रविवार, 12 सितंबर 2021

निबंध

 



भाषा की सरलता की समस्या

डॉ. नगेन्द्र

जब से संविधान में हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकृत किया गया है उसकी सरलता की समस्या अनेक प्रकार से अनेक क्षेत्रों से हमारे सामने आ रही है। बात तर्कसंगत है, राज जनता का है और राजभाषा के गौरव की अधिकारिणी वही हो सकती है जो जनता की भाषा हो। हिन्दी के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यही था और इसी के बल पर उसे राजभाषा होने का गौरव मिला। जनता की भाषा निश्चय ही सरल होनी चाहिए क्योंकि जनता का निर्माण जिस विराट जनसमूह से होता है वह न विदग्ध होता है और न पंडित।

हिन्दी से जो सरलता की माँग की जाती है वह अकारण नहीं है- सरलता उसका दायित्व है और इसे उसका सहज गुण बन जाना चाहिए। किन्तु सरलता का क्या अर्थ है; वे कौन से तत्त्व हैं जिनसे सरलता का निर्माण होता है, यह निर्णय करना सरल नहीं है। सरल शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के “सिम्पुल” शब्द के पर्याय रूप में होता है और चूँकि हिन्दी की सरलता के लिए अधिकतर वे ही लोग व्यग्र हैं जो अंग्रेजी में सोचने-समझने के अभ्यस्त हैं इसलिए सरलता का स्वरूप विश्लेषण करने के लिए अंग्रेजी के “सिम्पुल” शब्द का आँचल पकड़े रहना जरूरी होगा। आक्सफोर्ड1 डिक्शनरी के अनुसार “सिम्पुल” शब्द के चार अर्थ हैं: (१) अमिश्र – जिसकी रचना केवल एक ही तत्त्व से हुई हो, (२) अखंड - जो उलझा हुआ या जटिल या अलंकृत न हो- उदाहरणार्थ अमुक लेखक की शैली सरल और निराभरण है, (३) निरपेक्ष, (४) सीधा-सादा, अकृत्रिम, सहज, निश्छल। संस्कृत में सरल शब्द का शब्दार्थ है ऋजु, सीधा, अवक्र, शुद्ध, वास्तविक, आदि।”2

उपर्युक्त अर्थों में से कुछ ही ऐसे हैं जो भाषा के प्रसंग में सार्थक होते हैं जैसे सीधा सादा, सहज, अकृत्रिम, उलझाव और जटिलता से मुक्त, अवक्र और निराभरण। इनके अनुसार सरल भाषा वह है – (१) जो स्वाभाविक हो, (२) जिसकी वाक्य-रचना सीधी और सुलझी हुई हो- जिसमें किसी प्रकार की जटिलता और उलझन न हो अर्थात् वाक्य छोटे और सीधे हों। जिनमें किसी प्रकार का घुमाव और पेच न हो, (३) जिसमें किसी प्रकार का आडम्बर, अलंकार और वक्र प्रयोग न हो, (४) जो अभीष्ट अर्थ को – मन की बात को ठीक-ठीक और बिना छलछद्म के व्यक्त करे। निश्छलता सरल व्यक्ति के समान सरल भाषा का भी अनिवार्य गुण है। ये सभी तत्त्व सामान्यतः जितने सरल प्रतीत होते हैं उतने वास्तव में है नहीं और इन सभी की व्याख्या की आवश्यकता है।

