रविवार, 14 अप्रैल 2024

अप्रैल 2024, अंक 46

 


शब्द-सृष्टि

अप्रैल 2024, अंक 46

आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ...

खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष.......

विचार बिंदु – डॉ. अंबेडकर

मत-अभिमत – डॉ. राममनोहर लोहिया / वीर सावरकर/ मोहन सिंह/ जान ग्रन्थर/ पं.श्रीराम शर्मा

विशेष पुस्तक-पृष्ठ – ‘युगपुरुष अंबेडकर’ ( उपन्यास-राजेन्द्र मोहन भटनागर ) से.......

प्रसंगवश.... विशेष संदर्भ-स्मरण – “शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पियेगा वो दहाड़ेगा ।” (डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर) – प्रो. हसमुख परमार

विवेचन – डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर का जीवन और दर्शन: दलित विमर्श की वैचारिक पृष्ठभूमि – प्रो. हसमुख परमार

विवेचन – क्रांति के अग्रदूत डॉ. बाबासाहब अंबेडकर – डॉ. गिरीश रोहित

परिचय – भारत रत्न बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर और संविधान – डॉ. धीरज वणकर

पुस्तक चर्चा – महानायक बाबा साहेब डॉ. आम्बेडकर(उपन्यास- मोहनदास नैमिशराय) – विमलकुमार चौधरी


खण्ड-2

शब्द संज्ञान – युग्म शब्द – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

व्याकरण विमर्श – वाक्य परिचय – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

कहानी – प्यास – डॉ. मंजु शर्मा

संस्मरण – जब मुझे अँगूठी बेचनी पड़ी – इन्द्रकुमार दीक्षित

कविता – समय बदल रहा है – डॉ. माया प्रकाश पाण्डेय

कहानी – पौधों की वेदना – मालिनी त्रिवेदी पाठक

गीत – सुरेश चौधरी

लघुकथा – महफूज़ – डॉ. मुक्ति शर्मा

कवि परिचय – ‘दिगंबर’ कवि निखिलेश्वर – डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

रामनवमी पर विशेष – घर घर में बसे राम – डॉ. पूर्णिमा शर्मा

गीत

 


सुरेश चौधरी

जीवन के दिन बीत रहे जाने न चैन मिले कहाँ

कब केसर-क्यारी महके जाने न फूल खिले कहाँ

रात अमावस की घनघोर छा रही

क्यूँ तड़पन हृदय की बढ़ती जा रही

क्यूँ रह रह विगत की याद सता रही

क्यूँ लालसा देह पर हक़ जता रही।

 

अवसाद हृदय के बढ़े तो रुके ये सिलसिले कहाँ

जीवन के दिन बीत रहे जाने न चैन मिले कहाँ

जीवन भर थी मुझको तलाश जिसकी

खामोशियाँ सदा रही पास उसकी

हर खुशनसीब लम्हों की आस सबकी

आज तो विकट है मिलन प्यास उसकी।

 

मेरी अंतस की पीड़ा के दुर्मिल स्वर मिले कहाँ

जीवन के दिन बीत रहे जाने न चैन मिले कहाँ

अंतः समर्पित संज्ञान मिला मुझको

हर याम कर्तव्य ध्यान मिला मुझको

कहा अधिकार तो ज्ञान मिला मुझको

समर्पण था क्यूँ न मान मिला मुझको।

 

जीवन के दिन बीत रहे जाने न चैन मिले कहाँ

कब केसर क्यारी महके जाने न फूल खिले कहाँ।

 

सुरेश चौधरी

एकता हिबिसकस

56 क्रिस्टोफर रोड

कोलकाता 700046

रामनवमी पर विशेष

 

घर-घर में बसे राम

डॉ.पूर्णिमा शर्मा

1.      ‘घर-घर में बसे राम’ की अवधारणा:

‘घर-घर में बसे राम’  का विचार भारतीय संस्कृति और परंपरा में एक   गहराई से समाया हुआ विचार है। यह केवल घर के भीतर भगवान राम को समर्पित एक मंदिर या वेदी स्थापित करने तक सीमित नहीं है। बल्कि, यह पारिवारिक जीवन के ताने-बाने में राम की शिक्षाओं, मूल्यों और आध्यात्मिक उपस्थिति के समूचे एकीकरण का प्रतीक है।

इस विचार के मूल में यह विश्वास है कि राम को सचेत रूप से अपने घर में शारीरिक और प्रतीक दोनों रूप से आमंत्रित करने से, घर रामायण में बताए गए आदर्श परिवार और समाज का एक सूक्ष्म रूप बन सकता है। जिस प्रकार अयोध्या के आदर्श राजा के रूप में राम का शासन समृद्धि, सद्भाव और धर्म की विजय का प्रतीक है, उसी प्रकार एक राम-केंद्रित परिवार भी इन गुणों को अपना सकता है और परिवार के सदस्यों के समूचे कल्याण के लिए अनुकूल वातावरण बना सकता है।

"घर घर में बसे राम" की धारणा को बढ़ावा देने का अर्थ है- घर के सदस्यों के दैनिक जीवन में सत्य, करुणा, साहस और कर्तव्य जैसे रामायण के सिद्धांतों को अपनाना। इसका अर्थ है राम के प्रति गहरी श्रद्धा और भक्ति की भावना पैदा करना, न केवल एक देवता के रूप में, बल्कि ईश्वर के जीवित अवतार और नैतिक आचरण के प्रतिमान के रूप में। घर में राम की निरंतर उपस्थिति बनाकर, परिवार उनके उदाहरण से प्रेरणा ले सकता है और अपने जीवन में उनके गुणों का अनुकरण करने का प्रयास कर सकता है।

