सोमवार, 8 मार्च 2021

आलेख


हिंदी महिला कथा लेखन : प्रमुख हस्ताक्षर

    विद्या की देवी सरस्वती, धन की अधिदात्री लक्ष्मी, शक्ति की दुर्गा, सौंदर्य की देवी रति, यह सभी नारी के आदर्श प्रतिमान है। वैदिक युग में स्त्री-पुरुष दोनों को समान अधिकार थे। महाभारत, रामायण काल तक आते-आते यह पुरुष के अधीन बन गई, मुसलमान शासन में पर्दा प्रथा ने नारी को पत्नी, बहू, देवदासी, गणिका या रखैल  बना दिया। जीवन दात्री नारी ही धीरे-धीरे जीवन हीन हो गई। बाल विवाह, अनमेल विवाह, सती प्रथा, दहेज व विधवाओं की दुर्दशा ने नारी चेतना को उदित किया। 19वीं शताब्दी समाज सुधार आंदोलन के साथ-साथ स्त्रियों के सुधार का आंदोलन भी था। हिंदी लेखिकाएँ तथा उनका कथा साहित्य इस नारी चेतना से अछूता नहीं रहा। मीरा से लेकर महादेवी तक की लेखिकाओं ने अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति दी है। बंग महिला, सुभद्रा कुमारी चौहान, चंद्रकिरण सौनरिक्सा, शिवानी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, मृदुला गर्ग, चंद्रकांता, ममता कालिया, सूर्यबाला, मृणाल पांडे, प्रभा खेतान, महुआ माजी, अनामिका, सुशीला टाकभौरे आदि लेखिकाओं ने अपने साहित्य में नारी जीवन की पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक स्थितियों व बदलते समय की समस्याओं को रेखांकित किया है। प्रत्येक लेखिका के अपने समयानुसार साहित्य में किये उनके हस्ताक्षर पर इस तरह चर्चा करेंगे -

    आरंभिक दौर की महिला कथाकारों में बंग महिला श्रीमती राजेंद्र बाला घोष का नाम महत्वपूर्ण है इनका जन्म 1982 वाराणसी में हुआ था। बचपन में इन्हें रानी और चारूबाला के नाम से जाना जाता था। बंगला में यह प्रवासिनी नाम से लिखती थी। हिंदी की प्रथम कही जाने वाली कहानियों में इनकी दुलाईवाली का नाम लिया जाता है जो 1907 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। चंद्रसेन से मेरी बातें उनका महत्वपूर्ण निबंध है। इनके लेखन में नया युग करवट लेते दिखाई देता है। इन्होंने अपने आक्रमक लेखन द्वारा पुरुष सत्तात्मक समाज की नसे कमजोर कर दी थी तथा नारी को रूढ़िवादी व जड़ परंपरा के शिकंजे में जकड़ने वाली शास्त्रीय व्यवस्था का विरोध करते हुए नए तेवर के साथ नारी मुक्ति का अभियान चलाया। इन्होंने नारी द्वारा स्वयं पति का चुनाव करना, तलाक देना व पत्यंतर करने के अधिकार की भी माँग की अर्थात् इनके जीवन और कृतित्व में समकालीन नारी लेखन के सभी मुद्दे अंतर्भूत है।

    स्त्री सरोकारों से जुड़े साहित्य को लिखने वाले आजादी पूर्व की प्रथम लेखिका अर्थात् सुभद्राकुमारी चौहान। गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाली यह प्रथम भारतीय महिला थी। मुकुल और त्रिधारा इनके प्रमुख काव्य संग्रह है। सीधे-सादे चित्र, बिखरे मोती और उन्मादीनी इनके प्रमुख कहानी संकलन है। इनकी रचनाओं में एक तरफ नारी हृदय की सुकोमलता व उसके मार्मिक भावों की व्यंजना पाई जाती है वहीं दूसरी ओर पद्मिनी के जौहर की भीषण ज्वाला के दर्शन भी होते हैं। झाँसी की रानी इनकी प्रसिद्ध काव्य रचना है। स्त्री की निजी स्वाधीनता एवं उससे जुड़े यथार्थ की अभिव्यक्ति करने के लिए इन्होंने अपनी कविता व कहानियों में छायावादी भाषा का भी विद्रोह किया।

