शब्द
सृष्टि, सितम्बर - 2021, अंक – 14
हिन्दी दिवस
डॉ. पूर्वा शर्मा
रग-रग में जो रची बसी हो
जिससे ही पहचान बनी हो।
मेरे दिल की धड़कन में वो
भावों की आवाज़ बनी वो।
साँसें गाती हैं बस यही लय
पूरा जीवन है हिन्दीमय।
कैसे एक दिन दे दूँ मैं बधाई
यह बात मुझे तो रास न आई।
प्रतिदिन मनाती हूँ यह दिवस
मेरा तो हर दिन ‘हिन्दी दिवस’ ।।
*******
शिक्षक
दिवस
संपूर्ण
ज्ञान का अखंड भंडार वो
हाथ
बढ़ाएँ सदैव तत्पर खड़े वो।
पग-पग
आगे बढ़ना सिखाएँ वो
गिरने
पर संभलना सिखाएँ वो।
मुश्किलों
से लड़ना सिखाएँ वो
जीवन
को सँवारना सिखाएँ वो।
सफलता
का मंत्र सिखाएँ वो
हार
में भी हौंसला बँधाएँ वो।
घोर
अंधकार में प्रकाश पुंज जलाएँ वो
ज्योतिमय
जीवन का ज्ञान मंत्र सिखाएँ वो।
अब
कैसे उनका यह ऋण चुकाएँ हम
बस
नतमस्तक हो उनका वंदन करें हम।
वो
हमारे शिक्षक है, सौभाग्यशाली हम
हर जीवन उनके ही शिष्य बनना चाहे हम।।
डॉ. पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
भाषा
की सरलता की समस्या
डॉ. नगेन्द्र
जब
से संविधान में हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकृत किया गया है उसकी
सरलता की समस्या अनेक प्रकार से अनेक क्षेत्रों से हमारे सामने आ रही है। बात
तर्कसंगत है, राज जनता का है और राजभाषा के
गौरव की अधिकारिणी वही हो सकती है जो जनता की भाषा हो। हिन्दी के पक्ष में सबसे
बड़ा तर्क यही था और इसी के बल पर उसे राजभाषा होने का गौरव मिला। जनता की भाषा
निश्चय ही सरल होनी चाहिए क्योंकि जनता का निर्माण जिस विराट जनसमूह से होता है वह
न विदग्ध होता है और न पंडित।
हिन्दी
से जो सरलता की माँग की जाती है वह अकारण नहीं है- सरलता उसका दायित्व है और इसे
उसका सहज गुण बन जाना चाहिए। किन्तु सरलता का क्या अर्थ है;
वे कौन से तत्त्व हैं जिनसे सरलता का निर्माण होता है, यह निर्णय करना सरल नहीं है। सरल शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के “सिम्पुल”
शब्द के पर्याय रूप में होता है और चूँकि हिन्दी की सरलता के लिए अधिकतर वे ही लोग
व्यग्र हैं जो अंग्रेजी में सोचने-समझने के अभ्यस्त हैं इसलिए सरलता का स्वरूप
विश्लेषण करने के लिए अंग्रेजी के “सिम्पुल” शब्द का आँचल पकड़े रहना जरूरी होगा।
आक्सफोर्ड1 डिक्शनरी के अनुसार “सिम्पुल” शब्द के चार अर्थ हैं: (१)
अमिश्र – जिसकी रचना केवल एक ही तत्त्व से हुई हो, (२) अखंड
- जो उलझा हुआ या जटिल या अलंकृत न हो- उदाहरणार्थ अमुक लेखक की शैली सरल और
निराभरण है, (३) निरपेक्ष, (४)
सीधा-सादा, अकृत्रिम, सहज, निश्छल। संस्कृत में सरल शब्द का शब्दार्थ है ऋजु, सीधा,
अवक्र, शुद्ध, वास्तविक,
आदि।”2
उपर्युक्त
अर्थों में से कुछ ही ऐसे हैं जो भाषा के प्रसंग में सार्थक होते हैं जैसे सीधा
सादा,
सहज, अकृत्रिम, उलझाव और
जटिलता से मुक्त, अवक्र और निराभरण। इनके अनुसार सरल भाषा वह
है – (१) जो स्वाभाविक हो, (२) जिसकी वाक्य-रचना सीधी और