"घर घर में बसे राम" की धारणा घर को एक ऐसे पवित्र स्थान में बदलने की प्रेरणा देती है, जहाँ रामायण की भावना हमेशा मौजूद रहती है, जो परिवार के सदस्यों के विचारों, कार्यों और रिश्तों को मार्गदर्शन और आकार देती है। यह जीवन जीने का एक समूचा दृष्टिकोण है जो रामायण के मूल्यों को आधुनिक संदर्भ में लाने का प्रयास करता है, जिससे पारिवारिक जीवन की गुणवत्ता समृद्ध और उन्नत होती है।

2.      राम को घर-घर में लाने के व्यावहारिक उपाय:

भगवान राम की उपस्थिति को घर में विभिन्न व्यावहारिक साधनों और भक्ति प्रथाओं के माध्यम से संभव बनाया जा सकता है। सबसे आम और व्यापक तरीकों में से एक है घर के भीतर एक समर्पित राम मंदिर या वेदी की स्थापना करना। राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान की छवियों या मूर्तियों से सुसज्जित यह पवित्र स्थान दैनिक प्रार्थनाओं, अनुष्ठानों और आध्यात्मिक चिंतन का केंद्र बिंदु बन जाता है।

परिवार के सदस्यों की व्यक्तिगत या सामूहिक गतिविधि में रामायण के नियमित पाठ और चर्चा को शामिल किया जा सकता है। इससे राम के जीवन और शिक्षाओं की समझ को गहरा करने के साथ-साथ परिवार के सदस्यों के बीच जुड़ाव और साझा उद्देश्य की भावना को भी बढ़ावा मिलेगा। हम किसी भी परिस्थिति के समाधान के लिए अगर खुद से यह पूछने की आदत डालें कि ऐसे में  राम क्या रास्ता अपनाते, तो सहज ही हम घर-घर में ही नहीं जन-जन में राम की उपस्थिति महसूस कर सकते हैं।

राम-केंद्रित त्योहारों और पवित्र दिनों, जैसे राम नवमी, दशहरा और दीवाली को मनाना भी राम की आत्मा को घर में लाने का एक प्रभावी तरीका हो सकता है। इन समारोहों में अक्सर पूजा अनुष्ठानों का प्रदर्शन, पारंपरिक मिठाइयों और व्यंजनों को साझा करना और रामलीला के रूप में रामायण के दृश्यों का अभिनय शामिल होता है।  ये सभी राम की उपस्थिति के गहन अनुभव में योगदान करते हैं।

इसके अतिरिक्त, परिवार सभी के कल्याण के लिए राम की करुणा और लोक-रक्षा के उदाहरण से प्रेरित धर्मार्थ कार्यों और सामुदायिक सेवा कार्यों में शामिल होने का विकल्प चुन सकते हैं। इसमें स्थानीय मंदिरों में स्वयंसेवा करना, भोजन या कपड़ों की ड्राइव का आयोजन करना, या शैक्षिक और सामाजिक कल्याण परियोजनाओं का समर्थन करना शामिल हो सकता है जो रामायण के सिद्धांतों के अनुरूप हों।

पारिवारिक जीवन की दैनिक दिनचर्या और लय में इन व्यावहारिक उपायों को शामिल करके, परिवार भगवान राम के प्रति श्रद्धा, भक्ति और जुड़ाव की गहरी भावना पैदा कर सकते हैं, जिससे "घर घर में बसे राम" के आदर्श को साकार किया जा सकता है।

3.      राम-केंद्रित परिवारों का सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव:

राम-केंद्रित परिवारों का प्रभाव निजी परिवार की सीमाओं से परे, व्यापक सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने में व्याप्त हो सकता है। जब एक परिवार रामायण की भावना को अपनाता है और राम को अपने जीवन में एक प्रेरणा स्रोत बनाता है, तो इसका प्रभाव दूरगामी और परिवर्तनकारी हो सकता है।

प्राथमिक प्रभावों में से एक पारिवारिक रिश्तों और मूल्यों को मजबूत करना है। जैसे-जैसे परिवार के सदस्य सामूहिक रूप से राम-केंद्रित गतिविधियों में लगते हैं, वे एकता, उद्देश्य और साझा पहचान की गहरी भावना विकसित करते हैं। रामायण की कहानियाँ, पाठ और नैतिक सिद्धांत आम सूत्र बन जाते हैं जो परिवार को एक साथ बाँधते हैं, अपनेपन की मजबूत भावना को बढ़ावा देते हैं और राम से सीखे हुए गुणों को बनाए रखने के लिए एक साझा संकल्प को विकसित करते हैं।

घर-घर में राम की उपस्थिति बड़े समुदाय को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखती है। जो परिवार राम-केंद्रित त्योहारों, धर्मार्थ पहलों और सामुदायिक कार्यक्रमों में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं, वे प्रेरणा के प्रतीक के रूप में काम कर सकते हैं और रामायण की सदा प्रासंगिक शिक्षाओं का प्रचार करने में मदद कर सकते हैं। नैतिक आचरण, करुणा और सेवा का उदाहरण स्थापित करके ये परिवार एक आदर्श समाज के निर्माण में योगदान दे सकते हैं।

इसके अलावा, पारिवारिक जीवन के में राम की शिक्षाओं का अनुकरण अगली पीढ़ी पर गहरा प्रभाव डाल सकता है। राम-केंद्रित परिवारों में पले-बढ़े बच्चों में धार्मिकता, सत्यनिष्ठा और भक्ति के मूल्यों को अपनाने की अधिक संभावना होती है, जो उनके चरित्र को आकार दे सकते हैं और कठिन परिस्थिति में मार्ग दिखा सकते हैं। इस तरह राम की विरासत का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फैलाव आने वाले समय में रामायण की स्थायी प्रासंगिकता और प्रभाव को पक्का करने में मदद कर सकता है।

