शब्द-सृष्टि
नवंबर
– 2022, अंक
– 28
आओ
काँटों में महकें, मन का हर द्वार सजाएँ।
हर
बहता आँसू पोंछें, जितना हो प्यार लुटाएँ।।
यह
जीवन एक सफ़र है, हर साथ बिछुड़ने को है।
क्या
पता कौन-सा किस्सा, कहते-सुनते सो जाएँ।।
(डॉ.
गोपाल बाबू शर्मा)
कुछ
लोग बड़े हुनरमंद होते हैं, मुस्कुराते हुए दर्द छिपा लेते हैं और उस दर्द का इज़हार
इतने खूबसूरत साहित्यिक शब्दों में करते है कि पढ़ने-सुनने वाले हँसते हुए वाह!
वाह! किए बिना नहीं रह पाते। और इस हँसने-हँसाने के सिलसिले में वह अपना दर्द बाहर
नहीं आने देता और किसी को अपना हमराज़ बनने की इजाज़त नहीं देता। हास्य-व्यंग्य के
पीछे गंभीरता छुपी होती है। यह बात सच है कि किसी को हँसाना बहुत ही मुश्किल काम
है। ऐसे ही गंभीर लेकिन कोमल हृदय वाले शख्स है – डॉ. गोपाल बाबू शर्मा। उन्हीं
के शब्दों में –
मज़ा
जीने में
जब
किसी का दुःख
रखें
सीने में।
इन्हें
व्यंग्यकार कहे या कवि अथवा समीक्षक या फिर अध्यापक.... इन सब के लिए ‘साहित्यकार’
शब्द सबसे उपयुक्त लगता है। ‘व्यंग्यकार’ के रूप में प्रतिष्ठित आगरा के बहुमुखी
प्रतिभा के धनी डॉ. गोपाल बाबू शर्मा शीघ्र ही अपने जीवन के नब्बे वर्ष में प्रवेश
करने वाले है। उनकी लेखनी आज भी गतिमान है।
डॉ.
गोपाल बाबू शर्मा का जन्म 04 दिसम्बर, 1932 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ शहर में
हुआ। उनके दादा बाबू बलदेव प्रसाद जी मध्य प्रदेश की नरसिंहगढ़ रियासत में कस्टम
अधिकारी थे। घुड़सवारी के शौकीन बलदेवप्रसाद जी बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे।
पुत्र-जन्म के समय उनकी पहली पत्नी चल बसी। दूसरी पत्नी से भी उन्हें पुत्र रत्न
की प्राप्ति हुई। बड़े पुत्र का नाम बालाप्रसाद शर्मा था।
बालाप्रसाद
शर्मा 15-16 वर्ष के थे तभी उनके पिता बाबू बलदेव प्रसाद का देहांत हो गया। इस
कारण आजीविका की खोज में उन्हें कम उम्र में ही घर छोड़ना पड़ गया था। परिस्थिति ने
उन्हें संघर्षशील बना दिया था। परिवहन, विद्युत आदि कई विभागों में नौकरी करने के
बाद बालाप्रसाद जी बैंक की नौकरी में आए। बैंक की नौकरी स्थानांतरण वाली होती है।
इस कारण उन्हें अलीगढ़, हाथरस,
कानपुर आदि शहरों में रहना पड़ा था। गोपाल बाबू शर्मा की अपने पिता की पाँच
संतानों में से सबसे छोटे है।
गोपाल
बाबू के पिता श्री बालाप्रसाद जी स्वभाव में बड़े सरल स्वाभिमानी व्यक्ति थे। सादा
जीवन तथा उच्च विचार उनका जीवन-मंत्र था। गोपाल बाबू की माँ सूरजमुखी देवी कम
पढ़ी-लिखी थीं; परंतु बुद्धिशाली तथा व्यवहार कुशल महिला थी।
डॉ.
गोपाल बाबू शर्मा का विवाह 16 जुलाई, 1962
को हुआ। उनकी पत्नी का नाम उषा शर्मा है। वे भी एम. ए., बी. एड. है तथा श्रीमती
त्रिवेणीदेवी कन्या इंटर कॉलोज आगरा, में
अध्यापिका रही हैं।
शिक्षा
गोपाल
बाबू की प्राथमिक शिक्षा कानपुर में हुई। सन् 1943 में म्युनिस्पल बोर्ड के ग्वाल
टोली स्थित स्कूल से उन्होंने कक्षा चार पास की।
सन् 1946 में उन्होंने वर्नाक्यूलर फाइनल (मिडिल) की परीक्षा हाथरस में
रहकर उत्तीर्ण की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने हाथरस के फूलचंद्र बागला एंग्लो संस्कृत
इंटर कॉलेज में प्रवेश लिया। सन् 1952 में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण
की।
फर्स्ट
ईयर के बाद वे अपने बड़े भाई पास अलीगढ़ आ गए और वहाँ के बारह सैनी कॉलेज (अब श्री वार्ष्णेय
कॉलेज) में दाखिल हुए। सन् 1953 में यू.पी. बोर्ड की इंटरमीडियट की परीक्षा
उत्तीर्ण की। परंतु अस्वस्थता के चलते सन् 1955 में बी. कॉम की परीक्षा नहीं दे
सके। कॉमर्स का छात्र होते हुए भी हिन्दी साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी। परिणामतः
सन् 1956 में उन्होंने एम. ए. (हिन्दी)
में प्रवेश लिया और सन् 1958 में आगरा विश्वविद्यालय से एम. ए. की उपाधि प्राप्त
की। परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने के कारण कॉलेज की ओर से उन्हें स्वर्ण
