मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

दिसंबर 2024, अंक 54



शब्द-सृष्टि

दिसंबर 2024, अंक 54  

प्रसंगवश – ‘भारतीय भाषा उत्सव’ – प्रो. हसमुख परमार

दिन कुछ ख़ास है! – ‘विश्व ध्यान दिवस’ : ‘मनो विजेता जगतो विजेता’ – डॉ. पूर्वा शर्मा

शब्द संज्ञान – 1. सादा शब्द के विविध प्रयोग 2. त्यौहार, उत्सव तथा पर्व – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

व्याकरण विमर्श – तत्पुरुष समास – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

स्मृति शेष – जाना एक सरल किंतु विरले अर्थशास्त्री का …(डॉ. मनमोहन सिंह) – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

पुस्तक चर्चा – हरि अनंत हरि कथा अनंता : विशेष संदर्भ ‘इति बेद बदंति न दंत कथा’ – डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

कविता – मुश्किल – मीनू बाला

आलेख – शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव की अन्य पाँच पुत्रियाँ – सुरेश चौधरी

कविता – प्रकृति हमारी माता – डॉ. राजकुमार शांडिल्य

आलेख – हान कांग और उनका लेखन – प्रो. गोपाल शर्मा

कविता – चाय और जीवन का नारीत्व –अश्विन शर्मा

लघुकथा – 1. तेरा मेरा साथ रहे 2. ‘लकी’ – अनिता मंडा

कविता – 1.चीर हरण (रोला छंद) 2. सिया के राम (गीतिका छंद) – डॉ. अनिल कुमार बाजपेयी

अनुवाद – स्वर्ण नगर (तमिल कहानी) – पुदुमैपित्तन (हिन्दी अनुवाद - डॉ. सफ्राम्मा)

लघुकथा – बिटिया – प्रीति अग्रवाल

सामयिक टिप्पणी – … जहाँ गाली देना दंडनीय है! – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

विशेष – प्रकृति में सौंदर्य बिखेरते सुंदर पक्षी – मोहिनी शर्मा

स्मृति शेष

 

जाना एक सरल किंतु विरले अर्थशास्त्री का …

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का 26 दिसंबर, 2024 को 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनका जीवन सादगी, विद्वत्ता और राष्ट्र के प्रति अटूट समर्पण का प्रतीक था।

26 सितंबर, 1932 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत के गाह गाँव में जन्मे डॉ. सिंह ने विभाजन के बाद अपने परिवार के साथ अमृतसर में नया जीवन शुरू किया। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त की और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की। शैक्षणिक क्षेत्र में उनकी गहरी समझ और समर्पण ने उन्हें संयुक्त राष्ट्र सहित विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संगठनों में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाने का अवसर प्रदान किया।

डॉ. मनमोहन सिंह का आर्थिक दर्शन भारतीय परंपरा और वैश्विक सोच का संयोजन था। उनका मानना था कि विकास का लक्ष्य केवल आर्थिक वृद्धि नहीं, बल्कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक इसका लाभ पहुँचाना है। 1991 में भारत को आर्थिक संकट से उबारने के दौरान, उन्होंने एक सशक्त और आत्मनिर्भर भारत की नींव रखी। उनके द्वारा लागू किए गए उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (एलपीजी - लिब्रेलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) के उपायों ने भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ते हुए विकास का एक नया मार्ग दिखाया।

डॉ. सिंह की नीति में समावेशिता को प्रमुखता दी गई। उन्होंने न केवल बड़े उद्योगों को प्रोत्साहन दिया, बल्कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों (एमएसएमईज़) को भी सुदृढ़ बनाने के लिए कदम उठाए। उनके नेतृत्व में वित्तीय संस्थानों का पुनर्गठन हुआ और विदेशी निवेश को प्रोत्साहित किया गया। यह उनकी दूरदर्शिता थी कि आज भारत डिजिटल और तकनीकी क्षेत्र में अग्रणी बन सका है।

डॉ. सिंह का विश्वास था कि आर्थिक विकास तभी सार्थक है, जब वह समाज के कमजोर और वंचित वर्गों को सशक्त बनाए। उनके नेतृत्व में सामाजिक कल्याण की योजनाओं, जैसे कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) ने करोड़ों लोगों के जीवन स्तर को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी आर्थिक नीतियों ने कृषि, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में भी सुधार की गति को तेज किया।

