रोटलो
नजराई गयो
(गुजराती
कहानी)
लेखक
- जोसेफ मेकवान
अनुवाद - डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र
सुबह
होते ही हेता का पहला काम होता रोटला बनाना; वह
हर रोज गिनकर चार रोटले बनाती। बाजरी के आटे में थोड़ा नमक मिलाकर उसे मसलती;
फिर जीव की जतन से उससे कलेड़ी (मिट्टी का छोटा तवा) भर का रोटला
बनती; रोटला अच्छी तरह से सिंक जाए, इसके
लिए चूल्हे की आँच को ठीक करती .... वह रोटलों को अच्छी तरह से झूर करती। झूर और
कड़ा रोटला नमक के बिना भी चबाने में अच्छा लगता और मीठा भी। एकाध प्याज या चुटकी
भर लहसुन-मीर्च की चटनी हो, तो भी दोपहर को ऐसा रोटला गले
में अटकता नहीं_यह हेता की अपनी सूझ थी।
चाय
की पतीली उतारकर वह चूल्हे को बुझा देती; फिर
तीन रोटलों को दोपहर के कलेवा के लिए बाँध लेती और बाकी बचे एक के दो टुकड़े करती;
फिर ‘होमवर्क’ करते बेटे
को पुकारती रघूss...! चल बेटा, एक घूँट
चाय पी ले।’
रघू
बस्ता सँभालता; सँभालकर स्लेट, किताबें, कापियाँ बस्ते में रखता; फिर सीधे जाकर हेता के सामने बैठ जाता। ‘कुरुर-कुरुर’
चबाते हुए वह एक कप चाय के साथ आधा रोटला खा लेता; उसकी जीभ लपलपाती हो, तो भी वह और रोटला नहीं माँग
पाता। हेता आग्रह करती, तो भी वह नहीं माँगता। उसे पता होता
कि अब जो मिलेगा, वह माँ के हिस्से का ही मिलेगा। इसलिए माँ
के आग्रह से बचने के लिए तथा उसका मन रखने के लिए वह एक कौर को चलीस बार चबाता और माँ
को समझाता कि हमारे मास्टरजी सिखाते हैं कि ‘चालीस बार चबाने
से भूख मिटती है, खून बढ़ता है और खाना जल्दी पचता है ...।’
बेटे
की इस समझदारी पर हेता झूम उठती है। तभी उसे दोपहर के समय बिना चबाए जल्दी-जल्दी
कौर को निगलते अपने पति धनजी की याद आ जाती है। पेट में उमड़ता-घुमड़ता सवाल एकदम
ओठ तक आकर रुक जाता है। बाकी बचे आधे रोटले को वह एक डब्बे में रख देती है;
मटकी में यदि बचा हो, तो गुड़ की एक-दो डली भी
रख देती है और फिर बड़े दुलार से कहती है ‘बेटा रघू! ई रोटला
साथ लेता जा; दुपहर में छुट्टी होने पर खाकर पानी पी लेना।’
दोपहर
को खाने की छुट्टी होने पर रघू को भूख लगती हैं। सब के साथ वह भी अपना डब्बा खोलकर
खाने बैठ जाता है। खाते समय उसका ध्यान सिर्फ अपने डब्बे पर ही रहता है। इसलिए
उसके आसपास की नजरें उसकी ओर किस भाव से निहार रही हैं,
इसका होश भी उसे नहीं रहता; पर चार-पाँच दिन
के बाद अचानक उसे महसूस होने लगा कि आसपास की नजरें उसे कुछ कुतुहलपूर्ण भाव से
निहारती हैं। उनमें वितृष्णा होती है, उपहास होता है,
मजाक होता है, हास्य होता है परंतु बिच्छू के
डंक जैसा।
थोड़े
दिनों के बाद रघु को समझ में आ जाता हैं कि सभी उससे दूर भागने की ... उससे अलग
रहने की कोशिश कर रहे हैं। दोपहर की छुट्टी होते ही सभी दौड़कर नाश्ता करने की जगह
