गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

आलेख

             

       प्राकृतिक साहचर्य और COVID 19

प्रो. शिव प्रसाद शुक्ल

    विश्व में भारतीय जीवन शैली अपने आप में अद्वितीय है जिसके चलते हम लोग कोरोना 2019 से डटकर मुकाबला कर रहे हैं। पहले हमें अपनी पहचान हर स्तर पर सुनिश्चित करनी होगी। भारतीय जीवनशैली की विश्व के तमाम देश आलोचना कर रहे थे, एकाएक प्रशंसक क्यों हो गये? गोस्वामी तुलसीदास ने इस (covid 19) महामारी के मूल स्रोत चमगादड़ के विषय में उत्तरकांड में वर्षों पहले बता गये थे जिससे समग्र विश्व दुःखी है:

"सब कै निंदा जे जड़ करहीं । ते चमगादुर होइ अवतरहीं

सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुःख पावहिं सब लोगा ।"

    भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान श्रेय के कारण है परंतु वर्षों की गुलामी से मुक्ति मिलते ही अपने आत्मिक/ आध्यात्मिक विकास के बजाय प्रेय को विशेष महत्व देने लगे। covid 19 के बारे में भारत सरकार को सूचना मिलते ही उसने प्रशंसनीय कदम उठाने लगे। यह बात अलग है कि लोगों ने सरकार एवं स्वास्थ्य मंत्रालय की सूचनाओं का अक्षरशः अनुपालन नहीं कर रहे हैं। कोरोना संक्रमण बीमारी से बचने के लिए सरकार के दिशा निर्देशों का पालन करवाने के लिए कठोर नियमों का प्राविधान भी करना पड़ रहा है। परंतु सरकार चतुर्दिक स्तर पर लोगों की समस्याओं को सुलझा रही है। सरकार ने देशी विदेशी लोग जो जहाँ फँसे हैं, उनको वहीं पर भोजन एवं उनके गंतव्य तक ले जाने की भी व्यवस्था कर रही है। केन्द्र एवं राज्य सरकारों के इस सकारात्मक दृष्टिकोण की काफी प्रशंसा हो रही है भारत सरकार, चिकित्सक, नर्स, कर्मचारी, सुरक्षा अधिकारियों का मनोबल देखते बन रहा है। अब तक के विश्व के आँकड़े देखे जायँ तो मार्च 2020 से लेकर भारत में लोगों की मृत्यु किसी न किसी लापरवाही (मरकज) के चलते बढ़ रही है

    प्रधानमंत्री सतत् राज्य सरकारों के रचनात्मक सकारात्मक पहलूओं की निगरानी कर रहे हैं। गाँधी, नेहरु, अम्बेडकर एवं पटेल के विकास मॉडल के अन्तर्विरोध सर्वविदित हैं। फिलहाल हमें प्रकृति एवं पुरुष के समन्वय के सार्वभौमिक माडल को अपनाना होगा भारत सरकार ने अपनी 'वसुधैवकुटुम्बकम्' की भावना को बरकरार रखते हुए तमाम आवश्यक वस्तुओं एवं दवाओं को विश्व को समर्पित कर रहा है। तुलसी की काव्य पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:

"एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहुब्याधि।

पीडहिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ।।"

    किसी भी बीमारी से निजात पाने के लिए आद्यंत जीवन चया को सुनिश्चित करनाहो गा तुलसीदास की काव्य पंक्तियाँ बहुत कुछ कह जाती है:

"नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।

भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ।। "

    तुलसी राम के अनन्य भक्त हैं। इसीलिए "दैहिक, दैविक, भौतिक तापा/रामराज काहू नहिं ब्यापा" लिखते हैं और इसके आगे की काव्य पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:

"रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनुपान श्रद्धा मति पूरी

एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं"

    किसी भी महामारी के उपाय हमारी जीवन शैली में ही हैं। इसलिए धार्मिक ईर्ष्या द्वेष को छोड़कर भारतीय जीवन पद्धति को स्वीकार किया जायः

"राम कृपा नासहिं सब रोगा।

जौं एहिं भाँति बनै संजोगा।

सद्गुरु बैद बचन बिश्वासा।

संजम यह न विषय कै आसा।।"

