सोमवार, 18 अक्तूबर 2021

औपन्यासिक जीवनी

 



काल के कपाल पर हस्ताक्षर : हरिशंकर परसाई

राजेन्द्र चन्द्रकान्त राय

(भाग- तीन)

रीडिंग-सेसन

1936-37 में पूरा इलाका प्लेग महामारी की चपेट में गया था। टिमरनी भी उससे अछूता रहा। कहने के लिये, एक कसबे सा कसबा। कच्चे-पक्के सौ-दौ सौ मकान। वे भी उदासी में समूचे डूबे हुए। लोग उस छुतही बीमारी से बचने के लिये, अपने-अपने परिवारों को लेकर जंगलों में पलायन कर गये थे। वहाँ बच्चों के घरघूलों जैसे कच्चे टपरे बनाकर अस्थायी ज़िदगी जी रहे थे। लगता था, जल्दी ही इस बीमारी से मुक्ति मिले जायेगी और वे सब अपने-अपने घरों को लौट सकेंगे। शरणार्थियों वाली दशा से निजात मिल जायेगी। धज्जी-धज्जी हो गया जीवन अपने पुराने रूप में लौटेगा। पर उम्मीद की वह चौखट जाने कितनी दूरी पर थी, कि सूरज और चाँद उगते-डूबते रहे पर हनज़र की हद में आने से दूर ही रही आयी।

          अपनों के चले जाने पर, टूटे हुए दिलों वाले मकान रह गये थे। सूने और उदास। चहल-पहल चली गयी थी। मकानों काघरहोना चला गया था। बस दर--दीवार रह गये। वीराने जैसा भयावह और अनंत सन्नाटा पूरे कसबे पर छाया रहता था। जैसे वह कसबा हो, बल्कि मकानों का कोई वीरान टापू हो। मनुष्यों का नामोनिशान रह गया था। चिड़ियाँ, गिलहरियाँ और कौवे गायब हो चुके थे। कभी-कभार कुत्तों का कोई झुंड लौट आता था, मानों देखने आया हो कि टिमरनी अब भी वहाँ है या नहीं। घंटे-दो घंटे सूनी गलियों में वह झुंड घूमता-दौड़ता, कूं-कूं करके मकानों को सूँघता-साँघता और फिर से जंगलों की तरफ चला जाता, जहाँ अस्थायी टपरे तन गये थे। जहाँ लिथड़ी ही सही, पर ज़िदगी चल रही थी। सूखा-सा ही सही, पर जीवन का झरना बह रहा था।

  जहाँ से मनुष्य चला जाता है, वहाँ से, मानव-बस्तियों के निकट रहने वाले अन्य प्राणियों का भी निर्वासन हो ही जाता है। हाँ, चूहे तब भी रह गये थे। कुछ जिंदा और ज्यादातर मरे हुए। जो जिंदा थे, वे भी मरने के लिये, जिंदा थे। वे पलेग फैलाने वाले चूहे थे।

    ऐसी वीरानी और उस पर उतर रही काली रात, विद्रूप को और भी डरावना बनाती थी। सूरज मकानों को जो आकृति दे दिया करता था, अंधकार आकर उसे विकृत कर देता था। टेढ़े-मेढ़े आकार की वक्र रेखाएँ सी रह जाती थीं, जो कि जल्दी ही गुम हो जाने वाली थीं।

      पर उस भूतपूर्व गाँव के बीच में एक ऐसा मकान बचा रह गया था, जिसमें अंधकार से लड़ने वाली एक कंदील तब भी जला करती थी। उसकी टिमटिमाती रोशनी, दरवाज़ों की दरारों से निकल कर बाहर के अंधेरे से लड़ने पहुँच जाया करती थी। तब धुधलाये पीलेपन को अपने डौल में समेटे हुए वह मकान यों लगता था, जैसे काले सागर में एक अकेली नाव हो। अपने बेड़े से छिटकी हुई। तन्हा। जीवन की ध्वनियाँ भी उन दरारों से झाँखती थीं। कुछ दबी-दबी सी बातचीतें। कुछ ठिठकी हुई सी पदचापें। जैसे उस घर में रहने वालों को डर के अजगर ने सबको अपने लपेटे में कस लिया हो।

   उस घर में एक परिवार रहता है। बच्चे हैं। बच्चों के पिता और माँ हैं। चाचा हैं। दो-एक रिश्तेदार हैं। माँ महारोग के जबड़ों में फँसी हुई हैं। उन्हें लेकर कहीं जाना असंभव हो चुका है। कुशंकाओं को टालने की मुहिम चल रही है। डटे रहने की शक्ति निरंतर क्षीण भी हो रही है।

 घर क्वारेंटीन हो गया है। घर में रहने वाले उस घर के अंदर क्वारेंटीन हो गये थे। 

    अकेलेपन को बिसराने के लिये और संकट से निकल जाने की खातिर, उस घर में दोनों संध्याओं पर आरती गायी जाती है।

  ओम जय जगदीश हरे...

  भक्त-जनों के संकट पल में दूर करे...