स्वाभाविकतास्वाभाविकता का अर्थ है अपनी प्रकृति के अनुकूल होना अत: भाषा की स्वाभाविकता से तात्पर्य है अपने मूल प्रसंग और अर्थ की अनुकूलता। यदि मूल अर्थ जटिल है अर्थात् उसमें अनेक अर्थच्छायाओं का मिश्रण है तो जबरदस्ती सरल और छोटे वाक्यों का प्रयोग मूल अर्थ के प्रतिकूल होगा और परिणामतः उसे अस्वाभाविक बना देगा। जिस प्रकार जटिल विचार-शृंखलाओं के अभ्यस्त किसी सूक्ष्मचेता व्यक्ति को सरलता का अभिनय करते देखकर हमारे मन में वितृष्णा उत्पन्न होती है, इस प्रकार सूक्ष्म और जटिल विचार संघात की अभिव्यक्ति के लिए छोटे और सरल वाक्यों की बालक्रीड़ा की भयंकर प्रवंचना है। इस तरह की कृत्रिम और मिथ्या सरलता को मर्मी आचार्य लांजाइनस ने बालिशता कहा है। जिस प्रकार कृत्रिम अलंकार-मोह से व्यक्तित्व का ह्रास होता है उसी प्रकार सरलता के अभिनय से भी आत्मा का अपकर्ष होता है। समाज के लिए मिथ्या वैभव और गरिमा का प्रदर्शन करने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा ऐसे व्यक्ति ज्यादा खतरनाक हैं जो सादगी का अभिनय करते हैं। इसी तर्क से भाषा के प्रसंग में भी कृत्रिम अलंकार -सज्जा की अपेक्षा कृत्रिम सरलता अधिक अस्वाभाविक है, क्योंकि इस प्रकार की भाषा से प्रवंचना की आशंका अधिक रहती है। निष्कर्ष यह निकला कि भाषा की सरलता एक सापेक्ष गुण है जो प्रसंग और मूल अर्थ का अनुसारी है। जीवन के सरल सामान्य अनुभवों की माध्यम भाषा की स्वाभाविकता एक प्रकार की होगी और सूक्ष्म जटिल तथा गुम्फित अनुभूतियों की भाषा की स्वाभाविकता का रूप दूसरा होगा। राजनीति की बारीकियों को सरल और सहज हिन्दी में, छोटे-छोटे जुम्लों और बोलचाल के लफ्जों में अदा करने का आग्रह करना भाषा विज्ञान और अभिव्यंजना शास्त्र के इस प्राथमिक नियम की अवमानना करना है।

जटिलता का अभावइसमें सन्देह नहीं कि जटिलता भाषा का दुर्गुण है। किन्तु जटिलता के दो रूप हैं-एक आंतरिक और दूसरा बाह्य-आंतरिक जटिलता से अभिप्राय है अर्थ की जटिलता- अर्थात् चिन्तन की जटिलता। जहाँ चिन्तन की गति ऋजु न होकर जटिल और वक्र है वहाँ भाषा जटिलता से मुक्त नहीं हो सकती और यदि उसे सरल करने का बरबस प्रयत्न किया जायेगा तो वह सही अर्थ को व्यक्त नहीं कर सकेगी। यहाँ मूल दोष चिन्तन का है। भाषा की जटिलता तो विचार की जटिलता की छाया है और विचार की छाया वाक्य-रचना आदि से है - अनभ्यस्त लेखक या अयोग्य लेखक अशुद्ध शब्द प्रयोग, वाक्यांशों के अनुपयुक्त नियोजन आदि के द्वारा वाक्य-रचना को उलझा देते हैं जिससे अर्थ व्यक्ति बाधित हो जाता है। यह दोष अनभ्यास और अयोग्यता से उत्पन्न होता है और उसका परिहार कठिन नहीं है।

आडम्बर और अलंकार से मुक्ति सरल भाषा का एक गुण है आडम्बर और अलंकार से मुक्ति यहाँ आडम्बरशब्द के विषय में भ्रांति नहीं हो सकती, वह प्रत्येक स्थिति में दोष है और भाषा भी इसका अपवाद नहीं। जिस प्रकार हीनता ग्रस्त व्यक्ति व्यवहार एवं रहन-सहन में आडम्बर का समावेश कर अपने अभाव को छिपाने की व्यर्थ चेष्टा करते हुए समाज में निन्दा के भागी बनते हैं उसी प्रकार अयोग्य लेखक भी भाषा को आडम्बरपूर्ण बनाकर साहित्य में निंदनीय बन जाते हैं। किन्तु अलंकार भाषा का दोष न होकर गुण है, अलंकार मोह या कृत्रिम अलंकार या अनुपयुक्त अलंकार ही भाषा का दोष हो सकता है। अलंकार जहाँ सहजात होता है वहाँ वह भाषा का अनिवार्य गुण बन जाता है उससे सरलता बाधित नहीं होती। प्रायः अलंकार का प्रयोग अर्थ स्पष्ट करने के लिए ही किया जाता है। हमारा मन्तव्य जितना सादृश्य-मूलक अलंकार से साफ हो सकता है उतना रूढ़ शब्दार्थ से नहीं होता। अतः अलंकार को सरलता का विरोधी तत्त्व मानना ठीक नहीं है।

