(क) कहानी-अंश
अब
मियाँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज़ सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर
प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।
‘यह
चिमटा कहाँ था?’
‘मैंने
मोल लिया है।’
‘कै पैसे में?’
‘तीन पैसे
दिए।’
अमीना
ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ,
कुछ खाया, न पिया। लाया क्या, चिमटा। सारे मेले में तुझे और कोई चीज़ न मिली जो यह लोहे का चिमटा उठा
लाया?
हामिद ने
अपराधी-भाव से कहा – तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं,
इसलिए मैंने इसे लिया।
बुढ़िया
का क्रोध तुरंत स्नेह में बदल गया, और
स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक
शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस,
रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना सद्भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौना लेते और मिठाई खाते
देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा! इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ
भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गदगद् हो गया।
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गईं। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता।
(2) ‘दो बैलों की कथा’ से ....
जानवरों
में गधा सबसे बुद्धिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पहले दरजे का बेवकूफ़
कहना चाहते हैं तो उसे गधा कहते हैं। गधा समचुच बेवकूफ है,
या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे
यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गायें
सींग मारती हैं, ब्याही हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप
धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन
कभी-कभी उसे भी क्रोध आ जाता है, लेकिन गधे को कभी क्रोध
करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहे उस गरीब को मारो,
चाहे जैसी ख़राब सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके
चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दिखाई देगी। बैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर
लेता हो; पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा। उसके चेहरे
पर एक विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दु:ख, हानि-लाभ
किसी दशा में भी बदलते नहीं देखा। ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वह सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी
उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इतना अनाचार कहीं नहीं देखा। कदाचित् सीधापन
संसार के लिए उपयुक्त नहीं है। देखिए न, भारतवासियों की
अफ्रीका में क्यों दुर्दशा हो रही है? क्यों अमेरिका में
उन्हें घुसने नहीं दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते,
चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी-तोड़
काम करते हैं, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा जाते हैं। फिर भी बदमाश हैं। कहा जाता है, जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं। अगर वे ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख
जाते, तो शायद सभ्य कहलाने लगते। जापान की मिसाल सामने है।
एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया।
लेकिन
गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कुछ ही
कम गधा है और वह है ‘बैल’। जिस अर्थ
में हम ‘गधा’ का प्रयोग करते हैं,
कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में बछिया के ताऊ का प्रयोग भी करते
हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर
हमारा विचार ऐसा नहीं। बैल कभी-कभी मारता भी है। कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में
आता है। और भी कई रीतियों से वह अपना असंतोष प्रकट कर देता है; अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है।
(ख) उपन्यास-अंश
35
आज
दस बजे ही से लू चलने लगी और दोपहर होते-होते ही आग बरस रही थी। होरी कंकड़ के
झौवे उठा-उठाकर खदान से सड़क पर लाता था और गाड़ी पर लादता था। जब दोपहर की छुट्टी
हुई,
तो वह बेदम हो गया था। ऐसी थकान उसे कभी न हुई थी। उसके पाँव तक न
उठते थे। देह भीतर से झुलसी जा रही थी। उसने न स्नान ही किया, न चबेना। उसी थकान में अपना अंगोछा बिछाकर एक पेड़ के नीचे सो रहा; मगर
प्यास के मारे कण्ठ सूखा जाता है। खाली पेट पानी पीना ठीक नहीं। उसने प्यास को
रोकने की चेष्टा की, लेकिन प्रतिक्षण भीतर की दाह बढ़ती जाती
थी। न रहा गया। एक मज़दूर ने बाल्टी भर रखी थी और चबेना कर रहा था। होरी ने उठकर
एक लोटा पानी खींचकर पिया और फिर आकर लेट रहा, मगर आधा घण्टे
में उसे कै हो गयी और चेहरे पर मुर्दनी-सी छा गयी।
उस
मज़दूर ने कहा – “कैसा जी है होरी भैया ?”
