शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

विशेष

 


नयी काव्य शैली ‘तेवरी’: आंदोलन और स्वरूप

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

11 जनवरी, 1981 को पुरुषोत्तम दास टण्डन हिन्दी भवन, मेरठ के सभागार में लगभग पचास रचनाकारों की एक गोष्ठी में तेवरी काव्यान्दोलन की भूमिका बनी। इसमें बृ. पा. शौरमी ने कविता की वर्तमान स्थिति को लेकर कुछ चिंताएँ व्यक्त कीं और ऋषभ देव शर्मा ने नए कलम-युद्ध का उद्घोषशीर्षक एक पर्चा प्रस्तुत किया जिसमें नई धारदार अभिव्यक्ति वाले रचनाकर्म की आवश्यकता को प्रतिपादित किया गया और ऐसी रचनाओं के लिएतेवरीनाम प्रस्तुत किया गया।

इस गोष्ठी को बुद्धिजीवियों के बीच गम्भीरता से लिया गया और पत्र-पत्रिकाओं ने नए तेवर वाली रचनाओं को उत्साह से प्रकाशित करना शुरू किया। रचनाकारों ने समय-समय पर गोष्ठियाँ आयोजित की और नए तेवर की रचनाओं के लिए नई दिशायें प्रस्तुत की। इससे तेवरी काव्यान्दोलन की वैचारिक पृष्ठ-भूमि तैयार हुई।

जब अधिसंख्य समशील रचनाकार नए काव्यान्दोलन की आवश्यकता के प्रश्न पर एक मत हो गए, तब डॉ. देवराज ने इसका घोषणा पत्र तैयार किया और 11 जनवरी, 1982 को इसे खतौली (उत्तर प्रदेश) से जारी कर दिया गया। रचनाकारों ने इस पर विचार किया और इसे स्वीकृति दी। 24 जनवरी, 1982 को नजीबाबाद में बड़े स्तर पर तेवरी-गोष्ठी आयोजित हुई, जिसमें विभिन्न तेवरीकारों ने वहाँ के रचनाकारों के समक्ष अपने विचार प्रस्तुत किए। यहीं से इस नए काव्यान्दोलन की विचारधारा फैलनी शुरू हुई।

1 जून, 1982 कोतेवरीनाम से इस काव्यान्दोलन का पहला काव्य-संग्रह प्रकाशित हुआ। इसमें डॉ. देवराज और ऋषभ देव शर्मा की अस्सी तेवरियाँ प्रकाशित हुईं। दोनों रचनाकारों ने संकलन की भूमिका के 19 पृष्ठों मे तेवरी काव्यान्दोलन की आधिकारिक घोषणा की और कविता में नए परिवर्तन की आवश्यकता को प्रतिपादित किया।

7 नवम्बर, 1982 को खतौली में तेवरीकारों का एक अधिवेशन हुआ जिसमें मेरठ, अलीगढ़, शाहजहांपुर, मुज़फ़्फ़रनगर, बिजनौर आदि स्थानों से आए हुए लगभग एक सौ तेवरीकारों और अन्य बुद्धिजीवियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन मेंतेवरीकाव्य संग्रह में प्रकाशित भूमिका को पढ़ा गया और सभी लोगों ने इस नए काव्यान्दोलन के सम्बन्ध में कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से विचार-विमर्श किया। यही वह महत्वपूर्ण अधिवेशन था, जिसने देश के विभिन्न क्षेत्रों में इस आन्दोलन को पहुँचाया तथा साहित्य जगत कविता के एकदम नए परिवर्तन के सम्पर्क में आया। सारिका (दिल्ली) ने तेवरी के प्रथम अधिवेशन को १९८२ की विशेष साहित्यिक घटना माना था। साथ ही, दैनिक हिन्दुस्तान ने तेवरी काव्यान्दोलन की विशेष चर्चा की थी।