को ऐसे घेर लेते हैं कि रघू को वहाँ बैठने का मौका ही न मिले अब उसे खाने के लिए
दूर एक कोने में खड़ा रहना पड़ता है। बंद खिड़की के आले में डब्बा रखकर वह बड़ा-बड़ा
कौर मुँह में डालने लगता है। चालीस बार चबाने की गुरुजी की सीख वह भूल जाता है।
फिर पानी पीने के लिए वह सबसे पहले दौड़ पड़ता है। उसे लगता है कि उपेक्षा और घृणा
से भरी तीर जैसी तीखी नजरें उसके बाजरी के रोटले को तिरस्कार से देख रही होंगी।
उसके पुराने-धुराने, मैले-कुचैले डब्बे को
देखकर उन लोगों को ओकाई आती है।
रघू
की चकोर नजर निहारती है -
उन
सबों के डब्बे स्टील के अथवा सुंदर रंग-बिरंगे प्लास्टिक के होते,
उनमें पूरियाँ होतीं, घी चुपड़ी रोटियाँ होतीं; सेंडविच या मक्खन लगी डबल रोटी होती; तरह-तरह की
सब्जियाँ होती, अचार होता, मिठाइयाँ
होती; मुँह में पानी आ जाए ऐसी बानगियाँ होती । रघू को तो
उनके नाम भी नहीं आते। कई बानगियों को तो उसने जीवन में पहली बार देखा था। तो क्या
उसे उनको चखने या उनके स्वाद की सिर्फ बातें ही करनी होंगी? वे
सब आपस में मिल-जुलकर एक-दूसरे की वस्तुओं को अदल-बदलकर और तारीफ कर-करके खाते- ‘तुम्हारी मम्मी के बनाए बफ तो वंडरफुल होते
हैं।‘
‘बाई गाड विपुल! तुम्हारी मम्मी की आलू की सूखी सब्जी का टेस्ट ही कुछ अलग
है।’
‘मेरी मम्मी इडली-डोसा का रेसिपी लेने के लिए तुम्हारी मम्मी के पास आने
वाली है मिंटू!’
रघू
को ये सब बातें समझ में नहीं आती; परंतु वह जो कुछ
सुनता, वह सब उसे याद रह जाता। वह उन्हें तिरछी निगाहों से
देखता, तो उसे लगता कि वे सभी भेड़िये की तरह आँखें फाड़े ‘खाँड़ा रोटला’ खाते उसे ही देख रहे हैं। कभी-कभी उसे
सुनाई पड़ जाता - ‘हंगरी डॉग!’ रघु को
यह दुर्भाव समझ में नहीं आता। शुरुआत में वह यही सोचता कि उनमें से एकाध कोई उससे
भी कहेगा ‘ला रघु, थोड़ी-सी अपनी ड्राई
ब्रेड!’ चबाकर उसकी मिठास देखेंगे, तो
वे भी माँ के बनाए रोटले की तारीफ करेंगे।
परंतु,
अरुचिकर कुतूहल से उसके रोटले को देखने के बाद कोई उसके साथ
हिस्सेदारी के लिए तैयार नहीं हुआ। उनका मौन तिरस्कार मानो पुकार-पुकार कर कहता –
‘अरे हट! दूर हट! तू हमारी बराबरी करने लायक नहीं है। तू हमारे बीच क्यों
आता है? तेरे दुर्गंध वाले रोटले को देखकर उबकाई आती है।
यह
दुर्भाव और द्वेष जान लेने के बाद तो अब रघू की हिम्मत नहीं पड़ती कि वह रोटला
लेकर स्कूल आए।
दोपहर
की छुट्टी होते ही वह सबसे दूर चला जाता है; भूख
और प्यास की तृप्ति वह पानी से ही कर लेता है। उसे भूख लगती है – कड़ाके की भूख
लगती है; परंतु सहपाठियों की तीखी नजरों को वह सह नहीं पाता
है; इसीलिए टिफिन का डब्बा लाने के लिए साफ इनकार कर देता
है। हेता यह समझ नहीं पाती कि खुशी-खुशी आधा रोटला गटक जाने वाले मेरे लाल को आखिर
हो क्या गया है?