होरी
के सिर में चक्कर आ रहा था। बोला-”कुछ नहीं, अच्छा
हूँ।”
यह
कहते-कहते उसे फिर क़ै हुई और हाथ-पैर ठण्डे होने लगे। यह चक्कर क्यों आ रहा है ? आँखों के सामने जैसे अंधेरा छाया जाता है। उसकी आँखें बन्द हो गयीं और
जीवन की सारी स्मृतियाँ सजीव हो-होकर हृदय-पट पर आने लगीं, लेकिन
बेक्रम, आगे की पीछे, पीछे की आगे,
स्वप्न-चित्रों की भाँति बेमेल, विकृत और
असम्बद्ध। वह सुखद बालपन आया, जब वह गुल्लियाँ खेलता था और माँ
की गोद में सोता था। फिर देखा, जैसे गोबर आया है और उसके
पैरों पर गिर रहा है। फिर दृश्य बदला, धनिया दुलहिन बनी हुई,
लाल चुंदरी पहने उसको भोजन करा रही थी। फिर एक गाय का चित्र सामने
आया, बिल्कुल कामधेनु-सी। उसने उसका दूध दुहा और मंगल को
पिला रहा था कि गाय एक देवी बन गयी और...
उसी
मज़दूर ने फिर पुकारा – “दोपहरी ढल गयी होरी,
चलो झौवा उठाओ।”
होरी
कुछ न बोला। उसके प्राण तो न जाने किस-किस लोक में उड़ रहे थे! उसकी देह जल रही थी,
हाथ-पाँव ठण्डे हो रहे थे। लू लग गयी थी।
उसके
घर आदमी दौड़ाया गया। एक घण्टा में धनिया दौड़ी हुई आ पहुँची। सोभा और हीरा
पीछे-पीछे खटोले की डोली बनाकर ला रहे थे।
धनिया
ने होरी की देह छुई, तो उसका कलेजा सन्न
से हो गया। मुख कान्तिहीन हो गया था।
काँपती
हुई आवाज़ से बोली-”कैसा जी है तुम्हारा ?”
होरी
ने अस्थिर आँखों से देखा और बोला – “तुम आ गये गोबर ?
मैंने मंगल के लिए गाय ले ली है। वह खड़ी है देखो।”
धनिया
ने मौत की सूरत देखी थी। उसे पहचानती थी। उसे दबे पाँव आते भी देखा था,
आँधी की तरह भी देखा था। उसके सामने सास मरी, ससुर
मरा, अपने दो बालक मरे, गाँव के पचासों
आदमी मरे। प्राण में एक धक्का-सा लगा। वह आधार, जिस पर जीवन
टिका हुआ था, जैसे खिसका जा रहा था, लेकिन
नहीं, यह धैर्य का समय है, उसकी शंका
निर्मूल है, लू लग गयी है, उसी से अचेत
हो गये हैं।
उमड़ते
हुए आँसुओं को रोककर बोली – “मेरी ओर देखो, मैं
हूँ, क्या मुझे नहीं पहचानते ?”
