प्रकृति
ने भारत को विविधताओं से सजाया है। पहाड़, बर्फ़,
नदी, झरने, पठार,
मैदान, समुद्र, जंगल,
फसलें, तरह-तरह की वनस्पतियाँ, औषधियाँ, मसाले न जाने कितनी ही प्रकार की विविधताओं
से मिलकर हमारा देश बना है। विभिन्न भौगोलिक स्थितियों के कारण ही विभिन्न मौसमों
का निर्माण होता है। भारत में छः प्रकार की ऋतुएँ आती हैं। बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर। सभी ऋतुएँ लगभग दो महीने की होती हैं। प्रत्येक ऋतु का
अलग महत्व है फिर भी सबसे सुखदायी ऋतु की बात की जाए तो ऋतुओं का राजा बसंत ही है।
बसंत
ऋतु का आरंभ माघ महीने की शुक्ल पंचमी से माना जाता है। माघ,
फाल्गुन और चैत्र के आरंभिक दिन बसंत ऋतु के होते हैं। हिन्दू पंचाग
के अनुसार वर्ष का आरंभ चैत्र से अर्थात बसंत ऋतु से होता है और समापन भी बसंत ऋतु
से ही होता है। अंग्रेजी महीनों के हिसाब से फरवरी- मार्च के महीने बसंत ऋतु के
हैं। बसंत ऋतु में मौसम सुहावना हो जाता है। पौष- माघ की ठंड बीत जाती है व तापमान
संतुलित होने लगता है। आम जन-जीवन जो अत्यधिक ठंड से ठप्प पड़ गया होता है फिर से
संचालित होने लगता है।
बसंत
ऋतु प्रकृति का उत्सव है। अत्यधिक शीत से कुम्हलाई वनस्पति को नया जीवन मिलता है।
बर्फ़ ने जिन पहाड़ियों को नंगा कर दिया था वहाँ पुनः नव अंकुर पल्लवित होने लगते
हैं। पाले से मुरझाए पेड़ पौधों पर सुनहरी धूप की किरणें फिर से बहार ले आती हैं।
सरसों के पीले खेत स्वर्ण समान छटा बिखेरते हैं। गेहूँ की पकी हुई बालियों की महक
से हवा गमकने लगती है। सर्दियों से चुप्पी में गए पक्षी कीट पतंगे तितलियाँ संगीत
बिखेरने लगते हैं। फूलों की महक से दिशाएँ गमकने लगती हैं। कलियों पर भँवरों की
गुँजार से वातावरण मदमस्त हो जाता है। फूलों का मकरंद पाने मधुमक्खियों के दल दिन
भर डोलते रहते हैं। कितने मीठे शहद की निर्माण प्रकिया मुख्यत बसंत में ही परवान चढ़ती है। महीनों से पंख सिकोड़े बैठे पक्षी लंबी उड़ानें भरते हैं, भोर में ही सुंदर कलरव से बसंत को मानो आभार कहते हैं। जीव-जंतु, पशु-पक्षी, वनस्पति सभी के लिए बसंत ऋतु आनन्ददायी
होती है। प्रकृति पर यौवन छा जाता है। हर दिशा में रंग-बिरंगे फूलों की छटा मन
मोहती है। प्रकृति का उत्सव मानव मन में भी उत्साह और सकारात्मकता का संचार करता
है।
सरसों और गेहूँ की फसल पक चुकी होती है। खेत सोना उगलते हैं। कड़े
परिश्रम का फल मिलता है। किसानों के लिए बसंत ऋतु इसलिए भी आनन्ददायक है कि फसलों
की बिक्री के बाद घरों में विवाह आदि के मंगल कार्य होते हैं।
बसंत
ऋतु में
मुख्यतया तीन त्योहार आते हैं; वसंत पंचमी,
शिवरात्रि और होली। बसंत पंचमी से ही बसंत ऋतु आरंभ माना जाता है।
पौराणिक ग्रन्थों में बसंत पंचमी की अलग-अलग कथाएँ मिलती हैं। इस दिन विद्या और
वाणी की देवी सरस्वती का अवतरण दिवस माना जाता है।
सरस्वती एक नदी के रूप में भी पूज्य हैं। इस दिन वासन्ती या पीत रंग के वस्त्र
धारण किये जाते हैं व पीत पुष्पों से ही देवी का पूजन किया जाता है। वंदन, प्रार्थनाएँ, नृत्य आदि से उत्सव मनाया जाता है।