पहले
तो हेता का बनाया रोटला उसे खूब भाता था । हेता कभी चक्की में आटा नहीं पिसवाती;
एकदम सुबह में ही उठकर अपने जाँत में ही आटा पीस लेती है। अपने हाथ
से पिसे आटे का रोटला बनाते समय तो वह उसमें अपनी पूरी जान डाल देती है। रघू को
तथा उसके बाप धनजी को और चुरचुरा रोटला ही अधिक पसंद आता है। हेता उसमें तनिक भी कमी
नहीं आने देती; उसके दोनों हाथ ‘टप्
टपा टप्’ करते ही रहते और हथेलियों के बीच आटे की लोई चनरमा
जैसा गोल आकार लेने लगती; रघू यह सब देखता रहता। परकार की
मदद से कक्षा में अध्यापक जब श्यामपट्ट पर वृत्त खींचते, तो
उसमें भी उसे हमेशा माँ के हाथ से बनते रोटले का गोल आकार ही दिखाई पड़ता।
कलेड़ी
में रोटला डालने के बाद हेता पलटे से उसे एक-दो बार घुमाती;
फिर सिंकते रोटले की सोंधी गंध नाक के रास्ते से हृदय को भर देती।
रघु सुबह में उठकर पढ़ने बैठा होता या होमवर्क’ कर रहा होता,
सिंकते रोटले की सोंधी गंध वहाँ तक पहुँच जाती और उसकी जीभ से लार
टपकने लगता फिर वह चूल्हे के पास पहुँच जाता और हेता उसका इरादा समझ जाती।
‘देख बेटा! आज तो खूब झूर कर दिया है एकदम चुरचुर! ले जरा ठंडा पड़ने दे,
तब तोड़ना। इसकी पपड़ी कइसी पापड़ जइसी चुरचुरी है। देख, जल्दी न करना; नहीं तो अंगुरी जल जाएगी।’
और
फिर एक खाँड़ा रोटला कब खतम हो जाता, रघू
को इसका ध्यान भी नहीं रहता। बस! उसकी जीभ पर सिर्फ रोटले की मिठास चटपटाती रहती।
उसके
माँ-बाप पूरे दिन की मजूरी करने के लिए जाते। सरकार ने जब से मजूरों के लिए कानून
बनाया है,
उसके बाद से तो मजूरी पर ले जाने वाले कास्तकार मजूरों को दोपहर का
रोटला भी नहीं देते। पहले तो मजूरी भी मिलती और दोपहर को खाने को भी मिलता। खाने
में मालकिन का बनाया हुआ बाजरी का बड़ा-बड़ा रोटला होता; उसके
साथ मूँग और मोथी की घुघुरी होती, या तो रहर (अरहर) की गाढ़ी
दाल होती। मालिक यदि रहमदिल होता, तो रोटले के साथ अचार की
एक फाँक या छुंदा (आम का लच्छेदार मीठा अचार) भी लाता। मरदों को दो रोटले मिलते और
औरतों को डेढ़। गोद के बच्चे को संभालने के लिए कोई दूसरा बच्चा साथ में गया हो,
तो उसका भी पालन हो जाता। हेता उन सुखी दिनों को याद कर-करके प्राय:
निसास छोड़ा करती ‘कौन जाने अब क्या हो गया? तब दिल बड़ा था
और बड़े दिल वालों की दया थी। अब तो सरकार ने जब से हमारी खातिर कानून बनाया है,
तब से न तो खाने भर की मजूरी मिलती है, न ‘रह-रहकर याद आने वाला’ वह दोपहर का खाना ही मिलता है;
... अउर ऊपर से मँहगाई इतनी जियादे हो गई है कि आगे लोग किस भरोसे
जिएंगे, इहै समझ में नहीं आता। कलजुग!...घोर कलजुग!’
इसी
एक कारण से ‘अगातम’ का
विचार करके वे भूख सहन करके भी बेटे को पढ़ाना चाहते थे लड़का होशियार था; इसी लिए एक बड़े आदमी की सिफारिश से उसको शहर के एक स्कूल में भर्ती कराया
था। तीन मील चलकर रघू बस पकड़ता है और बस में बीस मील की यात्रा करके स्कूल पहुँचता
है। शहर का स्कूल यानी अच्छी पढ़ाई-लिखाई! अच्छा है, बेटे का
भविस (भविष्य) सुधर जाएगा ‘हम तो पूरी जिनगी के लिए कमरतोड़
मजूरी ही लिखाकर लाए हैं, पर बेचारे बेटे के दिन तो फिरेंगे।’
हेता
के दिल में हाम (हिम्मत) है, पर गाँठ में दाम
नहीं है। हर रोज वह कटोरी गिनकर बाजरी निकालती है_ ‘दो रोटला रघू के बाप की खातिर;
कमरतोड़ मेहनत जो करनी है। मरद मानुस को खाना तो चाहिए न! एक खुद के
लिए एक कम थोड़े ही। अरे! आदमी खाता है, तो डकार अउरत को आती
है। एक रघू की खातिर - एक खाँड़ा सुबह के लिए; अउर एक खाँड़ा
दुपहर के लिए।’ बस! यहीं पर हेता का कलेजा फटने लगता है।
अपने पेट-जाये का वह पूरी तरह से धियान नहीं रख पाती। रघु एक खाँडा पूरा करता कि
फट् से वह अपना रोटला उसके सामने रख देती ‘ ले बेटा, एतना अउर खा ले।’
पर
रघू समझदार है; वह जानता है कि माँ को सारे दिन
मेहनत करनी है। वह कहता है ‘बस माई! पेट भर गया है; अब भूख ही नहीं है।’ और फिर वह सचमुच डकारने लगता
है।
हेता
के मुँह से एक आह निकल जाती है ‘भगवान्! अइसा
अकारथ जीवन तूने हमारे लिलार पर काहे को लिख दिया?’
