बुधवार, 31 दिसंबर 2025

सामयिक टिप्पणी

महिलाएँ : भारत में विशालतम अल्पसंख्यक!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

महिलाएँ भारत में विशालतम अल्पसंख्यक हैं। - सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बी.वी. नागरत्ना की यह टिप्पणी भारतीय समाज की कड़वी सच्चाई को उजागर करती है। उन्होंने यह टिप्पणी संसद में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण लागू करने में हो रही देरी पर केंद्र सरकार से जवाब माँगते हुए की। ग़ौरतलब है कि भारत की 48 प्रतिशत अर्थात लगभग आधी आबादी महिलाओं की है। फिर भी, राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन में उनकी आवाज दबी हुई क्यों है?

इसी विडंबना का आईना है - विशालतम अल्पसंख्यक। संख्या में बहुमत, लेकिन अधिकारों, अवसरों और सम्मान में अल्पसंख्यक! यह असंगति है; अंतर्विरोध है! अल्पसंख्यक समुदायों को संविधान विशेष सुरक्षा देता है, लेकिन महिलाओं के लिए ऐसी कोई स्पष्ट  व्यवस्था नहीं। लिंग-आधारित भेदभाव इतना गहरा है कि आधी आबादी होकर भी महिलाएँ  अल्पसंख्यकबनकर रह गई हैं। उदाहरणस्वरूप, लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र 14 प्रतिशत है, जबकि वैश्विक औसत इससे कहीं अधिक - 27 प्रतिशत - है। क्या यह हमारे लोकतंत्र की नींव के ही कमजोर होने का प्रतीक नहीं? यदि आधी आबादी की आवाज संसद तक न पहुँचे, तो नीतियाँ कैसे समावेशी होंगी? आशंका स्वाभाविक है कि 2023 में पारित महिला आरक्षण विधेयक को कहीं जानबूझकर तो निलंबित नहीं रखा गया है!

कहना न होगा कि महिलाओं की स्थिति को विकसित भारतके हमारे स्वप्न की होना चाहिए। सयानों की मानें तो भारत में हर घंटे कम से कम दो महिलाओं के साथ बलात्कार होता है। शिक्षा में लड़कियों का नामांकन बढ़ा है, लेकिन ड्रॉपआउट दर ऊँची है। रोजगार में भी महिलाओं की भागीदारी अपेक्षा से कम है। राजनीति में तो हालात और भी दयनीय हैं। पंचायतों में 50 प्रतिशत आरक्षण के बावजूद, उच्च स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व सीमित है। ऐसे में न्यायमूर्ति नागरत्ना का  लिंग असमानता को अल्पसंख्यक समस्याके रूप में चिह्नित करना बेहद मानीखेज़ है। महिलाओं के इस हाशियाकरण के बीज समाज की पितृसत्तात्मक संरचना में हैं, जिसने महिलाओं को बहुमत से वंचित कर दिया है। याद करें, विश्वमारी कोरोना ने किस तरह इस असमानता की कुरूपता दर्शाई थी। घरेलू हिंसा के मामले दोगुने हो गए थे! मतलब कि समानता का अधिकार आधी आबादी के लिए अधूरा ही है। यह न केवल राजनीतिक आरक्षण का मुद्दा है, बल्कि सामाजिक न्याय का सवाल है।

दरअसल सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी तभी कारगर मानी जा सकती है जब यह महिला अधिकार जागरूकता के प्रसार का आधार बने। पारंपरिक से लेकर सोशल मीडिया तक को इस विषय पर मंथन की ज़रूरत है। ताकि युवा पीढ़ी को स्त्री अधिकारों के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके। नीति निर्माताओं को भी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रहना चाहिए। महिलाओं को आख़िर कब तक वोट बैंक बनाए रखा जाएगा? चुनाव आए तो सिर पर बिठा लिया; वरना टोकरी में भी जगह नहीं! पर असर। 33 प्रतिशत आरक्षण को यथाशीघ्र अमल में लाया जाना चाहिए। तभी तो लिंग-संवेदनशील कानूनों का जन्म हो सकेगा न! इससे वैश्विक स्तर पर भी भारत की छवि निखरेगी। ध्यान रहे कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों में लैंगिक समानता के लिहाज से भारत बहुत नीचे है!