पदक प्राप्त हुआ। इससे प्रमाणित होता है कि गोपाल बाबू शर्मा कुशाग्र बुद्धि के
छात्र थे। वे कुशल वक्ता भी थे ।
पढ़ाई
के साथ-साथ कॉलेज की अन्य गतिविधियों में भी गोपाल बाबू शर्मा आगे रहते थे। सन्
1954-55 के सत्र में वे भारी मतो से कॉलेज छात्रसंघ के साहित्य मंत्री निर्वाचित
हुए थे। छात्र संघ के साहित्य मंत्री के रूप में उनकी सक्रियता भी गजब की भी। उस
वर्ष उन्होंने छात्रसंघ के मंच पर उस समय के प्रदेश के दिग्गज नेता चंद्रभानु गुप्त,
एन. सी. चटर्जी, वी. जी देशपांडे, सुप्रसिद्ध सिने अभिनेता राज कपूर को कॉलेज के
विविध कार्यक्रमों में आमंत्रित किया। कॉलेज में एक बड़े कवि सम्मेलन का भी आयोजन
उन्होंने किया था, जिसमें
उस समय के कई बड़े कवि शामिल हुए थे। उस कवि सम्मेलन में सोम ठाकुर ,
मुकुट
बिहारी सरोज, बाल कवि बैरागी, गोपालदास ‘नीरज’,
ब्रजेन्द्र
अवस्थी, निर्भय हाथरसी, शिशुपाल
सिंह ‘निर्धन’, सरस्वती ‘मधु’ जैसे सुप्रसिद्ध कवियों ने भाग लिया था।
सन्
1955-56 में गोपाल बाबू शर्मा छात्रसंघ के जनरल सेक्टरी भी बने। उस दौरान भी
उन्होंने कॉलेज में कई बड़े साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का सफल आयोजन
किया। उन कार्यक्रमों में सर्वोदयी नेता श्री जय प्रकाश नारायण, प्रेमनाथ डोंगरा,
नानाजी
देशमुख, स्वामी
विद्यानंद ‘विदेह’ जैसे महानुभाव भी पधारे थे। ये सारी बातें कुशल नेतृत्व की उनकी
क्षमता की गवाही देती हैं।
गोपाल
बाबू कुशल वक्ता भी थे। यही कारण था कि हर तरह के छोटे-बड़े कार्यक्रमों में उन्हें
स्वागत भाषण अथवा धन्यवाद ज्ञापन का दायित्व सौंप जाता था और वे बड़ी कुशलता से जिम्मेदारी
का निर्वाह भी करते थे।
शर्मा
जी के एक अन्य विशेषता है कि सही बात निर्भीकता पूर्वक कहने में वे पीछे नहीं रहते
थे। सामने चाहे कोई भी हो। छात्रसंघ का उद्घाटन करने के लिए तत्कालीन रेलमंत्री
माननीय श्री लालबहादुर शास्त्री जी को आमंत्रित किया गया था। अपने उद्बोधन में
शास्त्री जी ने छात्रों की अनुशासनहीनता पर सवाल उगया था। उस कार्यक्रम में धन्यवाद
ज्ञापन करते हुए गोपाल बाबू शर्मा ने अनुशासनहीनता के प्रश्न पर बड़े तार्किक ढंग
से छात्रों का पक्ष लिया था। उन्होंने कहा कि छात्रों की अनुशासनहीनता के लिए समाज
और देश का नेतृत्व भी जिम्मेदार है। आपके इस दुस्साहस पर श्रोता सकते में थे ।
किसी मंच से देश के इतने बड़े नेता तथा मंत्री के कथन का विरोध करना दुस्साहस ही
कहा जाएगा। किंतु माननीय शास्त्री जी तो महान नेता थे। वे गोपाल बाबू से नाराज
होने के स्थान पर आपके वक्तव्य से बहुत प्रभावित हुए थे। कार्यक्रम के बाद जलपान
के समय गोपाल बाबू को अपने पास बुलाकर प्रसन्नता पूर्वक शाबाशी दी थी।
शर्मा
की ने सन् 1970 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ‘हिन्दी साहित्य में अलीगढ़ जनपद
का योगदान’ (18 वीं तथा 19वीं शताब्दी) विषय में पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त की।
अध्यापन
कार्य
एच.
बी. इंटर कॉलेज, अलीगढ़
के प्रधानाचार्य श्री भद्र गुप्त की और वहाँ के बारह सैनी कॉलेज (बाद में श्री वार्ष्णेय
कॉलेज) में संघ के कार्यों में अतिथि के रूप में आते रहते थे। श्री भद्र गुप्त
गोपाल बाबू के व्यवहार तथा शैली से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने अपने प्रतिवेशी
श्री रोशनलाल ‘सुरीरवाला’ से कहा कि हमारे यहाँ हिन्दी के प्रवक्ता का पर खाली है।
गोपाल बाबू शर्मा एम. ए. कर चुके हैं। वे आपके परिचित है। उनसे कहें कि हमारे यहाँ
आ आएँ । यों तो उस पर एक सज्जन कार्य कर रहे हैं। मैनेजमेंट उन्हें चाहता भी है। किन्तु
छात्र उनसे संतुष्ट नहीं है। यदि गोपाल बाबू शर्मा सफल रहते हैं,
तो
उन्हें ही रख लिया जाएगा ।
गोपाल
बाबू शर्मा को अभी आजीविका की कोई चिंता नहीं थी। किंतु उन्होंने उस आमंत्रण को
चुनौती के रूप में स्वीकार किया और उसमें सफल भी रहे। 08 अगस्त, 1958 को बारह सैनी कॉलेज में उनकी नियुक्ति
हो गई।
एच.