    चंद्रकिरण सौनरिक्सा हिंदी की प्रमुख महिला कथाकार है। साहित्य की अनेक विधाओं में इन्होंने अपनी एक पहचान बनाई है। इनके प्रथम कहानी संग्रह आदमखोर का कथा जगत में बहुत गर्मी के साथ स्वागत हुआ था। चंदन चाँदनी, वंचिता, और दिया जलता रहा, कहाँ से कहाँ नहीं आदि प्रमुख उपन्यास एवं हिरनी, वे भेड़िये, सौदामिनी, दूसरा बच्चा आदि प्रमुख कहानी-संग्रह है। इन्होंने मर्द कहानी में सुशीला नामक सुंदर किंतु और अशिक्षित नारी की करुण कथा को वाचा दी। नारी जीवन का यथार्थ, उनकी विसंगतियां एवं उलझनों को इन्होंने अपना विषय बनाया है।

    साठोत्तरी हिंदी कथा साहित्य की एक चर्चित कथाकार है गौरा पंत शिवानी। (जन्म 17 अक्टूबर 1923) इनका कथा साहित्य नारी केंद्रित है। इन्होंने जिलाधीश, अपराजिता, उपहार, नींद, निर्वाण आदि कहानियों में नारी जीवन की विवशता को चित्रित किया है। चिर स्वयंवरा, मास्टरनी, विप्रलब्धा, गूँगा, शायद आदि कहानियों में प्रेम व्यापार की विफलता से पीड़ित नारी मन की पीड़ा को अंकित किया  है। अमादेर शांति निकेतन, वातायन, जालक जैसे संस्मरण प्रमुख है। कुल मिलाकर शिवानी ने अपने कथा साहित्य में नारी व्यथा और उनके सामाजिक बंधनों को अच्छे से उभारा है। इसके जरिए पाठक नारी पात्रों के दुखों के साथ अपना तादात्म्य जोड़ सकते हैं।

हिंदी की मशहूर लेखिका कृष्णा सोबती इन्होंने फिक्शन (आख्यायिका) के रूप में लंबी कहानियों का निर्माण किया है जिसमें डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, यारों के यार, तीन पहाड़, ए लड़की मुख्य है। सूरजमुखी अंधेरे के, जिंदगीनामा, दिलोदानिश, समय सरगम उनके प्रमुख उपन्यास है।  बादलों के घेरे इनका प्रमुख कहानी-संग्रह है। अपनी इन रचनाओं के माध्यम से लेखिका ने महिलाओं पर होने वाले विभिन्न तरह के अत्याचारों व उनकी समस्याओं को चित्रित किया है, एक अखंड, दबंग नारी की एकांतिक तस्वीर को बयाँ किया है।

    उषा प्रियंवदा एक प्रवासी हिंदी लेखिका है। वनवास, कितना बड़ा झूठ, जिंदगी और गुलाब के फूल, मेरी प्रिय कहानियाँ आदि इनके कहानी-संग्रह है। पचपन खंभे लाल दीवारें, रुकोगी नहीं राधिका, शेष यात्रा, अंतरवर्शी, भया कबीर उदास, नदी आदि प्रमुख उपन्यास है। देसी और विदेशी परिवेश में जीवन बिताने के कारण प्रियंवदा जी के उपन्यासों की नायिकाओं में दोनों ही सभ्यताओं का प्रभाव पाया जाता है। पचपन खंभे लाल दीवारें की सुषमा, मीनाक्षी, मिस शास्त्री; रुकोगी नहीं राधिका की राधिका, विद्या; शेष यात्रा की अनु, दिव्या; अंतर्वशी की वाना, सरिका आदि मध्यमवर्गीय नारी पात्रों के द्वारा परंपरा और रूढ़िवादिता के द्वंद्व में फंसी आधुनिक नारी की अस्मिता को खोजने का प्रयास किया है। कुल मिलाकर इनका साहित्य नारी स्वातंत्र्य को प्राधान्य देता है।