राम-केंद्रित परिवारों का सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव आध्यात्मिक और नैतिक नेतृत्व के प्रतीक के रूप में सेवा करने, दूसरों को रामायण के उच्च मानवीय आदर्शों को अपनाने और इसकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारने की प्रेरणा देने के रूप में देखा जा सकता है। "घर घर में बसे राम" की मानसिकता का विकास करके हम अधिक सामंजस्यपूर्ण, दयालु और धर्म-केंद्रित समाज के निर्माण में योगदान दे सकते हैं।

4.      आधुनिक समय में राम की उपस्थिति बनाए रखने में चुनौतियाँ और बाधाएँ:

भगवान राम की भावना को आधुनिक घर-परिवार में साकार करने की राह में कुछ चुनौतियाँ भी ज़रूर हैं। समकालीन जीवन की जटिलताओं के बीच तेज़ गति से आगे बढ़ते परिवारों को घर के भीतर एक मजबूत राम-केंद्रित उपस्थिति बनाए रखने में विभिन्न बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है।

सबसे पहली चुनौती है कि राम से जुड़ी पारंपरिक प्रथाओं और अनुष्ठानों का आधुनिक दुनिया की माँगों और जीवनशैली के साथ कैसे संतुलन बिठाया जाए। तेजी से बढ़ते वैश्वीकरण और तकनीकी के युग में, जीवन की गति बहुत तेज हो गई है, और परिवारों को भक्ति, शास्त्र अध्ययन और राम-केंद्रित त्योहारों के पालन के लिए ज़रूरी समय और स्थान निकालना मुश्किल हो सकता है।

इसके अलावा, आधुनिक समाज में बदलती सामाजिक मान्यताएँ और नई विकसित होती पारिवारिक संरचनाएँ भी राम की शिक्षाओं को आत्मसात करने में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं। जैसे-जैसे घर अधिक एकाकी और न्यूक्लियर होते जा रहे हैं, धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव के विभिन्न स्तरों के साथ, राम की उपस्थिति को शामिल करने के लिए एक सामान्य आधार और दृष्टिकोण खोजना काफी मुश्किल हो सकता है।

एक और चुनौती रामायण और भारतीय परंपरा में राम की भूमिका से जुड़ी संभावित गलतफहमियों और भ्रांतियों से पैदा होती है। बढ़ते धार्मिक बहुलवाद और अंतर-सांस्कृतिक आदान-प्रदान के सामने, कुछ परिवारों को समकालीन संदर्भ में रामायण की शिक्षाओं की प्रासंगिकता के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण या संदेह का सामना करना पड़ सकता है। इन गलतफहमियों को दूर करना और राम के महत्व की गहरी समझ को बढ़ावा देना घर में उनकी उपस्थिति बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।

इसके अतिरिक्त, आधुनिक समाज में भौतिकवादी और व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों का प्रभाव राम से जुड़े आध्यात्मिक और समन्वयवादी मूल्यों के प्रसार के लिए खतरा पैदा कर सकता है। परिवार स्वयं को त्याग पर आधारित रामायण के आदर्शों के बजाय भौतिक गतिविधियों और भोग के प्रलोभन से जूझते हुए पा सकते हैं। इसके दुविधा से निकलने के  लिए आध्यात्मिक और लौकिक के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए सचेत प्रयास की ज़रूरत होगी।

इन चुनौतियों पर काबू पाने के लिए हमें विश्वबंधुत्व, समर्पण और समन्वय का संयोजन सीखना होगा।  है। परिवारों को अपने दैनिक जीवन में राम की उपस्थिति को चरितार्थ करने के लिए नए तरीकों का पता लगाने की ज़रूरत हो सकती है। साथ ही खुले संवाद, आपसी समझ और भगवान राम द्वारा अपनाए गए शाश्वत मूल्यों को बनाए रखने की साझा आकांक्षा के माहौल को भी बढ़ावा देना होगा।

 

 

डॉ. पूर्णिमा शर्मा,

208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,

गणेश नगर, रामंतापुर,

हैदराबाद-500013

आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ...

 


सिर्फ़ शास्त्रीय-सैद्धांतिक ही नहीं अपितु बिल्कुल सहज-सरल रूप व व्यावहारिक नजरिए से भी हम साहित्य को देखते-परखते, समझते-समझाते रहते हैं । सामान्यत: कह सकते हैं कि सृष्टि को लेकर, स्थूल-सूक्ष्म जगत को लेकर, जड़-चेतन-गतिशील तत्त्वों को लेकर, पंचेन्द्रिय बोध एवं मन के एहसास से सम्बद्ध विषयों को लेकर हमारी संवेदनात्मक तथा विचारात्मक प्रतिक्रिया की कलात्मक ढंग से हुई शाब्दिक अभिव्यक्ति ही साहित्य है । पाश्चात्य काव्यचिंतक अरस्तू जब काव्य को प्रकृति का अनुकरण बताते हैं तो वहाँ प्रकृति का संबंध सिर्फ़ पेड़-पौधे, पहाड़-नदियाँ, चाँद-सितारे तक ही सीमित नहीं बल्कि तमाम वस्तुएँ  एवं  मनुष्य प्रकृति तथा उसके सभी क्रिया-कलापों से है ।  यह अभिव्यक्ति या अनुकरण- चाहे सुख-दुख या हर्ष-शोक से संबंधित हो, प्रशंसा या निंदा विषयक हो, अंतत: उसका लक्ष्य तो कलात्मक सौंदर्य के जरिए मानवजाति का हित सम्पादन करना ही है । यही है साहित्य का मुख्य दायित्व । किसी विषय का, यानी किसी वस्तु, विचार, भाव, प्रसंग, घटना, व्यक्तित्व का साहित्य में रूपान्तरण तो बहुत ही आकर्षक तथा उपयोगी होता है, परंतु यह रूपान्तरण का कार्य उतना सरल नहीं  है, इस जटिल प्रक्रिया में सर्जक के कौशल की  कसौटी होती है । इसमें भी धर्म, अध्यात्म, दर्शन, समाज, राजनीति, कला-जगत प्रभृति अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़ी लोक-प्रसिद्ध ऐतिहासिक प्रतिभाओं के जीवन को तथा उनके कार्य को साहित्य में  रूपांतरित करना या साहित्य के मंच से साहित्यिक संस्पर्श के साथ प्रस्तुत करना कोई कम  चुनौतीपूर्ण  नहीं   है  । यह इसलिए कि एक तो कलात्मक रंग-रूप-स्वभाव तथा साहित्य सृजन के महत्व उद्देश्य के साथ साथ उनकी ऐतिहासिकता को भी बनाये रखने के लिए उस विषय के संबंध में विशेष छान-बीन के कार्य  से भी गुजरना पड़ता है । दुनियाभर की ऐसी अनेकों ऐतिहासिक प्रतिभाओं को साहित्य के मंच  से प्रस्तुत करने में हमारे अनेकों साहित्य -सेवी पूरी तरह सफ़ल रहे हैं  