भगवान श्री कृष्ण तथा कामदेव इस उत्सव के अधिदेवता हैं। कृष्ण ने भगवत गीता
में एक स्थान पर कहा है कि ऋतुओं में मैं बसंत हूँ, इससे भी
पता चलता है कि सभी ऋतुओं में बसंत का अधिक महत्व है। 'सरस्वती
कंठाभरण’ में लिखा है कि सुवसंतक वसंतावतार के दिन को कहते हैं। वसंतावतार अर्थात
जिस दिन बसंत पृथ्वी पर अवतरित होता है। यह दिन वसंत पंचमी का ही है। शास्त्रों में
कामदेव को प्रेम का देवता एवं ऋतुराज बसंत का मित्र कहा गया है। कामदेव की पूजा भी
इस दिन होती है। कामदेव व्यक्ति के जीवन में प्रेम का संचार करते हैं और देवी रति
शृंगार का।
फाल्गुन
कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि का
प्रारंभ इसी दिन से हुआ। इस दिन भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ हुआ था।
भारत में शिव पार्वती की इतनी कहानियाँ प्रचलित हैं कि लिखने पर पूरे ग्रन्थ भर
जाएँ। हर प्रांत की कथा कुछ विलग है परंतु यह बात सभी मानते हैं कि बसंत में ही
कामदेव ने शिव पर प्रहार किया और बदले में शिव ने उन्हें तृतीय नेत्र खोलकर भस्म
कर दिया। तब से कामदेव अनंग हो गया।
फाल्गुन
मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को होली का उत्सव होता है। लोक-संगीत की
स्वर-लहरियों से तन-मन पर मादकता छा जाती है। विभिन्न प्रान्तों में होली पर विशेष
नृत्य आयोजन होते हैं। जहाँ प्रकृति रंग-बिरंगी हो रही होती है,
होली भी रंगों से सारोबार हो जाती है। समाज का हर वर्ग इस रंग-पर्व
से मन का अनुरंजन करता है। होली की अनेक पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं। असत्य और
अराजकता पर सत्य की विजय होती है। बुराई का दहन होता है तो अच्छाई को स्थापना
मिलती है।
बसंत
पंचमी व बसन्त ऋतु का कवियों और लेखकों के लिए अलग ही महत्व है। प्रकृति का यह
लुभावना रूप तरह-तरह की कल्पनाएँ जागृत करता है। प्राचीन भारतीय साहित्य में बसंत
का आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में ही सुंदर वर्णन हुआ है। संस्कृत साहित्य में
भी षडऋतु वर्णन की परम्परा रही है। आगे चलकर भक्तिकाल में बारहमासे लिखे गए।
रीतिकाल के कवियों का भी बसंत ऋतु पर अपार प्रेम रहा। आधुनिक काल में निराला तो
बसन्त पंचमी को ही अपना जन्मदिन भी मानते रहे। सृष्टि की आदि श्रुति ऋग्वेद की
अनेक ऋचाओं में प्रकृति का सजीव रूप साकार हुआ है। उपनिषद,
पुराण-महाभारत, रामायण (संस्कृत) के अतिरिक्त
हिन्दी, प्राकृत, अपभ्रंश की काव्य
धारा में भी बसंत का रस व्याप्त रहा है। अर्थवेद के पृथ्वीसूत्र में भी बसंत का
वर्णन मिलता है। महर्षि वाल्मीकि ने भी बसंत का व्यापक वर्णन किया है। किष्किंधा
कांड में पम्पा सरोवर तट इसका उल्लेख मिलता है-
अयं
वसन्त: सौ
मित्रे
नाना विहग नन्दिता।
बुध्दचरित
में भी बसंत ऋतु का जीवंत वर्णन मिलता है। भारवि के किरातार्जुनीयम,
शिशुपाल वध, नैषध चरित, रत्नाकर
कृत हरिविजय, श्रीकंठचरित, विक्रमांक
