शुक्रवार, 10 जून 2022

लघुकथा

 



बी प्रैक्टिकल

कृष्णा वर्मा

          इस उम्र में भी ग़ज़ब की ऊर्जा थी उसमें। दिन भर परिवार के लिए भागती-दौड़ती रहती। बेटे के बच्चों के मोह ने उसे बूढ़ा होने ही कहाँ दिया था। कामकाजी बहू की सास जो ठहरी। दोनों बच्चे उसी के हाथों ही तो पले थे, मोह तो स्वभाविक ही था। यहाँ तक कि हिस्से का निवाला जब तक उन्हें खिला न लेती तृप्ति नहीं होती थी उसे, बस उन्हीं की सेवा टहल में जुटी रहती और अनोखे सुख का अनुभव करती।

          रात खाने की मेज़ पर बेटे ने अपनी प्रमोशन के विषय में बताया कि वह बैंक मनेजर बन गया है।

          कुछ सोचती हुई माँ बोली, “बेटा इस प्रमोशन का ज़िक्र तो तूने कुछ समय पहले भी किया था तो क्या उस समय तूने स्वीकार नहीं किया था।”

          नहीं माँ, उस समय स्थानांतर मुमकिन नहीं था। आप तो जानती ही हैं नौकरी के साथ दो छोटे बच्चों की अकेले देख-भाल करना नमिता के लिए कितना मुश्किल होता। अब तो यह दोनों बड़े हो गए हैं।

          आश्चर्य से बेटे को देखते हुए माँ बोली, “क्यों मैं भी तो साथ होती।”

          खिस्यानी आवाज़ में बेटा बोला, “उस समय बस यही सोच कर रुक गया था कि तुम्हारी भी तो उम्र हो रही है,  तुम भला हमारे साथ कहाँ भटकती रहोगी।  

          बेटे की बात सुनकर कामिनी को सब समझ आ गया। खाली-खाली आँखों से छत की ओर देखती उसके आँसू बह निकले।

          बेटा माँ के कंधों को हल्के से दबाते हुए बोला, “इसमें उदास होने की कौन-सी बात है, मैं कौन सा विदेश जा रहा हूँ। तुम यहीं रह कर आराम करो। किसी बात की चिंता मत करना, पैसे मैं बराबर भेजता रहूँगा। बी प्रैक्टीकल माँ!!।”

कौन जाने अपनों के हाथों का स्पर्श आज कामिनी के कंधों को कितना शिथिल कर गया था।   

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कृष्णा वर्मा

कैनेडा

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