बी. इंटर कॉलेज में शर्मा जी वर्षों तक छात्र संघ के निर्देशक रहे। अपने कठिन परिश्रम
तथा सूझबूझ से उन्होंने कॉलेज में साहित्य और कला का वातावरण बनाया। यह उन्हीं की
देन भी कि कथाकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री,
प्रख्यात पत्रकार तथा लेखक श्री बनारसीदास चतुर्वेदी, साहित्यकार कुँवर हरिश्चंद्रदेव
वर्मा ‘चातक’ आदि महान विभूतियों के कॉलेज पधारकर छात्रों का उत्साहवर्धन किया।
छात्रसंघ
के तत्त्वाधान समय-समय पर कवि सम्मेलन, संगीत-सम्मेलन
आदि कार्यक्रमों का आयोजन होता रहा। भाषण, वाद-विवाद, अंताक्षरी आदि प्रतियोगिताओं
में कॉलेज की टीमों को स्थानीय, जिला तथा मण्डल स्तर पर प्रायः विजय मिलती रही। नाटक की टीम तो लगभग हर वर्ष अपना सिक्का जमाने में सफल
रहती थी। नाटक की टीम को मंचन के लिए गोपाल बाबू शर्मा ने ‘युद्ध और शांति’, ‘विजय
किसकी ?’ (चंद्रगुप्त और सिकंदर विषयक), ‘वीरता का आदर्श’ (छत्रपति शिवाजी पर आधारित) ‘पृथ्वीराज की आँखें’,
‘पितृभक्त कुणाल’, ‘परिवर्तन’ (अछूत समस्या) जैसे ऐतिहासिक और सामाजिक एकांकी भी लिखे।
आगे चलकर डॉ. गोपाल बाबू शर्मा को श्री वार्ष्णेय पोस्ट
ग्रेजुएट कॉलेज, अलीगढ़,
के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक के रूप में कार्य करने का अवसर मिला।
वहाँ से 30 जून, 1993 को रीडर को पद से सेवायुक्त होकर अब वे
स्वतंत्र लेखन में संलग्न है।
डॉ. शर्मा ने अपने को एक समर्पित अध्यापक के रूप में
प्रस्तुत किया। उन्होंने सदैव समय पर अपनी कक्षाएँ लीं और पूरी निष्ठा और तैयारी
के साथ पढ़ाया। यही कारण है कि वे कर्तव्यनिष्ठ, कुशल तथा लोकप्रिय माने जाते थे।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा अपने मित्रों के प्रति समर्पित
रहे। उन्होंने छात्रों को ही अपनी पूँजी माना। किंतु अनुशासन के मामले में उन्हें
किसी भी प्रकार की शिथिलता पसंद न थी।
रुचियाँ और स्वभाव
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा स्वभाव में पढ़ने-लिखने वाले
व्यक्ति हैं। पैंतीस वर्ष अध्यापन कार्य करते के बाद भी उनका मन चाहता है कि उसी
प्रकार पढ़ाते रहें।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा का प्रकृति के साथ गहरा लगाव है। ऊँचे-ऊँचे
पर्वत, गहरी उपत्यकाएँ, मखमली
कालीन जैसे सीढ़ीनुमा खेत उन्हें बहुत आकर्षित करते हैं । ठंडी-ठंडी हवाओं का
लहराता आँचल, अटखेलियाँ करती वनराशि, गुनगुनी पहाड़ी धूप,
आवारा से आसपास घूमते बादल उनके भावुक मन को भीतर तक गुदगुदाते हैं।
आज भी उनके मन में यह चाह शेष है कि किसी रमणीक पर्वतीय स्थल पर उन्मुक्त प्रकृति
के बीच उसका छोटा-सा घर हो और वे यहाँ रहकर अपना लेखन कार्य करते रहें।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा यात्राप्रिय व्यक्ति है। दक्षिण
भारत के शिल्पगत और प्राकृतिक सौन्दर्य से ने हमेशा प्रभावित रहे है। इसीलिए
उन्होंने के मद्रास(चेन्नई) कोयम्बटूर, मदुरा, रामेश्वरम्,
कन्याकुमारी आदि दक्षिण भारत के स्थलों कई बार यात्राएँ की है।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा जीवन तमाम तरह के दुर्व्यसनों से मुक्त
रहा है। वे शिष्ट आचार के बड़े आग्रही है। अशिष्टता उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं।
अशिष्टता उनके स्वभाव में ही नहीं है।
डॉ.
शर्मा मृदु, गंभीर और विनय स्वभाव के धनी है। वे भाव-प्रवण और संवेदनशील व्यक्ति
है। छोटे-बड़े सभी को यथोचित सम्मान देते हैं। परंतु अनीति और असंगति उनसे सहन
नहीं होती। आवश्यकता पड़ने पर वह गलत बात का विरोध करने में भी नहीं चूकते। इस
संबंध में एक उदाहरण दिया जा सकता है। सन् 1988-90 के दौरान आगरा विश्वविद्यालय के
अध्ययन बोर्ड (बोर्ड ऑफ स्टडीज) में डॉ. शर्मा सदस्य थे। विशेषज्ञ के रूप में एक जाने-माने
सेवामुक्त ‘प्रोफ़ेसर साहब’ एम. ए. हिन्दी में मौखिक परीक्षा समाप्त करने पर तुल
गए। डॉ. शर्मा ने किसी की नाराजगी और दबाव की चिंता किए बिना छात्रों के हित में
उसका तर्कपूर्ण ढंग से जोरदार शब्दों में डटकर विरोध किया। समिति में आदरणीय डॉ.