देव चरित, श्रृंगार शतकम, गीतगोविन्दम्,
कादम्बरी, रत्नावली, मालतीमाधव
और प्रसाद की कामायनी में बसंत को महत्त्वपूर्ण माना
है। कालिदास की सभी रचनाओं का हिस्सा बसन्त रहा है। मेघदूत में यक्षप्रिया के पदों
के आघात से फूट उठने वाले अशोक और मुख मदिरा से खिलने वाले वकुल के द्वारा कवि
बसंत का स्मरण करता है।
विद्यापति
की लेखनी से रेखांकित बसन्त:-
आएल
रितुपति राज बसंत,छाओल अलिकुल माछवि
पंथ।
दिनकर
किरन भेल पौगड़,केसर कुसुम घएल
हेमदंड।
सूरदास
जी भी बसन्त के मामले में पीछे कहाँ रहने वाले थे-
ऐसो
पत्र पटायो ऋतु वसंत, तजहु मान
मानिन तुरंत,
कागज
नवदल अंबुज पात, देति कमल मसि
भंवर सुगात।
तुलसी
दास जी बसन्त को कुछ यूँ देखते हैं :-
सब
ऋतु ऋतुपति प्रभाऊ, सतत बहै
त्रिविध बाऊं
जनु
बिहार वाटिका, नृप पंच बान की।
निराला
की एक कविता बसंत को सजीव करती हुई - महाप्राण निराला और ऋतुराज
सखि,
वसन्त आया ।
भरा
हर्ष वन के मन, / नवोत्कर्ष
छाया।
किसलय-वसना
नव-वय-लतिका / मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृन्द
बन्दी- / पिक-स्वर नभ सरसाया।
लता-मुकुल-हार-गन्ध-भार
भर/ बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी
नयनों में वन- / यौवन की माया।
आवृत
सरसी-उर-सरसिज उठे, / केशर के केश कली के
छुटे,
स्वर्ण-शस्य-अञ्चल
/ पृथ्वी का लहराया।
गोपालदास
नीरज कह उठते हैं -
आज
बसंत की रात, / गमन की बात न करना!
धूप
बिछाए फूल-बिछौना, / बगिय़ा पहने चाँदी-सोना, / कलियाँ फेंके जादू-टोना,
महक
उठे सब पात, / हवन की बात न करना!
/ आज बसंत की रात,
बौराई
अंबवा की डाली, / गदराई गेहूँ की बाली, / सरसों खड़ी
बजाए ताली......
यह
पीली चूनर, यह चादर, / यह सुंदर छवि, यह रस-गागर....
द्वारिका
प्रसाद माहेश्वरी के शब्दों में बसंत की छवि -
आया
लेकर नव साज री ! / मह-मह-मह डाली महक रही
कुहु-कुहु-कुहु
कोयल कुहुक रही / संदेश मधुर जगती को वह
देती
वसंत का आज री! / माँ! यह वसंत ऋतुराज री!
गुन-गुन-गुन
भौंरे गूंज रहे / सुमनों-सुमनों पर घूम रहे
अपने
मधु गुंजन से कहते / छाया वसंत का राज री!
माँ!
यह वसंत ऋतुराज री!
जैसे
जीवन में दुख के बाद सुख आता है वैसे ही बसन्त आता है। निर्जन रेगिस्तान में भी इस
समय पलाश के फूल दहकने लगते हैं। प्रेम से सारोबार मन उत्सव मनाता है। बसन्त से
सुखकर कुछ भी नहीं। रंग-बिरंगी तितलियाँ से फूलों की शोभा देखते ही बनती है। हमारे
भीतर का राग ही बसन्त का रूप लेकर धरती पर आ विराजता है।
दिल्ली
बसन्त के Knowledge से परिपूर्ण सुन्दर आलेख...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद Mam.
Happy वसंत पंचमी।☺
वसंत सुषमा का सुन्दर निरूपण @
जवाब देंहटाएंआभार!
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंबसन्त की महत्ता और काव्य परम्परा को चित्रित करता सुंदर आलेख।
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जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सुन्दर आलेख है बसंत पर प्रिय अनिता!
हार्दिक बधाई आपको।