तेवरी काव्यान्दोलन से इसके घोषणाकारों डॉ. देवराज एवं ऋषभदेव शर्मा के अतिरिक्त जो मुख्य तेवरीकार सक्रिय रूप से जुड़े उनमें रमेश राज, दर्शन बेज़ार, ज्ञानेंद्र साज़,  पवन कुमार पवन, विनीता निर्झर, डॉ. कृष्णावतार करुण, डॉ. दिनेश अन्दाज़, सुरेश त्रस्त, योगेन्द्र शर्मा, अज्ञय अंचल, अरुण लहरी, राजेश मेहरोत्रा, गिरि मोहन गुरु, पण्डित करनालवी, फजल इमाम मल्लिक, श्याम बिहारी श्यामल, चाँद मुंगेरी, सतीश नारंग, डॉ. ब्रजनन्दन वर्मा, विक्रम सोनी, राजकुमार निजात, कुमार मणि, जगदीश श्रीवास्तव, शिव कुमार थदानी, निशान्त, अनिल कुमार अनल, राकेश राही, जयसिंह आर्य जय, जसबीर राणा, सुधाकर संगीत, बृ.पा.शौरमी, तुलसी नीलकंठ, सुधाकर आशावादी, वीरेन्द्र मधुर, हरीराम चमचा, महावीर तुषार, कृष्ण सुकुमार, विजयपाल सिंह, राजेन्द्र सोनी, कामेश्वर त्रिपाठी, ऋचा अग्रवाल एवं राजश्री रंजिता के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। वर्तमान में ब्रह्मदेव शर्मा (दिल्ली) सबसे सक्रिय तेवरीकार हैं।

तेवरी का स्वरूप

तेवरी काव्यान्दोलन में महत्वपूर्ण शब्दतेवरहै। यह शब्द व्यावहारिक जीवन में विशेष मुद्रा के लिए प्रयोग किया जाता है ऐसी मुद्रा जिसमें आक्रोश का स्पर्श हो। किन्तु केवल आक्रोश ही तेवर को परिभाषित नहीं कर सकता। उसमें अन्य तत्व भी मिले हुए होते हैं। ये हैं - असन्तोष, दृढ़ता, कठोरता और विशेष प्रकार की प्राणवत्ता। इनके मेल से जिस विशेष मुद्रा का जन्म होता है वही सही आक्रोश है, जो तेवरी का निर्माण करता है। यही तेवर तेवरी काव्यान्दोलन में स्वीकार किया गया है और कविता को इसी तेवर में ढालना इस काव्यान्दोलन का लक्ष्य है। यहाँ पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि जिस कविता के लिए तेवरी का प्रयोग किया गया है, उसके लिएत्यौरीका प्रयोग भी किया जा सकता था, फिर ऐसा क्यों नहीं किया गया? इस सम्बन्ध में तेवरीकारों की मान्यता है कित्यौरीशब्द का प्रयोग करते समय प्रयोगकर्ता का लक्ष्य व्यक्ति की विशिष्ट क्रोधपूर्ण स्थिति का द्योतन करता है। जब भी- त्यौरी चढ़ रही है या त्यौरी बदल रही है जैसे वाक्य प्रयोग किये जाते हैं तब वे क्रोध की स्थिति को ही दिखाते हैं। इसमें व्यक्ति अनियन्त्रित भावावेग का शिकार होता है, जिसमें अविवेक की सम्भावनाएँ रहती हैं। यह स्थिति त्यौरी शब्द को सीमित कर देती है। इसके विपरीत तेवर शब्द अधिक व्यापक अर्थ का द्योतन करता है। तेवर का प्रयोग- तेवर बदल रहा है, तेवर देखिए आदि रूपों में किया जाता है। प्रत्येक रूप में यह परिवर्तित होती हुई मुद्रा, रूप और दशा को अभिव्यक्त करता है। निश्चय ही यह बदलाव असन्तोष से प्रेरित होता है और आक्रोश की ओर बढ़ता हुआ होता है। इसमें अनियन्त्रित भावावेग या अविवेक की सम्भावना नहीं होती। तेवर बदलने के पीछे विपरीत स्थिति के विरुद्ध स्पष्ट प्रतिक्रिया और विरूप को उखाड़ फेंकने का परूष संकल्प होता है। अतः तेवर शब्द उस स्थिति को अभिव्यक्त करता है जो अन्ततः मनुष्य के संघर्ष धर्म को अधिक सक्रिय और दुर्धर्ष बनाती है। यहाँ तेवर शब्द त्यौरी को स्वीकार किया गया है। तेवरी के घोषणापत्र में कहा गया है- “ऐसी कविता जो नँगी पीठ पर पड़ते हुए कोड़े की आवाज़, पिटते हुए व्यक्ति के मुख से निकली हुई आह-कराह, भरी सभा में भोली जनता के सामने घड़ियाली आँसू बहाता और कभी न पूरे होने वाले आश्वासन देता हुआ नेता, भूखे बच्चे को बापू के आने का विश्वास दिलाती हुई महिला का स्वर, रोटी माँगती हुई बच्ची, सेवायोजन कार्यालय के सामने खड़े-खड़े थकने पर सारी व्यवस्था को गाली देता हुआ नवयुवक, सुविधाओं के अभाव में आत्महत्या करता हुआ वैज्ञानिक तथा इन सब स्थितियों के विरुद्ध मनुष्य के भीतर लावे की तरह बहने वाला असन्तोष जन्य आक्रोश- इन सब को एक साथ प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्ति प्रदान कर सके, निस्सन्देहतेवरीहै। घोषणापत्र में राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, वैज्ञानिक और वैचारिक स्थिति पर विचार करते हुए तेवरी की विभिन्न धारणाओं की व्याख्या भी की गई है। इसी में शिल्प के प्रश्न पर विचार करते हुए तेवरी की भाषा और तुकांत रूप के महत्वपूर्ण मुद्दे स्पष्ट किए गए हैं। भाषा के लिए कहा गया है कि- “कबीर की तरह हमें वह कोई भी शब्द स्वीकार करने में हिचक नहीं है, जो साधारण व्यक्ति को कविता के निकट ला सके, उसे उसके गुण और दोषों से परिचित करा सके, विकृति पर तीर की मानिन्द प्रहार कर सके, धुएँ, धूल और कुहरे को परिभाषित कर सके तथा जीवन को संकल्पित आधार दे सके।भाषा को तेवरीकारों ने एक ऐसे आन्दोलन के रूप में स्वीकार किया है, जिसमें शब्द को भीड़ में बो देने की चाह है।