    कोरोना 19' महामारी के कारण हमी लोग हैं इसलिए राम को जो लोग नहीं मानते हैं वे लोग भी अपनी-अपनी जीवन चर्या को ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक बनायेंगे तो कोई भी महामारी कभी भी नहीं सतायेगी। फ्रीज, एसी हाईब्रीड फल / फसल / गाय / भैंस के उत्पादन से मानव मात्र के लिए नुकसान देय हैं। आदिवासी संस्कृति एवं रहन-सहन किसी भी बीमारी से मुक्ति दिला सकता है। साहित्य में किसी भी बीमारी के लिए दवा नहीं आविष्कृत है परंतु जो लोग अपनी जीवन शैली को प्राकृतिक परिक्षेत्र को नुकसान पहुँचाए बिना रहेंगे, उन्हें निश्चित रूप से लाभ मिलेगा जैविक खेती के साथ देसी फल-फूल, साग- सब्जी, मधु आदि के उत्पादन से निश्चित रूप से नाना प्रकार की बीमारियों से मुक्ति मिल सकती है। हर सौ वर्ष के बाद महामारियों का जिक्र साहित्यकार लोग करते हैं रेणु ने भी कालाजार का चित्रण किया है या चेचक या प्लेग या कोविड 19 या मलेरिया या टी.बी. आदि का प्रकोप मानव मात्र के लिए खतरनाक हैं। समग्र जैविक तरीके को समझा जाय तो मनुष्य जंगली पशु प्राणियों या चौरासी लाख जीवों पर कोई रहम नहीं दिखाता है इसलिए चिकित्सा या विज्ञान या तकनीकी मनुष्य मात्र के विकास के पायदान के रूप में इस्तेमाल होते हैं भया कबीर उदास में कैन्सर लाइलाज बीमारी का जिक्र है, थेलेसेमिया जैसी बीमारी भारत में बढ़ती जा रही है। आबादी बढ़ने के कारण या जैविक सिस्टम को क्षति पहुंचाने के कारण ऐसा हो रहा है। ब्लड प्रेशर, सुगर के मरीज क्यों बढ़ रहे हैं क्योंकि हमने जैविक सिस्टम को बुरी तरह से नुकसान देय बना दिया है। महानगरों की बढ़ती जन संख्या उदय प्रकाश की कहानी मैंगोसिल के मारफत बढ़ती जा रही है। चिकित्सा, तकनीकी एवं विज्ञान की शिक्षा महँगी होने के कारण लोगों के नैतिक मूल्यों में भी गिरावट आयी है।

मनुष्य को चालाकी उतनी ही करनी चाहिए जिससे जैविक सिस्टम को कोई हानि न हो। साहित्य कोविड 19 की दवा खोजेगा, इस भ्रम में रहना भी नहीं चाहिए। योग्य चिकित्सक एवं प्राकृतिक जीवन शैली किसी भी बीमारी से मुक्ति दिला सकते हैं। भारत में जाँता, चक्की,चकरा, गोपालन, कोल्हू, पशु पालन करने वालों को कभी भी सामान्यतया कोई बीमारी नहीं होती थी, यदि होती थी तो चरक, सुश्रुत की आयुर्वेदिक चिकित्सा का सहारा लिया जाता था स्ववित्तपोषी कोई भी शिक्षा नैतिक मूल्यों का जतन नहीं कर सकती है। निराला की पुत्री, सरोज या पत्नी मनोहरा देवी की असामयिक मृत्यु की बात लोग करते हैं। निश्चित रूप से उस समय पर आधुनिक शिक्षा चिकित्सा की व्यवस्था नहीं थी आज समसामयिक चिकित्सा व्यवस्था होने पर भी योग्य चिकित्सकों का अभाव सतत् सता रहा है मूल्य अव्यक्त होते हैं 

    परंतु मानव जाति अपने जीवन में उन मूल्यों को उतारती है तो वे मूल्य जीवन शैली का अंग बन जाते हैं। नरेन्द्र मोदी या रामदेव बाबा या अन्य लोगों को कोरोना क्यों नहीं हो रहा है? यानी उन लोगों की जीवनशैली या पद्धति का भी आकलन किया जाना चाहिए प्रवासी मजदूरों को भी सामान्यतया कोरोना क्यों नहीं हो रहा है? इस पर भी गम्भीरता से विचार करना होगा। महात्मा गाँधी के अनुयायी श्रीमन्नारायण के स्वदेशी एवं ग्राम स्वराज के मॉडल को चतुर्दिक विकास के लिए स्वीकार करना होगा देश के 73 वर्षों में ग्राम स्वराज का विकास न होने के कारण लोकतांत्रिक असफलता एवं इच्छाशक्ति का पता चलता है। किसी भी प्रकार का पर्यावरणिक नुकसान समग्र विश्व को भारी पड़ेगा फास्ट फूड, सॉफ्ट ड्रिंक आदि को अलविदा करना होगा जिस तरह से एड्स की कोई भी दवा कामयाब नहीं है उसी प्रकार से कोरोना जैसी बीमारी का भी कोई इलाज नहीं मिलेगा, सिर्फ एक ही इलाज प्राकृतिक जीवन शैली एवं पर्यावरण सम्पन्न वातावरण लोगों के जीवन रक्षक हैं साहित्यकार लोग बकवास बहुत करते हैं। मैथिली शरण गुप्त की कई पत्नियों का देहांत हो गया, उन्होंने राम पर लिखा परंतु बीमारी की किसी भी दवा पर कोई दावा नहीं किया आज के रचनाकार प्रेमचंद की तरह नौकरी छोड़कर आमफहम भाषा में नहीं लिख रहे हैं, इसीलिए उनके साहित्य को कोई पढ़ नहीं रहा है। ई संगोष्ठी या वेबीनार या दूरदर्शन पर बकवास करने से कुछ मिलने वाला नहीं हैं कोई भी किसी भी जाति, धर्म एवं देश विशेष का क्यों न हो? भौगोलिक. धार्मिक, जातिगत बाड़ेबंदी को छोड़कर प्राकृतिक साहजिक जीवनचर्या पर विशेष ध्यान दे।