परंतु
अब हेता की चिंता बदल गई है। आह भरने की उसकी किस्मत भी उसके भगवान् ने उससे छीन
ली है। उल्टे अब तो इतने प्रेम से तैयार किए गए उसके रोटले को खाकर आतों की आग को
बुझाकर दिन का शुभारंभ करने वाला रघू अब तो साफ इनकार कर देता है। जिस उमंग से वह
रोटला खाता था, वह उमंग मानो लुट गई है। रघू अब
भी खाता तो है, पर लगता है माँ का मन रखने के लिए खाता हो ।
भूखे नहीं रहा जा सकता, इसलिए मजबूरी में खा रहा हो; उसके चेहरे पर पहले जैसा हरख नहीं दिखता।
हेता
को कुछ समझ में नहीं आता; उसे लगता है कि उसका
रघू अब कुम्हलाता जा रहा है; उसे यह शंका होने लगी है कि
उसके दमकते चेहरे की लाली अब सूखने लगी है। लगता है, उसके
रोटले को किसी की नजर लग गई है। नहीं तो खाने की तरफ से मुँह काहे मोड़ लेता?
हेता उसके चेहरे पर मरिचा ‘अँइछ’ कर आग में जलाती है। एक बाभन को और एक गाय को रोटला खिलाने की मनौती मानती
है; उसका हृदय आर्तनाद कर उठता है ‘अपने
बेटे की खातिर दो बखत उपास कर लूँगी; किरपा करो परभू!’
पहले
तो रघू घर आकर स्कूल की हर एक छोटी-बड़ी बात माँ-बाप को बताता;
जो कुछ पढ़ता, उसे बार-बार याद करता; अंग्रेजी शब्दों की स्पेलिंग रटता; हेता और धनजी को
नजरों के सामने वैकुंठ दिखाई पड़ने लगता; उन्हें लगने लगता कि
बेटा पढ़-लिखकर जरूर बालिस्टर बनेगा; हेता का भरोसा और पक्का
हो जाता। वह दोनों हाथों को लिर पर रखकर आसमान की ओर देखती और आँखें बंद कर लेती।
धनजी सोचता ‘अब बुढ़ापे में टाँगें नहीं घिसनी पड़ेंगा;
जनम सवारथ हो जाएगा।’
इस
साल बरसात थोड़ी देर करने लगी। तब चिंता का मारा धनजी आँखों पर हथेली की छाया करके
आसमान की ओर देखते हुए बोला ‘बारिस के बादर
कहीं दिखाई नहीं देते हेती! दइब जाने ई साल काs होगा।’ और हेता जवाब में कुछ
कहे, उसके पहले ही किताब पर से नजर हटाकर रघू बोल पड़ा ‘दक्षिण-पश्चिम की हवा बारिश लाती है बापू! तुम्हारे बादल नहीं; बारिश आएगी, हवा का दबाव जरा कम होने दो।’ धनजी और हेता दोनों जन यह सुनकर अवाक् रह गए थे। हेता ने पति की ओर देखा;
फिर बोली ‘अजी सहर की पढ़ाई है; ... सहर वाले अइसे ही राज नहीं करते! इसका नाम गियान है।’
पर
एक बार हेता झटका खा गई थी। कुछ लिखते-लिखते रघु माँ की ओर देखकर बोला था ‘अपना यह घर ‘हाउस’ नहीं है
माँ! ... इसे होम भी नहीं कहेंगे; यह देखो ‘हैपी होम’ का चित्र! अपने घर में और इसमें कितना फरक
है! हाँ इसे ‘हट’ जरूर कहेंगे। ‘हट’ मतलब झोंपड़ी। मैं घर के बारे में निबंध लिख रहा
हूँ माँ!’