सुलझी हुई हो- जिसमें किसी प्रकार की जटिलता और उलझन न हो अर्थात् वाक्य छोटे और
सीधे हों। जिनमें किसी प्रकार का घुमाव और पेच न हो, (३)
जिसमें किसी प्रकार का आडम्बर, अलंकार और वक्र प्रयोग न हो,
(४) जो अभीष्ट अर्थ को – मन की बात को ठीक-ठीक और बिना छलछद्म के
व्यक्त करे। निश्छलता सरल व्यक्ति के समान सरल भाषा का भी अनिवार्य गुण है। ये सभी
तत्त्व सामान्यतः जितने सरल प्रतीत होते हैं उतने वास्तव में है नहीं और इन सभी की
व्याख्या की आवश्यकता है।
स्वाभाविकता
– स्वाभाविकता का अर्थ है अपनी प्रकृति के अनुकूल होना अत: भाषा की स्वाभाविकता से
तात्पर्य है अपने मूल प्रसंग और अर्थ की अनुकूलता। यदि मूल अर्थ जटिल है अर्थात्
उसमें अनेक अर्थच्छायाओं का मिश्रण है तो जबरदस्ती सरल और छोटे वाक्यों का प्रयोग
मूल अर्थ के प्रतिकूल होगा और परिणामतः उसे अस्वाभाविक बना देगा। जिस प्रकार जटिल
विचार-शृंखलाओं के अभ्यस्त किसी सूक्ष्मचेता व्यक्ति को सरलता का अभिनय करते देखकर
हमारे मन में वितृष्णा उत्पन्न होती है, इस
प्रकार सूक्ष्म और जटिल विचार संघात की अभिव्यक्ति के लिए छोटे और सरल वाक्यों की
बालक्रीड़ा की भयंकर प्रवंचना है। इस तरह की कृत्रिम और मिथ्या सरलता को मर्मी
आचार्य लांजाइनस ने बालिशता कहा है। जिस प्रकार कृत्रिम अलंकार-मोह से व्यक्तित्व
का ह्रास होता है उसी प्रकार सरलता के अभिनय से भी आत्मा का अपकर्ष होता है। समाज
के लिए मिथ्या वैभव और गरिमा का प्रदर्शन करने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा ऐसे
व्यक्ति ज्यादा खतरनाक हैं जो सादगी का अभिनय करते हैं। इसी तर्क से भाषा के
प्रसंग में भी कृत्रिम अलंकार -सज्जा की अपेक्षा कृत्रिम सरलता अधिक अस्वाभाविक है,
क्योंकि इस प्रकार की भाषा से प्रवंचना की आशंका अधिक रहती है।
निष्कर्ष यह निकला कि भाषा की सरलता एक सापेक्ष गुण है जो प्रसंग और मूल अर्थ का
अनुसारी है। जीवन के सरल सामान्य अनुभवों की माध्यम भाषा की स्वाभाविकता एक प्रकार
की होगी और सूक्ष्म जटिल तथा गुम्फित अनुभूतियों की भाषा की स्वाभाविकता का रूप
दूसरा होगा। राजनीति की बारीकियों को सरल और सहज हिन्दी में, छोटे-छोटे जुम्लों और बोलचाल के लफ्जों में अदा करने का आग्रह करना भाषा विज्ञान
और अभिव्यंजना शास्त्र के इस प्राथमिक नियम की अवमानना करना है।
जटिलता का अभाव – इसमें सन्देह नहीं कि जटिलता भाषा का दुर्गुण है। किन्तु जटिलता के दो रूप हैं-एक आंतरिक और दूसरा बाह्य-आंतरिक जटिलता से अभिप्राय है अर्थ की जटिलता- अर्थात् चिन्तन की जटिलता। जहाँ चिन्तन की गति ऋजु न होकर जटिल और वक्र है वहाँ भाषा जटिलता से मुक्त नहीं हो सकती और यदि उसे सरल करने का बरबस प्रयत्न किया जायेगा तो वह सही अर्थ को व्यक्त नहीं कर सकेगी। यहाँ मूल दोष चिन्तन का है। भाषा की जटिलता तो विचार की जटिलता की छाया है और विचार की छाया वाक्य-रचना आदि से है - अनभ्यस्त लेखक या अयोग्य लेखक अशुद्ध शब्द प्रयोग, वाक्यांशों के अनुपयुक्त नियोजन आदि के द्वारा वाक्य-रचना को उलझा देते हैं जिससे अर्थ व्यक्ति बाधित हो जाता है। यह दोष अनभ्यास और अयोग्यता से उत्पन्न होता है और उसका परिहार कठिन नहीं है।