    साठोत्तरी हिंदी महिला कथाकारों में मालती जोशी का स्थान महत्वपूर्ण है। पटाक्षेप, सहचारिणी, राग-विराग, निष्कासन, ऋणानुबंध, विश्वास गाथा आदि प्रमुख उपन्यास तथा आखिरी शर्त, मध्यांतर, एक घर सपनों का, मोरी रंग दी चुनरिया, पीया पीर न जानी आदि कहानियों में लेखिका ने समकालीन सामाजिक परिवेश, नारी जीवन की संवेदना तथा नारी विद्रोह को यथार्थ रूप में अभिव्यक्त कर अपनी सृजन प्रतिभा का परिचय दिया है। विधवा, कलंकिता, बाँझ, अकर्मण्य पुरुष की पत्नी, पति से तिरस्कृत, रसोई में कैद दुहाजू की पत्नी अर्थात् नारी का शायद ही कोई ऐसा रूप होगा जिस पर इन्होंने अपनी कलम न चलाई हो। वे स्वयं कहती है “शोषण नारी की नियति बन गया है। आदिम युग से आज तक नारी पिसती चली जा रही है। पहले यह शोषण केवल शारीरिक या भावनात्मक स्तर पर ही होता था किंतु वर्तमान युग में अर्थ तंत्र भी नारी की गर्दन पर सवार हो गया है। अब वह केवल भोग्या या बच्चे जनने की मशीन ही नहीं रह गई है बल्कि रुपया कमाने का यंत्र भी बन गई है। उसकी अर्जन क्षमता को भी भरकर निचोड़ा जा रहा है।” (मोरी रंग दे चुनरिया, मालती जोशी, आवरण पृष्ठ)

    अपने साहित्य के माध्यम से प्रवक्ता और संघर्षशील नारी का निर्माण करने वाली लेखिका बनाम मृदुला गर्ग। उनका स्वयं का जीवन काफी संघर्षशील रहा है। एक स्थान पर वे स्वयं कहती है कि “एकांत दूर की बात है, मेज पर मुतवातिर आधा घंटा बैठ पाना भी मुहाल था। कब क्या जरूरत पड़ जाए और मेरे लिए गुहार मच उठे। इन हालात में लेख और कभी कभार कहानी लिख लेती थी पर उपन्यास शुरू करने से खौफ खाती थी।” (रमणिका गुप्ता, बहू जुठाई कहानी संग्रह, पृष्ठ 25) इनका वंशज उपन्यास जहाँ स्त्रियों के उत्तराधिकार की बात करता है वहीं इन्होंने कठ गुलाब में भारतीय नारी की स्थिति, बाल मजदूरी के प्रश्न व स्त्री-पुरुष के संबंधों पर प्रकाश डाला है। कुल मिलाकर लेखिका ने अपने कथा साहित्य के जरिए यौन प्रश्नों व कुंठाओं के संदर्भ में नारी की मानसिकता को वास्तविकता के धरातल पर उतारने का प्रयास किया है।

    चंद्रकांता हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका है। खून के रेशे इनकी प्रथम कहानी तथा अर्थान्तर प्रथम उपन्यास रहा है। नारी विषयक विभिन्न संदर्भ उनकी कहानियों का मुख्य विषय बना है। जैसे- नानी तुम कहानी में लड़कियों पर की पाबंदियों का, ‘खुदरकुनी ओसा में सती प्रथा का महिमामंडन, ‘गंगा से गंगोत्री में बेटी जन्म पर शोक, ‘कल के लिए में पुलिस द्वारा स्त्री का शोषण, ‘अनार के फूल में ठेकेदार द्वारा स्त्री मजदूरों का आर्थिक शोषण व यौन उत्पीड़न पाया गया है। राष्ट्र की प्रथम महिला श्रीमती विमला शर्मा द्वारा इन्हें सम्मानित किया गया था।

इसी क्रम में अगली लेखिका ममता कालिया कि जिन्होंने उपन्यास, नाटक, कहानी, निबंध, पत्रकारिता साहित्य की प्रत्येक विधाओं में हस्तक्षेप किया है। उनका उपन्यास बेघरएक पत्नी के नोट्स एक मध्यमवर्गीय पढ़ी लिखी महिला की त्रासदी को बयाँ करती है, जहाँ पति के द्वारा उसे योग्य सम्मान नहीं मिलता तथा व्यंग्योक्ति का शिकार होना पड़ता है। यह सीधे रूप से पढ़े लिखे वर्ग को बेनकाब करती है।