रामदरश मिश्र तथा नत्थान सिंह भी मौजूद थे। संयोजक डॉ. कृष्णचंद्र खेमका तो कुछ
समय के लिए शर्मा जी के गुरु भी रह चुके थे। कतिपय सदस्य डॉ. शर्मा के तर्कों से सहमत
थे। परंतु सही बात कहकर वे प्रोफ़ेसर साहब
की शान में गुस्ताखी गुस्ताखी नहीं करना चाहते थे। काफ़ी वाद-विवाद चला। मगर डॉ. शर्मा
अपने इस इरादे से टस से मस नहीं हुए। उनकी दृढ़ता का परिणाम यह निकला कि मौखिकी की
परीक्षा को समाप्त नहीं किया जा सका।
डॉ.
गोपाल बाबू के सेवा काल में श्री वार्ष्णेय कॉलेज (अलीगढ़) के हिन्दी विभाग में
उनके विभागाध्यक्ष रहे डॉ. कुंदनलाल उप्रेती का एक संक्षिप्त संस्मरण आलेख (प्यास
का पर्याय : डॉ. गोपाल बाबू शर्मा) ‘साहित्य मंजरी’ के वर्ष 2006 के एक अंक में
छपा। उस संक्षिप्त आलेख में उप्रेती जी ने डॉ. शर्मा के व्यक्तित्व के बारे में बहुत
ईमानदारी के साथ बहुत कुछ कह दिया। उस आलेख के एक छोटे-से अंश से पूरे आलेख की झलक
मिल जाती है –
“नियमित और संयमित जीवन जीने वाला वह इन्सान अत्यंत
कर्तव्यनिष्ठ था। समय से क्लास लेना और समय से छोड़ देना, यह उसकी आदत थी। बिना पूर्व तैयारी को
वह कभी क्लास नहीं लेता था। और जब कभी किसी शब्द का या पंक्ति के अर्थ में उसे
शंका होती, तो वह निःसंकोच मुझसे तथा अपने सहयोगियो से ‘डिस्कस’ कर सही अर्थ जानने की कोशिश करता। यही उसका बड़प्पन था, जो मुझे उसके करीब
लाता जा रहा था। ........ जब कभी (ऐसा कभी-कभी होता था) वह बोलने पर आता तो लगता
है कि उसने ‘जिन्दगी के (कई) चाँद सूरज देखे हैं’, ‘जल को कूल
से बँधा’ हुआ देखा है, और खुद ‘बहुत धूप और कम छाँव’ में चला
है। जरा भी कहीं उससे ‘अनंत वर-कथा’ कहने में चूक होती है, तो वह ‘सॉरी प्लीज’
कहने में भी नहीं हिचकता। लब्बेलुआब यह है कि वह हमेशा दूसरों को अपना ‘मन
समर्पित’ करता हुआ ‘दूधों नहाओ पूतों फलों’ का आशीर्वाद देता रहा है और स्वयं झेलता
रहा है, जिन्दगी की धीमी त्रासदी...” (साहित्य मंजरी, पृ. 9)
सृजन-यात्रा
विपुल मात्रा में सृजन कर्म करने वाले डॉ. गोपाल बाबू
शर्मा की लेखनी ने लेखकीय प्रतिबद्धता तथा सर्जक के दायित्वों का बराबर निर्वहन
किया है। विगत लगभग चार दशकों से अग्रसरित उनकी सृजन-यात्रा समय के साथ संवेदना एवं
शिल्प-शैली की अनेकों विविधताओं को लिए हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि
आज (सन् 2022) तकरीबन अपनी नब्बे वर्ष की आयु में भी इस सर्जक की लेखनी के स्वर की
बुलंदी बरकरार रही है।
साहित्य के विविध रूपों में अपना सर्जनात्मक योगदान देने
वाले गोपाल बाबू के सृजन संसार में जितना शिल्पगत, शैलीगत, रूपगत वैविध्य है, उतना, बल्कि उससे कहीं ज्यादा अनुभूति जगत में
विस्तार और वैविध्य मिलता है। तात्पर्य यह कि संवेदना के स्तर, अनुभूति के आयाम, अभिव्यक्ति के अंदाज आदि समय के
साथ-साथ इनके लेखन में बदलते रहे हैं। उनके साहित्य में भावना और विचार का अद्भुत
योग है। वे जितने भावुक है, उतने ही चिंतक भी। भावुकता का वरण करके उन्होंने प्रेम
और सौन्दर्य को अपनी रचनाओं में और ज्यादा सुशोभित किया है तो दूसरी ओर चिन्तन के
फलस्वरूप अपने समय के जीवन तथा स्थितियों से संबद्ध प्रश्निल संसार को निरूपित
किया और व्यंग्य की पैनी धार से समय की सच्चाइयों से पाठक को रूबरू कराया।
समकालीन हिन्दी साहित्य में डॉ गोपाल बाबू शर्मा की
परिगणना मुख्यतः कवियों और व्यंग्यलेखकों में की जाती है। अर्थात् उनके सृजन-लेखन की
मूल ज़मीन कविता तथा व्यंग्यरचना रही है। इसके अतिरिक्त शोध, समीक्षा, लोकसाहित्य,
निबंध, लघुकथा आदि के क्षेत्र में भी उनकी देन
कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस तरह बहुमुखी प्रतिभा के धनी विरल व्यक्तित्व ने कविता,
व्यंग्य (गद्य), निबंध, आलोचना, अनुसंधान साथ ही साथ संपादन जैसे
बहुविध क्षेत्रों में कलम चला कर प्रचुर मात्रा में उम्दा साहित्य की सृष्टि की
है।
“डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की गणना हिन्दी के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों
में होती है। पाठक एक बार उनके रचनाकर्म से परिचित होता है, तो वह उनकी सब रचनाओं को पढ़ डालना
चाहता है। व्यंग्य लेख, व्यंग्य कविताएँ, विचारोंत्तेजक
दोहे, तर्कपूर्ण शोध आलेख और तटस्थ आलोचनाएँ वे साधिकार लिखते हैं। उनकी दर्जनों
कृतियाँ उनके साहित्यिक कद को बयाँ करती हैं।” (साहित्य मंजरी, पृ. 2)
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की विभिन्न विधाओं एवं विषयों
संबंधित कृतियों की संख्या तकरीबन इकतालीस है। इतना अधिक लेखन उनकी उम्दा साहित्य
सेवा, साथ ही सृजन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता
का प्रमाण हैं। गोपाल बाबू की पुस्तकों से गुजरते हुए पाठक को एक बात को लेकर सहज
आश्चर्य होता है कि उनकी अधिकतर या यूँ कहिए कि लगभग सभी पुस्तकों में भूमिका नहीं
है। दरअसल पुस्तक की भूमिका लिखने-लिखाने के पक्ष में वे नहीं । ऐसा क्यों? इस
प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में बताया है कि - “मेरी
स्पष्ट धारणा है कि, रचनाकार की अपेक्षा उसकी रचनाएँ बोले,
अपने बारे में वे खुद कहें तो ज्यादा अच्छा है।...... प्राक्कथन,
भूमिका आदि किसी के द्वारा लिखी जाती है, वह प्राय:
परिचयात्मक या प्रशंसात्मक ही होती है, समीक्षात्मक नहीं। फिर उनसे क्या लाभ ?” (साहित्य मंजरी, पृ. 5)
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की कृतियाँ
काव्य संग्रह
हमने प्रारंभ में ही इस बात का उल्लेख किया है कि गोपाल बाबू के साहित्यिक व्यक्तित्व का विस्तार विशेष: कविता और व्यंग्य-लेखन से ज्यादा संबद्ध रहा है। ये दो साहित्य रूप इनके हाथों ज्यादा सजे-सँवरे हैं। बहरहाल यहाँ काव्य के संबंध में बात करें तो हम देखते हैं कि गोपाल बाबू के काव्य संसार में संवेदना एवं शिल्प की विविधता अधिक है। काव्य की विविध शैलियों व छंदों से उनका काव्य-संसार समृद्ध है। यथा, दोहा, गीत, ग़ज़ल, हाइकु, मुक्तक, बालगीत, हास्य-व्यंग्य (शैली के संबंध में) आदि। संवेदना या विषय की दृष्टि से भी उनके काव्य फलक व्यापक एवं वैविध्यपूर्ण रहा है। सामान्य से अतिसामान्य, विशेष से अति विशेष विषय को बहुत ही कलात्मक ढंग से अपनी कविताओं में प्रस्तुत करने का गुण इस कवि में भरपूर है। संक्षेप में गोपाल बाबू की काव्य रचनाएँ, काव्यत्व के आस्वाद की दृष्टि से बहुत ही सक्षम है। इन रचनाओं में उनका कविरूप पूर्णरूपेण प्रस्फुटित हुआ है।
शर्मा जी के अब तक कुल उन्नीस कविता संग्रह प्रकाशित हुए
हैं। इन तमाम संग्रहों के नाम एवं प्रकाशन वर्ष इस प्रकार हैं –
1.ज़िन्दगी के चाँद सूरज(सन् 1992, गीत, ग़ज़ल, मुक्तक,
हास्य-व्यंग्य बालगीत संग्रह)
2.कूल से बँधा है जल (सन् 1995, गीत, ग़ज़ल, मुक्तक,
हास्य-व्यंग्य बालगीत संग्रह)
3.समर्पित है मन(सन् 1995, मुक्तक संग्रह)
4.दूधो नहाओ पूतों फलो (सन् 1998, हास्य-व्यंग्य कविता संग्रह)
5.धूप बहुत - कम छाँव(सन् 1998, दोहे तथा संग्रह)
6.सरहदों ने जब पुकारा (सन् 2000, भारत-पाक संबंधी युद्ध कविता संग्रह)
7.कहेगा आईना सब कुछ (सन् 2000, मुक्तक संग्रह)
8.सूख गए सब ताल (सन् 2000, ग़ज़ल संग्रह)
9.मोती कच्चे धागे में(सन् 2004, हाइकु-संग्रह)
10.कुर्सी बिन सब सून(सन् 2013, हास्य-व्यंग्य कविता संग्रह)
11.हमने दाँत गिने सिंहो के(सन् 2014, बाल-कविता संग्रह)
12.काफ़िले रोशनी के (सन् 2014, हाइकु-संग्रह)
13.नाम कमाओ घोटालों में (सन् 2015, हाइकु एवं हास्य-व्यंग्य कविता संग्रह)
14.अँधियारे में दीप जलाएँ (सन्
2015, मुक्तक संग्रह)
15.महके हरसिंगार(सन् 2015, दोहे, कविता तथा हाइकु-संग्रह)
16.आस्था की धूप (सन् 2015, हाइकु-संग्रह)
17.हर तरफ़ मुखौटे (सन् 2016, हास्य-व्यंग्य कविता संग्रह)
18.हर पत्थर पारस नहीं (सन् 2016, दोहा सतसई)
19.आइए राजनीति में (सन् 2021, व्यंग्य कविता संग्रह)
व्यंग्य
संग्रह
डॉ.