आडम्बर
और अलंकार से मुक्ति – सरल भाषा का एक गुण है आडम्बर और अलंकार से मुक्ति यहाँ ‘आडम्बर’ शब्द के विषय में भ्रांति नहीं हो सकती, वह प्रत्येक
स्थिति में दोष है और भाषा भी इसका अपवाद नहीं। जिस प्रकार हीनता ग्रस्त व्यक्ति
व्यवहार एवं रहन-सहन में आडम्बर का समावेश कर अपने अभाव को छिपाने की व्यर्थ
चेष्टा करते हुए समाज में निन्दा के भागी बनते हैं उसी प्रकार अयोग्य लेखक भी भाषा
को आडम्बरपूर्ण बनाकर साहित्य में निंदनीय बन जाते हैं। किन्तु अलंकार भाषा का दोष
न होकर गुण है, अलंकार मोह या कृत्रिम अलंकार या अनुपयुक्त
अलंकार ही भाषा का दोष हो सकता है। अलंकार जहाँ सहजात होता है वहाँ वह भाषा का
अनिवार्य गुण बन जाता है उससे सरलता बाधित नहीं होती। प्रायः अलंकार का प्रयोग
अर्थ स्पष्ट करने के लिए ही किया जाता है। हमारा मन्तव्य जितना सादृश्य-मूलक
अलंकार से साफ हो सकता है उतना रूढ़ शब्दार्थ से नहीं होता। अतः अलंकार को सरलता
का विरोधी तत्त्व मानना ठीक नहीं है।
सही
अभिव्यक्ति – अभीष्ट अर्थ की यथावत् अभिव्यक्ति
सरल भाषा का अन्तिम और अनिवार्य लक्षण है। जिस प्रकार निश्छल हुये बिना व्यक्तित्व
की सरलता असम्भव है इसी प्रकार अर्थ की निश्चल अभिव्यक्ति के बिना भाषा सरल नहीं
बन सकती। अर्थ यदि अमिश्र है तो भाषा की सरलता अमिश्र वाक्य प्रयोग आदि में निहित
होगी,
परन्तु यदि अर्थ में ही जटिलता है तो मिश्र वाक्य प्रयोग और व्यंजक
पर्यायों के बिना अर्थ व्यक्ति सम्भव नहीं हो सकती। और, जहाँ
अर्थ व्यक्ति ही नहीं है वहाँ सरलता कैसी ? उपर्युक्त
विश्लेषण के आधार पर प्रस्तुत प्रसंग में निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं –
(१) भाषा अपने मूल और सहज रूप में माध्यम ही है- अर्थ (विचार और अनुभूति)
से निरपेक्ष शब्द (अभिव्यक्ति) की सत्ता नहीं है अतः भाषा का कोई निरपेक्ष स्वरूप
नहीं हो सकता।
(२) इस तर्क के अनुसार भाषा की सरलता भी एक सापेक्षिक गुण है जो प्रसंग,
वक्ता, बोधक्य आदि पर आश्रित है। वक्ता का
मंतव्य यदि सरल है तो भाषा की सरलता एक प्रकार की होगी, पर
उसका चिन्तन यदि सूक्ष्म एवं जटिल है तो भाषा की सरलता का रूप दूसरा होगा। उस
स्थिति में तथाकथित सरलता अत्यधिक दुरूह बन जायेगी। छोटे-छोटे जुम्लों और बोलचाल
के लफ्जों का नुस्खा हर मर्ज में काम नहीं आ सकता।
(३) इसमें सन्देह नहीं कि शब्दावली और वाक्य-रचना का भाषा की सरलता के साथ
सम्बन्ध है, किन्तु यह सम्बन्ध अनिवार्य नहीं है अर्थात् कोई
विशेष प्रकार की शब्दावली तथा वाक्य रचना भाषा को सरल बनाती है ऐसा नियम नहीं
