शनिवार, 21 अगस्त 2021

अगस्त - 2021, अंक – 13

 



शब्द सृष्टि,  अगस्त - 2021, अंक – 13


विचार स्तवक

शब्द संज्ञान – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

कविता – त्योहारों की लड़ियाँ – डॉ. पूर्वा शर्मा

परिचय – पद्मा सचदेव – राजा दुबे

कहानी – रक्षाबंधन – विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’

कविता – आँसू – डॉ. सुरंगमा यादव

निबंध – आज़ादी का जश्न – ज्योत्स्ना प्रदीप

दोहे – सावन – अनिता मंडा

कहानी – सपने क्या सच होते हैं – सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

औपन्यासिक जीवनी – काल के कपाल पर हस्ताक्षर : हरिशंकर परसाई – राजेन्द्र चंद्रकांत राय

आलेख – आदिवासी समाज के संकट, संघर्ष एवं संस्कृति की महागाथा : ग्लोबल गाँव के देवता – डॉ. हसमुख परमार

लोकगीत – (1) रक्षाबन्धन का निमन्त्रण – मालवी लोकगीत (2) देशप्रेम संबंधी – (क) राजस्थानी लोकगीत (ख) अवधी लोकगीत

चयनित कविताएँ (आज़ादी की अग्निशिखाएँ से) – (1) वीरों का बसंत – सुभद्रा कुमारी चौहान (2) शहीदों की चिताओं पर – जगदम्बा प्रसाद मिश्र (3) उनको प्रणाम – नागार्जुन (4) आज देश की मिट्टी बोल उठी है – शिवमंगल सिंह सुमन (5) सन् 1857 ई. में बागी सैनिकों का कौमी गीत (6) छेल्ली प्रार्थना(गुजराती) – झवेरचंद मेघाणी

पुस्तक समीक्षा – आनंद की अनुभूति : आनंद मंजरी (मुकरी संग्रह, त्रिलोक सिंह ठकुरेला) – डॉ. पूर्वा शर्मा

कविता

75 वाँ स्वतंत्रता दिवस


चयनित कविताएँ (‘आज़ादी की अग्निशिखाएँ’ से)

 

(1) वीरों का कैसा हो बसंत

सुभद्रा कुमारी चौहान

(जन्म जयंती, 16 अगस्त)

वीरों का कैसा हो बसंत ? आ रही हिमालय से पुकार,

है उदधि गरजता बार-बार, प्राची पश्चिम, भू, नभ अपार,

सब पूछ रहे हैं दिग् दिगंत, वीरों का कैसा हो बसंत ?

फूली सरसों ने दिया रंग, मधु लेकर आ पहुँचा अनंग,

वधु-वसुधा पुलकित अंग-अंग, है वीर वेश में किन्तु कंत,

वीरों का कैसा हो बसंत ?

भर रही कोकिला इधर तान, मारू बाजे पर उधर गान,

है रंग और रण का विधान, मिलने आए हैं आदि-अंत,

वीरों का कैसा हो बसंत ?

गल बाहे हो या हो कृपाण, चल चितवन हो या धनुष-बाण,

हो रस विलास या दलित त्राण, अब यही समस्या है दुरंत,

वीरों का कैसा हो बसंत ?

कह दे अतीत सब मौन त्याग, लंके ! तुझमें क्यों लगी आग ?

ऐ कुरुक्षेत्र, अब जाग-जाग, बतला अपने अनुभव अनंत,

वीरों का कैसा हो बसंत ?

हल्दीघाटी के शिलाखण्ड, ऐ दुर्ग, सिंहगढ़ के प्रचण्ड,

राजा ताना का कर घमंड, दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलंत

वीरों का कैसा हो बसंत ?

भूषण अथवा कवि चंद नहीं, बिजली भर दे वह छन्द नहीं,

है कलम बंधी, स्वच्छन्द वही, फिर हमें बतावे, कौन हंत ?

वीरों का कैसा हो बसंत ?