  फँसे हुए गलों से निकलने वाले आरती के, उखड़े-उखड़े से स्वर पहले कमरे में ही सरकते रहते हैं, फिर थोड़ी हिम्मत के साथ वे भी दरारों से निकल भागने की फिराक में लग जाते हैं। आरती के लिये जुटायी गयी हिम्मत जरा देर बाद ही टूटने लगती है। लय लड़खड़ाने लगती है, पर बुजुर्ग पिता उसे सम्हालने की कोशिशों से हार नहीं मानते। पर वह सम्हलती नहीं। मुख में ही लुप्त होने लगती है। वहाँ से आरती के स्वर के बजाय, सिसकियाँ निकलने लगती हैं। पिता की सिसकियाँ सुन कर, माँ का धीरज टूटता है। वे बच्चों को बाहों में भर कर छाती से भींचती हैं और उनकी जर्जर हो चुकी देह हिचकियों से झनझनाने लगती है।

   बच्चे अपने बड़ों को रुदन में देखते हैं, तो खुद भी रोने लग जाते हैं। रुदन का समवेत स्वर फूटता है। बच्चों का रुदन सबसे करुण होता है। देखा नहीं जाता। तब पिता ही सबसे पहले अपने रुदन को धकेलकर, बच्चों की पीठें थपथपाते हैं। उन्हें गोद में उठाते हैं। मुस्कुराते हैं। कहते हैं, भोलेशंकर सब ठीक करेंगे... घबराने की कोई बात नहीं है... चलो आरती पूरी करो...

  पिता ही अपनी आवाज को सम्हाल कर अधूरी रह गयी आरती का सिरा थामते हैं। बच्चे अपनी रुआंसी आवाज़ को, उनकी आवाज़ के पीछे ढुलकाने लगते हैं। आरती के बाद सब देवताओं की जय बोली जाती है। पिता चिंउटी भर प्रसाद बच्चों के मुँहों में डालते हैं। कहते हैं, फिकर की कोई बात नहीं, सब अच्छा ही होगा। भरोसा रखो।

  फिर जो कच्चा-पक्का बनाया गया है, उसे ही किसी तरह थोड़ा सा खाकर, पिता, चाचा और रिश्तेदार लाठियाँ-बल्लम उठाते हैं और बाहर जाकर, मकान की पहरेदारी पर लग जाते हैं। पर वे सब नहीं जानते कि यह पहरेदारी किससे कर रहे हैं...? चोरों से...? डकैतों से...? या आसन्न मृत्यु से...?

    नींद, बच्चों को अपने आगोश में लेकर भय-मुक्त करती है। माँ, रात काटने के लिये आँखें बंद कर लेती हैं। नींद उनका आश्रय बन जाती है। एकरसता को तोड़ने का अस्त्र बन जाती है। नया साहस पाने का अंतराल हो जाती है। नये सूरज का इंतज़ार हो जाती है। जीवन की ताकत का प्रमाण देने के लिये ही नींद का आगमन हुआ करता है। वह चैन, आराम और विस्मृति के संसार में ले जाने वाला जहाज हो जाती है।

  बाहर अंधेरा। घर के अंदर अंधेरा। पलकों के पीछे भी अंधेरा। अंधेरे को एक और सबेरे का इंतज़ार है। नया सूरज यानी नया सबेरा। नयी उम्मीदें। नयी दिलासाएं। नये दुख। नये संकट। नयी जूझ। नयी जिवेषणा। 

   ऐसी ही एक अंधेरी रात को, माँ महाअंधकार में चली गयीं। जिसका डर था, वह घटित हो गया। आरती ने संकट दूर किया। बच्चों के सिर पर से ममता के कवच का अपहरण हो गया। पहरेदारियां काम आयीं। रुदन विलाप में बदल गया। विलाप ने उस एकांत को और गहरा बना दिया। अकेलेपन को और भयावना कर दिया।

  पाँच भाई-बहनों में जो सबसे बड़ा था, वह कुल बारह-तेरह बरस की उम्र का ही था। वही मृत्यु के अर्थ को समझता था। उसके तात्पर्यों को जानता था। वह जीवन के संकटों से भी परिचित था और मौत के अर्थ से भी। जीवन की ज़रूरतों को पूरा करने के संघर्ष का आभास भी उसे था और संसार में कूद पड़ने की उम्र होने पर, कूदने का साहस जुटा लेने का कलेजा भी। चरम अभावों से आंखमिचौनी का खेल खेलने का जज़्बा जुटाने की उसमें शक्ति थी और घोर विपदाओं को चकमा देने का हौसला भी।

   वह जो बच्चों में जरा-सा बड़ा-सा है, उसका नाम है, हरिशंकर वह जमानी में उत्पन्न हुआ, ताकि जमाने को अपने होने का अर्थ समझा सके। टिमरनी में प्लेग के भयानक जाल में फंसकर, उसने जीवन का प्रशिक्षण हासिल किया और आगे चल कर संसार को ज़िदगी के मायने भी उसी ने समझाये। द्वंद्व बताये। विसंगतियों को बेपर्दा किया। आदमी और समाज के नकलीपन पर प्रहार किये और पाखंड के कवच को चूर-चूर किया।

   माँ के चले जाने पर, परिवार का केंद्रक ही चला गया। बच्चे, भौंचक रह गये। हरि भी सनाका खा गया। पिता की देह और उम्र में असंख्य दरकनें गयीं। वे बीमार, हताश और बेदम हो गये। पत्नी की मृत्यु ने पिता को भीतर से तोड़ दिया था और बाहर से जर्जर बना दिया था। पत्नी, अक्सर पत्नी से बढ़कर, जीवनी शक्ति बन जाया करती हैं। उनका कायान्तरण अतना स्वाभाविक और इतनी घीमी गति से होता है कि उसका पता ही नहीं चलता। पति, उस कायान्तरण को पहचान पाने की शक्ति से हीन हुआ करते हैं। वे समझते हैं कि वे ही घर की धुरी हैं, पर वह सत्य नहीं रह पाता, भ्रम बन जाता है। जिस दिन पत्नी चली जाती है, पति छूंछे रह जाते हैं। निहत्थे हो जाते हैं। पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक जाती है। शामियाना झूल जाता है। पता चलता है, कि जिसके दम पर इमारत बुलंद थी, वह तो कोई और था। हम थे। उसी के दम पर हममें दम था। अब पाँव बालू में धँस रहे हैं।