बनाया जा सकता। संस्कृत के तत्सम शब्दों से भाषा कठिन बन जाती है और बोल-चाल के
शब्दों से सरल अथवा लम्बे वाक्यों का प्रयोग भाषा को दुरुह और छोटे वाक्यों का
प्रयोग उसे सरल बनाता है, यह कोई अकाट्य तर्क या विधान नहीं
है। कभी-कभी बोलचाल के शब्दों से मतलब एकदम दुरूह हो जाता है और छोटे-छोटे वाक्य
अर्थ को खंड-खंड कर बुरी तरह उलझा देते हैं।
(४) वक्ता के अतिरिक्त श्रोता पर भी भाषा का स्वरूप आश्रित रहता है और
सरलता भी इसका अपवाद नहीं है। अर्थात् भाषा की सरलता का निर्णय उस जनसमुदाय की
बहुसंख्या की बोध-शक्ति के आधार पर होना चाहिए जिसके लिए उसका प्रयोग होता है या
जो उसका प्रयोग करता है। सरलता का अर्थ सुबोधता है और सरल भाषा वही है जो भारत की
बहुसंख्यक जनता के लिए सुबोध हो। राष्ट्र भाषा की सुबोधता का निर्णय राष्ट्र के
समग्र आयाम को दृष्टि में रखकर करना होगा।
प्रस्तुत
प्रसंग में इस बात के लिए खेद प्रकाशन की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी है कि भाषा की
सरलता की व्याख्या करने में मेरी अपनी भाषा, वर्ग
विशेष में प्रचलित धारणा के अनुसार कदाचित सरल नहीं रह सकी, क्योंकि
जैसा कि मैंने आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया है, सरलता जितनी
सरल है उसका स्वरूप विश्लेषण उतना ही कठिन है। मैंने यहाँ केवल सिद्धांत विवेचन ही
किया है, उदाहरण देने के लोभ का जानबूझकर संवरण किया गया है
क्योंकि मेरा उद्देश्य हिन्दी के विरुद्ध वर्ग-विशेष के आक्षेपों का उत्तर देना
उतना नहीं रहा जितना कि समस्या के मूल तत्त्वों का उद्घाटन करना।
सन्दर्भ –
1.
आक्सफोर्ड डिक्शनरी (पॉकेट)- चतुर्थ
संस्करण,
पृष्ठ- ११६८
2.
संस्कृत-हिन्दी डिक्शनरी - सर मोनियर
विलियम्स (१९५६ ई०), पृष्ठ- १८१२
1.
इदमन्धं
तमः कृत्यं जायते भुवनत्रयम ।
यदि
शब्दाह्यं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते ।।
ये
तीनों लोक घोर तम में मग्न हो जाते यदि सृजन के आरम्भ में शब्द की ज्योति न जलती।
2.
भविष्य
में हिन्दी आने वाली नवीन चेतना की सांस्कृतिक भाषा होगी,
ऐसा मेरा विश्वास है। अंग्रेजी में बौद्धिक सक्रियता और बौद्धिक
आलोचना के तत्त्व हैं, पर सांस्कृतिक अर्थ में वह
अंतर्राष्ट्रीय नहीं है। हिन्दी में जो ध्वनि-संगीत है, जो
शांति की सूक्ष्म झंकार परिव्याप्त है, जो पवित्रता है, वे
बेजोड़ है। भावी मनुष्यत्व के तत्त्वों से हिन्दी परिपूर्ण होगी। भविष्य में
संस्कृति का जो नवीन संचारण होगा, उसे हिन्दी अपने में
समाहित करेगी। आने वाले युग की संस्कृति में जिन गुणों का समावेश होगा, वे गंभीर, व्यापक और उच्च स्तर के होंगे। नवीन
संस्कृति को व्यक्त करने के लिए भाषा झरने की तरह फूट निकलेगी, भाव उमड़-उमड़ कर आएँगे। हिन्दी भाषा का सौन्दर्य ही कुछ विलक्षण है।
मुझे
विश्वास है कि एक दिन आएगा जब हिन्दी विश्व की सांस्कृतिक भाषा होगी।
–
सुमित्रानंदन पंत
3.