    प्रभा खेतान हिंदी भाषा की प्रतिष्ठित उपन्यासकार, कवयित्री, समाज सेविका तथा नारीवादी चिंतक है। ये प्रभा खेतन फाउंडेशन की संस्थापक अध्यक्षा रही है। जहाँ इन्हें नारीवादी चिंतक होने का गौरव प्राप्त है वहीं इनकी नारी विषयक कार्यों में सक्रिय भागीदारी रही है। इन्हें प्रतिभाशाली महिला पुरस्कार तथा टॉप पर्सनालिटी अवार्ड भी प्रदान किया गया है। अन्या से अनन्या लेखिका की चर्चित आत्मकथा रही है। इन्होंने सिमोन द बोउवा का विश्व प्रसिद्ध उपन्यास द सेकेंड सेक्स का हिंदी अनुवाद किया था। इनके छिन्नमस्ता और पीली आँधी उपन्यास कुमारीका जीवन की विसंगतियों को दर्शाते है।

    समकालीन कथा साहित्य में सूर्यबाला का लेखन अपना विशिष्ट महत्व रखता है। इन्होंने मेरे संधि पत्र, सुबह के इंतजार तक, अग्निपंखी, यामिनी कथा, दीक्षांत आदि उपन्यास; एक इंद्रधनुष, दिशाहीन, थाली भर चाँद, पाँच लंबी कहानियाँ, सूर्यबाला की प्रेम कहानियाँ आदि कहानी संग्रह तथा कुछ व्यंग्य भी लिखे हैं। अपने अंतर्मन को चोट पहुँचाने वाली संवेदनाओं को अपनी लेखनी के माध्यम से लिपिबद्ध किया है। समाज, परंपरा, आधुनिकता एवं उनसे जुड़ी समस्याओं को इन्होंने मुक्त रूप से वाचा दी है।

    चित्रा मुद्गल हिंदी की वरिष्ठ कथा लेखिका है। आवांउपन्यास के लिए इन्हें 2003 में व्यास सम्मान मिला। इनका साहित्य अनायास ही पाठकों को अपनी ओर खींचता है। एक तरफ इन्होंने मानवीय संवेदनाओं को चित्रित किया है वहीं दूसरी ओर नए जमाने की रफ्तार में फँसी नारी जिंदगी की मजबूरियों को भी वाचा दी है।

    नारी जीवन के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण अपनाने वाली मैत्रेयी पुष्पा ने अपने कहानी संग्रह चिन्हार, ललमानियाँ, गोमा हँसती है द्वारा तथा उपन्यास इदन्नमम्, बेतवा बहती रही, चाक, झूलानट, अल्मा कबूतरी, त्रिया हट आदि द्वारा जन्म से ही नकारे जाने वाले नारी पात्र की अस्मिता व अधिकार को कायम रखने का कार्य किया है। इन्होंने सती प्रथा, व्यभिचार, दहेज, बलात्कार आदि मुद्दों पर प्रकाश डाला है। खास करके स्त्री को गुलाम बनाए रखने वाली पितृसत्ता की महान संस्कृति के खिलाफ आवाज उठायी है।

    मेहरून्निसा परवेज भारत की समकालीन महिला कथाकार है 1969 प्रथम उपन्यास आँखों की दहलीजप्रकाशित हुआ था, बाद में कोरजा, अकेला पलाश, समरांगण और पासंग जैसे उपन्यास लिखें। आदम और हव्वा, सोने का बेसर, टहनियों पर धूप, अयोध्या से वापसी, अम्मा और समर, कानी बाट इनकी प्रमुख कहानियाँ है। इन्हें सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। इनका उपन्यास कुरजा आदिवासी परिप्रेक्ष्य में स्त्री जीवन की त्रासदी है।

    प्रसिद्ध लेखिका व उपन्यासकार गौरा पंत शिवानी की पुत्री तथा लेखिका, पत्रकार एवं टेलीविजन के क्षेत्र में ख्यात साहित्यकार अर्थात् मृणाल पांडे। इन्होंने आजादी के बाद के भारतीय परिवेश को अपने साहित्य का आधार बनाया है। आदमी जो मछुआरा नहीं थाउनका लोकप्रिय नाटक है। बचुली चौकीदारिन की कढी, एक स्त्री का विदा गीत, अपनी गवाही, हमका दियो परदेस आदि उनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं। इनके कथा साहित्य में नारी का वह आधुनिक विश्व है जिसमें उसके स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रश्न अनेकों बार उत्पन्न होते रहे हैं। इन्होंने एक तरफ समाज की बाह्य व्यवस्था को उजागर किया है वहीं महिलाओं के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण भी अपनाया है।

