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शुक्रवार, 31 मार्च 2023

लघुकथा

 



माँ

कृष्णा वर्मा

अकस्मात् पिता की मृत्यु होने पर राजीव को बहुत धक्का लगा। माँ का रो-रोकर बुरा हाल था।

ग़मगीन सा राजीव सोचों के घेरे से बाहर ही नहीं आ पा रहा था। माँ का क्या करूँगा। अभी दो दिन पहले ही तो नौकरी का नियुक्ति-पत्र मिला है। इतनी मुश्किलों से तो अमरीका में नौकरी मिली है। इसी उधेड़बुन में पिता की तेरहवीं भी हो गई। 

शांतिपाठ समाप्त होते ही राजीव से उसकी बुआ ने पूछा राजीव अमरीका जाने का क्या सोचा। कुछ समझ नहीं आ रहा बुआ! मैं तो बहुत दुविधा में हूँ। एक तरफ सोचता हूँ, यही अवसर है।

अपना करियर बनाने का। हाथ आया इतना बढ़िया मौका गँवा दिया, तो फिर जाने कभी मिले या ना मिले। और दूसरी ओर सोचता हूँ कि मम्मी अकेली कैसे रहेंगी। 

राजीव को समझाते हुए बुआ बोली अरे बेटे तू भाभी की फिक़र क्यों करता है।  करियर बनाने का समय निकल गया, तो हाथ में केवल पछतावा ही रह जाएगा।  तुम्हारी मम्मी तो ख़ुद ही एक करियर ओरियन्टिड वूमन रही हैं। भला करियर के मामले में भाभी से अच्छा कौन जानता है। अकेली संतान होते हुए भी अपनी नौकरी की वजह से ही तो तुझे वह कभी समय नहीं दे पाईं। 

राजीव के कंधे पर प्यार से हल्की सी चपत लगाते हुए तंज़िया लहजे में बोली तुझे तो सब याद ही होगा, पूरा बचपन तूने नैनी के साथ ही तो बिताया है। 

फिर भाभी का अपना घर है, पढ़ी-लिखी हैं और अब तो रिटायर भी हो गई हैं। इनके लिए चौबीस घंटे साथ रहने वाली एक आया का इंतज़ाम कर दे, जो इनकी देखभाल करे। 

भाभी की ओर ताककर उनका पश्चाताप पढ़ते हुए बोली क्यों ठीक कह रही हूँ ना भाभी! 

कृष्णा वर्मा

कैनेडा 


शुक्रवार, 10 जून 2022

लघुकथा

 



बी प्रैक्टिकल

कृष्णा वर्मा

          इस उम्र में भी ग़ज़ब की ऊर्जा थी उसमें। दिन भर परिवार के लिए भागती-दौड़ती रहती। बेटे के बच्चों के मोह ने उसे बूढ़ा होने ही कहाँ दिया था। कामकाजी बहू की सास जो ठहरी। दोनों बच्चे उसी के हाथों ही तो पले थे, मोह तो स्वभाविक ही था। यहाँ तक कि हिस्से का निवाला जब तक उन्हें खिला न लेती तृप्ति नहीं होती थी उसे, बस उन्हीं की सेवा टहल में जुटी रहती और अनोखे सुख का अनुभव करती।

          रात खाने की मेज़ पर बेटे ने अपनी प्रमोशन के विषय में बताया कि वह बैंक मनेजर बन गया है।

          कुछ सोचती हुई माँ बोली, “बेटा इस प्रमोशन का ज़िक्र तो तूने कुछ समय पहले भी किया था तो क्या उस समय तूने स्वीकार नहीं किया था।”

          नहीं माँ, उस समय स्थानांतर मुमकिन नहीं था। आप तो जानती ही हैं नौकरी के साथ दो छोटे बच्चों की अकेले देख-भाल करना नमिता के लिए कितना मुश्किल होता। अब तो यह दोनों बड़े हो गए हैं।

          आश्चर्य से बेटे को देखते हुए माँ बोली, “क्यों मैं भी तो साथ होती।”

          खिस्यानी आवाज़ में बेटा बोला, “उस समय बस यही सोच कर रुक गया था कि तुम्हारी भी तो उम्र हो रही है,  तुम भला हमारे साथ कहाँ भटकती रहोगी।  

          बेटे की बात सुनकर कामिनी को सब समझ आ गया। खाली-खाली आँखों से छत की ओर देखती उसके आँसू बह निकले।

          बेटा माँ के कंधों को हल्के से दबाते हुए बोला, “इसमें उदास होने की कौन-सी बात है, मैं कौन सा विदेश जा रहा हूँ। तुम यहीं रह कर आराम करो। किसी बात की चिंता मत करना, पैसे मैं बराबर भेजता रहूँगा। बी प्रैक्टीकल माँ!!।”

कौन जाने अपनों के हाथों का स्पर्श आज कामिनी के कंधों को कितना शिथिल कर गया था।   

-०-


 

कृष्णा वर्मा

कैनेडा

शनिवार, 11 सितंबर 2021

कविता

 


पतझड़ की वेदना

कृष्णा वर्मा

टीस के तिमिरताल में

शिशिरीय हवा संग डोलता

डूबता तिरता

अविचल आतुर मन

सांझ का एकाकीपन

सियराती शीतल हवाएं

और पसरता मौन

खिड़की के पार सुदूर खड़े

पतझड़ी वृक्षों की वेदना जान

कसमसा उठता है मन

आहिस्ता से स्मृति झरोखे से

दाखिल हो आता है

तरु का सावनी अस्तित्व

शाख़ों का लहलहाना

पल्लवों का खनखनाना

हवा के गीतों संग थिरकना

अल्हड़ झोंकों संग

झूम-झूम कर ताली बजाना

कैसी यह नियति

ऋतु की एक करवट

हँसते खेलते जीवन का

पलट कर रख देती है सर्वस्व

हरे से पीला पीले से लाल

फिर भूरा होता जीवन

आफ़ताब के रंगों में नहाता

 

विलय की ओर बढाता क़दम

चरमराता तड़पड़ाता

विलीन हो जाता है होनी की गोद में

गतिहीन शब्दहीन विस्मित निस्तब्ध सी मैं

झरोखे के पार

खुले आसमान से

झाँकते हुए ध्रुव तारे को

टकटकी लगाए निहारती हुई

गुमसुम सोच रही हूँ

काश! तुमसा ही अटल होता सबका जीवन

तो कभी कोई यूँ न होता निराश उन्मन उदास।

 



कृष्णा वर्मा

कैनेडा

शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

लघुकथा

1.