    हम लोगों को क्षिति, जल, पावक, गगन एवं समीर को शुद्ध रखना होगा। साधन साध्य पर ध्यान नहीं देगे तो इससे भयंकर बीमारी का सामना करना होगा देश के स्वतंत्र होने के 73 वर्षों में हम लोगों ने भेड़िए जैसी शिक्षा एवं मदारी की भाषा बोलना सिखाया इसलिए बौद्धिक राजनीतिक, धार्मिक एवं धन पशुओं या प्राणियों को गहराई से विचार करना होगा। उम्मेद सिंह बैद की कविता वैचारिक प्रदूषण की चंद पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं: "जो कविता आप पढ़ रहे हैं/ वह पेड़ की लुगदी करके/ बने कागज पर लिखी गई है / जो हाथ इसे लिख रहा है/उसमें /कारखानों में बना/प्लास्टिक का पेन है / कृत्रिम धागों से निर्मित / बड़ी बड़ी मीलों का/फैशनेबल वस्त्र पहनता है/ यह व्यक्ति/लकड़ी के शानदार सोफे पर / बिजली से चलते पंखे की हवा में/आराम से बन रही है कविता / बिकेगी पुस्तक सौ रूपयों में / तो निश्चय ही/वातानुकूलित कमरे में पढ़ी जायेगी/लेखक, पाठक, समीक्षक या प्रकाशक/ या फिर कोई पर्यावरण कार्यकर्ता/ सभी तो उसी व्यवस्था के निर्माता / और उसके अंगभूत हैं / जो व्यवस्था सम्पूर्णतः/ पृथ्वी की छाती पर/ मूँग दल रही है / प्रकृति को माता मानकर/उसके स्तन के दुग्धपान नहीं / बल्कि उसे भोग्य मानकर/इसके साथ व्यभिचार कर रही है / खुले आम समझ बूझकर!/और भी गहरी है/वैचारिक प्रदूषण की जड़े" कोरोना भी धीरे-धीरे मानसिक रोग बनता जा रहा है कोरोना के नाम आबंटित धन राशियों की बंदर बॉट देखते बन रही है: "बातों के/ बन रहे बताशे/बातों के अब लच्छे होंगे/बातों ही बातों में /दिन अब/आने वाले अच्छे होंगे/..........खुली तिजोरी/होगी उन पर/जिनके मुंह पर होंगे ताले/रेवड़ियां/ अंधे बॉटेंगे/खायेंगे सालों के साले / राजमार्ग पर/हम जैसे सब/ खाते दिन भर गच्चे होंगे" रविशंकर पांडेय की कविता बहुत कुछ कह जाती है। कोरोना हमें पुनर्विचार करने को मजबूर कर रहा है परंतु हम जानते हुए भी विचार करने को तैयार नहीं हैं। धूमिल की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं: वे सब तिजोरियो के दुभाषिये हैं /वे वकील हैं वैज्ञानिक हैं / अध्यापक हैं नेता हैं दार्शनिक हैं /लेखक हैं कवि हैं कलाकार हैं/ यानि कि कानून की भाषा बोलता हुआ/ अपराधियों का एक संयुक्त परिवार हैं।" हम लोगों को सुनिश्चित करना होगा कि हम कहाँ पर हैं? श्रेय एवं प्रेय में से श्रेय का वरण करना होगा। झूठी बकवास जो करेगा, इतिहास उसे सबक सिखाएगा। साहित्यकारों को स्पार्टा देश के कवियों की तरह दम भरने के बजाय जमीनी स्तर की बात करें वरना जैसे विश्व के नक्शे से स्पार्टा नामक देश गायब हुआ, उसी तरह से और भी देश कोरोना के चलते अपना अस्तित्व न खो बैंठे। कोरोना एवं साहित्य के अन्तः सम्बंध को खोजें परन्तु यूटोपियाई शैली काम नहीं आएगी। समग्र पर्यावरण का ध्यान रखते हुए आगे बढ़ा जाय तो निश्चित रूप से विश्व कल्याण होगा।

 


       

प्रो. शिव प्रसाद शुक्ल

आचार्य,

हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग,

इलाहाबाद विश्वविद्यालयप्रयागराज 211002

 

 


 




6 टिप्‍पणियां:

  1. तुलसी की चौपाई सबकी निंदा जे जड़ करहीं.. का कोरोना से सम्बंध स्थापित नही किया जा सकता,ये विचार हास्यास्पद है।तुलसीदास जी तो सिर्फ इतना कह रहे हैं कि जो मूर्ख सबकी निंदा करते हैं वे जन्म चमगादड़ की योनि में होता है।शेष आलेख भारतीय संस्कृति के महत्व को प्रतिपादित करता हुआ अच्छा आलेख है।

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  2. बहुत सूचनात्मक, लाभदायक एवं knowledge से परिपूर्ण Sir.

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