    वे बीमार पड़ गये। व्यवसाय चौपट हो गया। जो था, उसी से खर्च चलाया जा रहा था। पूँजी उड़ने लगी। उसके पंख उग आये थे। आमदनी, उस घर का दरवाज़ा भूल गयी।आमदकी बजाय, वहरवानगीबन गयी। मूलधन घटने लगा। निर्धनता ने रास्ता देख लिया। वह कई तरफ से घर में सेंध लगाने लगी। उससे लड़ने के लिये कोई औजार बचा। कोई उपकरण रहा। तब दूर खड़ी आशा की एक चिनगी की खोज कर ली गयी। वह चिनगी थी, हरिशंकर। हरि सातवीं में है, तीन-चार साल बाद मैट्रिक हो जायेगा। मैट्रिक हो जायेगा, तो नौकरी कर सकेगा। नौकरी कर सकेगा, तो घर में चार पैसे आने लगेंगे।

  हरिशंकर के मैट्रिक कर लेने का इंतज़ार होने लगा। यही उन दिनों नौकरी की न्यूनतम योग्यता थी और कई बार अधिकतम भी। पढ़े-लिखे लोग तब होते ही कितने थे। पिता ने अपनी उम्र की हद को जान लिया था। अपने जिम्मे के तमाम ज़रूरी काम निबटा देने की उनमें जल्दबाजी का भाव पैठ गया था। उसी के चलते, उन्होंने किसी तरह, बड़ी बेटी का ब्याह कर दिया। पर वह विवाह जैसा विवाह था। वैसा आनंद, मेहमान-पकवान और धूम-धड़ाका भी था, जैसा कि शादियों में हुआ करता है। पिता हड़बड़ी में थे। जैसे कोई रेल पकड़ना थी। जैसे कहीं जाना था और जाने से पहले बचे हुए कामों को निबटा लेना था। रीति-रिवाजों और नेंग-दस्तूरों के निर्वाह में कोई कोताही की गयी थी, परंतु वैसा जी खोल उछाह भी था। कूदती-फाँदती उमंग थी। इस तरह उन्होंने बालक हरि के सिर पर पड़ने वाले दायित्व-भार को, थोड़ा घटाने का ही काम किया था।

    पत्नी का चले जाना, आर्थिक दशा का लुंज-पुंज हो जाना और अपनी जिम्मेदारियों को स्वयं पूरा करके, उन्हें बेटे के कंधों पर सरका देने का, उन्हें मलाल रहा होगा। पश्चाताप सालता रहा होगा। अपनी अनचाही अक्षमताएं कोंचती रही होंगी। बुढ़ापा, बीमारियाँ और ग्लानि ने मिलकर उनका सारा आत्मविश्वास हर लिया होगा। शायद इसीलिये अपने ही बनाये अनुताप-कुंड में वे घुलने लगे थे। 

    हरि ने खुद को सम्हाला। अपने को तैयार किया। वक़्त के साथ जूझने का हौसला बनाया और सत्य के साथ आखें मिलाकर, जीवन के मैदान में कूद पड़े। अम्मां के चले जाने के दुख को प्रयत्न करके बिसराया। हाई स्कूल में पढ़ने के लायक अपने मन को बनाया। बस्ता सम्हाला। कपड़े ठीक-ठाक किये। आधे-अधूरेपन के साथ स्कूल का रुख किया। स्कूल में दोस्त मिले। नया वातावरण मिला। नये विषय और नयी जानकारियों ने पिछले अवसाद वाले दिनों के कसेलेपन को कम किया।

   हरि, अपनी निजी ज़िदगी शुरू नहीं कर पाये थे, अपने सपने तक देखे थे और पिता की बची हुई जिम्मेदारियों को पूरा करने का भार सम्हाल लिया था। कोई शिकायत नहीं। कुढ़न नहीं। सब कुछ सहज और स्वाभाविक। जैसे मकान बनाने के काम में लगे श्रमिकों की कतार, अपने हाथ का तसला, आगे वाले के हाथ में सरका देता है और वह अपने से बगले वाले के हाथ में, भारतीय संयुक्त परिवारों में जिम्मेदारियाँ भी इसी तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सरका दी जाती हैं। उसके लिये उलाहना नहीं होता। जैसे वसीयत इस पीढ़ी से उस पीढ़ी को पहुँचती है, वैसे ही बची हुई जिम्मेदारियाँ भी पहुँच जाया करती हैं।

     हरि जब हाई स्कूल में आये, तो उन्हें और भी अच्छे अध्यापक मिले। इतने अच्छे कि शिक्षकों के बारे में जो पूर्व धारणा बन चुकी थी, वह दरकने-टूटने लगी थी। ऐसे अध्यापक मिले, जो अपने छात्रों के संपूर्ण जीवन पर अपनी छाप सदा-सदा के लिये छोड़ देते हैं। उनके जीवन को गहराई से प्रभावित करते हैं। मूल्य-बोध का शिलान्यास करते हैं। सिद्धांतों की शक्ति से अवगत कराते हैं। जीवन जीने का सलीका आविष्कृत करने की योग्यता पैदा करते हैं। विद्यार्थी के अंदर दिया नहीं जला देते, बल्कि खुद उसे ही दिया बनने की ओर अग्रसर कर देते हैं।