शिक्षक
वह नहीं जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूँसे,
बल्कि वास्तविक शिक्षक तो वह है जो उसे आने वाले कल की चुनौतियों के
लिए तैयार करें।
– डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
4.
लब्धास्पदोsस्मीति
विवादभीरोस्तिक्षमाणस्य परेण निन्दाम्।
यस्यागम:
केवल जीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति ॥
–
‘मालविकाग्निमित्रम्’ से (कालिदास)
अर्थात्
जो लोग अध्यापक पद प्राप्त कर लेने के उपरान्त शास्त्रार्थ या वाद-विवाद या बहसों
से कतराते हैं, तथा दूसरों द्वारा की गयी निन्दा
को सहन कर लेते हैं और केवल अपना तथा परिवार का पेट पालने के लिए अध्यापन कार्य करते
हैं, ऐसे लोग विद्वान नहीं अपितु ज्ञान बेचने वाले बनिये
होते हैं।
5.
पात्रविशेषे
न्यस्तम् गुणान्तरम् व्रजति शिल्पमाधातुः।
जलमिव
समुद्रशुक्तौ मुक्ताफलताम् पयोदस्य।।
–
‘मालविकाग्निमित्रम्’ से (कालिदास)
अर्थात्
सिखाने वाले की कला उत्तम शिष्य के पास पहुँच कर उसी प्रकार विकसित हो जाती है,
जैसे बादल का जल समुद्र की सीपों में पहुँच कर मोती बन उठता है।
6.
गांधीजी का जन्तर
मैं तुम्हें
एक जन्तर देता हूँ। जब भी तुम्हें सन्देह हो या तुम्हारा
अहम् तुम पर
हावी होने लगे, तो यह कसौटी आजमाओः
जो सबसे गरीब
और कमजोर आदमी तुमने देखा हो,
उसकी शकल याद
करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम
उठाने का तुम
विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए
कितना उपयोगी
होगा। क्या उससे, उसे कुछ लाभ पहुँचेगा ?
क्या उससे,
वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख
सकेगा ? यानी
क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल
सकेगा, जिनके
पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है ?
तब तुम
देखोगे कि तुम्हार सन्देह मिट रहा है और अहम् समाप्त होता जा रहा है।
7.
गांधी जी के सपनों का भारत....
मैं
ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा, जिसमें गरीब-से-गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि यह
उनका देश है- जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश
करूँगा, जिसमें ऊँचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विविध सम्प्रदायों
में पूरा मेलजोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृश्यता के या शराब और दूसरी नशीली चीजों
के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। उसमें स्त्रियों को वही अधिकार होंगे जो
पुरुषों को होंगे। चूँकि शेष सारी दुनिया के साथ हमारा सम्बन्ध शान्ति का होगा,
यानी न तो हम किसी का शोषण करेंगे और न किसी के द्वारा अपना शोषण होने देंगे,
इसलिए हमारी सेना छोटी-से-छोटी होगी। ऐसे सब हितों का, जिनका करोड़ों मूक लोगों के
हितों से कोई विरोध नहीं है, पूरा सम्मान किया जायेगा, फिर वे हित देशी हों या
विदेशी। अपने लिए तो मैं यह भी कह सकता हूँ कि मैं देशी और विदेशी के फर्क से नफरत
करता हूँ। यह है मेरे सपनों का भारत।.... इससे भिन्न किसी चीज से मुझे संतोष नहीं
होगा।
विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त संख्यावाचक शब्द