बेटे
के मुँह से पहली बार ऐसी बातें सुनकर हेता उछल पड़ी थी;
वह तो हक्का-बक्का रह गई थी। उसके मन में सवा लाख का सवाल उठा - ई
लरिका कहीं उलटा-सुलटा तो नहीं न पढ़ रहा है?’ ‘हट यानी
झोंपड़ी’ बोलते समय रघू की आवाज में कुछ ऐसा था, जो हेता समझ न सकी; वह अंदर तक विचलित हो उठी।
उस
रात हरारत की वजह से धनजी थोड़ा ढीला था।
अजी,
सुनते हो? लगता है अपना लाल कुछ उलटा- सुलटा
ही पढ़ रहा है। आज वह अपने ही घर को झोंपड़ी कह रहा था; अउर
मुझे तो ‘हट-हट’ बोल रहा था ।
करवट
बदलकर धनजी ने जम्हाई ली - ‘दुविधा छोड़कर
चुपचाप सो जा। उसकी पढ़ाई-लिखाई में अपनी बुद्धि काम नहीं करेगी।’
‘पर अब तो रोटला भी साथ नहीं ले जाता; सिरफ सुबह में
खाता है; अउर ऊ भी बेमन से मैं कितना गिड़गिड़ाती हूँ;
पर मुझे बोलने ही नहीं देता।’
‘रोटला तो तू बाँध ही दिया कर! अभी नया खून है; भूख
लगेगी, तो खा लेगा। पढ़ाई बहुत मुसकिल है। चिंता के मारे
बेचारा खाता नहीं होगा।’ बोलते-बोलते धनजी ने करवट बदली और
उसकी आँख लग गई।
हेता
देर तक खुली आँखों से शून्य को निहारते चित्त पड़ी रही। कोने में खटोले में रघू
गहरी नींद में सो रहा था।
सुबह
में रघू की आँखें एतराज करती रही; फिर भी हेता ने
टिफिन के डब्बे में खाँड़ा रोटला भर दिया और रघू जब बस्ता उठाकर चलने को तैयार हुआ,
तो वह बोली, ‘ले बेटा! इसे साथ लेता जा।... जो
मिलता है, उसे खा लेना चाहिए मेरे लाल!
‘मैं नहीं ले जाऊँगा। एक बार कह दिया न! मैं...।’
‘बेटा! पहले तो तू रूखा-सूखा खा लेता था; पर अचानक
तुमको ई काs हो गया है कि अब तुम्हें रुचता ही नहीं
मैं
तुमसे मिन्नत करती हूँ मेरे लाल!. .अंदर गुड़ भी रखा है।
‘रोटले के सिवा तुम्हें दूसरा कुछ सूझता ही नहीं; सुबह
में भी रोटला;...शाम को भी रोटला।’
डबडबाई
आँखों से हेता बेटे के रूठे हुए पद-चिह्नों को देखती रही। सारे दिन उसे भाले की
नोंक की तरह यह सवाल चुभता रहा ‘रोटले के सिवा
तुम्हें दूसरा कुछ सूझता ही नहीं?’ कहाँ से लाऊँ और कउन-सी
नियामत ( न्यामत) बनाऊँ इसके लिए।
उस
रात धनजी मालिक के खलिहान में फसल की रखवाली के लिए रुक गया था। हेता ने कंट्रोल
की दुकान से मिला गेहूँ निकाला; उसे बीनकर साफ
किया; फिर थोड़े की दलिया और आधा सेर का आटा बनाया। फिर
टुकड़ी की दलिया पकाई और आटे का कंसार बनाया। पर रंग उसका ऐसा हो गया कि देखने में
अच्छा न लगे। ‘ढिबरी (माटी का दीपक) की रोशनी में रंग का पता
नहीं चलेगा’ यह सोचकर उसने मन को मनाया।
शाम
को उसने बड़े प्रेम से रघु को खाने के लिए बैठाया। आधी थाली में दलिया परोसा और एक
किनारे पर कंसार रखकर बोली, ‘देख बेटा! आज मैंने
तेरे लिए कुछ नयी चीज बनाई है। खा मेरे लाल!... अन्न देवता पर कभी गुस्सा नहीं करते
बेटे! ’
सुबह
के भूखे पेट रघू को गरम-गरम कंसार का दो-चार कौर बहुत अच्छा लगा। उसी भाव में मानो
माँ को मना कर रहा हो, इस तरह बोला, ‘गेहूं है, तो उसकी रोटी बनाती; तो क्या मैं ले नहीं जाता...?’