    हरि को अपने स्कूली दिनों में ऐसे दो अध्यापक मिले। दोनों का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने ही हरि में साहित्य के प्रति आकर्षण जगाया। आसक्ति पैदा की। साहित्य के संस्कार दिये। उनमें से पहले थे, केशवचंद्र बग्गा। वे पंजाबी थे। विद्वान थे। अंग्रेजी और इतिहास विषय में उन्होंने एमए किया था। हिंदी और उर्दू साहित्य के ज्ञाता थे। स्कूल में अंग्रेजी और इतिहास विषय पढ़ाते थे। खादी के कपड़े पहनते थे। इस तरह देश की स्वतंत्रता और उसके लिये किये जाने वाले संघर्ष के प्रति अपने रुझान की खुली अभिव्यक्ति करते थे।

कक्षा में आकर, पहले ही दिन उन्होंने, वह कहा, जो पहले कभी किसी और अध्यापक ने नहीं कहा था- आय एम योर फ्रेंड एंड एल्डर ब्रदर। वी शैल लर्न टुगेदर एंड लर्न फ्राम ईच अदर... ठीक है जी...?

 कक्षा चुप।

  लड़के चकित हो गये। ये कैसे मास्साब हैं...? क्या कह रहे हैं...? उन्हें लगा कि उन्होंने ग़लत सुन लिया है। उन सबने तो सीताफल के पेड़ की संटी ही अपने शिक्षकों के हाथों में देखी थी। उनके विकृत मुखड़े देखे थे। कड़वी बातें ही सुनी थीं। पर ये मास्साब कह रहे थे- मैं आपका दोस्त और बड़ा भाई हूँ। हम साथ-साथ सीखेंगे और एक-दूसरे से भी सीखेंगे।

   बग्गा जी ने बच्चों को औचक अवस्था में पड़ा हुआ देखा, तो अपना कहा हुआ दुहराया- यस, आयम टेलिंग यू...दैट, आय एम योर फ्रेंड एंड एल्डर ब्रदर। वी शैल लर्न टुगेदर एंड लर्न फ्राम ईच अदर...

   बग्गा जी नौकरी-पेशा शिक्षक मात्र थे। वे आत्मा से अध्यापक थे। अपने विषयों और उसके साहित्य से प्रेम करते थे। उसे जीवन से जोड़ कर देखते थे। मनुष्य के खोल में, मनुष्य से भी बड़े विचारों वाले व्यक्ति थे। ऐसे जन्मना-शिक्षक ने कक्षा में कदम रखते ही, हाई स्कूल के लड़कों को, अपने बराबर का और एक मायने में अपने से भी बड़ा बना दिया था।

   साथ में सीखेंगे और एक-दूसरे से भी सीखेंगे...

   अब तक तो लड़कों को अज्ञानी बताने वाले शिक्षक ही देखे थे... अपने आप को सर्वज्ञ मानने वाले अध्यापक ही जाने थे... पिटायी से उम्दा शिक्षण-शैली उनके पास थी... तब ये कहाँ से गये, जो भाई और दोस्त का रिश्ता भी अपने साथ लेकर आये हैं। क्या ये औरों से निराले हैं...?

   हाँ, वे औरों से निराले ही थे।

   वे अपने निरालेपन के कारण ही, अपने विद्यार्थियों के प्रिय बन गये। कक्षा में आनंद की सृष्टि हो गयी। पढ़ने के काम में रस आने लगा। स्कूल से प्रेम होने लगा। लड़के अपने बग्गा मास्साब जी के मुरीद हो गये। दीवाने हो गये। परवाने हो गये। वे उर्दू साहित्य के भी अच्छे जानकार थे और चाहते थे कि उनके विद्यार्थी भी उर्दू अदब को जानें-समझें। उन्हें अकबर इलाहाबादी बहुत पसंद थे। उनके सैकड़ों शेर और नज़्में उन्हें याद थीं। वे बात-बात में अकबर इलाहाबादी के शेर सुनाते रहते थे। सभी लड़कों में तो उर्दू के प्रति रुचि थी, पर हरि और हरि के दोनों दोस्तों में हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू साहित्य के प्रति गहरा लगाव पैदा हो गया था।

    जब वे पढ़ाते थे, तब उनका अंग-अंग बोलता था। व्याख्या करता था। साहित्य के नये-नये अर्थ खोलता था। वे गीतों को पढ़ाते हुए पहले उन्हें लय में गाते और लड़कों से सामूहिक रूप से गवाते थे, फिर उनके अर्थ समझाते थे। कहानी पढ़ाते समय तो वे नानाजी ही बन जाते। नाटक पढ़ाते हुए, पढ़ाते-पढ़ाते उसे करने लग जाते थे। संवादों को उनके भावों के साथ प्रस्तुत करने लगते थे, तब छात्रों को देखने का आनंद भी मिलने लगता था। नाटक की कथा और पात्र लड़कों के मन में अपनी जगह बनाने लग जाते थे। उनके अंदर मंच सज जाता था। पात्रों की आवा-जाही शुरू हो जाती थी। वे रमने लगते थे। वहीं बस जाते थे। बच्चों के मन में।

   एक दिन तो बग्गा मास्साब ने कमाल ही कर दिया। उस दिन वे उस तरह से कक्षा में नहीं आये, जैसे कि हमेशा ही आया करते थे। उस दिन वे बदले-बदले हुए से थे। उस दिन वे गंभीर मुद्रा में थे। रोज़ वाली चाल से भी कुछ धीरे-धीरे चल कर कक्षा में आये थे और अपनी मेज की उस तरफ खड़े होकर पूरी कक्षा को ऐसे देख रहे थे, जैसे किसी को खोज रहे हों... जैसे किसी छात्र ने कोई शरारत की हो और अब उसे सख़्त सज़ा दी जाने वाली हो...