आधुनिक भारत की राजनीति, समाज एवं शिक्षा क्षेत्र से जुड़े विराट एवं वैश्विक व्यक्तित्वों मे एक महत्वपूर्ण नाम है डॉ.बाबासाहब अंबेडकर ।  समाज, राजनीति, शिक्षा आदि में भारतरत्न बाबासाहब के योगदान से देश-दुनिया भलीभाँति परिचित ही है । मनुष्यता, बौद्धिकता, नैतिकता के विकास में इनकी एक अहम भूमिका रही है । देश के करोड़ों दलितों-पीड़ितों, वंचितों-शोषितों के लिए आजीवन संघर्ष कर उन्हें मुक्ति दिलाने में इस महामानव ने कोई कसर नहीं  रखी ।

डॉ.अंबेडकर विषयक चर्चा के प्रसंग मे सर्वप्रथम महात्मा गौतम बुद्ध  का स्मरण स्वाभाविक ही कहा जाएगा । कहते हैं   कि- “महात्मा बुद्ध के बाद यदि किसी महापुरुष ने समाज, राजनीति और आर्थिक धरातल पर सामाजिक क्रांति से साक्षात्कार कराने का सार्थक प्रयास किया तो वे थे डॉ.भीमराव अंबेडकर । ”

लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व महात्मा गौतम बुद्ध ने “अप्प दीपो भव:” मंत्र को मनुष्य के स्व एवं समाज के विकास के लिए, मनुष्यता के प्रचार के लिए, व्यक्ति के आत्मबल के लिए तथा उसमें अपने और औरों के उद्धार की प्रबल भावना को जगाने के लिए प्रचारित किया । डॉ.बाबासाहब अंबेडकर इसी “अप्पो दीप भव:” की परंपरा का  सर्वाधिक प्रकाशमान दीपक है, जो अपनी शिक्षा, ज्ञान, संघर्ष  से स्वयं तो प्रकाशित हुआ ही साथ ही आज भी समाज को, गरीबों को, दलितों को प्रेरित-प्रभावित-प्रकाशित करता रहा है ।

हम देखते हैं कि साहित्येतर कई प्रतिभाओं के चिंतन के, उनके आदर्शों ने तथा मनुष्यता के विकास हेतु उनके योगदान ने साहित्य को काफ़ी प्रेरित-प्रभावित किया । आधुनिक काल में जिन शक्तियों ने साहित्य को एक ठोस  वैचारिक जमीन दी, जिनमें-  काल मार्क्स, डार्विन, फ्रायड, महात्मा  गाँधी, डॉ.राम मनोहर लोहिया, महर्षि अरविंद और भी कई नाम इस सूची में शामिल हो सकते हैं । इन्हीं नामों में एक नाम अंबेडकर भी है । आधुनिक हिन्दी साहित्य तथा विशेषत: दलित साहित्य उनके जीवन व चिंतन से ज्यादा प्रेरित-पोषित-प्रोत्साहित रहा है ।  

14 अप्रैल,डॉ.बाबासाहब अंबेडकर जन्म जयंती ।  इस पावन अवसर पर ‘शब्द-सृष्टि’ के प्रस्तुत अंक के माध्यम से हम इस भारतीय सपूत का वंदन व सम्मान के साथ विशेष रूप से स्मरण करते हैं ।

मुख्यतः भाषा, व्याकरण, साहित्य, विचार, विवेचन, व्यक्तित्व आदि विषय-बिन्दुओं को लेकर प्रति मास नियमित रूप से प्रकाशित होने वाली शब्द-सृष्टिका यह अंक बाबासाहब अंबेडकर के जीवन-दर्शन के विविध पक्षों-पहलुओं से संबद्ध विषय-सामग्री के साथ-साथ अन्य विषयों को लेकर विविध साहित्य विधाओं मे लिखी गई रचनाओं  तथा भाषा- व्याकरण संबंधी विचारों के साथ आपके समक्ष प्रस्तुत है । आगामी दिनों में- १७ अप्रैल २०२४ को रामनवमी के पुनीत पर्व के निमित्त- ‘हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता तथा राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है । कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है ।’ जैसी प्रसिद्ध पंक्तियों के साथ अग्रिम अशेष शुभकामनाएँ... इसी त्यौहार के उपलक्ष्य में एक विशेष आलेख घर घर में बसे राम भी इस अंक का विशेष हिस्सा रहा है ।