हेता
समझ गई;
उठते निसास को अंदर दबाते हुए समझाने के स्वर में बोली, ‘देख बेटा! इस कंसार और दलिया में दो बूँद तेल होता, तो
यह रूखा-सूखा भी गले से उतरता। यह गरम-गरम हैं, तभी तक दो-एक
कौर गले से नीचे उतरेगा नहीं तो तुरंत बाहर आ जाएगा। इस गोहूँ की रोटी बना तो सकती
हूँ; पर बेटा, तेल के बिना बनाऊँ कैसे?
सीसी में बूँद भर भी तेल नहीं है। घी की तरह तेल भी हमारे लिए दुरलभ
हो गया है बेटा!... हम तेल पर पइसा नहीं खरच सकते;... अउर ई
तो ढिबरी की मद्धिम रोसनी में तुमको पता नहीं चलता; नहीं तो
रासन के गोहूँ की बिना तेल की रोटी दुपहर तक अइसी चिम्मर हो जाएगी कि बहुत मुस्किल
से टूटेगी;... अउर फिर काली अइसी कि उसे देखकर तुम्हें मुँह
में डालने की भी इच्छा नहीं होगी। गरमी की बाजरी का रोटला देखने में भी उजला लगता
है;...अउर
हेता
के शब्द रघु के कान के आर-पार निकले जा रहे थे और उसके दिमाग में हलचल मचा रहे थे।
उसकी आँखों के सामने बीच की अंगुलियों में दबाकर तर्जनी तथा अंगूठे की मदद से
ग्रास तोड़ते उसके सहपाठी दिखाई देने लगे। वो कौन-सा गेहूँ होगा;
जिसका रंग तो मुह में पानी ला देता था! वह किस हवा-पानी में पकता
होगा? वो लोग जिस टेबल पर खाते हैं, वह
भी तेल से चिकट गया होगा। उनको तेल की कमी क्यों नहीं होती? तेल
टपकते नये-नये व्यंजन उनके यहाँ कहाँ से आते होंगे?
बीच में ही
रुके हुए रघु के हाथ को देखकर हेता ने उसे टोका ‘कउन- से विचार में पड़ गए बेटा! जो रुचे वो खा ले।’
माँ
की बात रघु की समझ में आ गई; ठंडा हो गया
कंसार अब मुँह में चिपक रहा था। जैसे तैसे करके उसने पाँच छ कौर दलिया गले से नीचे
उतारा। उसकी थाली में जो कुछ बचा था, उसे हेता ने खुद खाया
और बाकी बची दलिया और कंसार धनजी के लिए खलिहान में भेजा।
लालटेन
के उजाले में रघू भूगोल की किताब के पन्ने पलट रहा था। वह पैदा होने वाले गेहूँ की
किस्मों को जानना चाहता था। दक्षिण भारतीय लोगों का मुख्य खुराक भात होता है और
पंजाबी लोगों का गेहूँ तो फिर गुजरातियों में उसकी गिनती होती है कि नहीं यह सवाल
उसे उलझन में डाले हुए था; तभी बिना तेल के उसके
रूखे बालों में स्नेहपूर्वक उँगलियाँ फिराते हुए हेता बोली, ‘जियादे विचार मत कर बेटा! पहले दुख-तकलीफ सह करके पढ़-लिख ले; बाद में सब ठीक हो जाएगा।
सुबह
होते पड़ोसी के कंधों का सहारा लेकर हिलता-काँपता धनजी घर आया। उसकी हरारत तेज
बुखार में पलट गई थी। थरथर काँपते पति की ठंड दूर करने की हड़बड़ी में हेता रोटला
बनाना भी भूल गई। वह अभी सिर्फ चाय का पानी ही उबाल रही थी कि तभी रघू उसके सामने
आकर बोला,
‘माँ! बस का पास ...।’
हेता
चूल्हे की आँच की ओर देखती रही; फिर उठकर पटरे
के नीचे दबे मुड़े-तुड़े कागजों में से नोट निकाले; पाँच-पाँच
के तीन नोट थे; अभी पाँच रुपया कम पड़ता था इसके लिए वह
पड़ोस में दौड़ी। वापस आई, तो उसके चेहरे पर झेंप साफ दिखाई
पड़ती थीं। पाँच के चिल्लर तथा पाँच के तीन नोट उसने रघू के हाथ में रख दिए।
उस
दिन चौथा पीरियड खेलकूद का था; और उसके बाद
दोपहर की लंबी ‘रिसेस’ होने वाली थी ।
रघू ने बस का पास निकलवाने के लिए छुट्टी ले ली। एकदम खाली कक्षा में वह बस्ते में
से पुराना पास निकाल रहा था, कि तभी उसकी नजर मिंटू के बस्ते
में से झाँकते प्लास्टिक के डब्बे पर पड़ी। उसने लाख कोशिश की, उसकी नजर तो वहाँ से हटी, पर उसका मन नहीं हटा ‘वे सब चटकारें ले-लेकर, तारीफ कर-करके खाते हैं,
तो उसका स्वाद कैसा होता होगा?’