होरी
की चेतना लौटी। मृत्यु समीप आ गयी थी, आग
दहकने वाली थी। धुआँ शान्त हो गया था। धनिया को दीन आँखों से देखा, दोनों कोनों से आसूँ की दो बूंदें ढुलक पड़ीं। क्षीण स्वर में बोला – “मेरा
कहा-सुना माफ करना धनिया। अब जाता हूँ। गाय की लालसा मन में ही रह गयी। अब तो यहाँ
के रुपये क्रिया-करम में जायेंगे। रो मत धनिया, अब कब तक
जिलायेगी ? सब दुर्दशा तो हो गयी। अब मरने दे।”
और
उसकी आँखें फिर बन्द हो गयीं। उसी वक्त हीरा और सोभा डोली लेकर पहुँच गये। होरी को
उठाकर डोली में लिटाया और गाँव की ओर चले।
गाँव
में यह ख़बर हवा की तरह फैल गयी। सारा गाँव जमा हो गया। होरी खाट पर पड़ा शायद सब
कुछ समझता था, पर ज़बान बन्द हो गयी थी। हाँ,
उसकी आँखों से बहते आसूँ बतला रहे थे कि मोह का बन्धन तोड़ना कितना
कठिन हो रहा है। जो कुछ अपने से नहीं बन पड़ा, उसी के दुःख
का नाम तो मोह है। पाले हुए कर्तव्य और निबटाये हुए कामों का क्या मोह ? मोह तो उन अनाथों
को छोड़ जाने में है, जिनके साथ हम अपना कर्तव्य न निभा सके,
उन अधूरे मंसूबों में है, जिन्हें हम न पूरा
कर सके।
मगर
सब कुछ समझ कर भी धनिया आशा की मिटती हुई छाया को पकड़े हुए थी।
आँखों
से आसूँ गिर रहे थे, मगर यन्त्र की भाँति
दौड़-दौड़कर कभी आम भूनकर पना बनाती, कभी होरी की देह में गेहूँ
की भूसी की मालिश करती। क्या करे, पैसे नहीं हैं, नहीं, किसी को भेजकर डाक्टर बुलाती।
हीरा
ने रोते हुए कहा – “भाभी, दिल कड़ा करो,
गोदान करा दो, दादा चले।”
धनिया
ने उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देखा। अब वह दिल को और कितना कठोर करे ?
अपने पति के प्रति उसका जो कर्म है, क्या वह
उसको बताना पड़ेगा ? जो जीवन का संगी था, उसके नाम को रोना ही क्या उसका धर्म है ?
और
कई आवाजें आयीं- “हाँ, गोदान करा दो,
अब यही समय है।”
धनिया
यन्त्र की भांति उठी, आज जो सुतली बेची थी,
उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठण्डे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन
से बोली – “महाराज! घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है।”
और
पछाड़ खाकर गिर पड़ी।
(गोदान
सं. 2012, पृ. 301-303 से साभार)
पाँचवाँ परिच्छेद
निर्मला
का विवाह हो गया। ससुराल आ गई। वकील साहब का नाम था मुन्शी तोता राम। साँवले रंग के
मोटे-ताजे आदमी थे। उम्र तो अभी चालीस से अधिक न थी, पर वकालत के कठिन परिश्रम ने सिर के बाल पका दिए थे। व्यायाम करने का
उन्हें अवकाश न मिलता था। यहाँ तक कि कभी
कहीं घूमने भी न जाते, इसलिए तोंद निकल आई थी। देह के स्थूल
होते हुए भी आए दिन कोई न कोई शिकायत रहती थी। मन्दाग्नि और बवासीर से तो उनका
चिरस्थायी संबंध था। अतएव बहुत फूँक-फूँक कर क़दम रखते थे। उनके तीन लड़के थे। बड़ा
मन्साराम सोलह वर्ष का था, मँझला जियाराम बारह और छोटा
सियाराम सात वर्ष का। तीनों अंग्रेजी पढ़ते थे। घर में वकील साहब की विधवा बहिन के