तेवरी रचना को मात्रिक या वर्णिक किसी भी छन्द में रचा जा सकता है। लघु से लघु शिल्प रूप द्वारा अभिव्यक्ति करने के उद्देश्य को लेकर तेवरी में यह माना गया है कि दो चरणों में एक-एक इकाई अभिव्यक्ति को स्थापित किया जाए। इसके अनुसार प्रत्येक दो चरणों से मिलकर रचना के एक-एकतेवरका गठन होता है और एकाधिक तेवर मिलकर रचना का निर्माण करते हैं। किसी भी तेवरी का प्रथम तेवर तुकान्त होता है। बाद के प्रत्येक तेवर में प्रथम तेवर के दूसरे चरण के तुकान्त रूप को दुहराया जाता है। किन्तु तेवरी रचना में यह अनिवार्य शर्त नहीं है कि प्रत्येक तेवरी का प्रथम तेवर दो चरणों में एक ही तुक का निर्वाह करे। इस दशा में तेवरी प्रारम्भ से ही समपंक्तियों में तुकान्त शिल्प में रची जा सकती है।

तेवरी विविध छन्दों में रची जा सकती है। वह तुकान्त कविता के लोक-रूप के प्रति भी आग्रही है। लोक में लोक-गायन की जो विविध शैलियाँ प्रचलित हैं, तेवरी उन्हें अपनाती है और अभिव्यक्ति का सर्वसुलभ माध्यम स्वीकार करती है। (रमेश राज ने अनेक नए-पुराने शास्त्रीय और लोक छंदों में तेवरियाँ रचकर इसके शिल्प को नया विस्तार प्रदान किया है।) इस अर्थ में तेवरी काव्यान्दोलन तुकान्त शिल्प का पक्षधर होता हुआ भी शिल्प के रूढ़ बन्धनों से मुक्ति का हामी है। सहजता उसके शिल्प की विशेषता है। तुकान्त रूप अपनाने के पीछे तेवरी काव्यान्दोलन का तर्क है कि अतुकान्त रचना के मोह में पड़कर जहाँ हमें पाठक को शिक्षित करने का दायित्व भी सम्पन्न करना होता है [जो बहुत कठिन है], वहीं तुकान्त रचना के माध्यम से बहुत सरलता से जनता के बीच पहुँचा जा सकता है। तुकान्त को स्मृति में स्थापित करना भी सरल है।