गोपाल बाबू की विशेष साहित्यिक ख्याति के प्रमुख आधारों में व्यंग्य सबसे ऊपर रहा
है। व्यंग्य को यदि उनके सृजन का प्राणतत्व भी कहें तो हमारे विचार से अत्युक्ति
नहीं होगी। शैली और विधा दोनों रूपों में उपलब्ध उनका व्यंग्य-बाहुल्य हिन्दी
व्यंग्य विश्व की एक विशिष्ट उपलब्धि है। एक ओर जहाँ हिन्दी कविता की दीर्घकालीन
परंपरा में कबीर, भारतेन्दु,
निराला,
नागार्जुन
जैसे शीर्ष कवियों की व्यंग्यशैली के क्रम में गोपाल बाबू के काव्यसंसार के अनेक
अंशों को हम देख सकते हैं, वहाँ
दूसरी ओर हिन्दी में व्यंग्य को एक शैली के साथ-साथ एक गद्य की स्वतंत्र विधा के
रूप में स्थापित और समृद्ध करने वाली हरिशंकर परसाई,
शरद
जोशी आदि की परंपरा को विकसित करने में इस व्यंग्य लेखक की महती भूमिका रही है। इस
संदर्भ में श्री गोपालदास नीरज का मत है – “शरद जोशी के बाद हिन्दी के जिन कतिपय
रचनाकारों ने व्यंग्य को साहित्य के मंदिर में बड़े पूजा भाव से स्थापित किया,
उनमें
गोपाल बाबू का नाम बड़े प्यार और आदर के साथ लिया जाता है।”
सीधी
और तीखी चोटें करने वाले डॉ. गोपाल बाबू शर्मा के व्यंग्य में हास्य का संस्पर्श
भी कम नहीं है। इसी विशेषता को रेखांकित करते हुए हिन्दी के ख्यातनाम समालोचक
वेदप्रकाश अमिताभ ने अपने एक लेख में डॉ. शर्मा जी को हास्य-व्यंग्य की सहज जुगलबंदी बताया है। उसी आलेख में वेदप्रकाश जी
व्यंग्य में हास्य के पुट की आवश्यकता एवं उपयोगिता के बारे में बताते हैं कि व्यंग्य
के क्षेत्रिय धर्म के पालन में हास्य के स्पर्श में व्यंग्यकार अपनी रचना को गरिष्ठ
और अपठनीयहोने से बचा सकता है। शर्मा जी के व्यंग्यलेखन में इस कौशल को बराबर देखा
जा सकता है। उनका व्यंग्य जितना तीखा है, नुकीला
है, उतना ही पाठक के लिए सहज ग्राह्य।
डॉ.
गोपाल बाबू शर्मा के अब तक कुल सोलह व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं –
1.श्रेष्ठ
व्यंग्य रचनाएँ (1989)
2.वर-कथा
अनंता (सन् 1995)
3.सॉरी
प्लीज़ (सन् 1995)
4.पोथी
पढ़ि-पढ़ि जग जिया (सन् 2000)
5.सास
बिना सब सूना (सन् 2001)
6.जूता
चल रहा है (सन् 2005)
7.रहिमन
पानी छाँड़िये (सन् 2007)
8.एक
कप चाय (सन् 2007)
9.सब
चलता है लोकतंत्र में(सन् 2009)
10.अब
तो राम भरोसे देश(सन् 2011)
11.जय
हो दुर्योधनों की(सन् 2012)
12.स्वार्थ
सरिस धर्म नहीं कोऊ (सन् 2013)
13.अगर
जीभ न होती (सन् 2013)
14.पराई
थाल का भात (सन् 2013)
15.गुरु-कथा
अनंता (सन् 2013)
16.किस्सा
नंगा-झोरी का (2019)
गोपाल
बाबू के व्यंग्य का विषय क्षेत्र बहुआयामी है। परिवार, समाज, राजनीति, शिक्षा,
लेखन-संपादन-प्रकाशन प्रभृति क्षेत्रों की
सामयिक परिस्थितियों एवं घटनाओं से संबद्ध उनका व्यंग्य जनमानस को आंदोलित कर देता
है। वस्तुस्थिति को सामने लाने वाले इस व्यंग्य में प्रभावक्षमता अधिक है। वेदप्रकाश अमिताभ के
मतानुसार – “डॉ. शर्मा के व्यंग्य-हास्य लेख का उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं है। उसका
सुनिश्चित उद्देश्य है अमानवीकरण, धनलिप्सा, कृत्रिमता और विडंबना को बढ़ावा देने
वाले तत्त्वों और स्थितियों का निषेध और प्रतिविरोध।
अन्य साहित्य
जैसा कि हम कह चुके हैं कि डॉ. गोपाल बाबू शर्मा मुख्यतः
कवि एवं व्यंग्यकार के रूप में प्रतिष्ठित है लेकिन साहित्य की अन्य विधाओं में भी
उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। कविता एवं व्यंग्य से इतर साहित्य की झलक यहाँ
प्रस्तुत है –
लघुकथा संग्रह
1. काँच के कमरे (सन् 2007)
2. तीस हज़ारी दावत (सन् 2014)
शर्मा जी के उपर्युक्त दो लघुकथा संग्रह प्रकाशित हुए
हैं। इनकी लघुकथाओं में समसामयिक परिवेश का नज़र आना तो स्वाभाविक है ही, साथ ही ये
लघुकथाएँ समाज में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार करने की भरपूर शक्ति-सामर्थ्य
रखती है। व्यंग्य इन लघुकथाओं को उत्कृष्ट बनाने में एक सहयोगी तत्त्व के रूप में उभरकर