वह
अपने मन के साथ लड़ता रहा। तभी उसके दिमाग में एक विचार कौंध गया। इधर -उधर देखा
और मिंटू का डब्बा पीछे वाली खिड़की के बाहर रख दिया;
फिर सामने से बाहर निकला और उसके बाद तो उस डिब्बे को पंख ही लग गए।
रास्ते
में विचार आया कि बस स्टैंड पर और लोग भी होंगे। फिर कहाँ बैठकर खाऊँ?
सामने ही नगरपालिका के अस्पताल की सीढ़ियाँ सूनी दिखाई पड़ी;
वहीं बैठकर उसने नाश्ता खतम किया। कभी चखने को भी न मिले_ऐसा अद्भुत
स्वाद!
पास
निकालकर जब वह स्कूल में आया, तब पाँचवाँ
पीरियड चल रहा था; और मिंटू शिकायत कर रहा था कि किसी ने
उसके नाश्ते का डब्बा चुरा लिया है। परंतु अंग्रेजी के अध्यापक पढ़ाने के मूड में
थे; इसलिए बोले, ‘घर से ही नहीं लाया
होगा; घर पर ही भूल आया होगा।’
नहीं सर! यह
लाया था;
हमने देखा था।’ कितने ही स्वर एक साथ साक्षी
देने लगे। उन सब की नजरें रघू को वेध रही थीं; पर सीधे कहने
की किसी की हिम्मत नहीं होती थी।
‘ठीक है। अपने क्लास टीचर से शिकायत करना ।’कहकर वे
चले गए क्लास टीचर का पीरियड आखिर में आया।
शिकायत
हुई,
तो वे हँस पड़े ‘अब तो छूटने का समय हुआ;
घर जाकर खा लेना ।’
बस
में बैठने के बाद रघू को अपने आप पर गुस्सा चढ़ा। आज दोपहर के बाद सौ आखें एक साथ
उसे बेध रही थीं। उस समय किसी की ओर नजर उठाकर वह देख नहीं सका था।
कबड्डी
में कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता था; क्रिकेट
के शिक्षक कहते ‘रघू! तुझे उचित प्रशिक्षण मिले, तो तू दूसरा करसन घावरी बनेगा।’ भूगोल के अध्यापक
पहला सवाल उसी से करते; संस्कृत के पंडित शुद्ध उच्चारण के
साथ उसे श्लोक बोलते सुनकर सिर पर हाथ रख लेते। अंग्रेजी के सर उसकी कुशलता से
चिढ़ उठते; गणित के अध्यापक शंका करते हुए हमेशा यही पूछते
कि तू ट्यूशन किसके पास पढ़ता है? कक्षा में वह सीना तान
सकता था; फिर भी उसे एहसास हुए बिना नहीं रहता कि एक गुजराती
के अध्यापक को छोड़कर दूसरा कोई उसे उचित मौका या प्रोत्साहन नहीं देता।....और
सहपाठी तो सभी जल उठते थे। वे सभी उसको, उसके कपड़े को,
उसके अद्भुत कौशल को तथा उसके रोटले को हिकारत की नजर से देखते थे।
मिंटू के चेहरे पर भूख की प्रतीति नहीं हो रही थी; पर रघू के
मन में जहाँ कुछ कचोट रहा था, तो वहीं कुछ अच्छा भी लग रहा
था।
उस
शाम रघु जब घर पहुँचा, तब उसके बापू की हालत
अधिक खराब थी। घर में दवा के लिए पैसे न थे। हेता ने गेहूँ का राब बना रखा था।
धनजी के गले में वह नहीं उतर रहा था; पर हेता को दुख न हो,
इसलिए वह कटोरे में जितना था, उतना खा गया;
और दूसरे ही पल उसे उल्टी हो गई।
‘मैं मना कर रहा था; पर तू नहीं मानी। दो दिन उपास करूँगा,
