सोमवार, 18 अक्तूबर 2021

संस्मरण

 


कंजक - मीठी याद

डॉ. पूर्वा शर्मा

         अब कौन-सी आंटी के घर जाना है ?.....

चल... इधर...  यहाँ चलना है अब ....

पर मेरा तो पेट भर गया....

अरे ! जल्दी चल.... देर हो रही है ....

कुछ कन्याओं के स्वर कान में गूँजे, खिड़की से झाँककर देखा तो आलता लगे नन्हें पाँव दिखाई दिए, उन छोटे-सुंदर पैरों का आकर्षण इतना अधिक था मुझसे रहा न गया और मैंने उठकर बालकनी से देखा तो तीन-चार लड़कियाँ अपने कोमल-नन्हें हाथों में कुछ उपहार एवं रुपये सँभालते हुए पड़ोस के घर से बाहर आती दिखाई दीं। इन छोटी बालाओं को देखकर होंठों पर मुस्कान आ गई और मन प्रसन्न हो गया। वे आपस में बातें कर रही थीं कि अब उन्हें किस के घर जाना है। नवरात्र की अष्टमी-नवमी के दिन यह दृश्य प्रायः हर गली में देखा जा सकता है। लेकिन आज उन्हें देखकर मेरे बचपन की स्मृतियाँ जीवंत हो उठी और सहसा हलवा-पूरी-छोले की गंध से मन महकने लगा। यादें कितनी मीठी होती हैं!

हर स्त्री कभी न कभी कन्या के रूप में कंजक का हिस्सा बनती ही है। कभी मैं भी बनी थी। मैं और मेरी छोटी बहन नवरात्र में अष्टमी-नवमी के दिन लगभग चार-पाँच घरों में जाया करती थीं। कभी-कभी यह संख्या सात-आठ तक भी पहुँच जाती थी। छोटे से पेट के लिए इतने घरों में खाना खाना मुश्किल हो जाता था। लगता था एक भी दाना और खाया तो पेट फट जाएगा। इसलिए हम बहनें एक ही प्लेट में से थोड़ा-थोड़ा खा लेती क्योंकि यदि न खाएँ  तो घाटा हो जाएगा और उपहार-रुपये सब हाथ से चले जाएँगे। हम दोनों सुबह नौ-साढ़े नौ बजे से निकल जाती और साढ़े बारह-एक के बीच ही घर पहुँचती।

उन दिनों हम सेल्स टैक्स कॉलोनी में ही रहा करते थे क्योंकि मेरे पिताजी सेल्स टैक्स में कार्यरत थे। कॉलोनी बहुत बड़ी थी। इसलिए नवरात्र में कई घरों से हम बहनों को न्योता आता था। स्थिति तो तब भी वही थी जो आज है; यानी कन्याओं की कमी।

हम जहाँ भी कंजिकाएँ बनकर जातीं हमारे पैर धोकर आलता लगाया जाता और खाना खिलाकर हमें कुमकुम की बिंदी लगायी जाती। फिर लोग हमारे पैर छूते और उपहार भी देते। उस समय एक बात मुझे समझ में नहीं आती थी कि जब हमारे घर कोई मेहमान आता तो हमें उनके पैर छूकर प्रणाम करना पड़ता था लेकिन नवरात्र के उन दो दिनों में हम से बड़े हमारे पैर छूते थे; ऐसा क्यों ? इस बात ने मुझे बहुत समय तक उलझन में रखा।