डॉ. सिंह का सार्वजनिक जीवन विविध और प्रभावशाली रहा। वह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार जैसे महत्वपूर्ण पदों पर आसीन रहे। 1991 में, जब भारत गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा था, उन्होंने वित्त मंत्री के रूप में देश की अर्थव्यवस्था को उदारीकरण की दिशा में अग्रसर किया, जिससे भारत वैश्विक मंच पर एक मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा। स्मरणीय है कि 1995 में वित्त मंत्री रहने के दौरान राष्ट्र के विकास में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें ‘युद्धवीर पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया था।

2004 में, डॉ. सिंह ने भारत के 13वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली और 2014 तक इस पद पर रहे। उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) और सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई) जैसे महत्वपूर्ण कानून पारित हुए, जिन्होंने सामाजिक न्याय और पारदर्शिता को बढ़ावा दिया। इसके अतिरिक्त, उनके कार्यकाल में भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौता संपन्न हुआ, जिसने भारत की ऊर्जा सुरक्षा को मजबूत किया।

डॉ. सिंह की विनम्रता और सादगी ने उन्हें जनता के बीच विशेष स्थान दिलाया। विपक्षी दलों के नेता भी उनकी ईमानदारी और निष्ठा की प्रशंसा करते थे। उनकी नेतृत्व शैली में धैर्य, संयम और सभी पक्षों की बात सुनने की क्षमता प्रमुख थी, जो आज के राजनीतिक परिदृश्य में दुर्लभ गुण हैं।

अपनी विद्वत्ता और नीति-निर्माण में दक्षता के बावजूद, डॉ. सिंह को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान कुछ घोटालों और विवादों ने उनकी सरकार की छवि को धूमिल किया, लेकिन व्यक्तिगत रूप से उनकी ईमानदारी पर कभी प्रश्नचिह्न नहीं लगा। उन्होंने हमेशा अपने कर्तव्यों का निर्वहन निष्ठा और पारदर्शिता के साथ किया।

डॉ. सिंह का जीवन उन मूल्यों का प्रतीक है, जो आज की राजनीति में प्रासंगिक और आवश्यक हैं। उनकी विद्वत्ता, सादगी, ईमानदारी और राष्ट्र के प्रति समर्पण हमें प्रेरित करते रहेंगे। उनका निधन देश के लिए एक अपूरणीय क्षति है, लेकिन उनकी विरासत आने वाली पीढ़ियों को मार्गदर्शन प्रदान करती रहेगी।

हम डॉ. मनमोहन सिंह को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं …!


डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

 

व्याकरण विमर्श

तत्पुरुष समास

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

लोकनायक, कैलाशनाथ, उमापति, कामदेव, देवकीनंदन, अंगहीन, द्वारकाधीश, द्वारकानाथ, रघुनंदन ........।

ऐसे बहुत सारे शब्द हैं, जिन्हें हम सभी तत्पुरुष समास के उदाहरण समझते हैं - मानते हैं।

लेकिन अमेजॉन व्याकरण में ये सभी शब्द बहुव्रीहि समास के अंतर्गत दिए गए हैं।

लेखक का यह मानना है कि इन शब्दों में तत्पुरुष समास भी है तथा बहुव्रीहि भी है।


तब तो तत्पुरुष समास वाले सारे शब्दों में बहुव्रीहि होगा।

सिर्फ विग्रह बदल देना है।


लोकनायक - लोक का नायक (तत्पुरुष)

                 - वह जो लोक का नायक है।

उमापति    -  उमा के पति (तत्पुरुष)

               - वह जो उमा के पति हैं

रसोईघर  -  रसोई के लिए घर (तत्पुरुष)

              - वह जो रसोई का घर हैं।

धनहीन  -  धन से हीन (तत्पुरुष)

             - वह जो धन से हीन है।

विद्यालय - विद्या का आलय (तत्पुरुष)

             - वह जो विद्या का आलय है।

रोगग्रस्त  - रोग से ग्रस्त (तत्पुरुष)

              - वह जो ऱग से ग्रस्त है।

यहाँ मैं अपने विचार पर जोर नहीं दे रहा हूँ।

लेकिन मेरा सवाल है – बहुव्रीहि तथा तत्पुरुष के बीच संस्कृत व्याकरण में क्या भेदक रेखा मानी गई है?

बहुव्रीहि समास क्या रबर का तंबू है, जिसमें पूरा का पूरा तत्पुरुष समास ही समा जाए?