    नासिरा शर्मा हिंदी की प्रमुख लेखिका है। सात नदियाँ एक समंदर, शाल्मली, ठीकरे की मंगनी, पारिजात, कागज की नाव इनके प्रमुख उपन्यास है। इन्होंने अपने कथा साहित्य में न केवल स्त्री समस्याओं को उजागर किया बल्कि उनका समाधान भी दिया है। पंकज कुमार कहते हैं “नासिरा शर्मा उन रचनाकारों में है जिन्होंने महिला मुद्दों को अपनी कलम का निशाना बनाया है।” ( पंकज कुमार, जिंदगी के असली चेहरे, आजकल पत्रिका) इनके कथा साहित्य में नारी की संवेदनाओं तथा भावनाओं का इतना मार्मिक वर्णन पाया जाता है कि पाठक वर्ग उन पात्रों में स्वयं की झलक देखता है।

    आधुनिक हिंदी महिला लेखिकाओं में अनामिका एवं सुशीला सुशीला टाकभौरे का भी महत्वपूर्ण स्थान है। अनामिका जहाँ अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए तथा स्त्री मन को समझने के लिए सूफी परंपरा से प्रभावित होने की वजह से खुसरो के पास जाती है वहीं सुशीला टाकभौरे दलित लेखिका होने की वजह से अंबेडकरवादी विचारधारा से जुड़ने के लिए प्रेरित करती है।

    इन्हीं सभी लेखिकाओं के क्रम में एक और नाम जुड़ता है महुआ माजी का। महुआ माजी 21वीं सदी की युवा पीढ़ी की लेखिका है। शोषित व पीड़ितों के प्रति संवेदनशीलता एवं सहानुभूति जैसे गुण उनके व्यक्तित्व में पाए जाते हैं। यह एक सामाजिक कार्यकर भी है। इनका व्यक्तिगत जीवन देखें तो काफी संघर्षमय रहा है। एक मध्यमवर्गीय परिवार में 10 दिसंबर 1964 राँची के बिहार में इनका जन्म हुआ था। यह झारखंड महिला आयोग की अध्यक्षा भी रह चुकी है।

    महुआ माजी ने अपनी प्रथम कहानी मोइनी की मौतमें गर्भवती महिलाएँ मृत्यु के बाद डायन बन जाती है यह बताकर वहाँ प्रचलित डायन कुप्रथा पर प्रकाश डाला है। इसके जरिए ग्रामीण समाज के अंधविश्वासों के बीच किस तरह नारी अपने जीवन एवं बच्चों के लिए संघर्ष करती है यह दर्शाया है। इनकी अन्य प्रमुख कहानियों में झारखंडी बाबा, ताश का घर, जमीन और सितारे, सपने कभी नहीं मरते, उफ! ये नशा कालिदास!, चंद्रबिंदु आदि का समावेश होता है। कहानी के साथ-साथ उपन्यास क्षेत्र में भी उनका योगदान अभूतपूर्व है। मैं बोरीशाइल्ला (2006) और मरंग गोडा नीलकंठ हुआ (2012) उनके महत्वपूर्ण उपन्यास है।

    मैं बोरीशाइल्ला का  2008 में अंग्रेजी अनुवाद हुआ, जिसे 2010 में यूरोप के सबसे बड़े विश्वविद्यालय इटली में स्थित सापिएन्जा यूनिवर्सिटी ऑफ रोमके मॉडर्न लिटरेचर बी.ए. के कोर्स में शामिल किया गया, यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। लेखिका ने इसमें केस्टो नामक पात्र के बचपन की कहानी द्वारा बांग्लादेश की मुक्ति गाथा के बारे में चर्चा की है। साथ ही इस ओर भी इशारा किया है कि सांप्रदायिक लड़ाईयों का केंद्र धर्म नहीं किंतु सत्ता एवं उसके पीछे छिपा मनुष्य का स्वार्थ है। एक स्थान पर लेखिका बताती है “धर्म के नाम पर जो लोग दंगे-फसाद कर रहे हैं वह धर्म की लड़ाई है ही नहीं। उसकी लड़ाई सत्ता के लिए है। ... अगर धर्म ही महत्वपूर्ण होता तो एक ही धर्म के लोग एक दूसरे से नहीं लड़ते और बांग्लादेश नहीं बनता। (BBC hindi.com संवाददाता वंदना)

