हिन्दी मात्र हमारी मातृभाषा, राजभाषा, राज्य भाषा एवं सम्पर्क भाषा ही नहीं,
अपितु यह हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर है।
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भाषायी (हिन्दी) विकास एक तरह से हमारी संस्कृति का विकास है। क्योंकि भाषा
संस्कृति का अभिन्न अंग होती है।
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हिन्दी अध्यापक, हिन्दी साहित्यकार, हिन्दी अधिकारी तथा हिन्दी विद्वान होना सामान्य बात है। परन्तु हिन्दी सेवक
होना सामान्य बात नहीं है।
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किसी भाषा (हिन्दी) में दूसरी भाषाओं के शब्दों की सहजता से
स्वीकार्यता(प्राय: तत्सम रूप में) उसको महान बनाती है।
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केवल कविता लिखना ही हिन्दी सेवा, साहित्य सेवा तथा भाषा सेवा नहीं है।
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हमारी वेशभूषा तथा भाषा-शैली हमारे व्यक्तिव के महत्वपूर्ण कारक हैं ।
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हमें ‘हिन्दी’ को देश में जन-जन तक पहुँचाने के लिए, इसका सरल एवं सहज रूप अपनाना होगा।
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किसी भाषा की बोलियाँ उसको समृद्ध करती हैं। अत: बोलियों का विकास,
भाषा का विकास है और भाषा का विकास बोलियों का विकास है।
डॉ. अशोक गिरि
बी-36,
बी.ई.एल. कॉलोनी,
कोटद्वार
(उत्तराखण्ड)
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