सोनल परमार
हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त संख्यावाचक या गणनावाचक शब्दों के
अंतर्गत गूढ़ व विशिष्ट अर्थ का बोध कराने वाले कतिपय शब्दों का विशेष महत्व रहा
है। इस प्रकार के संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द विशेषतः भारतीय संस्कृति के
विविध संदर्भों से जुड़े हुए होते हैं, अतः सांस्कृतिक परिवेश से परिचित होने पर ही
इस प्रकार के शब्दों के अर्थ की प्रतीति होती है। जैसे हिन्दी में प्रयुक्त
सप्तऋषि, चारधाम, नवधाभक्ति। इन शब्दों से ऋषि, धाम, भक्ति के प्रकार की संख्या का
क्रमशः सात, चार, नौ का बोध तो तुरंत ही हो जाता है पर ये सात ऋषि, चारधाम, नौ
प्रकार की भक्ति के बोध के लिए भारतीय संस्कृति व अन्य परिवेश से परिचित होना
अपेक्षित है। यहाँ हिन्दी में प्रयुक्त कुछ इसी तरह के गूढ़ अर्थ वाले संख्यावाचक
शब्द दिये गए है।
·
तीन ऋण – पितृऋण, ऋषिऋण, देवऋण
·
तीन दिव्य पदार्थ – ब्रह्म, जीव, प्रकृति
·
चार उपवेद – आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद, स्थापत्यवेद
·
चतुरंगिणी सेना – हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल (सेना)
·
पंचकोश – आनन्दमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, अन्नमय (वेदांत के अनुसार आत्मा
के आवरण रूप पाँच कोश)
·
पञ्च कन्या – अहल्या, द्रौपदी, तारा, मंदोदरी, सावित्री
·
पंचनद – पाँच नदियों का समूह (सतलुज, व्यास, रावी, चनाब और झेलम पंजाब प्रदेश
की पंचनद कही जाती हैं)
·
पाँच माताएँ – जननी, आचार्य पत्नी, सास, राजपत्नी, जन्मभूमि
·
विद्यार्थी के पाँच लक्षण – काकचेष्टा, बक ध्यान, स्वान निद्रा, अल्पाहारी,
गृहत्यागी
·
सप्तऋषि – कश्यप, विश्वमित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ
·
अष्टसिद्धि – अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व,
वशित्व
·
अष्टछाप – गोसाई, विट्ठलनाथ जी द्वारा स्थापित आठ कवियों का दल
सूरदास, कुम्भनदास, परमानन्द दास, माध्वादास, (वल्लभाचार्य
के शिष्य)
गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी, नन्ददास, चतुर्भुजदास (विट्ठलनाथ
के शिष्य)
·
नवगुण – शुचि, तपस्वी, संतुष्ट, सत्यवक्ता, शीलवान, द्दढ़प्रतिज्ञ, धर्मात्मा,
दयालु, दाता
·
नवधाभक्ति – श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन
·
नवनिधि – पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, नन्द, नील, खर्ब
·
दस धर्म लक्षण – क्षमा, धृति, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रिय-निग्रह, धी, विद्या,
सत्य, अक्रोध
·
चौदह लोक – तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल, भुवनलोक, स्वर्गलोक, महालोक,
जनलोक, तपलोक, सत्यलोक, भूलोक
पर्याय शब्दों
में सूक्ष्मान्तर
पर्याय शब्दों में एकार्थी (पूर्णपर्याय) शब्द तो पूर्णतः
एक अर्थ रखते हैं पर समानार्थी वे पर्याय है जिनमें अर्थ मात्र समान होते हैं,
मिलते-जुलते होते हैं। पर्याय कहे जाने वाले ज्यादातर शब्द इसी श्रेणी (समानार्थी)
के अंतर्गत आते हैं। इस प्रकार के अनेकों पर्याय शब्दों के अर्थ में सूक्ष्म अन्तर