तेवरी की कुछ विशेषताएँ

तेवरी की विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए तेवरी की आधिकारिक घोषणा में कहा गया है-

इस नये तेवर वाली कविता में ये विशेषताएँ हों

o   यह कविता सम्प्रेषनीयता को मूल धर्म के रूप में स्वीकार कर चले।

o   शिल्प के अनुशासन के सम्बन्ध में नई दृष्टि अपनाई जाए क्योंकि कविता को अन्ततः पाठक की स्मृति में स्थापित होना है।

o   यह किसी भी वाद में बंधकर न चले।

o   किसी भी स्तर पर इस कविता में आभिजात्य प्रवृत्ति का समावेश न हो।

o   कविता नारेबाज़ी से हटे और उस मनःस्थिति की अभिव्यक्ति करे, जो वास्तव में सामान्य-आदमी की है।

o   यह कविता विवरण, रूदन आदि से हटकर क्रान्ति-प्रेरणा का कार्य करे।

o    यह कविता अपनी ज़मीन से जुड़ी हुई हो।

युग की इसी आवश्यकता को स्वीकार करते हुए हिन्दी काव्य के क्षेत्र में नए काव्यान्दोलनतेवरीका उदय हुआ। प्रकाशित रचनाओं के  आधार पर तेवरी के चिन्तन के मुख्य बिन्दु इस प्रकार प्रस्तुत किए जा सकते हैं-

1.  अव्यवस्था के विरुद्ध अभियान

2.  आक्रोश की अभिव्यक्ति

3.  जन-जागरण

4.  व्यंग्य

5.  शोषणमुक्त समाज की परिकल्पना

6.  परुष भाषा-शैली।

●●●

ऋषभदेव शर्मा की कुछ तेवरियाँ

1.

जब नसों में पीढ़ियों की, हिम समाता है

शब्द ऐसे ही समय तो काम आता है

 

बर्फ पिघलाना ज़रूरी हो गया, चूँकि

चेतना की हर नदी पर्वत दबाता है।

 

बालियों पर अब उगेंगे धूप के अक्षर

सूर्य का अंकुर धरा में कुलबुलाता है

2.

अब न बालों और गालों की कथा लिखिए

देश लिखिए, देश का असली पता लिखिए

 

एक जंगल, भय अनेकों, बघनखे, खंजर

नाग कीले जाँय ऐसी सभ्यता लिखिए

 

शोरगुल में धर्म के, भगवान के, यारों!

आदमी होता कहाँ-कब लापता? लिखिए

 

बालकों के दूध में किसने मिलाया विष?

कौन अपराधी यहाँ? किसकी ख़ता? लिखिए

 

वे लड़ाते हैं युगों से शब्दकोषों को

जो मिलादे हर हृदय वह सरलता लिखिए

 

एक आँगन, सौ दरारें, भीत दीवारें

साजिशों के सामने अब बंधुता लिखिए

 

लोग नक्शे के निरंतर कर रहे टुकड़े

इसलिए यदि लिख सकें तो एकता लिखिए।

3.

नाग की बाँबी खुली है आइए साहब

भर कटोरा दूध का भी लाइए साहब

 

रोटियों की फ़िक्र क्या है? कुर्सियों से लो

गोलियाँ बँटने लगी हैं खाइए साहब

 

टोपियों के हर महल के द्वार छोटे हैं

और झुककर और झुककर जाइए साहब

 

मानते हैं उम्र सारी हो गई रोते

गीत उनके ही करम के गाइए साहब

 

बिछ नहीं सकते अगर तुम पायदानों में

फिर क़यामत आज बनकर छाइए साहब।

4.

देवताओं को रिझाया जा रहा है

पर्व कुर्सी का मनाया जा रहा है

 

भोर फाँसी की गई आ पास शायद

क़ैदियों को जो सजाया जा रहा है

 

आदमी की बौनसाई पीढ़ियों को

रोज़ गमलों में उगाया जा रहा है

 

जाम रखकर तलहथी पर भूख की अब

जागरण को विष पिलाया जा रहा है

 

पारदर्शी तीर धर लो अब धनुष पर

व्यूह रंगों का बनाया जा रहा है।

5.