(उद्बोधन)

 

 

(2) शहीदों की चिताओं पर

जगदम्बा प्रसाद मिश्र

अरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्तां होगा

रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशनां होगा ।

चखाएँगे मजा बरबादिए गुलशन का गुलचीं को

बहार आ जायगी उस दिन जब अपना बागबां होगा ।

वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है

सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तहां होगा ।

जुदा मत हो मेरे पहलू से ए दर्दे-वतन हरगिज़

न जाने बादे मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा ।

शहीदों की चिताओं पै जुड़ेंगे हर बरस मेले

वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा ।

इलाही वो भी दिन होगा जब अपना राज देखेंगे

जब अपनी ही जमीं होगी औ अपना आसमां होगा

 

(3) उनको प्रणाम

नागार्जुन

जो नहीं हो सके पूर्ण–काम

मैं उनको करता हूँ प्रणाम।

कुछ कुंठित औ’ कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट, जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;

रण की समाप्ति के पहले ही, जो वीर रिक्त तूणीर हुए!

उनको प्रणाम !

जो छोटी–सी नैया लेकर, उतरे करने को उदधि–पार;

मन की मन में ही रही¸ स्वयं, हो गए उसी में निराकार!

उनको प्रणाम !

जो उच्च शिखर की ओर बढ़े, रह–रह नव–नव उत्साह भरे;

पर कुछ ने ले ली हिम–समाधि, कुछ असफल ही नीचे उतरे!

उनको प्रणाम !

एकाकी और अकिंचन हो, जो भू–परिक्रमा को निकले;

हो गए पंगु, प्रति–पद जिनके, इतने अदृष्ट के दाव चले!

उनको प्रणाम !

कृत–कृत नहीं जो हो पाए प्रत्युत फाँसी पर गए झूल

कुछ ही दिन बीते हैं फिर भी यह दुनिया जिनको गई भूल!

उनको प्रणाम !

थी उग्र साधना, पर जिनकाजीवन नाटक दु:खांत हुआ;

या जन्म–काल में सिंह लग्न, पर कुसमय ही देहांत हुआ !

उनको प्रणाम !

दृढ़ व्रत औ’ दुर्दम साहस के जो उदाहरण थे मूर्ति-मंत,

पर निरवधि बंदी जीवन ने जिनकी धुन का कर दिया अंत !

उनको प्रणाम !

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय पर विज्ञापन से रहे दूर,

प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ चूर–चूर ।।

उनको प्रणाम !

 

(4) आज देश की मिट्टी बोल उठी है

शिवमंगल सिंह सुमन

लौह-पदाघातों से मर्दित, हय-गज-तोप-टैंक से खौंदी,

रक्तधार से सिंचित-पंकिल, युगों-युगों से कुचली रौंदी ।

व्याकुल वसुंधरा की काया, नव निर्माण नयन में छाया ।।

कण-कण सिहर उठे, अणु-अणु ने सहस्राक्ष अंबर को ताका,

शेषनाग फूत्कार उठे, साँसों से निःसृत अग्नि शलाका ।

धुआँधार नभ का वक्षस्थल, उठे बवंडर आँधी आई,

पदमर्दिता रेणु अकुलाकर छाती पर, मस्तक पर छाई,

हिले चरण, गति हरण, आततायी का अंतर थर-थर काँपा,

भूसुत जगे, तीन डग में, बावन ने तीन लोक फिर नापा ।

धरा गर्विता हुई सिंधु की छाती डोल उठी है,

आज देश की मिट्टी बोल उठी है ।

आज विदेशी बहेलिए को उपवन ने ललकारा,

कातर कंठ क्रोंचिनी चीखी, कहाँ गया हत्यारा ।

कण-कण में विद्रोह जग पड़ा, शांति क्रांति बन बैठी,

अंकुर अंकुर शीश उठाए डाल-डाल तन बैठी

कोकिल कुहुक उठी चातक की चाह आग सुलगाए,

शांति-स्नेह-सुख-हंता, दंभी पामर भाग न पाए ।

संध्या स्नेह संयोग सुनहला चिर-वियोग-सा छूटा,

युग-तमसा तट खड़े मूक कवि का पहला स्वर फूटा ।

ठहर, आततायी हिंसक पशु, रक्त पिपासु प्रवंचक

हरे भरे वन के दावानल, क्रूर, कुटिल, विध्वंसक,

देख न सका सृष्टि शोभा वर, सुख-समतामय जीवन

ठट्टा मार हंस रहा बर्बर सुन जगती का क्रंदन ।

घृणित, लुटेरे, शोषक, समझा पर-धन हरण बपौती,

तिनका-तिनका खड़ा दे रहा, तुझको खुली चुनौती

जर्जर कंकालों पर वैभव का प्रासाद बसाया

भूखे मुख से कौर छीनते तू न तनिक शरमाया ?