 

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड

बाकरोल-388315,

आणंद (गुजरात)

 



शब्द संज्ञान

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

1

सादा शब्द के विविध प्रयोग

सादा जीवन -

बिना किसी शान-शौकत का जीवन, ऐसा जीवन जिसमें कोई दिखावा न हो, पारदर्शी जीवन, बहुत अधिक सुख सुविधा से रहित जीवन, दंभ रहित जीवन।

(सीधा) सादा आदमी -

छल कपट रहित सरल आदमी, भरोसे का आदमी, जिसके जीवन में किसी प्रकार का दिखावा न हो, ऐसा आदमी।

सादा भोजन। -

बहुत अधिक तेल-मसाला से रहित भोजन, पौष्टिक भोजन।

सादा कागज -

ऐसा कागज जिस पर कुछ लिखा गया न हो। कोरा कागज।

सादी बात -

ऐसी बात जो सरलता से समझ में आ जाए, ऐसी बात जो छल-कपट रहित हो, हितकर बात।

सादा कपड़ा  - 

ऐसा कपड़ा जो भड़कीला न हो, हल्के रंगों वाला कपड़ा।

***

2.

त्यौहार, उत्सव तथा पर्व में अंतर क्या है?

ये तीनों ऐसे शब्द हैं, जिनमें मूलभूत अतर नहीं है। ये तीनों एक दूसरे से बिल्कुल अलग नहीं हैं।

ये तीनों जीवन में प्रसन्नता व्यक्त करने वाले अवसरों से जुड़े हैं।

जो अंतर है, वह इनके प्रयोग के संदर्भ का अंतर है।

 

पहले उत्सव को लेते हैं।

सामूहिक या सार्वजनिक तौर पर आयोजित होने वाले वे सभी कार्यक्रम 'उत्सव' कहलाते हैं, जो हमारे जीवन में हर्ष और उल्लास का संचार करते हैं।

उत्सव शब्द का अर्थ-क्षेत्र बहुत व्यापक है। उत्सव धार्मिक भी हो सकता है, सामाजिक भी हो सकता है, निजी या व्यक्तिगत भी हो सकता है।

कृष्ण जन्मोत्सव (धार्मिक), पुत्र जन्मोत्सव (निजी), विवाहोत्सव, तिलकोत्सव, वसंतोत्सव, मदनोत्सव आदि अनेक प्रकार के उत्सव हो सकते हैं।

हम अपने जीवन की किसी भी सुखद घटना को उत्सव का रूप दे सकते हैं।

 

त्यौहार/त्योहार (तिथि+वार) सामान्यत: धार्मिक ही होते हैं, जिनका समय पंचांग के अनुसार तय होता है और जो शास्त्रीय विधि-विधान से मनाए जाते हैं।

होली का त्यौहार, दीपावली का त्यौहार, जन्माष्टमी का त्यौहार, रामनवमी का त्यौहार आदि।

 

पर्व थोड़ा सीमित विषय है। बहुत कम अवसर पर्व के अंतर्गत आते हैं। परंतु पर्व का आयोजन बहुत व्यापक पैमाने पर होता है।

सामान्यतः यह धार्मिक ही होता है। इसमें ग्रह-नक्षत्रों की गति और स्थिति का विशेष महत्त्व होता है। इनका संबंध प्रमुख धार्मिक स्थलों तथा तीर्थ-स्थलों से अधिक होता है। इसमें स्नान-ध्यान, दान-पुण्य का अधिक महत्त्व होता है।

जैसे - कुंभ एक पर्व है।

संक्रांति का पर्व।

कुंभ त्यौहार नहीं है। कुंभ कोई उत्सव भी नहीं है। कुंभ एक पर्व है।

परंतु इनके अलावा आधुनिक समय में स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस को भी राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है।

संभवतः इनके महत्त्व को दर्शाने के लिए।

 

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड

बाकरोल-388315,

आणंद (गुजरात)

 

विशेष

 


