रविवार, 25 अप्रैल 2021

कविता

 


सपने

 

स्मृति और विस्मृति के बीच झूलते सपने

उनींदी आँखों में खुलते सपने

अधूरे सपने

किसी चिड़िया से

उड़ आ बैठते हैं पास

कभी ओझल

कभी प्रकट

छिपमछिपाई खेलते अनवरत

 

अधपढ़ी किताबों के किरदार

चहलकदमी करते हुए

आते हैं क़रीब

हौले से पूछते हैं

कब आ रहे हो हमसे मिलने

इतनी सारी फुसफुसाहटों के बीच

कभी-कभी मुश्किल होता है फैसला करना-

'क्या है जीना'

'जीने की इच्छा बचाये रखना'

कभी समय मिला तो..

याद भी रहेगा जीना?

 

महामारी की लगातार आती ख़बरें

बुन रही हैं जाल मन पर

अधूरे क़िस्से कहानियाँ

अधूरे सपने

इतने सारे सपने

हो रहे हैं खारे सपने।

अनिता मंडा

दिल्ली 


2 टिप्‍पणियां:

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