अंततः, सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी अपने आप में एक आह्वान है - महिलाओं को विशालतम अल्पसंख्यक से बहुमत की मुख्यधारा में लाएँ। हमारा संविधान समानता का वादा करता है, लेकिन उसे अमल में लाना हमारी जिम्मेदारी है। महिलाएँ न केवल माताएँ और बहनें हैं, बल्कि राष्ट्र-निर्माता हैं। यदि वे सशक्त होंगी, तो भारत सशक्त होगा। नारी शक्ति जागे, तभी भारत जागेगा।

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डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

विशेष

ब्रज भूमि: भक्ति योग, ज्ञान योग और कर्म योग की त्रिवेणी

डॉ. मोहन पाण्डेय भ्रमर

जब भी वृंदावन में पहुँचेंगे और नगर में भ्रमण करेंगे तो यही लगता है कि यहाँ तो वासुदेव कृष्ण साक्षात् विराजमान हैं ही उनके कालजयी उपदेश के मुख्य सूत्र _भक्ति, ज्ञान और कर्म योग की त्रिवेणी कहीं साक्षात् है तो यहीं है। हर ओर राधे राधे,जय श्री कृष्णा, राधे राधे जय श्री कृष्णा। यह महामंत्र गलियों में गूँज रहा है।

प्रत्येक व्यक्ति तो भक्ति भावना से ही यहाँ पाँव रखता है लेकिन जिन्होंने अपने जीवन को यहीं के लिए समर्पित कर दिया है वह तो अनवरत भक्ति में लीन है। इस महाभक्ति से ज्ञान की जो धारा प्रवाहित होती है उसके प्रभाव से निश्चित रूप से सभी को ज्ञान की प्राप्ति होती है।

दुकानदार,परिवहन चालक, तीर्थ यात्री, सभी लोग अहर्निश भक्ति के सागर में डूबे दिखाई देते हैं। जीवन निर्वाह के लिए छोटे बड़े जितने भी हैसियत के लोग हैं अपने कर्म के साथ ही साथ भक्ति में डूबे हुए हैं केवल धनार्जन ही मूल उद्देश्य नहीं है जैसा मैंने महसूस किया।यह उस अलौकिक परम ब्रह्म की ही शक्ति और कृपा है कि यह त्रिवेणी निरंतर प्रवाहमान है।भारत ही नहीं इस कृष्ण के भक्ति का ही प्रभाव है कि देश की सीमाओं को लांघकर विदेशी भक्त भी भक्ति के ब्रज रास में डूबे दिखाई पड़ते हैं।

डॉ. मोहन पाण्डेय भ्रमर

ब्रज भूमि,श्री धाम वृंदावन

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सामयिक टिप्पणी


स्त्रीविमर्श : सेक्स शिक्षा से डरती है इटली की सरकार?

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

इटली की दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी की सरकार ने हाल ही में एक प्रतिगामी विधेयक पेश किया है, जिसे वह जेंडर विचारधाराऔर वोक बबलपर निर्णायक प्रहार बता रही है। दरअसल जेंडर विचारधारादक्षिणपंथी हलकों में इस्तेमाल होने वाला एक भयावह शब्द है जिससे उनका मतलब हैलिंग (जेंडर) को जैविक लिंग (सेक्स) से अलग एक सामाजिक संरचना मानना, सेक्सुअल ओरिएंटेशन की तरलता को स्वीकार करना, ट्रांसजेंडर पहचान को मान्यता देना और समलैंगिक विवाह या सरोगेसी जैसे मुद्दों को सामान्य करना। इसी तरह, यह वर्ग उन प्रगतिशील विचारों के लिए वोक बबलभी इस्तेमाल करता है जिन्हें वह अतिवादी, अमेरिकी-प्रभावित, और पारंपरिक परिवार-संस्कृति के लिए खतरा मानता है। विडंबना यह है कि इन दोनों शब्दों को हथियार बनाकर मेलोनी सरकार अब स्कूलों में सेक्स शिक्षा को और सिकोड़ना चाहती है।