 

कहानी

 

पौधों की वेदना

मालिनी त्रिवेदी पाठक

सुशिक्षित तुलसी बचपन से ही आत्मनिर्भर थी । वह अपना सारा काम खुद ही करती थी । जैसे घर की साफ-सफाई, खाना बनाना, कपडे धोना, बर्तन माँजना आदि । वह अपने घर को एक पावन मंदिर ही समझती थी । स्नान कर के पूजा पाठ करना उसके माता-पिता ने बचपन से ही सिखाया था ।

अब तो उसे जीव-जंतु, पशु-पक्षी, वनस्पति, प्राणी मात्र में भी ईश्वर के ही दर्शन होते थे । तुलसी ने अपने घर के कम्पाउंड में औषधीय वनस्पति के साथ-साथ रंग-बिरंगी फूलों के गमले सजा कर रखे थे । वह एक-एक पौधे के पास जाकर उन्हें अपने बच्चे समझ कर बातें करती । फूल पत्ते भी झूम-झूम कर अपना प्यार जताते ।

तुलसी कभी भी फूल नहीं तोड़ती थी । वह मानती थी कि,फूल तोड़ना मतलब उसकी अकाल ही हत्या करना । फूलों की ऐसी हत्या कर के भगवान कैसे प्रसन्न होंगे भला !

अपने पौधों को तृप्त, जीवंत और प्रसन्न देखकर वह बहुत खुश हुई । आज उसका मन गजब उमंग और ऊर्जा से भर गया । फूलों की सुगंध को अपने में समेट कर वह कॉलेज जाने के लिए तैयार हुई । उसे अध्यापिका के रूप में नौकरी मिली थी । आज उसका कॉलेज में पहला दिन था । हरे रंग की साड़ी और हरी चूड़ियाँ पहन कर कुछ ही देर में वह कॉलेज पहुँची । कॉलेज के विशाल प्रांगण को पार कर के जैसे ही वह स्टाफरूम की ओर मुड़ी, सहसा उसने कॉरिडोर में रखे गए गमलों में मृतपायः अवस्था में कुछ पौधें देखे । उसका संवेदनशील हृदय भर आया । वह दुःख के साथ उन गमलों की ओर देखती रही । उसकी संवेदना महसूस कर के गमले रो-रो कर कहने लगे, “ परसों पर्यावरण दिन के अवसर पर नर्सरी से खरीद कर, टेम्पो में भरकर हमें यहाँ लाया गया । हम बहुत खुश थे कि इतने बड़े प्रांगण में, हरी-भरी जगह पर हमें प्यार से सजाया जायेगा । कुछ ही देर में हमने कानाफूसी सुनी कि, कॉलेज के इको क्लब की गतिविधि के अंतर्गत प्रभारी के निर्णय पर हमें यहाँ लाया गया था । थोड़ी ही देर में कुछ अनुभवहीन छात्रों ने हमें मिट्टी से आधा भर दिया और वृक्ष की डालियाँ तथा अधमरे पौधे भी मिट्टी में ठूँस दिए । फिर मन की तसल्ली के लिए थोड़ा खाद और पानी भी डाल दिया । हमारे प्रति ऐसे असंवेदनशील व्यवहार से मन में आनेवाले भय की एक लहर सी दौड़ गई । इतना कह कर गमला मौन हो गया ।

“ अरे डरो मत ! फिर क्या हुआ ? बताओ तो ।”, तुलसी ने पूछा ।

गमले ने सुबकते हुए आगे कहा, “ फिर हमें पौधों सहित यहाँ आये कुछ अध्यापकों के हाथों में थमा दिया गया, जैसे कि हम कोई निराश्रित बच्चे हों । इतना ही नहीं, इस पूरे धटनाक्रम का फोटो सेशन भी किया गया । फिर क्या, उन अध्यापकों ने हमें या तो अपने कमरे के किसी कोने में या फिर कॉरिडोर में उपेक्षित हालत में रख दिया । यहीं से शुरू हुई हमारे दुःख और दर्द की दास्तान ! वक्त पर कभी न मिला हमें जरुरी खाद और न ही पानी । कई पौधे हवा, सूर्य-प्रकाश और पानी के बिना अपना दम तोड़ने लगे । अब केवल हम सब बिना पौधों के गमले ही एक दूसरे को दूर से ताक रहे हैं । बचा लो हमे इंसानों की इस दरिंदगी से, बचा लो इन हत्यारों से.......”

गमले की इस दुःख भरी दास्तान ने तुलसी को और भी झकझोर कर रख दिया । उसे गमलों और पौधों के परस्पर गहरे संबंधों की अनुभूति हुई । गमले मिट्टी के दीपक के समान और पौधे जैसे कि दीपक की बाती, दीये की लौ, जिसमें हम सबको नेह भरना ही होगा ।

उसी दिन से तुलसी ने कॉलेज को भी अपना घर मानते हुए ख़ुशी से गमलों और पौधों की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली ।

 

मालिनी त्रिवेदी पाठक

वड़ोदरा

 

कवि परिचय

       