सही अभिव्यक्तिअभीष्ट अर्थ की यथावत् अभिव्यक्ति सरल भाषा का अन्तिम और अनिवार्य लक्षण है। जिस प्रकार निश्छल हुये बिना व्यक्तित्व की सरलता असम्भव है इसी प्रकार अर्थ की निश्चल अभिव्यक्ति के बिना भाषा सरल नहीं बन सकती। अर्थ यदि अमिश्र है तो भाषा की सरलता अमिश्र वाक्य प्रयोग आदि में निहित होगी, परन्तु यदि अर्थ में ही जटिलता है तो मिश्र वाक्य प्रयोग और व्यंजक पर्यायों के बिना अर्थ व्यक्ति सम्भव नहीं हो सकती। और, जहाँ अर्थ व्यक्ति ही नहीं है वहाँ सरलता कैसी ? उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर प्रस्तुत प्रसंग में निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं –

(१) भाषा अपने मूल और सहज रूप में माध्यम ही है- अर्थ (विचार और अनुभूति) से निरपेक्ष शब्द (अभिव्यक्ति) की सत्ता नहीं है अतः भाषा का कोई निरपेक्ष स्वरूप नहीं हो सकता।

(२) इस तर्क के अनुसार भाषा की सरलता भी एक सापेक्षिक गुण है जो प्रसंग, वक्ता, बोधक्य आदि पर आश्रित है। वक्ता का मंतव्य यदि सरल है तो भाषा की सरलता एक प्रकार की होगी, पर उसका चिन्तन यदि सूक्ष्म एवं जटिल है तो भाषा की सरलता का रूप दूसरा होगा। उस स्थिति में तथाकथित सरलता अत्यधिक दुरूह बन जायेगी। छोटे-छोटे जुम्लों और बोलचाल के लफ्जों का नुस्खा हर मर्ज में काम नहीं आ सकता।

(३) इसमें सन्देह नहीं कि शब्दावली और वाक्य-रचना का भाषा की सरलता के साथ सम्बन्ध है, किन्तु यह सम्बन्ध अनिवार्य नहीं है अर्थात् कोई विशेष प्रकार की शब्दावली तथा वाक्य रचना भाषा को सरल बनाती है ऐसा नियम नहीं बनाया जा सकता। संस्कृत के तत्सम शब्दों से भाषा कठिन बन जाती है और बोल-चाल के शब्दों से सरल अथवा लम्बे वाक्यों का प्रयोग भाषा को दुरुह और छोटे वाक्यों का प्रयोग उसे सरल बनाता है, यह कोई अकाट्य तर्क या विधान नहीं है। कभी-कभी बोलचाल के शब्दों से मतलब एकदम दुरूह हो जाता है और छोटे-छोटे वाक्य अर्थ को खंड-खंड कर बुरी तरह उलझा देते हैं।

(४) वक्ता के अतिरिक्त श्रोता पर भी भाषा का स्वरूप आश्रित रहता है और सरलता भी इसका अपवाद नहीं है। अर्थात् भाषा की सरलता का निर्णय उस जनसमुदाय की बहुसंख्या की बोध-शक्ति के आधार पर होना चाहिए जिसके लिए उसका प्रयोग होता है या जो उसका प्रयोग करता है। सरलता का अर्थ सुबोधता है और सरल भाषा वही है जो भारत की बहुसंख्यक जनता के लिए सुबोध हो। राष्ट्र भाषा की सुबोधता का निर्णय राष्ट्र के समग्र आयाम को दृष्टि में रखकर करना होगा।

प्रस्तुत प्रसंग में इस बात के लिए खेद प्रकाशन की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी है कि भाषा की सरलता की व्याख्या करने में मेरी अपनी भाषा, वर्ग विशेष में प्रचलित धारणा के अनुसार कदाचित सरल नहीं रह सकी, क्योंकि जैसा कि मैंने आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया है, सरलता जितनी सरल है उसका स्वरूप विश्लेषण उतना ही कठिन है। मैंने यहाँ केवल सिद्धांत विवेचन ही किया है, उदाहरण देने के लोभ का जानबूझकर संवरण किया गया है क्योंकि मेरा उद्देश्य हिन्दी के विरुद्ध वर्ग-विशेष के आक्षेपों का उत्तर देना उतना नहीं रहा जितना कि समस्या के मूल तत्त्वों का उद्घाटन करना।

सन्दर्भ –

1.  आक्सफोर्ड डिक्शनरी (पॉकेट)- चतुर्थ संस्करण, पृष्ठ- ११६८

2.  संस्कृत-हिन्दी डिक्शनरी - सर मोनियर विलियम्स (१९५६ ई०), पृष्ठ- १८१२

 

 


 

 

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