विधेयक की मुख्य बातें स्पष्ट हैं। प्राथमिक स्कूलों में सेक्स व भावनात्मक शिक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध, मिडिल स्कूल (11-14 वर्ष) में केवल माता-पिता की लिखित सहमति से ही अनुमति, और हाई स्कूल में मौजूदा सीमित व्यवस्था। 1975 से अब तक विपक्षी दलों ने 34 बार अनिवार्य सेक्स शिक्षा का प्रस्ताव रखा, पर कैथोलिक चर्च और गर्भपात-विरोधी लॉबी के दबाव में हर बार उसे ठुकराया गया। वर्तमान सत्तारूढ़ दक्षिणपंथी गठबंधन प्रगति के चक्र को उल्टा घुमाने का काम कर रहा है। शिक्षा को और कड़ा करना उल्टी दिशा में जाना ही तो है न? शिक्षा उप-मंत्री रॉसानो सासो ने संसद में कहा, “इस कानून से हम जेंडर विचारधारा और वोक बबल को हमेशा के लिए अलविदा कह रहे हैं।उन्होंने पुराना फासीवादी नारा दोहराया- “भगवान, देश और परिवार!”

स्त्री विमर्श के नजरिए से यह विधेयक ख़ासा चिंताजनक है। यह सिर्फ शिक्षा का मामला नहीं, पितृसत्ता को पुनर्जीवित करने का घोषणापत्र है! यूनेस्को की 2018 और 2023 की रिपोर्टें स्पष्ट कहती हैं कि व्यापक व वैज्ञानिक सेक्स शिक्षा किशोर गर्भावस्था को 50 प्रतिशत तक, यौन संचारित रोगों को 40 प्रतिशत तक और महिलाओं के खिलाफ हिंसा को उल्लेखनीय रूप से कम करती है। ग़ौरतलब है कि इटली में हर तीन दिन में एक हत्या महिला-हत्या (फेमिसाइड) होती है। सयाने याद दिला रहे हैं कि 2023 में ग्यूलिया चेचेतिन की हत्या के बाद उनके परिवार ने खुलकर कहा था – “अगर स्कूल में सहमति, सम्मान और लिंग समानता की बात होती, तो शायद मेरी बेटी आज जिंदा होती।पर सरकार ने उनकी पुकार अनसुनी कर दी।

बेशक, इस विधेयक के प्रभाव बहुआयामी और विनाशकारी होंगे। यह सहमति (कंसेंट) की अवधारणा को स्कूल से बाहर कर देगा, जिससे युवा पीढ़ी का मतलब समझने में असमर्थ रहेगी। ट्रांसजेंडर व समलैंगिक बच्चों के लिए स्कूल और भी खतरनाक जगह बन जाएगा। जबकि इटली में पहले ही 35 प्रतिशत एलजीबीटीक्यू+ छात्र आत्महत्या के विचार रखते हैं!

कहना न होगा कि यह विधेयक मेलोनी सरकार के अन्य कदमों - सरोगेसी पर पूर्ण प्रतिबंध, समलैंगिक जोड़ों के बच्चों को कानूनी मान्यता न देना, ट्रांस युवाओं के लिए हार्मोन थेरेपी पर रोक - का पूरक है। विश्व आर्थिक मंच की 2025 की लिंग-अंतर रिपोर्ट में इटली 148 देशों में 85वें स्थान पर है; यह विधेयक उसे और नीचे धकेलेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इटली जैसे देश जेंडर विचारधाराके नाम पर शिक्षा का गला घोंट रहे हैं। उन्हें समझना होगा कि स्कूलों में वैज्ञानिक, समावेशी और अनिवार्य सेक्स व लिंग शिक्षा लागू करने का समय आ गया है। माता-पिता की अनुमति के नाम पर, या धार्मिक लॉबी के दबाव में इसे सिकोड़ना किसी भी प्रकार उचित नहीं; क्योंकि शिक्षा दमन का हथियार नहीं, मुक्ति का औजार होती है।

अंततः, भारत के लिए भी यह एक चेतावनी है। हमारे यहाँ भी तो सेक्स शिक्षा को पश्चिमी साजिशया संस्कृति-विरोधीकहकर खारिज करने की आवाजें उठती रहती हैं न!

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डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद


लघुकथा


गुनाहगार कौन’?