सिवा कोई औरत न थी।
वही
घर की मालिकिन थीं। उनका नाम था रुक्मिणी और अवस्था पचास से ऊपर थी। ससुराल में
कोई न था। स्थायी रीति से यहाँ हीं रहती थी।
तोताराम
दम्पति-विज्ञान में कुशल थे। निर्मला को प्रसन्न रखने के लिए उनमें जो स्वाभाविक
कमी थी,
उसे वह उपहारों से पूरी करनी चाहते थे। यद्यपि बहुत ही मितव्ययी
पुरुष थे; पर निर्मला के लिए कोई न कोई तोहफा रोज लाया करते।
मौक़े पर धन की परवाह न करते थे। खुद कभी नाश्ता न करते थे, लड़के
के लिए थोड़ा-थोड़ा दूध आता था। पर निर्मला के लिए मेवे, मुरब्बे,
मिठाइयाँ – किसी चीज की कमी न थी। अपनी जिन्दगी में कभी सैर-तमाशे
देखने न गए थे; पर अब छुट्टियों में निर्मला को सिनेमा,
सरकस, थियेटर दिखाने ले जाते। अपने बहुमूल्य
समय का थोड़ा-सा हिस्सा उसके साथ बैठ कर ग्रामोफ़ोन बजाने में भी व्यतीत किया करते
थे।
लेकिन
निर्मला को न जाने क्यों तोताराम के पास बैठने और हँसने-बोलने में संकोच होता था।
इसका कदाचित् यह कारण था कि अब तक ऐसा ही एक आदमी उसका पिता था,
जिसके सामने वह सिर झुका कर, देह चुरा कर,
निकलती थी; अब उसकी अवस्था का एक आदमी उसका
पति था। वह उसे प्रेम की वस्तु नहीं, सम्मान की वस्तु समझती
थी। उनसे भागती फिरती, उनको देखते ही उसकी प्रफुल्लता पलायन
कर जाती थी।
वकील
साहब को उनके दम्पति विज्ञान ने सिखाया था कि युवती के सामने खूब प्रेम की बातें
करनी चाहिए – दिल निकाल कर रख देना चाहिए। यही उसके वशीकरण का मुख्य मन्त्र है।
इसलिए वकील साहब अपने प्रेम-प्रदर्शन में कोई कसर न रखते थे;
लेकिन निर्मला को इन बातों से घृणा होती थी। वही बातें, जिन्हें किसी युवक के मुख से सुन कर उसका हृदय प्रेम से उन्मत्त हो जाता,
वकील साहब के मुँह से निकल कर उसके हृदय पर शर के समान आघात करती
थीं ! उनमें रस न था, उल्लास न था, उन्माद
न था, हृदय न था, केवल बनावट थी,
धोखा था; और था शुष्क, नीरस
शब्दाडम्वर ! उसे इत्र और तेल बुरा न लगता, सैर-तमाशे बुरे न
लगते, बनाव-सिंगार भी बुरा न लगताः बुरा लगता था केवल
तोताराम के पास बैठना। वह अपना रूप और यौवन उन्हें न दिखाना चाहती थी, क्योंकि वहाँ देखने वाली आँखें न थीं। वह उन्हें इन रसों का आस्वादन करने
के योग्य ही न समझती थी। कली प्रभात-समीर ही के स्पर्श से खिलती है। दोनों में
समान सारस्य है। निर्मला के लिए वह प्रभात-समीर कहाँ था ?
पहला
महीना गुजरते ही तोताराम ने निर्मला को अपना खजांची बना लिया। कचहरी से आकर दिन भर
की कमाई उसे दे देते। उनका ख़याल था कि निर्मला इन रुपयों को देख कर फूली न समाएगी।
निर्मला बड़े शौक़ से इस पद का काम अंजाम देती। एक-एक पैसे का हिसाब लिखती,
अगर कभी रुपये कम मिलते, तो पूछती-आज कम क्यों
हैं ? गृहस्थी के संबंध में उनसे खूब बातें करती। इन्हीं
बातों के लायक वह उनको समझती थी। ज्योंही कोई विनोद की बात उनके मुँह से निकल जाती,
उसका मुख मलिन हो जाता था !