आया है।
शोध समीक्षात्मक कृतियाँ
1. अनुसंधान और अनुशीलन (सन् 2007)
2. हिन्दी गद्य के विविध रंग (सन् 2014)
वर्ष 2007 में प्रकाशित ‘अनुसंधान और अनुशीलन’ पुस्तक
में शोधपरक एवं समीक्षात्मक निबंधों स्थान दिया गया है। इस पुस्तक के माध्यम से
शर्मा जी ने अनुसंधान के उच्चतर कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इतना ही नहीं इसी के
साथ उन्होंने साहित्य के कुछ अल्पज्ञात और विस्मृत पृष्ठों को फिर से जीवंत किया
है। यह पुस्तक शोधार्थीयों, साहित्य प्रेमियों के लिए बहुत ही उपयोगी है।
‘हिन्दी गद्य के विविध रंग’ डॉ. शर्मा की शोध-समीक्षात्मक
कृति है। जिसमें 5 संस्मरण, एक भेंट-वार्त्ता, 7 आलेख एवं लोक जीवन से संबंधित 3
आलेख शामिल है।
लोकसाहित्य
वर्ष 2008 में प्रकाशित डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की लोकसाहित्य
से संबंधित पुस्तक ‘लोक जीवन में नारी-विमर्श’ में लोक जीवन में नारी की
स्थिति-उपस्थिति, उसके जीवन संघर्ष, नारी के प्रतिवाद एवं उससे संबंधित रूढ़ियों के
बारे में विमर्श को प्रस्तुत करते कुल 25 आलेख संकलित है।
निबंध संग्रह
गोपाल बाबू जी के विविध विषयों से संबंधित 18 निबंध उनकी
पुस्तक ‘जीना सीखें’ (सन् 2008) में प्रकाशित हुए हैं।
संपादित कृतियाँ
‘हिन्दी गद्य विविधा’ (एम. ए. हिन्दी उत्तरार्द्ध के लिए
निर्धारित पाठ्यक्रम पुस्तक, आगरा वि. वि. प्रकाशन संख्या 81)
सह-संपादन
‘भारतीय काव्य चिंतन’, ‘भारतीय काव्य शास्त्र : विविध
आयाम’ आदि सात पुस्तकें।
स्फुट लेखन
शर्मा जी की रचनाओं को अनेक आला दर्जे की पत्र-पत्रिकाओं
में भी स्थान मिलता रहा। इनमें विशाल भारत, सरस्वती, नवनीत, धर्मयुग, साप्रा. हिन्दुस्तान, सरिता, मुक्ता, मनोरमा,
कादम्बिनी, भाषा, कथा-बिम्ब,
बाल-सखा, नन्दन, पराग,
नवभारत टाइम्स, हाइकु-भारती, हरिगन्धा, हिन्दी चेतना आदि पत्र-पत्रिकाओं में
कविताएँ, गीत, ग़ज़ल, दोहे, हाइकु, मुक्तक, लघुकथाएँ, लेख तथा व्यंग्य आदि
प्रकाशित।
हिन्दुस्तानी, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सम्मेलन-
पत्रिका, सप्तसिन्धु, परिषद्- पत्रिका,
ब्रज-भारती आदि में शोध आलेख प्रकाशित।
स्तम्भ-लेखन
‘अमर उजाला’ में ‘तरकश’ तीर-ए-नज़र और डी. एल ए. (आगरा)
में काफ़ी समय तक व्यंग्य-लेखन।
प्रसारण
मथुरा, आगरा तथा दिल्ली के आकाशवाणी केन्द्रों से वार्ताओं, कविताओं तथा हास्य-व्यंग्य रचनाओं का प्रसारण।
कृतित्व पर शोध कार्य
डॉ. बी. आर. आम्बेडकर वि.वि., आगरा अन्तर्गत पी.एच.डी. हेतु (सन् 2022 ई. में) शोध प्रबन्ध तथा एम.ए., एम. फिल्. में (वर्ष
2001, 2015, 2016 में) लघु शोध प्रबन्ध लिखे जा चुके हैं।
पाठ्यक्रमों में
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद् (N.C,E.R. T. ) दिल्ली की पाठ्य पुस्तक ‘भाषा
भारती' भाग - 3 में व्यंग्य निबन्ध तथा अन्य प्रकाशनों के
पाठ्यक्रमों में कविताएँ तथा लेख चयनित।
पद-स्थान
विभिन्न शैक्षिक, साहित्यिक तथा सांस्कृति संस्थानों में सचिव, अध्यक्ष, समन्वयक, परामर्शता
आदि पदों पर कार्य ।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा आकाशवाणी, आगरा की कार्यक्रम सलाहकार समिति के मनोनीत सदस्य (सन् 1995 से 2000 तक)
रहे।
सम्मान एवं पुरस्कार
·
ब्रज-विभूति ( सन् 1996)
अखिल
भारतीय ब्रज साहित्य संगम, मथुरा(उ. प्र.)
·
श्री रवीन्द्र भ्रमर पुरस्कार (सन् 2000)
राजकीय कवि एवं औद्योगिक
प्रदर्शनी अलीगढ़, साहित्यकार सम्मलेन द्वारा
·
साहित्य श्री (सन् 2002)
ग्रंथायन, सासनीगेट, अलीगढ़
·
हिन्दी भाषा-भूषण (सन् 2015)
साहित्य मण्डल, श्री नाथ द्वारा (राजस्थान)
·
सम्मान : हिंदी
भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र उल्लेखनीय सेवाओं के लिए (2016)
नागरी प्रचारिणी सभा, आगरा।
·
पं. दीनदयाल उपाध्याय स्मृति सम्मान (सन् 2017)
संस्कार भारती आगरा (उ.
प्र.)