   बग्गा मास्साब हमेशा की तरह उस दिन भी खादी का चूड़ीदार पाजामा और शेरवानी पहने हुए थे। पर उनका सदा़ मुस्कुराने वाला चेहरा, उस दिन जरा सख़्त था। गुस्से में लगते थे। कक्षा में घुसे तो उनकी भौहें चढ़ी हुई थीं। वे तनी हुई मुद्रा में मेज के पीछे जाकर खड़े हो गये। लगा कि अब मुस्कुरायेंगे, पर लहलहाने वाली वह मुस्कान जाने कहाँ ग़ायब हो गयी थी। उन्होंने पूरी कक्षा को एक तरफ से दूसरी तरफ तक अपनी सिकुड़ी हुई आँखों से खंगाला। भींचे हुए होंठों से शब्दों की गर्दनें दबाये रखीं। एक को भी बाहर आने दिया।

   बग्गा मास्साब की इस नयी और बिल्कुल ही अज़नवी मुद्रा को देख कर कक्षा में सनाका खिंच गया। लड़कों को लगा कि ज़रूर किसी लड़के ने कोई बड़ी शरारत कर दी है, जिससे बग्गा मास्साब गुस्से में चले गये हैं। समझ लो आज उसकी ख़ैर नहीं...

  बग्गा मास्साब ने बिना मुस्कुराये धीरे से, मगर ग़जब की गंभीरता के साथ कहा- मैं तख्ते पर जिनके नाम लिखूँगा, वे अपनी जगह पर खड़े होते जाएँगे...

  अब तो पक्का हो गया कि कोई बड़ी वारदात हो चुकी है। और उसे किसी एक ने नहीं, कई लड़कों ने मिलकर अंजाम दिया है।

 काले तख्ते पर पहला नाम लिखा गया- हरिशंकर परसाई।

  हरि के होश उड़ गये। चेहरा फक्क हो गया। सिर घुमा कर पूरी कक्षा को देखा। याद किया कि उनसे आज कोई बेजा हरकत तो नहीं हो गयी है, पर कुछ भी याद आया। वे अपनी जगह पर खड़े हो गये। इतनी देर में दूसरा नाम लिखा जा चुका था- मनोहर लाल त्रिपाठी।

  मनोहर का भी वही हाल हुआ। वह भी खड़ा हो गया। बाकी कक्षा को यकीन हो गया कि इन दोनों का नाम है, तो कोई बड़ी बात होगी। खूब पढ़ाकू बनते हैं, बेटा... हर सवाल का जवाब देने के लिये इन्हीं के हाथ सबसे पहले उठा करते हैं। गृहकार्य करके लाने वालों में सबसे यही आगे रहते थे, लो आज पिटने वालों में भी सबसे आगे हो जाओ...

  तीसरा नाम- राजेन्द्र कुमार शुक्ल।

   अच्छा तो पूरी तिकड़ी ही है... वाह, क्या कहने। आज तो खूब मजा आने वाला है। जो कभी नहीं पिटे, जिन्होंने कभी फटकार तक नहीं खायी, वही आज सीधे तख्ते पर जा पहुंचे हैं... तो बग्गा मास्साब की आँखों के तारे, आज उनकी आँखों की किरकिरी बन ही गये... वाह...! वाह...!!

   कक्षा के सबसे नाकारा लड़कों के खुश होने का दिन बन गया था वह। वे मुस्कुरा रहे थे। कनखियों से अपने यारों को देख रहे थे। हृदय-क्षेत्र में आनंद का जलसा हो रहा था।

  चौथा नाम- विनोद सिंह ठाकुर।

   जो सबसे ज्यादा शरारती था और सबसे ज्यादा खुश हो रहा था, अब उसका नाम भी गया। सिट्टी-पिट्टी गुम। चेहरे पर अचरज की हवाएँ। मुस्कान लापता।

   फिर और कई नाम लिखे गये- अनिल गर्ग, रमेश टांक, किशन सराफ, प्रेमलाल उपाध्याय, सुरेश वर्मा, कन्हैया अग्रवाल।

   नाम लिखे जाते रहे।

   लड़के आश्चर्य के गहरे कुंड में डूबते रहे।

   अपने द्वारा किये गये किसी अज्ञात अपराध को याद करते रहे।

   आने वाली मुसीबत का अनुमान लगाते रहे।

जब नाम लिख लिये गये, तब बग्गा मास्साब ने खड़िया मेज पर रख दी और फिर से पूरी कक्षा को घूर कर देखा। वहाँ सन्नाटा छाया रहा। फिर उन्होंने उन लड़कों को देखा, जिन्हें खड़ा किया गया था। हरि, मनोहर ओर राजेन्द्र की तो सांसें ही रुक गयी। फिर वे हल्का सा मुस्कुराये। उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में कहा- सुनो, शायर अकबर इलाहाबादी ने क्या कहा है-

कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया

जब कोई तक़रीर की जलसे में लीडर बन गया

   शेर सुन कर लड़कों की जान में जान लौटी। अकबर इलाहाबादी उनके अज़ीम शायर थे। वे बात-बात पर उनके शेर सुनाया करते थे। और जब भी वे शेर सुनायें, तो उसका मतलब होता था, कि वे प्रसन्न हैं।

   शेर सुनाकर बग्गा मास्साब ने एक जोर का ठहाका लगाया- अरे क्या हुआ तुम लोगों को...? क्या सबको साँप सूँघ गया है...? अरे भाई मैं तो एक्टिंग कर रहा था... एक्टिंग माने अभिनय... मैं जैसा हूँ, वैसा दिख कर, उससे अलग किस्म का किरदार बन कर आज कक्षा में आया था... और तुम सब चकमे में गये... बोलो, गये कि नहीं...?