दिगंबरकवि निखिलेश्वर

 डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

1.      तेलुगू साहित्य और निखिलेश्वर का संक्षिप्त परिचय- तेलुगु साहित्य प्राचीन एवं समृद्ध साहित्य है। तेलुगु साहित्य की परंपरा 11वीं शताब्दी के आरंभिक काल से शुरू होती है। जब महाभारत का संस्कृत से नन्नय ने तेलुगु में अनुवाद किया था। विजयनगर साम्राज्य के समय यह पल्लवित-पुष्पित हुई। तेलुगु साहित्य को मोटे तौर पर 4 भागों में विभाजित किया जाता है- 1. पुराणकाल (1001-1400), 2. काव्यकाल (1400-1700), 3. ह्रासकाल (1650-1900), 4. आधुनिक काल (1850 से अब तक)। इसी आधुनिक काल में 6 विद्रोही कवियों ने स्त्री लेखन, दलित लेखन, अल्पसंख्यक मुस्लिम लेखन के माध्यम से एक नवीन काव्यधारा को तेलुगु साहित्य के साथ जोड़ दिया जिसका नाम था दिगंबर काव्यधारा। निखिलेश्वर के अलावा इस काव्यधारा के दूसरे कवियों के नाम हैं- ज्वालामुखी, चेरबंड राजू, भैरवय्या, महास्वप्न और नग्नमुनि। दिगंबर शब्द का अर्थ होता है नग्नदिगंबर पीढ़ी के घोषणा पत्र में उन्होंने घोषित किया कि, दिगंबर कवि अपनी कविता को दिक् कहेंगे। दिशा दिखाकर मार्ग निर्देशन करनेवाले हमारे दिक्। हमारी सीमाएँ हैं विश्वन्तराल के हृदय। इन सीमाओं का अंत नहीं है। बीमार फेफड़ों को चीरकर कॉस्मिक किरणों से मानव के लिए निवास-स्थान खोजने तत्परता हमारे दिक् में रहेंगी। 1 श्री कुंभम यादव रेड्डी निखिलेश्वर इस काव्यधारा के प्रवर्त्तक कवि के रूप में जाने जाते हैं। यह काव्यधारा 1965-1970 तक चली।

कुंभम यादव रेड्डी निखिलेश्वर का जन्म सन् 1938 में गाँव वेरावल्ली, जिला यादगीरी, तेलंगाना में हुआ। उन्होंने उस्मानिया विश्वविद्यालय से बी.ए. और बी.एड. की उपाधि प्राप्त की। हिन्दी भूषण परीक्षा को भी उन्होंने पास किया। इसके बाद 1960-1964 तक उन्होंने क्लर्क के रूप में Civilian School Master in Army में काम किया। 1964-1966 तक गोलकोंडा पत्रिका दैनिक समाचार पत्र में संपादक के रूप में अपनी सेवा प्रदान किया। 1966-1996 तक उन्होंने केशव मेमोरियल स्कूल में अंग्रेजी के अध्यापक के रूप में अपनी सेवा प्रदान की। 1979-1982 तक वे जन साहिती समस्कृतिका समक्या नामक संस्था के प्रवर्त्तक और सदस्य रहे। इसके अलावा भी वे अनेकों संस्थानों के सदस्य रहे। निखिलेश्वर के द्वारा रचित प्रमुख रचनाओं के नाम- दिगंबरा काव्युलु-1965-68,1971,2016 में इन कविताओं के तीन संस्करण प्रकाशित हुए। इसके अलावा मंडूतुन्ना तारम, अग्निश्वासा, गोदला वेणुकु, मेमु चुसिना जन चाइना (चीन पर यात्रा वृत्तांत) आदि है। विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित निखिलेश्वर को 2017 में लिखी गई उनकी रचना अग्निश्वास के लिए 2020 में केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह सम्पूर्ण भारतीय साहित्य परिवार के लिए गर्व की बात है। निखिलेश्वर की रचनाओं का हिन्दी, बंगला, ओड़िया, अंग्रेजी, गुजराती, पंजाबी, आसामी, मलयाली आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भले ही निखिलेश्वर तेलुगु भाषा में लिखते हो लेकिन उनकी पहचान केवल तेलुगु कवि बने रहने तक सीमित नहीं है। उनकी रचनाएँ भारतीय साहित्य की अनमोल धरोहर है।

2.      निखिलेश्वर के काव्य में असंतोष और विद्रोह- दिगंबर काव्यधारा के प्रवर्त्तक निखिलेश्वर का नाम विप्लव रचयितल संघम(क्रांतिकारी लेखक संघ) के संस्थापक के रूप में भी लिया जाता है। भारतीय साहित्य के अंतर्गत दिगंबर काव्यधारा का अपना अलग महत्व है। निखिलेश्वर याद दिलाते हैं कि, जन संघर्ष से जुड़ी क्रांतिकारी कविता का सिलसिला ऐतिहासिक तेलंगाना किसान सशस्त्र आंदोलन से लेकर सातवें दशक के नक्सलवादी और श्रीकाकुलम आदिवासी आंदोलनों के साथ जुड़कर नए प्रतिमानों को कायम करता रहा। उन्होंने आगे बताया है कि जहां चेतनावर्तनम् ने पुनरुत्थान की प्रवृत्ति अपनाई वहीं कवि सेना मेनिफेस्टो के साथ प्रकट करते हुए गुंटूर शेषेंद्र शर्मा ने चमत्कार और क्रांतिकारी आभास की कृत्रिम शैली को स्थापित किया, जबकि सी. नारायण रेड्डी नियोक्लासिकल धारा लेकर आए।2।  

                      एक कवि के रूप में उन्होंने लगभग 6 दशकों तक सामाजिक मुद्दों को लेकर साहित्य रचना का काम किया। मानवाधिकारों के उल्लंघन, सामंती व्यवस्था तथा भ्रष्टाचार के विरोध में उन्होंने क्रांतिकारी रचनाओं को लिखा जिस कारण से उन्हें देशद्रोही कहकर जेल भी भेज दिया गया।  लेकिन, कहते हैं न कि जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। निखिलेश्वर की साहित्यिक यात्रा भी इसी प्रकार की है। निखिलेश्वर ने अपने साहित्य में असंतोष और विद्रोह को हमेशा जीवित रखा। आगे इसी विद्रोही और असंतोषी कविताओं से हम परिचित होंगे।