प्रकृति में सौंदर्य बिखेरते सुंदर पक्षी

मोहिनी शर्मा

आँखों देखी :- गत वर्ष अप्रैल के अंतिम सप्ताह में घर के गमले में लगे PALM TREE की एक नाजुक शाखा के ऊपर एक पक्षी (जो शायद SUNBIRD की प्रजाति है) ने दो-चार तिनके लाकर टांग दिए और देखते ही देखते कुछ दिनों में उसे एक घोंसले का रूप दे दिया। तिनका-तिनका अपनी चोंच में लाना और अपने घोंसले को कुशल कारीगर की तरह निरंतर बिना थके उसे भविष्य की सुविधा हेतु तैयार करना। मैं लगभग निरंतर उसे देखते हुए सोचती रहती कि वह PALM की उस कोमल शाखा पर जो हवा के हलके झोंकों से झूमती है कितने समय तक प्रयासरत रहेगी। लेकिन उसकी मेहनत ने घोंसले का रूप ले लिया। मादा पक्षी ने स्वयं उसमें बैठना आरंभ कर दिया और जिस उद्देश्य के लिए घौंसला तैयार किया था वह दो बच्चों को अंडे के रूप में जन्म देकर पूरा किया। लगभग कुछ दिनों बाद अंडों से बच्चों का सृजन हुआ और फिर उनको भोजन उपलब्ध कराने की व्यवस्था,जो नर और मादा पक्षी दोनों ने व्यवस्थित ढंग से मिलकर पूरी की। रात को मादा पक्षी बच्चों के साथ घोसले में ठहरती। यह सब कुछ मैं कुछ ही दूरी से निहारती रहती क्योंकि यह मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका था। और पक्षी भी यह समझ चुके थे कि यहाँ हमें कोई नुकसान पहुँचाने वाला नहीं है। दोनों बच्चे अब कुछ संभल चुके थे लेकिन एक रात बहुत तेज हवा, वर्षा से घोसला पाम की उस नाजुक शाखा से गिर गया। सुबह जैसे ही मैंने दरवाजा खोला और घोसले को गिरा पाया मेरे मन को बहुत ठेस पहुँची। शीघ्रता से बाहर गई और घोसले को हिलाकर देखा और भगवान को धन्यवाद दिया क्योंकि अंदर जीवन सुरक्षित था। तभी नर मादा पक्षी चोंच में दाना लेकर घोंसले के स्थान पर पहुँचे लेकिन निराश हुए क्योंकि घोंसला अपने  चिरपरिचित स्थान पर नहीं था। बच्चों के लिए उनकी छटपटाहट को मैं महसूस कर रही थी पर फिर मैंने और मेरे जीवन साथी ने मिलकर धागे की सहायता से घोसले को उसी शाखा पर टाँग दिया और फिर से वही दिनचर्या प्रारंभ हुई और भगवान से प्रार्थना की कि यहाँ से बच्चे आसमान में अपनी सुरक्षित उड़ान भरे। यह बच्चे धीरे-धीरे अब शारीरिक रूप से नर मादा पक्षी जैसे दिखने लगे। घोंसले से बाहर आने की छटपटाहट अब साफ नजर आने लगी। अब उनके पंखों में उड़ान भरने की ताकत आ चुकी थी। 28 मई को उन बच्चों की आसमान में सफल उड़ान का दिन था और मेरे लिए,मेरे साथ उनके द्वारा यहाँ गुजरे कुछ यादगार पलों को संजोने का भी।

·      प्रकृति के कण-कण से मित्रता पूर्ण व्यवहार आनंद देता है और प्रकृति को पहुँचाया गया नुकसान सभी के लिए कष्टप्रद रहता है।


 

मोहिनी शर्मा

(सेवानिवृत्त शिक्षिका)

शिक्षा विभाग यू .टी .चंडीगढ़

 

 

सामयिक टिप्पणी

 


जहाँ गाली देना दंडनीय है!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

एक ऐसी दुनिया में, जहाँ बातचीत में तेजी से कड़वाहट और कटु शब्द शामिल हो रहे हैं, महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव ने सौहार्द और सम्मानपूर्ण संवाद को बढ़ावा देने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है। महाराष्ट्र के अहिल्यानगर जिले की नेवासा तहसील के सौंदाला गाँव का, अपशब्दों के उपयोग पर रोक लगाने और इस आदेश का उल्लंघन करने पर जुर्माना लगाने का, निर्णय न केवल स्थानीय स्तर पर बल्कि वैश्विक स्तर पर भी संवाद के गिरते स्तर पर एक गंभीर टिप्पणी है। ग्राम पंचायत ने फैसला किया है कि अगर कोई व्यक्ति अपशब्दों का इस्तेमाल करता पाया गया तो उस पर 500 रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा। निश्चय ही यह एक स्वागत योग्य कदम है, जो यह दर्शाता है कि हमें अपनी बातचीत, बहस और असहमति को व्यक्त करने के तरीकों में सांस्कृतिक बदलाव की कितनी आवश्यकता है।

अपशब्दों पर रोक लगाने का साहसिक कदम उठाने वाला यह गाँव प्रशंसा का पात्र है, क्योंकि इसने सामुदायिक सौहार्द को प्राथमिकता दी है। अपशब्दों का उपयोग न केवल भावनात्मक तनाव उत्पन्न करता है, बल्कि संघर्षों को बढ़ावा देता है और आक्रामकता को सामान्य बनाता है। इस समस्या को जड़ से समाप्त करने का यह प्रयास एक महत्वपूर्ण उदाहरण स्थापित करता है।