- जी, गये... हमें लगा कि आप किसी बात पर नाराज़ हैं... हम में से किसी ने कोई शरारत की होगी और वह आपको बुरी लगी होगी, तो अब आप उसे सज़ा देने वाले हैं...

- हाँ, मैंने यही कोशिश की थी, कि तुम लोग मुझे देखकर, ऐसा ही समझो... और तुम सब ऐसा ही समझे, तो इसका मतलब यह हुआ कि मैं अपनी एक्टिंग में सफल रहा...! रहा या नहीं...?

- रहे, मास्साब...

- तो जो किताबें आप पढ़ते हैं, उनमें ड्रामे हैं कि नहीं...?

- हैं, मास्साब जी...

- क्यों हैं...?

- पढ़ने के लिये...

- पढ़ने के लिये हैं, पर पढ़ना तो उनका एक पक्ष ही हुआ। नाटक है, तो उसमें पात्र भी हैं, संवाद भी हैं और वातावरण भी है ... तो हमें इन सब बातों को भी जानना-समझना है और उसे साकार करने की खातिर वैसा अभिनय भी करना है... समझे...! ठीक है जी...?

 - जी, मास्साब जी...

-  अच्छा ये तो बताओ कि तुम लोगों में से सिनेमा किस-किसने देखा है...?

   सिनेमा का नाम सुन कर लड़के सकपकाये। यह ऐसा शब्द था, जो स्कूल में ही नहीं, घर में भी वर्जित था। हरि ने अपने दोनों मित्रों की ओर सिर घुमा कर देखा, पर वे भी खामोश ही बैठे रहे, तो हरि ने धीरे से अपना दाहिना हाथ, आधा सा उठा दिया।

- अच्छा तो तुमने देखा है... कौन सा सिनेमा देखा है...?

- जी, भक्त बोधन और अछूत कन्या...

- शाबाश! अछूत कन्या सिनेमा में अशोक कुमार और देविका रानी नाम के कलाकार हैं...

  इस बार लड़कों ने सामूहिक रूप से जवाब दिया- जी...

- और पता है, अशोक कुमार अपने पडोसी ज़िले खंडवा के ही रहने वाले हैं...!

- अरे...! खंडवा के...!

  लड़कों ने एक-दूसरे को देख कर अपना अचरज व्यक्त किया।

- पर वे सिनेमा में अशोक कुमार और देविका रानी नहीं हैं... वे प्रताप और कस्तूरी बने हैं... प्रताप ब्राह्मण का बेटा है और कस्तूरी एक अछूत की लड़की है... ठीक है जी...?

- ठीक है मास्साब जी...

- यानी वे असली जीवन में कुछ और हैं और सिनेमा में उन्होंने कहानी के किरदारों के तौर पर एक्टिंग की और वैसा ही दिखने, बोलने और लगने की सफल कोशिश भी की...

- जी, मास्साब जी...

- यही बात अभिनय कहलाती है, कि आप जो हैं, वो लगें... जो कहानी में है, वैसा लगें... नाटक में जैसा किरदार है, वैसे किरदार में अपने को ढाल लें... ठीक है जी...?

- ठीक है मास्साब जी...

- तो मेरे प्यारे बच्चो, मैंने तख्ते पर जो नाम लिखे हैं, वे कोई शरारती-बच्चों के नाम नहीं हैं... वे मेरे कलाकार-बच्चों के नाम हैं... हम शेक्सपियर साहेब का नाटक, ‘ मर्चेंट ऑफ वेनिसपढ़ते हैं न्...!

- जी, मास्साब जी...

- तो उस ड्रामे को हम स्कूल के सालाना जलसे में करेंगे... ठीक है जी...?

  पूरी कक्षा जोश में चिल्लाकर बोली- जी, मास्साब जी...

- मैं ड्रामे का डॉयरेक्शन करूँगा, यानी बताऊँगा कि कैसे बोलना है, कैसे चलना है, कब कौन सी ड्रेस पहनना है... ठीक है जी...?

- ठीक है मास्साब जी...

- तो अब हमने जिन लड़कों को नाटक के लिये चुना है और यहाँ पर नाम लिखे हैं, क्या वे सब नाटक में भाग लेने के लिये तैयार हैं...?

  खड़े हुए लड़कों ने कौतूहल तथा प्रसन्नता के साथ कहा- तैयार हैं, मास्साब जी...

- ठीक है... अब हम आप लोगों के नाम के आगे, नाटक के उन पात्रों के नाम लिख रहे हैं, जिनका उन्हें अभिनय करना है... ठीक है जी...?

- जी, मास्साब जी...