वड़ोदरा
एक रुक्नी अनूठी ग़ज़लें : एक अनूठा संकलन
समीक्षक - हिमकर श्याम
एक रुक्नी अनूठी ग़ज़लें, बज़्मे-हफ़ीज़ बनारसी, पटना के चेयरपर्सन और प्रख्यात शायर रमेश कँवल द्वारा
संकलित एवं संपादित एक अनूठा ग़ज़ल संकलन है, जो एनी बुक प्रकाशन से आकर्षक कलेवर में छपकर आया है।
वरिष्ठ ग़ज़लकार डॉ. ब्रह्मजीत गौतम ने इस संग्रह की भूमिका लिखी है।
रमेश जी ने ग़ज़लों पर कई किताबें संपादित की हैं। इनके
द्वारा संपादित ‘इक्कीसवीं सदी के इक्कीसवें साल की बेहतरीन ग़ज़लें’ और ‘2020 की नुमाइंदा ग़ज़लें’ किताब भी नायाब थी और ख़ूब चर्चित भी
रही थी। इस बार उन्होंने एक ही रुक्न पर लिखी गई ग़ज़लों का संकलन/संपादन किया है।
इस संग्रह के प्राक्कथन में वह लिखते हैं कि दो रुक्न से 16-16 रुक्न में ग़ज़लें कही गयी हैं। एक रुक्नी ग़ज़लें कहना आसान
नहीं है। एक रुक्न के दो मिसरों (शेर) में पूरी बात कहना बहुत मुश्किल फ़न है।
उनकी बात बहुत हद तक सही भी है।
एक ग़ज़ल में सात से लेकर ग्यारह तक शे’र हो सकते हैं। एक
शे’र दो मिसरों यानी दो पंक्तियों से बनता है। रुक्न किसी भी ग़ज़ल का आधार होता है।
ये वज़्न ही है जो किसी ग़ज़ल को बहर में रखता है। हर बहर के लिए पहले से ही रुक्न
निर्धारित है। रुक्न का बहुवचन अरकान होता है। इन्हीं अरकानों के आधार पर फ़ारसी
मे बहरें बनीं। अरकान मूलतः सात होते हैं , जिनसे आगे चलकर बहरें बनीं। ये मूल अरकानों हैं फ़ऊलुन,
फ़ाइलुन, मुफ़ाईलुन, मुस्तफ़इलुन, मुतफ़ाइलुन,फ़ाइलातुन और मुफ़ाइलतुन। इन रुक्नों की आवृत्ति से क्रमश:
मुतक़ारिब, मुतदारिक, हज़ज,
रजज़, कामिल, रमल और वाफ़िर बहरें बनती हैं। एक रुक्न का मिसरा और दो
रुक्न का शे'र लिखना आसान नहीं होता। ग़ज़ल कहना तो और भी कठिन। लेकिन इन पर देश भर के
चुनिंदा शायरों से ग़ज़लें कहलवाना और उन ग़ज़लों को संकलन के रूप में लाने का संपादक
का प्रयास सफल रहा। निःसन्देह एक अनूठा और प्रशंसनीय कार्य हुआ है। ग़ज़ल के प्रति
रमेश कँवल जी की निष्ठा, समर्पण और लगन न केवल प्रशंसनीय है,
अपितु नई पीढ़ी के लिए प्रेरणास्पद भी है।
देश भर के 29 शायरों की लगभग डेढ़ सौ ग़ज़लें इस किताब में संकलित हैं। इन शायरों के नाम
क्रमशः अमित अहद, अरविन्द असर, असग़र शमीम, अस्मा सुबहानी, आनंद पाण्डेय तन्हा, ए. एफ, नज़र, ऐनुल बरौल्वी, ओंकार सिंह विवेक , कालजयी घनश्याम , डॉ आनंद किशोर , डॉ कविता विकास, डॉ नूतन सिंह, डॉ ब्रह्मजीत गौतम, धर्मेन्द्र गुप्त साहिल, नवीन चतुर्वेदी, निर्मला कपिला, पवन शर्मा, प्रेम रंजन अनिमेष, महेश जोशी अनल, रमेश कँवल, रवि खंडेलवाल, राज कांता, विकास सोलंकी, विज्ञान व्रत, शरद रंजन शरद , शुचि भवि, शुभ चन्द्र सिन्हा, सुधा सिन्हा और हिमकर श्याम हैं। करीब 17 शायरों ने ही सातों रुक्न में ग़ज़लें कही हैं। सभी एक से
बढ़कर एक हैं। सब का अंदाज़ जुदा ,तेवर जुदा है। सभी की अभिव्यक्ति समान रूप से प्रभावी है।
ग़ज़ल ने अरबी, फ़ारसी, उर्दू से होते हुए हिन्दी तक का बहुत लम्बा और कामयाब सफ़र
तय किया है। अगर साहित्य में किसी एक विधा ने सबसे अधिक लोकप्रियता हासिल की है,
तो वह है ग़ज़ल। ग़ज़ल शुरू से ही इंसानी जज्बातों के बयान का एक जरिया रही है
और वक्त,
माहौल के मुताबिक इसमें बदलाव होते रहे हैं। इस कड़ी में 'एक रुक्नी अनूठी ग़ज़लें' एक नया प्रयोग है। यह संकलन एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ के रूप
में साहित्य में दर्ज होगा, मुझे यक़ीन है।
ग़ज़ल संग्रह : एक रुक्नी अनूठी ग़ज़लें
संकलन एवं संपादन : रमेश कँवल
प्रकाशक : एनी बुक
पृष्ठ : 119
मूल्य : 250/-
हिमकर श्याम
राँची
शब्द-सृष्टि फरवरी 202 5 , अंक 5 6 परामर्शक की कलम से : विशेष स्मरण.... संत रविदास – प्रो.हसमुख परमार संपादकीय – महाकुंभ – डॉ. पूर्वा शर्...