यह निर्णय का उद्देश्य भाषा व्यवहार पर अंकुश लगाना भर नहीं है, बल्कि जिम्मेदारी और सामुदायिक अनुशासन को बढ़ावा देना भी है। अपराधियों पर जुर्माना एक निवारक कदम के रूप में तो कार्य करेगा ही; सामुदायिक पहलों को भी आर्थिक सहायता प्रदान करेगा। सबसे अहम बात यह है कि यह एक लोकतांत्रिक सहमति का प्रतीक है, जहाँ ग्रामवासियों ने स्वेच्छा से इस आचार संहिता का पालन करना चुना है।

इसके विपरीत, अपशब्दों के उपयोग का वैश्विक परिदृश्य चिंताजनक है। विभिन्न संस्कृतियों, समाजों और मंचों पर, अश्लीलता और अपमानजनक भाषा आम बोलचाल का हिस्सा बन गई है। राजनीति, सोशल मीडिया और यहाँ तक कि सार्वजनिक जीवन में भी अपशब्दों का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। बहुत बार तो अश्लील चतुराक्षरी अंग्रेज़ी शब्दों को ‘सभ्य’ होने का प्रतीक मान लिया जाता है! जब शिक्षित और ताकतवर लोग अपमानजनक भाषा का उपयोग करते हैं, तो यह आम जनता को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है, जिससे शिष्टाचार और स्वस्थ संवाद दोनों दूषित हो जाते हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि क्रोध और घृणा ही नहीं, प्रायः प्रेम और अंतरंगता जताने के लिए भी गालियों का बेरोकटोक व्यवहार देखने को मिलता है। कहना न होगा कि ये तमाम अपशब्द कामक्रियाओं के व्यंजक होते हैं;  और अंततः महिलाओं को निशाना बनाते हैं!

सोशल मीडिया, विशेष रूप से, अपशब्दों और गाली-गलौज के लिए उर्वर भूमि बन गया है। ट्रोलिंग, नफरत भरे भाषण और अपमानजनक टिप्पणियाँ आम हैं, जो अक्सर गुमनामी की आड़ में की जाती हैं। इसका, खासकर युवाओं और संवेदनशील समूहों पर, बहुत गंभीर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ रहा है।

मनोरंजन जगत में भी, अश्लीलता को प्रामाणिकता या हास्य के रूप में महिमामंडित किया जाता है। हालाँकि, ऐसी भाषा के सामान्यीकरण से सामाजिक सौहार्द और मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

ऐसे में, महाराष्ट्र के इस गाँव का निर्णय मानसिक स्वास्थ्य के प्रति बढ़ती जागरूकता के दौर में विशेष महत्व रखता है। अपशब्द न केवल परिवारों, कार्यस्थलों और सार्वजनिक स्थानों को विषाक्त बनाते हैं, बल्कि अपमान और अलगाव के चक्र को भी बढ़ावा देते हैं। इसे रोकने का यह प्रयास यह दर्शाता है कि भाषा का उपयोग भावनाओं और संबंधों को आकार देने में कितना शक्तिशाली हो सकता है।

इसके अलावा, यह पहल भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप है, जो वाणी के महत्व को प्राथमिकता देती है। प्राचीन भारतीय दर्शन में "वाक्" (वाणी) को सृजन और विनाश दोनों का साधन माना गया है।

बेशक, यह पहल स्थानीय स्तर पर की गई है। लेकिन इसका संदेश सार्वभौमिक है। सरकारें, नीति निर्माता और वैश्विक समुदाय इस उदाहरण से प्रेरणा ले सकते हैं। शिक्षण संस्थानों में सम्मानपूर्ण संवाद की शिक्षा को शामिल किया जा सकता है, जबकि कार्यस्थलों में कठोर एंटी-अब्यूज नीतियाँ लागू की जा सकती हैं। सोशल मीडिया कंपनियों को भी अपमानजनक सामग्री के खिलाफ मजबूत कदम उठाने होंगे। व्यक्तिगत स्तर पर, हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि वह अपने शब्दों का चयन सोच-समझकर करे और सम्मानजनक वातावरण बनाए।

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

फरवरी 2025, अंक 56

  शब्द-सृष्टि फरवरी 202 5 , अंक 5 6 परामर्शक की कलम से : विशेष स्मरण.... संत रविदास – प्रो.हसमुख परमार संपादकीय – महाकुंभ – डॉ. पूर्वा शर्...