तो बुखार अपने आप उतर जाएगा।’ कुल्ला करके धनजी
ने करवट बदल ली।
बाप
की हालत देखने के बाद दोपहर की कसक रघु को और अधिक पीड़ित रह रही थी। हेता के
आग्रह करने के बाद भी उसने राब नहीं खाया।
‘पहले
तू पढ़-लिख कर लाट साहब बन जा; उसके बाद अपने
मन लायक खाना खाना; ...इस समय मेरा खून मत पी।’ हेता के मुँह से अकारण मन की भड़ास निकल गई।
उस
रात तीनों जन जागते रहे। धनजी तेज बुखार होने के कारण आकुल-व्याकुल हो रहा था। उधर
हेता,
बेटे के मन को अकारण चोट पहुँचाने की वजह से कलप रही थी; और रघु मन ही मन फिर कभी कोई गलत काम न करने का निश्चय करने में लगा था।
गुजराती के अध्यापक ने आज अखा भगत की उक्ति सिखाई थी - काचो पारो खावुँ अन्न। तेवुँ
छे चोरी नुँ धन ।।
अगली
सुबह रघू ने खुद ही पूछा, ‘आज रोटला नहीं बनाया
माँ?’ हेता की आँखें भर आई ‘तीन दिन से
तेरे बापू खाट पर पड़े हैं; दो दिनों से मैं भी काम पर नहीं
गई; ... आज आटा नहीं है बेटा! तेरा पास निकलवाया न कल ...।’
बंद
होठों में रघू हँसा; और स्कूल चला गया।
वह
कक्षा में पहुँचा; आज उसने मिंटू को
बहुत खुश देखा; विपुल के हाथ ताली देते हुए वह उससे कुछ कह
रहा था। रघू के मन में आया कि चलो चलकर उससे माफी माँग लूँ; ... पर अभी नहीं;... रिसेस में माँग लूँगा। पहला पीरियड
अभी पूरा होने वाला ही था कि तभी मिंटू के पापा डॉ. अमीन कक्षा में आए। उन्होंने
क्लास टीचर से कुछ बातें की; फिर वे दोनों प्रिंसिपल के ऑफिस
में गए। थोड़ी देर के बाद चपरासी आया और मिंटू तथा रघू को बुलाकर ले गया। उनके
बाहर निकलने के बाद इधर विपुल अपने सहपाठियों को कुछ समझा रहा था; और उधर ऑफिस की तरफ बढ़ते रघु के पाँव मानो फाँसी के तख्ते की ओर जा रहे
थे।
प्रिंसिपल
की मेज पर मिंटू की टिफिन का खाली डब्बा पड़ा था; और कंपाउंडर गवाही दे रहा था ‘यह लड़का कल अस्पताल
के पिछवाड़े के जीने पर बैठकर इसी डब्बे में से नाश्ता खा रहा था। पानी पीकर नल के
पास ही इसने डब्बा फेंक दिया था।’
प्रिंसिपल
ने पूछा,
‘अब बोल, तुझे क्या कहना है?’
रघु
की आँखें भर आईं; तभी डॉ. अमीन का स्वर
सुनाई पड़ा ‘आप इसे रिस्टिकेट कीजिए साहब! ऐसे चोट्टे के साथ
हमारी सोसाइटी के संस्कारी लड़के पढ़ेंगे, तो उनका भी
संस्कार विगड़ेगा। शिक्षा संस्कार डालने के लिए होती है, चोरों
के लिए नहीं।’
मर्द खाते हैं तो औरतें डकार लेती हैं ...और शिक्षा संस्कार डालने के लिए होती है , चोरों के लिए नहीं ..। अच्छी पंक्तियों से इस कहानी में जिन्दापन है ।
जवाब देंहटाएंबधाई ।
बहुत अच्छी कहानी। शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी कहानी है सर
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