मुझे आज भी याद है कि मैं और मेरी बहन सुबह-सुबह तैयार होकर निकलती और निकलने के पहले से ही माँ हिदायत देने लगती कि पहले किसके घर जाना है और उसके बाद किसके...।  माँ यह भी कहती कि देखो फलाँ आंटी का घर मत भूल जाना! हम हाँ-हाँ करके जल्दी से घर से निकल जाती। कुछ घरों में जाना हमें अधिक पसंद था, क्योंकि उनके यहाँ के  खाने का स्वाद हमें पसंद था। कुछ घरों में जाना इसलिए अच्छा लगता था क्योंकि उन आंटियों से हमारी बनती थी। और कुछ घरों में तो सिर्फ माँ के कहने पर, बस मजबूरी में ही जाना पड़ता था। न तो वहाँ का खाना पसंद और न ही उन आंटियों से हमारी बनती थी। वहाँ जाने का सिर्फ एक ही लालच रहता था कि हमारे गुल्लक की वजन बढ़ जाएगा। ऐसे में हम उन आंटियों के घर सबसे आखिर में जाती थीं। उनके घर अंत में जाने का कारण बहुत साफ़ था कि उनके यहाँ जाकर बोल देती थीं कि इतनी जगहों से खाकर हम आ रही हैं कि अब पेट में तिल भर जगह नहीं फिर भी एक-दो निवाला प्रसाद के रूप में खाना ही पड़ता और दक्षिणा लेकर चली आती थीं। गली के कोने के घर में रहने वाली आंटी के यहाँ जाना हमें बहुत पसंद था उसका कारण था कि वो सिर्फ फल देती थी तो खाना खाने का झंझट हीं नहीं रहता। पैसों के साथ कभी रुमाल या कुछ दूसरे उपहार भी मिल जाते इसलिए उनके यहाँ जाना हमें अधिक पसंद था।

किसी के घर से बाहार निकलते ही हमारा पहला काम होता था पैसों की गिनती। साथ गईं दूसरी कन्याओं से भी हम पूछ लेती थीं कि उन्हें कितने रुपये मिले। यदि उनके पास ज्यादा रुपये निकलते तो हमें दुःख होता कि हमें किसी आंटी ने क्यों नहीं बुलाया। उसके बाद हम सभी लड़कियाँ साथ-साथ अगले घर के लिए निकल पड़ती।

अपनी कॉलोनी में हम सभी कन्याएँ घर-घर पैदल ही जाती थीं लेकिन एक बार थोड़ी दूर के क्वार्टर से न्योता आया। उस समय एक अंकल हम छ-सात लड़कियों को ऑटो में बैठाकर वहाँ ले गए। ऑटो की सैर से हम बड़े खुश थे, सच में वह उस समय लक्ज़ुरी थी। इस बार वहाँ हमें उपहार के साथ-साथ दक्षिणा भी ज्यादा मिली। उस दिन तो जैसे जेक-पॉट लगा, मज़ा ही आ गया।

चूँकि हम बहनें कहीं भी एक साथ ही जाती थी ऐसे में स्वाभाविक था कि हिसाब बराबर होना चाहिए यानी दोनों के रुपये की गिनती एक-सी होनी चाहिए और होती भी थी। एक बार मेरी छोटी बहन मुझे छोड़कर एक आंटी के यहाँ अकेले चली गई तो उसके पास कुछ पैसे ज्यादा हुए तो मुझे बहुत गुस्सा आया।

घर आने के बाद हम दोनों बहनें जानबूझकर भाई के सामने बैठकर अपने पैसों की गिनती किया करती थीं। उसके सामने रुपये गिनने का मज़ा ही अलग होता था क्योंकि उस दिन तो उसे तो कुछ न मिलता था और फिर वह हम दोनों से चिढ़ता-खीजता था। हमें यह काम उस समय Women empowerment (वूमेन इनपॉवरमेंट) की-सी शक्ति देता था।  

आज भले ही हमें कितने ही ज्यादा बड़े नोट और बड़े गिफ्ट मिलते हैं लेकिन उन सिक्कों की तुलना में यह सब मामूली लगता है। आज भी दिल के गलियारों में वो कंजक-सा भोला मन उन सिक्कों और छोले-पूरी के लिए तरसता है।



डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा


4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह नवरात्रि दुर्गा पूजा के अवसर पर कन्या भोज का मीठा अनुभव । आज भी गुदगुदी देते है ये प्रसंग । इन दिनों तो श्रद्धालुओं को 9 कन्याएं मिलना दुश्वार हो गया है । बहुत अच्छा लेख । बधाई पूर्वा, मुझे भी 89 -90 की सेल्स टैक्स कॉलोनी की यादें ताज़ा हो गई ।

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  2. बहुत सही चित्र उकेरा आपने ! सुन्दर, मधुर यादें ।अष्टमी-नवमी पूजन पर यही स्थिति थी , है और रहेगी ....👌😊

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  3. बहुत ही सुन्दर विषय... लिखा भी दिल से और दिल में उतर गया आपका संस्मरण!
    दिल से बधाई प्रिय पूर्वा जी!

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