   जब बग्गा मास्साबठीक है जी...?’ कहते तो बच्चों को वह अपने साथ किया जाने वाला आदरपूर्ण व्यवहार प्रतीत होता। वे अपने मास्साब के प्रति और ज्यादा घुलनशील हो जाते। दूध में शक्कर की मानिंद।

  बग्गा मास्साब ने तख्ते पर नामों के आगे भी कुछ लिखना शुरू किया-

  1 हरिशंकर परसाई - एंटोनियो।

  2 मनोहर लाल त्रिपाठी - बासानियो।

  3 राजेन्द्र कुमार शुक्ल - पोर्सिया।

  4 विनोद सिंह ठाकुर - शाइलॉक।

  5 अनिल गर्ग - शाइलॉक की बेटी जेसिका।

  6 रमेश टांक - पोर्सिया की सहेली नेरिसा।

  7 किशन सराफ - शाइलॉक की बेटी जेसिका, जो एंटोनियो के दोस्त लोरेंजो से विवाह करना चाहती है

  8 प्रेमलाल उपाध्याय - मोरक्को का राजकुमार।

  9 सुरेश वर्मा - बासानियो का दोस्त ग्रेसियोनो।

  10 कन्हैया अग्रवाल - जज जो कि वेनिस के ड्यूक भी हैं।

   जिन्हें महिलाओं के पात्रों वाला अभिनय करना था, वे जरा शरमाये। महिला पात्र बनना उन्हें छोटा बनना लगा। बग्गा मास्साब ने उस संकोच को लक्ष किया और पूरी कक्षा से कहा- देखो, कलाकार, साधारण मनुष्य से बहुत बड़ा होता है। वह किसी भी पात्र का अभिनय करके, उसे मंच पर सजीव कर देने की कला का मालिक होता है। इसीलिये जो एक सिनेमा में मालिक बनता है, वही दूसरे सिनेमा में नौकर बन कर भी दिखाता है। जब वह मालिक के पात्र में था, तो उसका काम था, मालिक की तरह दिखना, बोलना, चलना और व्यवहार करना। पर जब वह नौकर का किरदार कर रहा होता है, तो उसका काम हो जाता है, एक नौकर की तरह ही दिखना, बोलना, चलना और व्यवहार करना। यदि वह दोनों प्रकार की एक्टिंग कर लेता है, तो वह बहुत ही ऊँचे दरजे का कलाकार माना जायेगा.... पर यदि वह दोनों तरह के किरदार नहीं कर सकता, सिर्फ़ मालिक ही बन सकता है या सिर्फ़ नौकर ही बन सकता है, तो वह कलाकार नहीं हो सकता... कलाकार तो उस पानी की तरह होता है, जिसे जिस बरतन में रखो, वह उसी बरतन का आकार ग्रहण कर ले... ठीक है जी...?

 - जी मास्साब, जी।

- अब इस नाटक में कुछ स्त्री किरदार हैं... लड़कों के स्कूल में लड़कियाँ तो हैं नहीं, तो लड़कों को ही उनका किरदार करना पड़ेगा... सबसे बड़े कलाकार तो वही कहलायेंगे, अगर उन्होंने लड़के होने पर भी स्त्री होने का ऐसा अभिनय कर दिखाया, कि देखने वाले उन्हें वही किरदार समझ लें, आप असल में जो हो, वे उसे भूल जायें... तो आप लोग ऐसे कलाकार बनने के लिये तैयार हो न्...

  वे लड़के आधे मन से बोले- जी तैयार हैं...

   बग्गा मास्साब ने ताड़ लिया- तुम्हारा मन हो तो मत करना..., क्योंकि बेमन से करोगे, तो अच्छा अभिनय कर सकोगे... तब हम नाटक ही कैंसिल कर देंगे। बुरा नाटक करने से अच्छा है, उसे करना... इसलिये नहीं करेंगे...

  नाटक कैंसिल हो, यह लड़कों को मंजूर था। वे उत्साह से बोले- हम करेंगे, मास्साब।

 - शाबाश...! तो हम स्कूल के सालाना जलसे में पेश करेंगे, महान् नाटककार शेक्सपियर साहेब का नाटक, ‘ मर्चेंट ऑफ वेनिस’... तालियाँ...

   पूरी कक्षा ने भारी उत्साह के साथ तालियाँ बजायीं। तालियों की गड़गड़ाहट बाजू की कक्षाओं तक पहुँची। उन कक्षाओं के अध्यापकों और लड़कों ने जान लिया कि वहाँ पर बग्गा मास्साब का कालखंड चल रहा होगा। दूसरी कक्षाओं में पढ़ा रहे शिक्षकों ने नाकें सिकोडीं। पर लड़के पछताये कि काश, हम भी बग्गा माससाब की कक्षा में होते।

   स्कूल में ख़बर फैल गयी कि सालाना जलसे में बग्गा मास्साब लड़कों से नाटक करायेंगे। स्कूल से ख़बर लड़कों के घरों में पहुँची और फिर पूरी टिमरनी में फैल गयी। सालाना जलसे में नाटक होगा, यह एक बड़ी बात थी।

   बग्गा मास्साब ने कहा- अगले दिन स्कूल की छुट्टी होने के बाद, नाटक का रीडिंग-सेसन होगा...

   रीडिंग-सेसन...?