    महुआ माजी ने अपने दूसरे उपन्यास मरंग गोडा नीलकंठ हुआमें झारखंड राज्य के सिंहभूम में स्थित मरंग गोडा एवं सारंडा के होतथा संतालजाति के आदिवासियों की संस्कृति, त्यौहार रीति-रिवाज, उनके जीवन की समस्याएं एवं संघर्ष को चित्रित किया है। साथ ही आदिवासी महिलाओं को उनके अधिकारों के लिए जागरूक भी किया है। अपने एक इंटरव्यू के दौरान वे स्वयं कहती हैं कि “मेरा उपन्यास मरंग गोडा नीलकंठ हुआझारखंड राज्य के आदिवासी समाज का दर्पण है। अपने राज्य की महिलाओं की स्थिति से मैं परिचित हूं। मैं समस्याओं की जड़ जानती हूँ, मेरा मानना है कि महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना बहुत जरूरी है।” ( www.parbhatkhabar.com.)

    मरंग गोडा नीलकंठ हुआमें महुआ माजी ने विकिरण की वजह से शारीरिक एवं सामाजिक समस्याओं से पीड़ित होआदिवासी स्त्रियों की दयनीय स्थिति का चित्रण किया है। इस उपन्यास में बांझपन, डाइन कुप्रथा, यौन शोषण आदि समस्याओं से पीड़ित नारी की वेदना को वाचा दी है। यूरेनियम की खदानों ने मरंग गोडा की स्त्रियों के जो हालात किए थे उस पर लेखिका कहती है कि “जिन्हें बार-बार गर्भपात होता, उनसे भी ज्यादा वह औरतें दुखी दिखती जिनके बच्चे जन्म लेने के 24 घंटे, 3 दिन या 7 दिन तक जिंदा रहने के बाद मर जाया करते थे। शारीरिक विकृतियों के साथ जन्मे बच्चों की माताओं का दर्द तो उनसे भी ज्यादा चुभा कैमरे के साथ-साथ फिल्मकार की आँखों में।” (मरंग गोडा नीलकंठ हुआ, महुआ माजी, पृष्ठ 182) लेखिका ने आदिवासी स्त्रियों की समस्या के जरिए जापान जैसे विकसित देश की स्त्रियों की त्रासदी को भी उजागर किया है। जापानी स्त्री पात्र मोमोकाके जरिए नारी के साथ हो रही छेड़खानी की समस्या को भी सामने रखा है।

    महुआ माजी नारी जीवन और उनकी समस्याओं के प्रति काफी चिंतित है। इन्होंने अपनी कहानियों एवं उपन्यासों में स्त्रियों की सामाजिक समस्याओं को उठाया है। आर्थिक दृष्टि से निम्न समाज की स्त्रियों को स्वावलंबी बनाने के संदर्भ में वे कहती हैं “स्त्रियों को प्रशिक्षण से जोड़कर उन्हें आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाना चाहिए ताकि स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अपराधों को कम किया जा सके।” (www. Prabhat khabar.com., Jharkhand)

    आज नारी अपने अस्तित्व के बचाव के लिए परंपरागत मूल्यों से लड़ रही है। इन लेखिकाओं की नारियां “आँचल में है दूध और आँखों में है पानी” के भाव को नहीं अपनाती बल्कि अपने अस्तित्व एवं अधिकारों के लिए विद्रोह भी कर रही है, हर कदम पर संघर्ष कर रही है। इसलिए कह सकते हैं कि यह सदी नारी के अस्तित्व की, नारी के व्यक्तित्व विकास की सदी है।


    डॉ. भावना ठक्कर

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर

अनुस्नातक हिन्दी विभाग

एन. एस. पटेल आर्ट्स कॉलेज

आणंद


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