तेरे कारण मिटी मनुजता माँग-माँग कर रोटी

नोची श्वान शृगालों ने जीवित मानव की बोटी ।

तरे कारण मरघट सा जल उठा हमारा नंदन,

लाखों लाल अनाथ लुटा अबलाओं का सुहाग-धन ।

 

(5) सन् 1857 ई. में बागी सैनिकों का कौमी गीत

 

हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्तान हमारा

पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा

यह है हमारी मिल्कियत हिंदुस्तान हमारा

इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा

कितनी कदीम कितना नईम, सब दुनिया से न्यारा

करती है जरखेज़ जिसे गंगो-जमुन की धारा

ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा

नीचे साहिल पर बजता, सागर का नक्कारा

इसकी खानें उगल रहीं सोना हीरा पारा

इसकी शान-शौकत का दुनिया में जयकारा

आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा

लूटा दोनों हाथ से प्यारा वतन हमारा

आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा

तोड़ो गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा

हिन्दु मुसलमां सिख हमारा भाई भाई प्यारा

ये है हमारी मिल्कियत हिन्दुस्तान हमारा

यह है आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा ।।

 

(6) छेल्ली प्रार्थना

(गुजराती) 

झवेरचन्द मेघाणी

हजारों वर्षनी जूनी अमारी वेदनाओ,

कलेजां चीरती कंपावती अम भयकथाओ,

मरेलांनां रुधिर ने जीवतांनां आंसुडाओ,

मरेलांना रुधिर ने जीवतांना आंसुडाओ

समर्पण ए सहु तारे कदम, प्यारा प्रभु ओ !

अमारा यज्ञनी छेल्ली बलि: आमीन के जे !

गुमावेली अमे स्वाधीनता तु फेर देजें !

बधारे मूल लेवां होय तोय मागी लेजें !

अमारा आखरी संग्रामगा साथै ज रेजे !

प्रभुजी! पेखजो आ छे अमारुं युद्ध छेल्लुं ;

बतावो होय जो कारण अमारुं लेश मेलुं –

अमारां आंसुडां ने लोहीनी धारे धुएलुं !

दुवा मागी रहयुं जो सैन्य अग तत्पर उभेलुं ।

नथी जाण्युं अगारे पंथ शी आफत खड़ी छे ;

खबर छे आटली के मातनी हाकल पड़ी छे,

जीवे मा मावडी ए काज मखानी घड़ी छे

फिकर शी ज्यां लगी तारी अमो पर आंखड़ी छे?

जुओ आ, तात ! खुल्लां मूकियां अंतर अमारां,

जुओ, हर जख्मथी झरती हजारो रक्तधारा ;

जुओ, छाना जले अन्यायना अग्नि-धखारा :

समर्पण हो, समर्पण हो तने ए सर्व, प्यारा !

भले हो रात काळी-आप दीवो लै ऊभा जो !

भले रणमां पथारी- आप छेल्लां नीर पाजो !

लड़ताने महा रणखंजरीना घोष गाजो !

मरंताने मधुरी बंसरीना सूर वाजो !