       वैसे तो निखिलेश्वर मूलत: तेलुगु भाषी कवि हैं लेकिन चूँकि, वे दिगंबर साहित्यधारा के निखिलेश्वर का जुड़ जाना तो स्वाभाविक ही था। इसी कड़ी में वे हिन्दी भाषा और साहित्य के साथ भी जुड़ गए। वैसे उन्होंने स्वयं यह भी स्वीकार किया कि, मौलिक रूप से मैं तेलुगु कवि होने पर भी, बचपन से हिन्दी से मेरा लगाव रहा। तेलुगु माध्यम से हाईस्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ हिन्दी साहित्य से मेरा परिचय बढ़ता गया।3।   इसी लगाव और प्रेम ने ही उन्हें हिन्दी में भी लिखने के लिए प्रेरित किया। साहित्य रचना क्यों की जाए? इस प्रश्न का उत्तर निखिलेश्वर ने स्वयं ही देते हुए लिखा है कि, केवल मनोरंजन के लिए कविता की जाए (उपन्यास, कहानी, कविता आदि) यह बेमानी लगती है। किसी भी समाज का यथार्थ रूप साहित्य में दर्शन हो तो कलात्मक शिल्परंजकता के साथ-साथ एक मानवीय दर्शन का अंतर्निहित आधार होना चाहिए। तभी एक सामाजिक रचना को रोगनिर्धारण तक ही सीमित न होकर असली जड़ तक पहुँचना होगा। यदि ऐसा हुआ तो वह कृति मात्र दर्पण बनकर बेजान साबित हो जाएगी। इसीलिए चिकित्सा की विधियों का निर्देश करके जब वह रोग-निदान भी करेगा तभी वह उत्तम कलाकृति या साहित्य के रूप में स्थायित्व पा सकेगा।4।  निखिलेश्वर की इस उक्ति से स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य का सोद्देश्य होना निखिलेश्वर के लिए अति आवश्यक था। यह सोद्देश्यता ही उनकी रचनाओं में असंतोष और विद्रोहके रूप में दिखाई पड़ता है।

2.1   राजनैतिक असंतोष- राजनीति का अंग्रेजी शब्द पॉलिटिक्स है। यह शब्द यूनानी भाषा के पॉलीस शब्द से बना है। जिसका अर्थ नगर अथवा राज्य है। प्राचीन यूनान में प्रत्येक नगर एक स्वतंत्र राज्य के रूप में व्यवस्थित होता था और इन राज्यों को नीति मतलब उचित नियमों के द्वारा दिशा निर्देश देना ही राजनीति करना कहलाता था। अर्थात्, राजनीति के द्वारा राष्ट्र कल्याण करना ही राजनीति का प्रथम और अंतिम उद्देश्य होना चाहिए। लेकिन अगर यह न हो तो फिर कवि निखिलेश्वर का यह लिखना-

किसी गुमनाम रास्ते

फिसलता आदमी

बदल रहा है भेड़िये में

लोकतन्त्र के चारों ओर

गूँज रहा है

गिरगिटों का विजयनाद

अब बलिदान सारे

शिलालेखों में परिवर्तित।5।

उनके व्यक्तिगत राजनैतिक असंतोष को नहीं दर्शाता है उस फिसलते आदमी के भी असंतोष को दर्शा रहा है जिसने बहुत विश्वास के साथ अपने ही तरह एक साधारण व्यक्ति को पहले नेता बनाता है और फिर उस नेता  को अपना प्रतिनिधि बनाकर राज्य को व्यवस्थित बनाए रखने का दायित्व सौंपता है। लेकिन वह प्रतिनधि जब दायित्व तो संभालता ही नहीं है अपितु लोकतन्त्र के सम्मान को भी नष्ट कर देता है ऐसे में उस फिसलते आदमी का प्रतिनधि बनकर फिर तो दिगंबर कवि निखिलेश्वर आक्रोषित स्वर में यह लिखने को बाध्य होते हैं कि,

          इस लोकतन्त्र की साझेदारी में

           तराजू को जो हथियाता है

           सभी को नचानेवाला तानाशाह है

            आज के चक्रव्यूह के निर्माता

            वही कौरवों के उत्तराधिकारी

            जनपथ के चारों ओर

             जो हमराही हैं।6।

कवि का यह आक्रोश राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरूद्ध जनमानस को उद्वेलित करने में सक्षम है।

2.2   भ्रष्ट मानवाधिकार नियमों के प्रति असंतोष- राजनीति की  आवश्यकता ही पड़ी मानव को संरक्षण प्रदान करने हेतु। मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 में दी गई मानव अधिकार की परिभाषा के अनुसार, मानव अधिकार से प्राण, स्वतन्त्रता, समानता और व्यक्ति की गरिमा से संबन्धित ऐसे अधिकार अभिप्रेत है जो संविधान द्वारा प्रत्याभूत किए गए हैं तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं में सन्निविष्ट और भारत के न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय है। 7। सरल भाषा में कहा जाए तो इसका अर्थ यह होगा कि मनुष्य के जीवन को रक्षा मिलना उन नियमों के अनुसार जिनका उल्लेख संविधान में है। मानवाधिकार के अंतर्गत आता है। परंतु प्रश्न फिर से वही कि अगर इन नीति नियमों  को बननेवाला ही भ्रष्ट होगा तो फिर क्या वास्तव में मानवाधिकार से संबन्धित नियमों का कोई औचित्य रह जाएगा? उत्तर है नहीं? इसी नहीं उत्तर के कर्ण से ही निखिलेश्वर को अपनी कविता को दिगंबर रूप धारण करवाकर लिखना ही पड़ता है कि,