   लड़के अचरज में पड़े। उनके चेहरों पर आश्चर्य देख कर बग्गा मास्साब मुस्कुराये- मैं जानता हूँ, यह आपके लिये नया है... नाटक की रिहर्सल शुरू करने से पहले, उसे सभी संभावित पात्रों के बीच निर्देशक द्वारा पढ़ा जाता है। नाटक के पात्रों के किरदारों के बारे में बताया जाता है... कौन कैसे चरित्र वाला है...? कौन कैसा दिखता, बोलता और चलता है...? फिर पात्र लड़के उस नाटक को उसी तरह पढ़ते हैं, जैसे कि उसे मंच पर किया जाना है। फिर पात्र सिर्फ़ अपने-अपने संवादों को ही बोलने का अभ्यास करते हैं। तीन-चार दिनों बाद रिहर्सल शुरू होती है... ठीक है जी...?

   लड़कों ने ध्यान से सुना। मन से जाना। पर हरि के अंदर तोरीडिंगही शुरू हो गयी।

   लड़कों की रात मुश्किल से कटी। नाटक, संवाद, किरदार, रीडिंग-सेसन, रिहर्सल आदि शब्द उनके सपनों में नाचते रहे। उन्होंने अपने घरों में बताया, आज हमारारीडिंग-सेसनहोने वाला है।

- यह क्या होता है...?

- अरे रहने दो आप समझेंगे...!

   पात्र लड़के उस दिन जल्दी स्कूल पहुँच गये। पेड़ के नीचे जमा होकर उन्हीं शब्दों को दोहराने लगे, जो उन्होंने कल बग्गा मास्साब से सुने थे। अन्य कक्षाओं के लड़के उनके चारों ओर घेरा बनाकर उनकी बातें सुनते रहे। उनसे ईर्ष्या करते रहे। पछताते रहे कि वे बग्गा मास्साब के छात्र क्यों हुए या बग्गा मास्साब उनके शिक्षक क्यों हुए।

  स्कूल लगा, पर पात्र लड़कों के मन लगे। दिन लंबा हो गया। घन्टियाँ विलम्ब से बजीं। किसी तरह आखिरी घन्टी बजी। लड़के अपने घरों को भागे। तब पात्र लड़कों का नया स्कूल लगा, ‘रीडिंग-सेसन

  बग्गा मास्साब आये। उन्होंने नाटक का हिंदी अनुवाद कर दिया था। पहले उन्होंने नाटक की कहानी सुनायी। फिर किरदारों की विशेषतायें बतायीं। उसके बाद नाटक का उद्देश्य और संदेश भी समझाया।

   तीन दिन बाद नाटक का अभ्यास शुरू हुआ। बग्गा मास्साब पहले खुद वैसा अभिनय करते, फिर उस लड़के को वैसा करने के लिये कहते, जिसे उस पात्र को अभिनीत करना होता। नयी बात थी। लड़के नया करने के लिये उत्सुक रहा करते हैं। बस, नया कराने वाला चाहिये। जो केवल नौकरी करने वाले शिक्षक होते हैं, वे कुछ भी नया नहीं करते। वे नया करने वालों को पसंद भी नहीं करते और शिक्षक सेगुरुहो जाने की यात्रा से जीवन भर वंचित रहे आते हैं।

   सालाना जलसे में नाटक हुआ। लड़कों के पालकों के अलावा, टिमरनी के बहुत सारे लोग भी जलसे में पहुंचे थे। नाटक शानदार तरीके से पेश किया गया। अभिनेताओं की सराहना हुई। ईनाम मिले। प्रमाण पत्र दिये गये। टिमरनी में महीनों उनका चर्चा चला। अभिनेता लड़के अपने वास्तविक नामों की बजाय, अपने किरदारों के नामों से पहचाने जाने लगे। वे हरि, मनोहर और राजेन्द्र की बजाय, एंटोनियो, बासानियो और पोर्सिया हो गये।

  बग्गा मास्साब ने कक्षा में कहा- प्यारे बच्चो, तुम लोग सच्चे कलाकार हो। तुम्हारे अंदर कला का खज़ाना छिपा हुआ है... अब उससे तुम्हारा परिचय हो गया है... हर आदमी के जीवन में कला का कोई एक पक्ष ज़रूर होना चाहिये... वह साहित्य हो, संगीत हो, गायन हो या अभिनय हो, पर हो ज़रूर... कला का संग-साथ हो तो आदमी तेल-चटा बन कर रह जाता है... तेल-चटा माने बस कमाने-खाने वाला...बे-पूंछ और बे-सींग का पशु। तुम लोग कला की साधना करना... कला की पूजा करना... उसे अपनी ज़िदगी का हिस्सा बनाना... तुम सबने तो नाटक में कमाल ही कर डाला है...

   बग्गा मास्साब के द्वारा प्रेरित किये जाने से ही हरि के मन में पुस्तकों को पढ़ने का चाव पैदा हुआ। स्कूल में तो स्कूली किताबें ही थीं, पर टिमरनी की अग्रवाल लायब्रेरी में तरह-तरह की साहित्यिक पुस्तकें थीं। हरि और हरि के दोस्त मनोहर लाल तिवारी ने वहाँ पर उपलब्ध सभी पुस्तकों को पढ़ डाला था। दोनों किताबों पर इस तरह चिपक जाते थे, जैसे दीमकें चिपक जाया करती हैं। किताबों में ऐसे घुसे रहते थे, जैसे कि व्हाइट फिश नाम का कीड़ा घुसा रहता है।

पीठ पीछे उन दोनों कोपुस्तक-चटाकहा जाने लगा था।

यह उनका अपमान था। मान था। वे सुन कर खुश होते थे।

   -----

क्रमशः

 


राजेन्द्र चन्द्रकान्त राय

अंकुर’, 1234, जेपीनगर, आधारताल,

जबलपुर (म.प्र.) - 482004

1 टिप्पणी:

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...