता के मतानुसार अपनी सैकड़ों कहानियों में उन्होंने एक दर्जन से अधिक ऐतिहासिक कहानियाँ भी लिखी हैं जो उनके कृतित्व की बेजोड़ मिसाल है।” प्रेमचंद की ऐतिहासिक कहानियों में - शतरंज के खिलाड़ी, राजा हरदौल, रानी सारंधा, मर्यादा की वेदी, पाप का अग्निकुंड, जुगनू की चमक, परीक्षा, धिक्कार, लैला, क्षमा, वज्रपात, दिल की रानी, धोखा प्रमुख हैं। लेख में इन्हीं कहानियों पर विचार किया गया है।

          प्रेमचंद के रचनासंसार में कहानी-उपन्यास के साथ नाटक का भी विशेष स्थान रहा है। प्रेमचंद के ‘संग्राम’ नाटक से शायद ही कोई प्रेमचंद साहित्य का पाठक अनजान रहा हो। रामचरण महेन्द्र ने प्रेमचन्द और उनका नाट्य साहित्य में दो नाटकों ‘संग्राम’ और ‘कर्बला’ की चर्चा की है। नाटक मूलतः अभिनय की कला अतः पाठ्य नाटकों में अभिनयक्षमता पर भी विचार करना नाटक समीक्षा का एक विशेष विषय रहा है। प्रेमचंद के नाटकों को लेकर इस संदर्भ में विचार करते हुए रामचरण महेन्द्र लिखते हैं - “क्या प्रेमचंद के नाटकों का अभिनय हो सकता है ” इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि ये नाटक पाठ्य हैं किन्तु काँट-छाँट करने तथा अच्छे अभिनेताओं के द्वारा खेले जाने पर यह नाटक मनोरंजक एवं उपदेशात्मक हो सकते हैं। इन नाटकों का सौन्दर्य उनका विचारप्रधान दृष्टिकोण तथा भाव प्रधानता है। इनमें प्रेमचन्द समाजसुधारक के रूप में देखे जा सकते हैं। नाट्य शैली नवीनता लिए हुए है। पारसी स्टेज का प्रभाव नहीं है, यद्यपि स्वगत का प्रयोग हुआ है। चरित्र-चित्रण एवं अपने विचारों की दृष्टि से प्रेमचंद के नाटक अपना विशेष महत्त्व रखते हैं।” (पृ. 250)

          प्रेमचंद और इनकी कथाकृतियाँ का फिल्मी दुनिया से जुड़ने की चर्चा प्रेमचंद और फिल्म कम्पनियाँ (जियाउलदीन बरनी) और भारतीय फिल्में और प्रेमचंद (बच्चन श्रीवास्तव) लेखों के केन्द्र में है।

          प्रस्तुत पुस्तक में प्रेमचंद संबंधी शेष आलेख प्रेमचंद की औपन्यासिक कृतियों - वरदान, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, सेवासदन, निर्मला, कायाकल्प, कर्मभूमि, रंगभूमि, मंगलसूत्र, गबन, गोदान - की संवेदना व विवेचन केन्द्रित है। जिनमें मन्मथनाथ गुप्त ने वरदान और प्रतिज्ञा, प्रो. आर्येन्द्र शर्मा ने प्रेमाश्रम, प्रेमनाथ दर ने सेवासदन और निर्मला, प्रो. रामकृष्ण शुक्ल ने कायाकल्प, प्रो. रामेश्वर खंडेलवाल ने कर्मभूमि, हंसराज रहबर ने रंगभूमि और मंगलसूत्र, प्रो. कन्हैयालाल सहल ने गबन और शांतिप्रिय द्विवेदी ने गोदान पर विचार किया है।

पुस्तक के मैक्सिम गोर्की : जीवन और साहित्य - भाग के लेखन के केन्द्र में गोर्की का जीवन व सर्जन है। गोर्की की संक्षिप्त जीवन झाँकी में से कुछ झाँकियाँ देखिए · 22 मार्च, 1868 को, दोपहर के समय, वोल्गा तट पर स्थित निज्हनी नोवगोरद में गोर्की का जन्म हुआ · चार वर्ष की आयु में पिता की और छः वर्ष की आयु में माता का निधन · क्रान्तिकारी छात्रों से सम्पर्क और पुलिस तथा सरकार से बीस वर्षीय संघर्ष का सूत्रपात · इक्कीस वर्ष की आयु में पहली बार गिरफ्तार, अपने जन्मस्थान निज्दनी कैद · इसी दौरान काव्यसृजन का प्रारंभ · प्रथम कविता ‘प्राचीन ओक वृक्ष का गीत’ ·पहली कहानी ‘मकर छुद्रा’ ‘कावकास’ पत्र में प्रकाशित · 1893 से 1897 की कालावधि में अनेक गीतों, कहानियों, उपन्यासों का लेखन ·1898 में दो संग्रह प्रकाशित ·1898 में चेखोव से मुलाकात और इसी साल प्रसिद्ध कहानी ‘छब्बीस पुरुष और एक युवती’ प्रकाशित ·1898 से 1900 तक की समयावधि में गिरफ्तारियों और नजरबन्दियों के बीच ‘समारस्काया गजट’ और ‘निज्हनी गोरोद की लिस्तोक’ नामक पत्रों में कार्य तथा प्रथम उपन्यास तथा तीन नाटकों की रचना · 1900 में टॉल्स्टॉय से भेंट · 1906 में अमरीका प्रवास के दौरान प्रसिद्ध उपन्यास ‘माँ’ की रचना · 1912 तक कैप्री के प्रवास दरमियान रूसी साहित्य के अधूरे इतिहास की रचना जिसे आगे पूरा नहीं कर सके · 1915 युद्धकाल में ‘एनल्स’ अंतर्राष्ट्रीय पत्र का सम्पादन · 1917 में ‘रूस के प्रांगण में’ - यात्रा वर्णनों का संग्रह प्रकाशित · 1919 में टॉल्स्टॉय के संस्मरण लेखन ·1923 में जीवनी का तीसरा खंड ‘मेरा विश्वविद्यालय’ · 1925 में लेनिन के संस्मरणों का लेखन · 1931 में कम्युनिस्ट पार्टी के निर्णय के अनुसार, उनकी देखरेख में, गृहयुद्ध के इतिहास का लेखन · 1934 ‘सोवियत साहित्य’ नामक पत्र का प्रकाशन · 1932 से 1935 दरमियान येगोर बुलीचेव तथा अन्य, दोस्तीगापेव तथा वास्सा ज्हेलेजनोव नाट्य कृतियाँ की रचना · 18 जून, 1936 को गोर्की की मृत्यु

