‘दिगंबर’ कवि
निखिलेश्वर
डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
1.
तेलुगू
साहित्य और निखिलेश्वर का संक्षिप्त परिचय- तेलुगु साहित्य प्राचीन एवं समृद्ध साहित्य है। तेलुगु
साहित्य की परंपरा 11वीं शताब्दी के आरंभिक काल से शुरू होती है। जब महाभारत का
संस्कृत से नन्नय ने तेलुगु में अनुवाद किया था। विजयनगर साम्राज्य के समय यह
पल्लवित-पुष्पित हुई। तेलुगु साहित्य को मोटे तौर पर 4 भागों में विभाजित किया
जाता है- 1. पुराणकाल (1001-1400), 2. काव्यकाल (1400-1700), 3. ह्रासकाल
(1650-1900), 4. आधुनिक काल (1850 से अब तक)। इसी आधुनिक काल में 6
विद्रोही कवियों ने स्त्री लेखन, दलित लेखन, अल्पसंख्यक मुस्लिम लेखन के माध्यम से एक नवीन काव्यधारा
को तेलुगु साहित्य के साथ जोड़ दिया जिसका नाम था ‘दिगंबर
काव्यधारा’। निखिलेश्वर के अलावा इस काव्यधारा के दूसरे कवियों के नाम
हैं- ज्वालामुखी, चेरबंड राजू, भैरवय्या, महास्वप्न और
नग्नमुनि। ‘दिगंबर’ शब्द का अर्थ होता है ‘नग्न’। ‘दिगंबर’ पीढ़ी के घोषणा
पत्र में उन्होंने घोषित किया कि, ‘दिगंबर कवि अपनी कविता को ‘दिक्’
कहेंगे। दिशा दिखाकर मार्ग निर्देशन करनेवाले हमारे ‘दिक्’।
हमारी सीमाएँ हैं विश्वन्तराल के हृदय। इन सीमाओं का अंत नहीं है। बीमार फेफड़ों को
चीरकर ‘कॉस्मिक’ किरणों से मानव के
लिए निवास-स्थान खोजने तत्परता हमारे ‘दिक्’
में रहेंगी’। 1 श्री
कुंभम यादव रेड्डी ‘निखिलेश्वर’ इस काव्यधारा के प्रवर्त्तक कवि के रूप में जाने जाते हैं।
यह काव्यधारा 1965-1970 तक चली।
कुंभम यादव रेड्डी ‘निखिलेश्वर’ का जन्म सन् 1938 में गाँव वेरावल्ली, जिला यादगीरी, तेलंगाना में
हुआ। उन्होंने उस्मानिया विश्वविद्यालय से बी.ए. और बी.एड. की उपाधि प्राप्त की।
हिन्दी भूषण परीक्षा को भी उन्होंने पास किया। इसके बाद 1960-1964 तक उन्होंने
क्लर्क के रूप में Civilian School
Master in Army में काम किया।
1964-1966 तक ‘गोलकोंडा पत्रिका’ दैनिक समाचार पत्र में संपादक के
रूप में अपनी सेवा प्रदान किया। 1966-1996 तक उन्होंने केशव मेमोरियल स्कूल में
अंग्रेजी के अध्यापक के रूप में अपनी सेवा प्रदान की। 1979-1982 तक वे ‘जन साहिती
समस्कृतिका समक्या’ नामक संस्था के प्रवर्त्तक और सदस्य रहे। इसके अलावा भी वे
अनेकों संस्थानों के सदस्य रहे। निखिलेश्वर के द्वारा रचित प्रमुख रचनाओं के नाम-
दिगंबरा काव्युलु-1965-68,1971,2016
में इन कविताओं के तीन संस्करण प्रकाशित हुए। इसके अलावा
मंडूतुन्ना तारम, अग्निश्वासा, गोदला वेणुकु, मेमु चुसिना जन
चाइना (चीन पर यात्रा वृत्तांत) आदि है। विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित
निखिलेश्वर को 2017 में लिखी गई उनकी रचना ‘अग्निश्वास’ के लिए 2020
में ‘केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित
किया गया। यह सम्पूर्ण भारतीय साहित्य परिवार के लिए गर्व की बात है। निखिलेश्वर
की रचनाओं का हिन्दी, बंगला, ओड़िया, अंग्रेजी, गुजराती, पंजाबी, आसामी, मलयाली आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इससे यह स्पष्ट
हो जाता है कि भले ही निखिलेश्वर तेलुगु भाषा में लिखते हो लेकिन उनकी पहचान केवल
तेलुगु कवि बने रहने तक सीमित नहीं है। उनकी रचनाएँ भारतीय साहित्य की अनमोल धरोहर
है।
2.