तूटे छे आभ ऊँचा आपणां आशा-मिनारा,

हजारो भय तणी भूतावळो करती हुंकारा ;

समर्पणनी छतां वहेशे सदा अणखूट धारा,

मळे नव मावडीने ज्यां लगी मुक्ति-किनारा ।


आज़ादी की अग्निशिखाएँ

चयन एवं संयोजन – डॉ. शिव कुमार मिश्र 

निबंध

 



आज़ादी का जश्न

ज्योत्स्ना प्रदीप

हमारा भारत कभी सोने की चिड़ियाकहलाता था। उदार हृदय भारत की धमनियों में  वैश्विक कुटुंब की अवधारणा की गंगा झरती थी। इसी उदारता का लाभ अंग्रेज़ों द्वारा उठाया गया और हमारा देश अंग्रेज़ों का गुलाम हो गया था।

हमारा भारत जो एक समय सबसे समृद्ध व विकसित राष्ट्र था, दुर्बल होता चला गया। दो सौ वर्षों की गुलामी ने बहुत से परिवर्तन किए जिन्होंने समाज की सोच, संस्कार, रीति रिवाज़,  व्यवस्थाएँ सब कुछ बदल दीं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है –  

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं

अर्थात् पराधीन व्यक्ति कभी भी सुख का अनुभव नहीं कर सकता है।

जब पशु-पक्षी ही पराधीनता में छटपटाने लगते हैं तो मनुष्य का परतंत्र रहना बिल्कुल असंभव है। यही हमारे देश के साथ भी हुआ।

हर भारतवासी के मन में दुख व क्षोभ था, हृदय में विद्रोह की  प्रचंड ज्वाला भड़क रही थी। अंग्रेज़ों के अत्याचार की कोई सीमा न थी, देश के अनेक वीरों ने इस दासता के विरोध में

प्राणों की आहुति दी। सीने पर गोलियाँ खाईं। मंगल पांडे, झाँसी की रानी, सुभाष चन्द्र बोस,

लाल-बाल-पाल, सुखदेव, भगतसिंह, राजगुरु, अशफ़ाक़ उल्ला खान, रामप्रसाद बिस्मिल, मदनलाल ढींगरा के अद्भुत देशप्रेम को हम कभी भुला नहीं सकते।

इन वीरों ने अंग्रेज़ों को भारत छोड़कर जाने पर मजबूर कर दिया। प्राणों की आहुति दी, सीने पर गोलियाँ खाईं, कुछ फाँसी के तख्ते पर हँसते-हँसते झूल गए।

सरदार वल्लभभाई पटेल, गाँधीजी, नेहरूजी ने सत्य, अहिंसा और बिना हथियारों की लड़ाई लड़ी।

इस तरह 15 अगस्त 1947 का दिन हमारे लिए स्वर्णिम दिन बना। भारत देश स्वतन्त्र हो गया।

प्रत्येक वर्ष 15 अगस्‍त को देश भर में बड़े ही हर्ष और उल्‍लास के साथ आज़ादी का जश्न मनाया जाता है।

भारत 200 वर्ष से अधिक समय तक ब्रिटिश उपनिवेशवाद की बेड़ियों में जकड़ा हुआ रहा, मुक्त्त होकर एक नए युग की ओर अग्रसर होना कितना सुखद रहा होगा!

          15 अगस्त 1947 के दिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने, दिल्ली में लाल किले पर भारतीय राष्ट्रीय ध्वज फहराया था। हर वर्ष इस परम्परा का बड़े भव्य तरीके से अनुसरण होता रहा है।

आज़ादी के जश्न का हर रूप बड़ा निराला होता है। हमारी राजधानी दिल्ली में प्रधानमंत्री प्रत्येक वर्ष लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं और देश को संबोधित करते हैं।

इस दिन सभी शहीदों को श्रद्धां‍जलि दी जाती है। प्रधानमंत्री राष्ट्र के नाम संदेश देते हैं।

लाल किले पर भारतीय सेनाओं के तीनों प्रमुख उपस्थित होकर झंडे को सलामी देते हैं। यह दृश्य रोम-रोम में उत्साह का अनुपम प्रवाह कर देता है।

भारत के सभी विद्यालयों, सरकारी कार्यालयों में राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है। राष्ट्रगान के स्वर दश-दिशाओं गूँजते हैं। कण-कण आह्लादित हो उठता है। मिठाइयाँ बाँटी जाती हैं। बच्चों का उत्साह देखते ही बनता है। हम भारतीय इस दिन अपने वस्त्रों, घरों और वाहनों पर राष्ट्रीय ध्वज सुशोभित करते हैं। लोग परिवार व दोस्तों के साथ देशभक्ति  की फिल्में देखते हैं, गीत सुनते हैं।