रागिनी अग्रवाल

लॉबी से अपने कमरे की तरफ जाते हुए यकायक मेरे कदम रुक गए । दादाजी के कमरे से सिसकियों की आवाज़ें आ रही थीं । मैं घबराया हुआ था । दादाजी के कमरे में गया तो देखा दादाजी आराम से अपने बिस्तर पर लेटे हुए थे । हाथ में मोबाइल था जो अभी एक माह पहले मैंने उन्हें उपहार में दिया था । दादाजी ने कानों में ईयर फ़ोन्स लगा रखे थे । और पुराने ज़माने के गीतों का मज़ा ले रहे थे ।

फिर ये सिसकियों की आवाज़ कहाँ से आ रही थी । मेरे कान चौकन्ने हो गए । मुझे लगा कि आवाज़ दादाजी के कमरे की एक आलमारी से आ रही है । मैंने आलमारी खोली तो देखा कि कई चीज़ें वहाँ पड़ी हुई सुबक रही हैं ।

मैंने जब प्यार से उन्हें सहलाया, तो वे सब जोर जोर से रोने लगीं । ये चीज़ें थीं - एक टोर्च । एक अलार्म घड़ी । एक ट्रांजिस्टर । एक कैलकुलेटर । एक कैमरा और कुछ किताबें । मैंने उनसे इस तरह विलाप करने का कारण पूछा,तो वे सब मिलकर मुझ पर ही टूट पड़ीं और कहने लगीं ,’तुम्हीं तो हो हमारे विलाप का कारण,तुम्हीं ने अपने दादाजी को ये फुनवा लाकर दिया है । बस इसी में रम गए हैं ये । हम सबको उठाकर इस कालकोठरी में डाल दिया है इन्होंने ।

अलार्म घड़ी कहने लगी कि हर रोज रात को खाना खाने के बाद, तुम्हारे दादाजी मुझे अपने हाथों में लेते थे, प्यार से निहारते थे और फिर मेरा कान मरोड़कर कहते थे सुबह चार बजे जगा दियो,घूमने जाना है मुझे । और मैं बड़ी ख़ुशी से उनका कहना मानकर रोज सुबह चार बजे उन्हें जगा दिया करती थी । अब ये काम भी इनका फुनवा कर देता है तो मुझे उपेक्षित कर दिया है तुम्हारे दादू ने । रोने के अलावा बचा क्या है मेरे पास ।

तभी टोर्च सुबकता हुआ आगे आया और बोला । घड़ी दीदी ठीक कह रही हैं । इस मोबाइल ने तो हमारा ज़िन्दगी ही बर्बाद कर दी है । दिल तो करता है या तो इसे मार दें या फिर ख़ुदकुशी कर लें ।पहले हमेशा दादाजी मुझे अपने  तकिये के नीचे सुलाते थे । जब भी उनकी आँख खुलती तो सबसे पहले मुझे जगाते और फिर घड़ी दीदी के प्यारे से चेहरे को निहारते । और फिर सो जाते । कभी भी शाम को बाज़ार जाते या तड़के घूमने जाते थे तो हमेशा मुझे साथ लेकर जाते थे । मगर अब तो चौबीसों घंटों उनके साथ यही मुआ रहता है । नाश जाये इस कलमुँहे मोबाइल का । हम सबकी जगह छीन ली इस नाशपीटे ने ।

तभी दीन-हीन सा मुँह लिए बच्चन जी की मधुशाला बाहर  आयी । और अपने पन्नों को फड़ फड़ाते हुए बोली, " अब तो मेरा और मेरी बहनों का भी ख़्याल नहीं रखते तुम्हारे दादाजी । पहले तो हम हमेशा इनके अकेलेपन की साथी हुआ करती थीं । कई कई घंटे हमारे साथ बिताया करते थे तुम्हारे दादाजी । यहाँ तक कि तुम्हारी दादी हमें अपनी सौत तक कहने लगी थीं । अब तो हमारी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखते। अब तो हमें भी इस फुनवा के अंदर ही तलाशते हैं । लेकिन हमें जो सुख उनकी बाँहों में, उनके सीने से लगकर मिलता था, तुम्हारे इस तोहफ़े की बजह से उससे वंचित हो गयीं हैं हम सब । "कहते कहते उसकी आँखों से धूल धूसरित आँसू झड़ पड़े । और बाकी पड़ी किताबें भी उससे लिपट कर करुण क्रंदन करने लगीं।