 सबका मालिक एक  

(लघुकथा सुनने के लिए  क्लिक करें 👆👆)

गाँव से लौटी अम्मा चूल्हे के पास पड़ी चूलें हिली बेरंग छोटी- सी अल्मारी में नून ,तेल दालें और आटे से भरा कनस्तर देखकर एक बारगी ऐसे चुप खड़ी रह गई ,जैसे कुछ सोचने समझने की शक्ति ही न बची हो।  हैरान होते हुए, “अरे! आसिम यह क्या– कोई लाटरी-वाटरी लग गई क्याया फिर…” कहते-कहते चुप हो गई।

“हम ग़रीबों के भाग में लाटरी कहाँ अम्मी।”

“तो यह सब इतना सारा राशन-वाशन।”

“छोड़ो अम्मी जाओ बस आज तो कुछ अच्छा सा खाना पका के खिलाओ।”

“सो तो ठीक है पर बता तो सही यह सब।”

“तुम यूँ समझ लो कि अल्लाह ने हमारी सुन ली। साल दो साल की दिहाड़ियाँ तो पक्की हो ही गईं ”- आँखों को खुशी से फैलाते हुए, “ठेकेदार को बहुत बड़ा मंदिर बनाने का ठेका जो मिला है। यूँ तो दिहाड़ी सुबह से शाम तक की होती है ;पर यहाँ तो रात के बारह-बारह बजे तक का काम मिला है। मतलब एक दिन में ढेड़ दिन की कमाई।”

कानों पर हाथ रखते हुए,  “ हाय अल्लाह यह क्या सुन रही हूँ। ख़ुदा ख़ैर करे–मुसलमान हो कर किसी मंदिर की चिनाई का काम करेगा।”

“क्यों अम्मी इसमें बुराई क्या है। इसी मंदिर के काम की ख़ातिर ही तो आज पहली बार घर में राशन की बहार देख रही हो। मंदिर का काम करने से जब मेरा अल्लाह ख़ुश है ,तो तुम्हें क्यों एतराज़ है। तुम्हीं न कहा करती थीं कि इस जहान में सबका मालिक एक है।”


2.

शून्य का बोझ

(लघुकथा सुनने के लिए  क्लिक करें 👆👆) 

प्रकाश की पत्नी  का असमय देहांत हो गया। पत्नी से अगाध प्रेम करने वाले प्रकाश ने कभी दूसरी शादी करने का सोचा तक नहीं। नन्हे आशीष को माँ और बाप दोनों का प्यार देकर पाला-पोसा।

प्रकाश की छोटी सी प्राइवेट नौकरी थीमगर बेटे के लिए सपने बड़े-बड़े सजाए थे। अपनी अथाह लगन और मेहनत से उसे ख़ूब पढ़ाया -लिखाया।

पढ़-लिखकर बेटे को बड़े शहर की बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई। जाते हुए बेटा बोला, “पापा जल्दी ही मैं आपको अपने पास ले जाऊँगा। यह सुन कर प्रकाश ने सुख की साँस ली और बाकी बची ज़िंदगी आराम से बेटे के साथ काटने के सुखद सपने लेने लगा।

उधर बेटा नई नौकरी और बड़े शहर के सुख आनन्द में ऐसा मस्त हुआ कि पिता को ले जाना जैसे भूल ही गया। इधर प्रकाश इंतज़ार में दिनों-दिन सूखता गया।

एक दिन आशीष के मित्र राघव ने उसे अपने पिता की रिटायरमेंट की कुछ तस्वीरें दिखाईं तो आशीष को याद आया कि उसके पिता तो पिछले कई महीनों से रिटायर हो गए होंगे। परेशान- सा हुआ सोचने लगा मुझे तो उन्हें लेने जाना था। इतनी बड़ी भूल कैसे हो गई मुझसे। पापा तो जाने क्या-क्या सोच बैठे होंगे। अगले ही दिन वह पिता को अपने साथ लिवाने के लिए घर रवाना हो गया।

पिता की ख़स्ता हालत देखकर हैरान होता हुआ बोला, “क्या हुआ पापा! आप इतने कमज़ोर कैसे हो गए। आपने अपना ज़रा भी ख़्याल नहीं रखा। देखो तो कंधे कितने झुक गए हैं और आपसे तो ठीक से चला भी नहीं जा रहा।”

लेकिन एक बात बताओ ,आजकल तो आप रिटायर भी हो गए हैंफिर ऐसा कौन-सा काम करते रहे कि सेहत इतनी गिर गई।”

बेटे की बात सुन कर धीरे से प्रकाश कुर्सी से उठा और अपनी पतलून की दोनों ख़ाली जेबों को बाहर निकाल कर उसे दिखाते हुए शिथिल आवाज़ में बोला, “तुम्हारा इंतज़ार बेटा!”

 


कृष्णा वर्मा

कनाडा


अगस्त 2025, अंक 62

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