          बनारसीदास चतुर्वेदी ने भी गोर्की के उत्कर्षकारी जीवन प्रसंग शीर्षक से गोर्की के जीवन की कतिपय झाँकियाँ, अविस्मरणीय प्रसंगों को निरूपित किया है- इनमें से एक उदाहरण यहाँ दृष्टव्य है - “प्रथम महायुद्ध और राशनिंग का समय था। मित्र राष्ट्रों ने चारों ओर घेरा डाला रखा था। खाने-पीने की चीजों का प्रायः अभाव था। कोई स्त्री आती और कहती – मुझे भोजन-सामग्री नहीं मिलती”, तो गोर्की अपने सहायक से कह देते- “लिख दो यह गोर्की की पत्नी है।” वह लिखा ले जाती और उसे राशन मिल जाता। इस प्रकार कितनी ही स्त्रियाँ गोर्की की पत्नी के रूप भोजन पा जाती। कभी कोई युवक आता तो गोर्की आदेश देते - “लिख दो गोर्की का लड़का है।” उसे भी राशन मिल जाता। (पृ. 368)

          मैक्सिम गोर्की के पत्र वाले प्रकरण में गोर्की द्वारा लिखे गये कुछ पत्रों के अंशों को दिया है। “महान रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की द्वारा लेखकों, साहित्यिक समालोचकों और प्रमुख सार्वजनिक नेताओं को पैंतीस वर्ष के दौरान लिखे गये कुछ पत्रों का अंश।” (पृ. 370)

          साहित्य में कल्पना और यथार्थ का महत्त्व, साहित्य में कल्पनावाद और यथाथर्वाद का मिश्रण-आपसी रिश्ता, कल्पना-यथार्थ के मिश्रण को साहित्य का गुण-ताकत बतलाना, अपने जीवनानुभव, अपना लेखन, विश्व के महान साहित्यकारों के लेखन का महत्त्व व प्रभाव जैसे विषयों की विस्तृत चर्चा गोर्की अपने लेख ‘मैंने लिखना कैसे सीखा’ में की है, यह लेख इस पुस्तक का महत्त्वपूर्ण लेख कहा जा सकता है। मैंने लिखना क्यों शुरू किया - इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गोर्की लिखते हैं - “मेरे प्रश्न ‘मैंने क्यों लिखना शुरू किया’ का उत्तर हुआ कि मेरे ऊपर गरीबी से थका देने वाली जिन्दगी का दबाव था और मेरे पास इतने अनुभव थे कि उन्होंने मुझे लिखने के लिए मजबूर कर दिया। पहले कारण ने मुझे कल्पनापूर्ण चरित्रों द्वारा उस थका देने वाली गरीबी की जिन्दगी का परिचय देने के निष्कर्ष पर पहुँचा दिया और दूसरे कारण ने यथाथर्वादी चित्रण के नतीजे पर ढकेल दिया।” (पृ. 378)

          “अब मैं उस प्रश्न का उत्तर दूँगा कि मैंने लिखना किस प्रकार सीखा। मुझे अपने अनुभव सीधे जीवन और पुस्तकों से भी मिले हैं। पहले प्रकार के अनुभव या प्रभाव कच्चे माल की तुलना में रखे जा सकते हैं और दूसरे प्रकार के प्रभाव आधे बने सामान की। दूसरे शब्दों में अगर पहले में मैंने बैल को देखा है तो दूसरे में मैंने उसकी चितकबरी खाल को। मैं विदेशी साहित्य का बहुत ऋणी हूँ विशेषकर फ्रेंच साहित्य का।” (पृ. 381-382)    


 

डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर। सुदर्शन रत्नाकर

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  2. मुंशी प्रेमचंद एवं गोर्की के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालता लेख पुस्तक पढ़ने के प्रति रुचि जगाता है। आदरणीय डॉ. परमार सर के प्रति हार्दिक बधाई और आभार 🙏

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