निखिलेश्वर
के काव्य में असंतोष और विद्रोह- ‘दिगंबर काव्यधारा’ के प्रवर्त्तक
निखिलेश्वर का नाम ‘विप्लव रचयितल संघम’ (क्रांतिकारी
लेखक संघ) के संस्थापक के रूप में भी लिया जाता है। भारतीय साहित्य के अंतर्गत ‘दिगंबर
काव्यधारा’ का अपना अलग महत्व है। निखिलेश्वर याद दिलाते हैं कि, ‘जन
संघर्ष से जुड़ी क्रांतिकारी कविता का सिलसिला ऐतिहासिक तेलंगाना किसान सशस्त्र
आंदोलन से लेकर सातवें दशक के नक्सलवादी और श्रीकाकुलम आदिवासी आंदोलनों के साथ
जुड़कर नए प्रतिमानों को कायम करता रहा। उन्होंने आगे बताया है कि जहां ‘चेतनावर्तनम्’ ने
पुनरुत्थान की प्रवृत्ति अपनाई वहीं कवि सेना मेनिफेस्टो के साथ प्रकट करते हुए
गुंटूर शेषेंद्र शर्मा ने चमत्कार और क्रांतिकारी आभास की कृत्रिम शैली को स्थापित
किया, जबकि सी. नारायण रेड्डी नियोक्लासिकल धारा लेकर आए’।2।
एक कवि के रूप में उन्होंने
लगभग 6 दशकों तक सामाजिक मुद्दों को लेकर साहित्य रचना का काम किया। मानवाधिकारों
के उल्लंघन, सामंती व्यवस्था तथा भ्रष्टाचार के विरोध में उन्होंने
क्रांतिकारी रचनाओं को लिखा जिस कारण से उन्हें देशद्रोही कहकर जेल भी भेज दिया गया।
लेकिन, कहते हैं न कि ‘जहाँ न पहुँचे
रवि, वहाँ पहुँचे कवि’। निखिलेश्वर की साहित्यिक यात्रा
भी इसी प्रकार की है। निखिलेश्वर ने अपने साहित्य में असंतोष और विद्रोह को हमेशा
जीवित रखा। आगे इसी विद्रोही और असंतोषी कविताओं से हम परिचित होंगे।
वैसे तो निखिलेश्वर मूलत: तेलुगु भाषी कवि
हैं लेकिन चूँकि, वे दिगंबर साहित्यधारा के निखिलेश्वर का जुड़ जाना तो
स्वाभाविक ही था। इसी कड़ी में वे हिन्दी भाषा और साहित्य के साथ भी जुड़ गए। वैसे उन्होंने
स्वयं यह भी स्वीकार किया कि, ‘मौलिक रूप से मैं तेलुगु कवि होने पर भी,
बचपन से हिन्दी से मेरा लगाव रहा। तेलुगु माध्यम से हाईस्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ
हिन्दी साहित्य से मेरा परिचय बढ़ता गया’।3।
इसी लगाव और प्रेम ने ही उन्हें हिन्दी में भी लिखने के लिए
प्रेरित किया। साहित्य रचना क्यों की जाए? इस प्रश्न का
उत्तर निखिलेश्वर ने स्वयं ही देते हुए लिखा है कि, ‘केवल
मनोरंजन के लिए कविता की जाए (उपन्यास,
कहानी, कविता आदि) यह बेमानी लगती है। किसी भी समाज का यथार्थ रूप
साहित्य में दर्शन हो तो कलात्मक शिल्परंजकता के साथ-साथ एक मानवीय दर्शन का
अंतर्निहित आधार होना चाहिए। तभी एक सामाजिक रचना को रोगनिर्धारण तक ही सीमित न
होकर असली जड़ तक पहुँचना होगा। यदि ऐसा हुआ तो वह कृति मात्र दर्पण बनकर बेजान
साबित हो जाएगी। इसीलिए चिकित्सा की विधियों का निर्देश करके जब वह रोग-निदान भी
करेगा तभी वह उत्तम कलाकृति या साहित्य के रूप में स्थायित्व पा सकेगा’।4।
निखिलेश्वर की इस उक्ति से स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य का
सोद्देश्य होना निखिलेश्वर के लिए अति आवश्यक था। यह सोद्देश्यता ही उनकी रचनाओं
में ‘असंतोष और विद्रोह’ के
रूप में दिखाई पड़ता है।
2.1 राजनैतिक असंतोष- राजनीति का अंग्रेजी शब्द ‘पॉलिटिक्स’ है। यह शब्द
यूनानी भाषा के ‘पॉलीस’ शब्द से बना है। जिसका अर्थ नगर अथवा राज्य है। प्राचीन
यूनान में प्रत्येक नगर एक स्वतंत्र राज्य के रूप में व्यवस्थित होता था और इन
राज्यों को नीति मतलब उचित नियमों के द्वारा दिशा निर्देश देना ही राजनीति करना
कहलाता था। अर्थात्, राजनीति के द्वारा राष्ट्र कल्याण करना ही राजनीति का
प्रथम और अंतिम उद्देश्य होना चाहिए। लेकिन अगर यह न हो तो फिर कवि निखिलेश्वर का
यह लिखना-
‘किसी गुमनाम रास्ते
फिसलता
आदमी
बदल
रहा है भेड़िये में
लोकतन्त्र
के चारों ओर
गूँज
रहा है
गिरगिटों