हटो, यह रास बंद करो

हास-परिहास बंद करो

 

यह कलम है, खुरपी नहीं

छीलना घास बंद करो

 

गूँजती युद्ध की बोली

खेलना ताश बंद करो

 

भूख का इलाज बताओ

यार! बकवास बंद करो।

6.

आपकी ये हवेली बड़ी

फुलझडी, फुलझडी, फुलझड़ी

 

आपने चुन लिए हार पर

भेंट दीं क्यों हमें हथकड़ी

 

आपकी राजधानी सजी

यह गली तो अँधेरी पड़ी

 

कुमकुमे , झालरें , रोशनी

हिचकियाँ , आंसुओं की लड़ी

 

आँख में जल चुके शब्द सब

होंठ पर कील जिनके जड़ी

 

देखिए , द्वार पर लक्ष्मी

हाथ में राइफल ले खड़ी

 

भागिए अब किधर जबकि हर

लाश ने तान ली है छड़ी।

7.

ईंट, ढेले, गोलियाँ, पत्थर, गुलेलें हैं

अब जिसे भी देखिए, उस पर गुलेलें हैं

 

दुत्कारती जिनको रही, आपकी ड्योढी

स्पर्शवर्जित झोंपड़ी, महतर गुलेलें हैं

 

यह इलाक़ा छोड़कर, जाना पड़ेगा ही

टिड्डियों में शोर है, घर-घर गुलेलें हैं

 

बन गए मालिक उठा, तुम हाथ में हंटर

अब न कहना चौंककर, नौकर गुलेलें हैं

 

इस कचहरी का यही, आदेश है तुमको

खाइए, अब भाग्य में, ठोकर गुलेलें हैं

 

क्या पता क्या दंड दे, यह आज क़ातिल को

भीड़ पर तलवार हैं, ख़ंजर गुलेलें हैं

 

रोटियाँ लटकी हुई हैं बुर्ज के ऊपर

प्रश्न- ‘कैसे पाइए’, उत्तर गुलेलें हैं

 

है चटोरी जीभ ख़ूनी आपकी सुनिए,

इस बिमारी में उचित नश्तर गुलेलें हैं

 

ये निशाने के लिए, हैं सध चुके बाज़ू

दृष्टि के हर छोर पर, तत्पर गुलेलें हैं

 

तार आया गाँव से, यह राजधानी में

शब्द के तेवर नए, अक्षर गुलेलें हैं।

8.

टॉमियों औ' रूबियों को टॉफियाँ वे बाँटते हैं

जबकि कल्लू और बिल्लू काग़ज़ों को चाटते हैं

 

रक्त पीकर पल रही है रक्तजीवी एक पीढ़ी

जबकि अपनी देह की हम आप हड्डी काटते हैं

 

हर हवा की बूँद भी चढ़ती हमारी कापियों में

जबकि वे सारा गगन ही डस गए पर नाटते हैं

 

मौन हम निर्दोष कब तक मार कोड़ों की सहेंगे

जबकि दबती आह पर वे शोषितों को डाँटते हैं

 

शांति के उपदेश हैं इस गाँव में अब तो निरर्थक

जबकि संयम वे हमारा कैंचियों से छाँटते हैं।

9.

धुंध है घर में उजाला लाइए

रोशनी का इक दुशाला लाइए

 

केचुओं की भीड़ आँगन में बढ़ी

आदमी अब रीढ़ वाला लाइए

 

जम गया है मॉम सारी देह में

गर्म फौलादी निवाला लाइए

 

जूझने का जुल्म से संकल्प दे

आज ऐसी पाठशाला लाइए।

10.

आदमकद मिल जाए कोई, दल-दल द्वार-द्वार भटका

लोकतंत्र की इस लंका में, हर कोई बावन गज़ का

 

सबके हाथों में झंडे हैं, सबके माथों पर टोपी

सबके होठों पर नारे हैं, पानी उतर चुका सबका

 

क्रूर भेड़िये छिपकर बैठे, नानी की पोशाकों में

नन्हीं लाल चुन्नियोंका दम, घुट जाने की आशंका

 

ठीक तिजोरी के कमरे की, दीवारों में सेंध लगी

चोरों की टोली में शामिल, कोई तो होगा घर का

 

काले जादू ने मनुष्य बंदूकों में तब्दील किया

अब तो मोह छोड़ना होगा, प्राण और कायरपन का।

 


डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...