रहता है, एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त नहीं हो सकते।
इस तरह के अपूर्ण पर्यायवाची स्थूल रूप
में समानार्थी पर्यायवाची ही कहे जाते है किन्तु उनका प्रयोग विशुद्ध पर्याय या
पूर्ण पर्याय के रूप में करना ठीक नहीं होगा। इस तरह के कई शब्द जो समानार्थी होते
हुए भी इन में अर्थ को लेकर सूक्ष्म अंतर रहता है अतः इनके प्रयोग में ज्यादा
ध्यान रखना पडता है। यहाँ कुछ इसी तरह के पर्याय शब्दों का अर्थ भेद स्पष्ट किया
जा रहा है।
· अनुमति, आज्ञा, आदेश
अनुमति – किसी कार्य के
लिए सहमति
आज्ञा – बडे व्यक्ति
द्वरा कुछ करने के लिए कहा जाना
आदेश – वैधानिक अधिकार
से कुछ करने के लिए कहना।
· दुःख, शोक, खेद, विषाद
दुःख – मन की व्यग्रता
का नाम दुःख है। प्रतिकूल और हानिकारक बातों की मानसिक अनुभूति को दुःख कहते हैं।
इसका प्रयोग इस वर्ग के कितने ही शब्दों के स्थान पर होता हैं।
शोक – चित्त की
व्याकुलता शोक है।
खेद – किसी भूल या
काम में किसी प्रकार के व्यवधान के परिणाम स्वरूप होने वाली दुःखद अनुभूति ही खेद
कहलाती हैं।
विषाद – दुःख की
विशेषता में कर्तव्य-ज्ञान का नष्ट होना विषाद है।
· प्रेम, स्नेह, प्रणय
प्रेम – प्रणय, स्नेह,
वात्सल्य आदि सभी के लिए प्रयुक्त सामान्य शब्द
स्नेह – छोटे के प्रति
बड़े का प्रेम।
प्रणय – पति-पत्नी का
प्रेम।
· अज्ञात, अज्ञेय, अनभिज्ञ, अगोचर
अज्ञात – जिसके बारे में
किसी प्रकार की जानकारी या ज्ञान न हो
अज्ञेय – जो किसी भी
प्रकार जाना न जा सके। जिसका होना निश्चित है किन्तु वह क्या है, कैसा है आदि का पूर्ण रूप
से ज्ञान न हो। केवल उसके विषय में अनुमान लगाया जा सके।
अनभिज्ञ – न जानने वाले
या अनजान होने के अर्थ में यह शब्द प्रयुक्त होता है।
अगोचर – जो इंद्रियों
द्वारा ग्रहण न किया जा सके पर जो ज्ञान या बुद्धि से जाना जा सकता है।
· स्मृति, स्मरण
स्मृति – पहले से मन पर
अंकित बातों का चित्र पुनः सामने लानेवाली शक्ति को स्मृति कहते हैं।
स्मरण – किसी बीती हुई
बात या व्यक्ति का पुनः ध्यान आना
· अनुरूप, अनुकूल
अनुरूप – अनुरूप से ‘योग्यता’
का बोध होता है
अनुकूल – अनुकूल से ‘उपादेयता’
और उपयोगिता का बोध होता है।
· मन्त्रणा, परामर्श
मन्त्रणा – अधिकारी
व्यक्ति से जो गुप्त बातचीत की जाती है, उसे मन्त्रणा कहते है।
परामर्श – अपने
हितेच्छुओं से किसी विषय पर जो सलाह ली जाती है उसे परामर्श कहते है।
· सहयोग, सहायता
सहयोग – दोनों पक्ष सक्रिय होते हैं।
सहायता – एक पक्ष सक्रिय होता है।
· अनुकरण, अनुसरण
अनुकरण – अनुकरण में पीछा करने का भाव होता है।
अनुसरण – अनुसरण में पीछे चलने का भाव होता है।
अनुकरण में किसी की नकल करने
की बात होती है जबकि अनुसरण में किसी की शैली-सिद्धांत को अपनाने का भाव होता है।
सहायक पुस्तकें
(1)
मानक हिन्दी व्याकरण – डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(2)
हिन्दी व्याकरण और रचना – सं. अनिरुद्ध राय
(3)
हिन्दी – शिवानंद नौटियाल
सोनल परमार
वल्लभ विद्यानगर
जि. - आणंद (गुजरात)
शब्द-सृष्टि फरवरी 202 5 , अंक 5 6 परामर्शक की कलम से : विशेष स्मरण.... संत रविदास – प्रो.हसमुख परमार संपादकीय – महाकुंभ – डॉ. पूर्वा शर्...