का विजयनाद
अब
बलिदान सारे
शिलालेखों
में परिवर्तित’।5।
उनके व्यक्तिगत राजनैतिक असंतोष को नहीं दर्शाता है उस ‘फिसलते आदमी’ के भी असंतोष
को दर्शा रहा है जिसने बहुत विश्वास के साथ अपने ही तरह एक साधारण व्यक्ति को पहले
नेता बनाता है और फिर उस नेता को अपना
प्रतिनिधि बनाकर राज्य को व्यवस्थित बनाए रखने का दायित्व सौंपता है। लेकिन वह
प्रतिनधि जब दायित्व तो संभालता ही नहीं है अपितु लोकतन्त्र के सम्मान को भी नष्ट
कर देता है ऐसे में उस ‘फिसलते आदमी’ का
प्रतिनधि बनकर फिर तो दिगंबर कवि निखिलेश्वर आक्रोषित स्वर में यह लिखने को बाध्य
होते हैं कि,
‘इस
लोकतन्त्र की साझेदारी में
तराजू
को जो हथियाता है
सभी को
नचानेवाला तानाशाह है
आज
के चक्रव्यूह के निर्माता
वही कौरवों के उत्तराधिकारी
जनपथ
के चारों ओर
जो
हमराही हैं’।6।
कवि का यह आक्रोश राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरूद्ध जनमानस को
उद्वेलित करने में सक्षम है।
2.2 भ्रष्ट मानवाधिकार नियमों के प्रति असंतोष-
राजनीति की आवश्यकता ही पड़ी मानव को
संरक्षण प्रदान करने हेतु। मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 में दी गई
मानव अधिकार की परिभाषा के अनुसार, ‘ मानव अधिकार से प्राण,
स्वतन्त्रता, समानता और व्यक्ति की गरिमा से संबन्धित ऐसे अधिकार
अभिप्रेत है जो संविधान द्वारा प्रत्याभूत किए गए हैं तथा अंतर्राष्ट्रीय
प्रसंविदाओं में सन्निविष्ट और भारत के न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय है’। 7।
सरल भाषा में कहा जाए तो इसका
अर्थ यह होगा कि मनुष्य के जीवन को रक्षा मिलना उन नियमों के अनुसार जिनका उल्लेख
संविधान में है। मानवाधिकार के अंतर्गत आता है। परंतु प्रश्न फिर से वही कि अगर इन
नीति नियमों को बननेवाला ही भ्रष्ट होगा
तो फिर क्या वास्तव में मानवाधिकार से संबन्धित नियमों का कोई औचित्य रह जाएगा? उत्तर
है नहीं? इसी ‘नहीं’ उत्तर के कर्ण से ही निखिलेश्वर को अपनी कविता को ‘दिगंबर’ रूप धारण
करवाकर लिखना ही पड़ता है कि,
‘मानव अधिकारों की
रक्षा के लिए
अब
भेड़िया खुद कमर कसकर खड़ा है
वही
सब कुछ बनकर
आराम
से फैसला सुना सकता है।
भूख
लगते ही
निश्चित
ही किसी भी कोनदे में
किसी
भी भेड़-बकरी को चुन सकता है’।8।
कहने की
अवश्यकता नहीं कि यहाँ ‘भेड़िया’, भ्रष्ट सरकार, प्रसाशन आदि का प्रतीक है और ‘भेड़-बकरी’, ‘साधारण
मनुष्य का’। निखिलेश्वर के आक्रोश की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि उनका
आक्रोश प्रतीकों के सहारे व्यक्त होता दिख पड़ता है। उनके आक्रोश में भी शालीनता
है। यह शालीनता बहुत आवश्यक है क्योंकि यही शालीनता मनुष्य को मानवता से विमुख
नहीं करता। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि कवि किसी भी गलत परिस्थिति के साथ
समझौता करने को तैयार है।
2.3 आतंकवाद के प्रति आक्रोश- वैसे तो आज का मनुष्य सृष्टि का सबसे उत्कृष्ट प्राणी है।
विज्ञान के सहारे उसने जल, थल, वायु और अब तो महाकाश पर भी उसने अपना परचम फैला लिया है
लेकिन अब पृथ्वी ही रहने लायक नहीं रह गई है। मनुष्य में, मनुष्य को ‘मारने
की चाह’ प्रबल हो उठी है।
‘अब सभ्य देशों में
जान
से मारने की चाह
प्रवाहित
हो रही है।
बर्बर
जातियों को
शर्म
आ रही है
सभ्य
देशों की
पाशविक
प्रवृत्ति देखकर’।9।
इन पाशविक
प्रवृत्तियों को साहस मिलता है तब, जब मनुष्य की आत्मिक शक्ति भयभीत होकर घुटने टेक देती है, जब मनुष्य
चाटुकार बन जाता है, जब मनुष्य का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है। कवि इस सत्य से
परिचित हैं। तभी तो उन्होंने मनुष्य को साहस देते हुए लिखा है-
‘तब फिर डर काहे का?
