डायरी के पन्ने….
प्रो. बीना शर्मा
जी हाँ, ये पन्ने एक शिक्षक की डायरी के हैं। इस लिखावट में
समाये हैं अध्यापक के सपने जो उसने अपने विद्यार्थियों के लिए देखे। सच मानिये ये वे सपने हैं जो उसके अध्ययन काल
में पूरे नहीँ हो सके। जैसे विद्यालय की
कल्पना की थी उसने, कक्षा का जो स्वरूप उसके मन में रचा बसा था,अध्यापक से जैसी अपेक्षाएँ थी उन सब को पूरे करने का मधुर
स्वप्न वह देखता है और उसे पूरा करने में अपनी सारी शक्ति सारी ऊर्जा लगा देता है।
कितना बुरा लगता था उसे जब टीचर कॉपी पर लिखे
को लाल पेन से काट देता था। बाल मन कितना
मायूस हो जाता था। उसे पता ही नहीं चलता
था कि मैंने गलत लिखा है तो सही क्या है
कोई तो बता देता कि सही उत्तर कैसे लिखा जाता है। घर से लेकर स्कूल तक सबके पास केवल डाँट और
आलोचना होती थी तुम्हें ये भी नहीं आता। हाँ नहीं आता तब ही तो सीखने आए हैं। पहले तो कॉपी
पर बने लाल लाल गोले मुँह चिढ़ाते थे और उसके बाद डाँट और मार भी बे भाव की
पड़ती कि दिन में ही चंदा सूरज सब
नज़र आ जाते। आँसू भरे चेहरे को हथेलियों
से पोंछते रहते। बस ब्लैकबोर्ड पर जो लिख
दिया या पुस्तक में प्रश्न के उत्तर का निशान लगवा दिया कि यहाँ से यहाँ तक उतार लेना.... किसी विद्यार्थी ने कुछ अतिरिक्त प्रश्न पूछ लिया तो
उस पर बरस पड़े.... अरे पहले उतना तो सीख लो याद कर लो जितना कोर्स में है। गधे घोड़े एक ही लाठी से हाँके जाते थे। जो कमजोर थे उनकी सहायता के लिए कोई
नहीं था। हाँ ,उन का नाम सब धर
देते थे।
जब खुद अध्यापक बने तो पहला संकल्प लिया कि कक्षा के सबसे
कमजोर विद्यार्थी पर सबसे अधिक ध्यान देना है। उसके मन में छुपे भय को, झिझक को दूर करना है। उसे औरों के समकक्ष ला खड़ा करना है। केवल कॉपियों पर लाल पेन से काट पीट ही नहीं
करनी, बड़े-बड़े गोले ही नहीं बनाने । गलती को सही रूप से लिख भी
देना है जिससे वह सही रूप जान सके,उसका अभ्यास कर सके। गलती का सुधार कर सके। प्रश्नों के उत्तर पाठ में से स्वयं खोज सके। उसे अपने शब्दों में लिख सके । उत्तर ही नहीं
पाठ से स्वयं प्रश्न भी बना सके। पाठ के
बाद दिए गए अभ्यास को कर सके। एक ऐसी
पाठशाला हो जहाँ विद्यार्थी रोचक तरीके से सीख सके। पढ़ाई बोझ न हो
लगे। घर से स्कूल आते प्रसन्नता हो।
वह स्कूल के समय का बेसब्री से इंतजार करें।
जो सपने देखते हैं वे देर सबेर अपने सपनों को पूरा भी कर ही
लेते हैं। आपके मन में कुछ करने की इच्छ तो जागे। आप अपने विद्यार्थियों के साथ रेपर्ट तो बिठा पाएँ।
उन्हें समझने की कोशिश तो करें उन्हें
सिखाना तो चाहें । उनके लिए कोई योजना तो हो आपके पास। आपका मन तो रमे पढ़ाने सिखाने में। पढ़ाना आपका जुनून तो बनें। आप
उबासी लेते ढीले पीले से चले आते हैं। काम को बोझ समझ कर बेमन से करते हैं
कि बस हो गया। सच पूछो तो आपका काम में
दीदा लगता ही नहीं है। ।
आपने सपने देखे होते तो उन्हें पूरा करने की कोशिश भी करते।
आप तो जैसे तैसे नौकरी करने आते हैं । बस उसे पूरा करते हैं बातें बनाते हैं जहाँ
तक सम्भव हो काम से बचने की जुगाड़ करते हैं। पढ़ाना और पढ़ाने की नौकरी करना दो अलग अलग
बातें हैं। जिन्हें पढ़ाने में आनंद आता
है,
पढ़ाना जिनका शगल होता है ,वह अवसर की तलाश में
रहते हैं। पढ़ाने में उन्हें आनंद
आता है । वे डूब कर पढ़ाते हैं। उन्हें विद्यार्थी कुछ रोल नंबर से नहीँ पुकारना होता। सबके चेहरे
उन्हें याद रहते हैं और नाम उनकी ज़ुबाँ पर चढ़ जाते हैं। कभी सपने देखने का जोखिम उठाये और फिर उसे पूरा
करने में अपना सर्वस्व लगा दे। सच मानिये
इतना सुकून मिलता है कि उसे शब्दों की सीमा में नहीँ बाँधा जा सकता।
प्रो. बीना शर्मा
पूर्व निदेशक, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
संप्रति विभागाध्यक्ष अंतरराष्ट्रीय हिंदी शिक्षण विभाग
केंद्रीय हिंदी संस्थान
आगरा
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