न्यूज़ चैनल और सोशल मीडिया पर मानों आज़ादी के पर्व की खुशियों की सुन्दर, अविरल निर्झरिणी बहती रहती है।

वर्तमान कोरोना काल में भी, सभी सावधानियों के साथ देश के 75 वें स्वतंत्रता दिवस को बड़ी भव्यता से अमृत महोत्सव’ के रूप में मनाया गया। राजधानी दिल्ली से लेकर देश की सीमाओं पर तैनात सेना के जवानों ने तिरंगा फहराकर आजादी का पर्व बड़े धूमधाम से मनाया। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक देशवासी जश्न-ए-आजादी के पर्व के रंग में रंगे थे। लाल किले पर प्रधानमंत्री ने तिरंगा फहराया, वहीं इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (ITBP) के जवानों ने लद्दाख में 14 हजार फुट की ऊँचाई पर स्थित पैंगोंग त्सो झील के किनारे तिरंगा फहराकर आज़ादी का जश्न मनाया। कितना शुभ होता है ये प्यारा दिन!

हम आज़ाद हैं और आज़ादी का जश्न भी मनाते हैं। मगर  पराधीनता की उन दो सदियों की छाप आज भी हमारी संस्कृति, भाषा और विचारों में कहीं  न कहीं देखने को मिलती हैं, इससे हमें मुक्त होना होगा।

हमारी हृदय की धमनियों में बहते लहू की हर बूँद उन शहीदों की ऋणी हैं जिन्होंने भारत माँ के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। इस ऋण से हम तभी उऋण हो सकते हैं जब हम अपने देश का नाम विश्व में आलोकित करें। हर भारतवासी का नैतिक कर्तव्य है कि वो देश में फ़ैल रहे भ्रष्टाचार को देश से समाप्त करने में सहयोग करे। एक आज़ादी का जश्न दिल में भी मनाना चाहिए।

इस स्वर्णिम दिवस की उजास हर भारतीय के हृदय में आलोक पर्व मनाए। इस आलोक में तम की कोई गुंजाइश ही न रहे। देश में बढ़ता आतंकवाद, अलगाववाद और आन्तरिक कलह को ज़रा भी पनपने न दें।  सही मायनों में यही आज़ादी का असली जश्न होगा और शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि भी!

 


ज्योत्स्ना प्रदीप

जालंधर

 

कविता



त्योहारों की लड़ियाँ

डॉ. पूर्वा शर्मा

देखो! देखो! सावन है आया

त्योहारों की लड़ियाँ लाया,

धरा सजी है धानी-धानी

लुटा रहे मेघ बूँदें सयानी,

हरिशयनी एकादशी जो आई

वर्षा ऋतु की छटा है छाई,

शाखों पर सज उठे हैं झूले

शिव चरणों में दुःख-दर्द भूले,

पनपे पादप धरा भीगी-नहाई

देखो अमावस हरियाली है लाई,

गूँजते फिज़ाओं में कजली गीत

सखियाँ मनाएँ हरियाली तीज,

पंचमी को दर्शन देते नाग देवता

अगस्त पंद्रह मिली थी स्वतंत्रता,

छाया भारत में अब चैनो अमन

लहराता तिरंगा करे वीरों को नमन,

रक्षाबंधन पर सजती कलाई

नेह बंधन में बंधे बहन-भाई,

मटकी फोड़े फिर दही चुराए

अष्टमी पर कान्हा मन लुभाए,

इतने सारे त्योहार हैं मनाते

पूरे सावन हम खुशियाँ लुटाते।



डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 


फरवरी 2025, अंक 56

  शब्द-सृष्टि फरवरी 202 5 , अंक 5 6 परामर्शक की कलम से : विशेष स्मरण.... संत रविदास – प्रो.हसमुख परमार संपादकीय – महाकुंभ – डॉ. पूर्वा शर्...