निर्मला
जब वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर आईने के सामने खड़ी होती;
और उसमें अपने सौन्दर्य की सुषमापूर्ण आभा देखती, तो उसका हृदय एक सतृष्ण कामना से तड़प उठता था। उस वक्त उसके हृदय में एक
ज्वाला-सी उठती। मन में आता इस घर में आग लगा दूँ। अपनी माता पर क्रोध आता,
पिता पर क्रोध आता, अपने भाग्य पर क्रोध आता;
पर सबसे अधिक क्रोध बेचारे निरपराध तोताराम पर आता। वह सदैव इस ताप
से जला करती थी। बाँका सवार बूढ़े लद्दू, टट्टू पर सवार होना
कब पसन्द करेगा, चाहे उसे पैदल ही क्यों न चलना पड़े।
निर्मला की दशा उसी बाँके सवार की थी। वह उस पर सवार होकर उड़ना चाहती थी, उस उल्लासमयी विद्युत-गति का आनन्द उठाना चाहती थी, टट्टू
के हिनहिनाने और कनौतियाँ खड़ी करने से क्या आशा होती ? सम्भव
था कि बच्चों के साथ हँसने-खेलने से वह अपनी दशा को थोड़ी देर के लिए भूल जाती,
कुछ मन हरा हो जाता; लेकिन रुक्मिणी देवी
लड़कों को उसके पास फटकने भी न देतीं, मानो वह कोई पिशाचिनी
है, जो उन्हें निगल जायगी। रुक्मिणी देवी का स्वभाव सारे
संसार से निराला था; यह पता: लगाना कठिन था कि वह किस बात से
खुश होती थीं; और किस बात से नाराज ! एक बार जिस बात से खुश हो
जाती थीं, दूसरी बार उसी बात से जल जाती
थीं। अगर निर्मला अपने कमरे में बैठी रहती, तो कहतीं न जाने
कहाँ की मनहूसिन है, अगर वह कोठे पर चढ़ जाती या महरियों से
बातें करती, तो छाती पीटने लगतीं। लाज है न शरम; निगोड़ी ने हया भून खाईं; अब क्या ? कुछ दिनों में बाजार में नाचेगी। जब से वकील साहब ने निर्मला के हाथ में
रुपये-पैसे देने शुरू किए, रुक्मिणी उसकी आलोचना करने पर
आरूढ़ हो गई थी। उसे मालूम होता था कि अब प्रलय होने में बहुत-थोड़ी कसर रह गई है।
लड़कों को वार-चार पैसों की जरूरत पड़ती। जब तक खुद स्वामिनी थी, उन्हें बहला दिया करती थी। अब सीधे निर्मला के पास भेज देती। निर्मला को
लड़कों का चटोरापन अच्छा न लगता था। कभी-कभी पैसे देने से इन्कार कर देती।
रुक्मिणी को अपने वाग्बाण सर करने का अवसर मिल जाता – अब तो
मालिकिन हुई हैं, लड़के काहे को जिएँगे। बिन माँ के बच्चे को
कौन पूछे ? रुपयों की मिठाइयाँ खा जाते थे, अब धेले- धेले को तरसते हैं। निर्मला अगर चिढ़ कर किसी दिन बिना कुछ पूछे-ताछे
पैसे दे देती, तो देवी जी उसकी दूसरी ही आलोचना करतीं – इन्हें
क्या, लड़के मरें या जिएँ, इनकी बला से;
माँ के बिना कौन समझावे कि बेटा बहुत मिठाइयाँ मत खाओ ? आई-गई तो मेरे सिर जाएगी, उन्हें क्या! यहीं तक होता
तो निर्मला शायद जब्त कर जाती; पर देवी जी खुफिया पुलिस के सिपाही
की भाँति निर्मला का पीछा करती रहती थीं। अगर वह
कोठे पर खड़ी है, तो अवश्य किसी पर निगाह डाल रही
होगी; महरी से बात करती है, तो अवश्य
ही उनकी निन्दा करती होगी; बाजार से कुछ मँगवाती है, तो अवश्य कोई विलास-वस्तु होगी। वह बराबर उसके पत्र पढ़ने की चेष्टा किया
करतीं, छिप-छिप कर उसकी बातें सुना करतीं। निर्मला उनकी
दोधारी तलवार से काँपती रहती थी। यहाँ तक कि उसने एक दिन पति से कहा- आप ज़रा जीजी
को समझा दीजिए, क्यों मेरे पीछे पड़ी रहती हैं ?
प्रेमचंद की प्रमुख कृतियों से उद्धृत सभी अंश महत्त्वपूर्ण हैं।सुंदर चयन।
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