मानव अधिकारों की रक्षा के लिए

अब भेड़िया खुद कमर कसकर खड़ा है

वही सब कुछ बनकर

आराम से फैसला सुना सकता है।

भूख लगते ही

निश्चित ही किसी भी कोनदे में

किसी भी भेड़-बकरी को चुन सकता है।8।

कहने की अवश्यकता नहीं कि यहाँ भेड़िया’, भ्रष्ट सरकार, प्रसाशन आदि का प्रतीक है और भेड़-बकरी’, ‘साधारण मनुष्य का। निखिलेश्वर के आक्रोश की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि उनका आक्रोश प्रतीकों के सहारे व्यक्त होता दिख पड़ता है। उनके आक्रोश में भी शालीनता है। यह शालीनता बहुत आवश्यक है क्योंकि यही शालीनता मनुष्य को मानवता से विमुख नहीं करता। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि कवि किसी भी गलत परिस्थिति के साथ समझौता करने को तैयार है।

2.3   आतंकवाद के प्रति आक्रोश- वैसे तो आज का मनुष्य सृष्टि का सबसे उत्कृष्ट प्राणी है। विज्ञान के सहारे उसने जल, थल, वायु और अब तो महाकाश पर भी उसने अपना परचम फैला लिया है लेकिन अब पृथ्वी ही रहने लायक नहीं रह गई है। मनुष्य में, मनुष्य को मारने की चाहप्रबल हो उठी है।

अब सभ्य देशों में

जान से मारने की चाह

प्रवाहित हो रही है।

बर्बर जातियों को

शर्म आ रही है

सभ्य देशों की

पाशविक प्रवृत्ति देखकर।9।

इन पाशविक प्रवृत्तियों को साहस मिलता है तब, जब मनुष्य की आत्मिक शक्ति भयभीत होकर घुटने टेक देती है, जब मनुष्य चाटुकार बन जाता है, जब मनुष्य का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है। कवि इस सत्य से परिचित हैं। तभी तो उन्होंने मनुष्य को साहस देते हुए लिखा है-

तब फिर डर काहे का?

रोज गिड़गिड़ा कर

खटमल-सा, जूं की भाँति

सरकारी जासूस-सा

डर के मारे डगमगाने के बजाय

निकल आ बाहर

जी, जी भर जी।10।

निखिलेश्वर की चिंतन शैली की यही विशेषता है कि वे कभी व्यक्ति को हारते हुए नहीं देखना चाहते हैं। उन्हें पता है कि, किसी भी साहित्य में संघर्षमय वर्तमान का सही स्वर खोजना हो तो कविता की  ओर मुड़ना पड़ता है।11। इसी कारण से वे बारंबार मानवता को विजयी करने का प्रयास करते हैं। लेकिन उनका यह प्रयास उनकी काव्य सृजन प्रक्रिया को बोझिल नहीं बनाती है। क्योंकि, कवि का आक्रोशी मन किसी भी परिस्थिति में  निराशावादी नहीं है। ऐसे में आमंत्रित करता हूँ  निमंत्रण के साथ कवि लिखते हैं,

मध्यम वर्ग की फफूँही को

झुकी रीढ़ और

कपट आचरण करते

भयंकर इस विष खंड में

गले काटती व्यवस्था में

तेरे घर को लूटते

निर्मम लुटेरों से बचाने को

सम्पूर्ण सुंदर समता की

स्थापना के लिए

अपनी सामर्थ्य की परीक्षा के लिए

आमंत्रित करता हूँ मैं तुम्हें।12।

कवि के इस आमंत्रण में रहस्यवाद है। लेकिन रहस्य में भी विद्रोह का स्वर मुखरित है।

निखिलेश्वर के आक्रोश की चरम पराकाष्ठा को दर्शाने में सक्षम है। भ्रष्टाचार तथा भ्रष्टाचारियों की नकेल कसने में दिगंबर कवि निखिलेश्वर पूर्णत: सक्षम हैं। उनके लिए समाज, देश, राष्ट्र की उन्नति से अधिक महत्वपूर्ण और कुछ नहीं है।

संदर्भ सूची

1.                            धर्मयुग 1 जनवरी 1967 से साभार पृष्ठ संख्या- ix

2.                            ऋषभ उवाच- blogspot

3.                            इतिहास के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या- 2

4.                            विविधा, पृष्ठ संख्या- 14

5.                            इतिहास के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या – 9

6.                            इतिहास के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या- 12

7.                            गूगल सौजन्य

8.                            इतिहास के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या- 14

9.                            इतिहास के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या- 26

10.                      इतिहास के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या- 48

11.                      विविधा, पृष्ठ संख्या- 17

12.                      इतिहास के मोड़ पर, पृष्ठ संख्या – 24-25

 

संदर्भ ग्रंथ

1.                इतिहास के मोड़ पर, निखिलेश्वर, मिलिंद प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2019, ISBN-978-81-7276-166-0

2.                विविधा (समकालीन तेलुगु साहित्य की विभिन्न विधाओं का विशिष्ट संकलन, चयन एवं अनुवाद- निखिलेश्वर, क्षितिज प्रकाशन, प्रथम संस्करण- 2009

3.                तेलुगु की दिगंबर कविता (युवा शक्ति के क्रांतिकारी स्वर), अनुवादक- एम. रंगय्या, प्रतिभा प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2004

                              

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

असिस्टेंट प्रोफेसर

भवन्स, विवेकानंद कॉलेज

सैनिकपुरी

हैदराबाद -500094

 

 

         

         

 

  

 

 

 


अप्रैल 2024, अंक 46

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