रोज
गिड़गिड़ा कर
खटमल-सा,
जूं की भाँति
सरकारी
जासूस-सा
डर
के मारे डगमगाने के बजाय
निकल
आ बाहर
जी, जी
भर जी।10।
निखिलेश्वर की
चिंतन शैली की यही विशेषता है कि वे कभी व्यक्ति को हारते हुए नहीं देखना चाहते
हैं। उन्हें पता है कि, ‘किसी भी साहित्य में संघर्षमय वर्तमान का सही स्वर खोजना हो
तो कविता की ओर मुड़ना पड़ता है’।11।
इसी कारण से वे बारंबार मानवता को
विजयी करने का प्रयास करते हैं। लेकिन उनका यह प्रयास उनकी काव्य सृजन प्रक्रिया
को बोझिल नहीं बनाती है। क्योंकि,
कवि का आक्रोशी मन किसी भी परिस्थिति
में निराशावादी नहीं है। ऐसे में ‘आमंत्रित
करता हूँ’ निमंत्रण के साथ कवि लिखते हैं,
‘मध्यम वर्ग की फफूँही
को
झुकी
रीढ़ और
कपट
आचरण करते
भयंकर
इस विष खंड में
गले
काटती व्यवस्था में
तेरे
घर को लूटते
निर्मम
लुटेरों से बचाने को
सम्पूर्ण
सुंदर समता की
स्थापना
के लिए
अपनी
सामर्थ्य की परीक्षा के लिए
आमंत्रित
करता हूँ मैं तुम्हें’।12।
कवि के इस आमंत्रण
में रहस्यवाद है। लेकिन रहस्य में भी विद्रोह का स्वर मुखरित है।
निखिलेश्वर के आक्रोश की चरम पराकाष्ठा को दर्शाने में सक्षम है। भ्रष्टाचार तथा
भ्रष्टाचारियों की नकेल कसने में ‘दिगंबर’ कवि निखिलेश्वर पूर्णत: सक्षम हैं। उनके लिए समाज, देश, राष्ट्र की
उन्नति से अधिक महत्वपूर्ण और कुछ नहीं है।
संदर्भ सूची
1.
‘धर्मयुग’ 1 जनवरी 1967 से साभार पृष्ठ संख्या- ix
2.
ऋषभ
उवाच- blogspot
3.
इतिहास
के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या- 2
4.
विविधा, पृष्ठ संख्या-
14
5.
इतिहास
के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या – 9
6.
इतिहास
के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या- 12
7.
गूगल
सौजन्य
8.
इतिहास
के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या- 14
9.
इतिहास
के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या- 26
10.
इतिहास
के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या- 48
11.
विविधा, पृष्ठ संख्या-
17
12.
इतिहास
के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या – 24-25
संदर्भ ग्रंथ
1.
इतिहास
के मोड़ पर, निखिलेश्वर, मिलिंद प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2019, ISBN-978-81-7276-166-0
2.
विविधा
(समकालीन तेलुगु साहित्य की विभिन्न विधाओं का विशिष्ट संकलन, चयन एवं
अनुवाद- निखिलेश्वर, क्षितिज प्रकाशन, प्रथम संस्करण- 2009
3.
तेलुगु
की दिगंबर कविता (युवा शक्ति के क्रांतिकारी स्वर), अनुवादक-
एम. रंगय्या, प्रतिभा प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2004
डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
असिस्टेंट प्रोफेसर
भवन्स, विवेकानंद कॉलेज
सैनिकपुरी
हैदराबाद -500094