मेरा दिल बहुत भारी हो चुका था । भारी मन से मैं कैमरे, कैलकुलेटर और ट्रांजिस्टर की तरफ बढ़ा। देखकर अवाक् रह गया मैं । कैमरे ने तो गले में अपनी ही बेल्ट कसकर ख़ुदकुशी कर ली थी । ट्रांज़िस्टर ने अपनी ही बैटरी में आग लगाकर जान दे दी थी । और कैलकुलेटर भी ऐसे पड़ा था जैसे वेंटिलेटर पर आखिरी साँसे ले रहा हो ।

मैं अपने आप को बहुत बड़ा गुनाहगार समझ रहा था। क्या सचमुच मेरा दोष था यह या दादाजी का या समय की तकनीकी उड़ान का ? यही सोचते सोचते मैं भारी मन से अपने कमरे में लौट आया और फिर मैं खुद कब पब जी खेलने में मशग़ूल हो गया, पता ही नहीं चला ।

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रागिनी अग्रवाल

राजीव भवन,गुरुद्वारा रोड

गोविंदनगर

कोटद्वार पौड़ी, गढ़वाल

उत्तराखंड




पुस्तक समीक्षा

 

धूप छाँव और इन्द्रधनुषकथा-संग्रह में जीवन की विविधरंगी अनुभूतियाँ

डॉसुषमा देवी

विषय प्रवेश:

कहानी मानव की सामाजिकता के विकास काल से ही उसके साथ चलती रही है। किस्सागोई हो अथवा काव्यधारामूलतः अपनी बात अलग-अलग तरीकों से सामने वाले तक पहुँचाने का प्रयास ही रहा है। दादी-नानी की कहानियों में इसकी-उसकी, जिसकी-तिसकी बातें की जाती थीं। कहानियों के द्वारा यथार्थ, कल्पना तथा आदर्श की घुट्टी ही नहीं पिलाई जाती थी, अपितु उनमें जीवन को बेहतर बनाने के संदेश भी समाहित रहते थे। कहानियों का यही प्रदेय उसे मानव समाज से गहरे जोड़ता है। प्रस्तुत कहानी-संग्रह धूप-छाँव और इन्द्रधनुष के लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) के अधिकारी रहे हैं और समाज व शासन की गहरी समझ रखते हैं। उनका अनुभव और अवलोकन कहानियों को ठोस आधार प्रदान करता है। इससे पूर्व भी उनकी रचनाएँ दर्पण जैसी पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी हैं, जो उनके लेखन को और अधिक विश्वसनीय तथा प्रभावी बनाती हैं।

बीज शब्द: इंद्रधनुष, संघर्ष, जिजीविषा, संवेदना, आशा, जीवन-दर्शनमूल्य आदि । 

विषय-विस्तार:  लेखक ने जीवन को धूप और छाँव का खेलमाना है। जीवन में सुख-दुःख, संघर्ष-प्राप्तियाँ, आशाएँ और निराशाएँ निरंतर साथ-साथ चलती हैं। इन अनुभवों की परतों से ही जीवन का वास्तविक स्वाद और गहराई प्राप्त होती है। जैसे वर्षा के बाद इन्द्रधनुष वातावरण में नया रंग भर देता है, वैसे ही आशा-भरी दृष्टि जीवन को नया दृष्टिकोण प्रदान करती है। यहाँ यह स्पष्ट होता है कि यह पुस्तक केवल मनोरंजन नहीं करती, बल्कि जीवन-दर्शन भी प्रस्तुत करती है।

विषय-वस्तु और कहानियों की प्रकृति लेखक ने आम जीवन से ली है। कहानियों को लेखक ने अनुभव-संपन्न यात्रा के रूप में प्रस्तुत किया है। इनमें आत्ममंथन, प्रेरणा और गहन चिंतन विद्यमान है। विषय अत्यंत वैविध्यपूर्ण हैं। एक युवती की मनोदशासंवेदनशील स्त्री-केन्द्रित कहानी है, जिसमें नायिका प्रेम में पड़कर घर छोड़कर अकेले प्रेमी द्वारा दिए गए पते पर पहुँचने का प्रयास करती है, किंतु ट्रेन-यात्रा के दौरान कथानायक उसके बहके हुए कदमों को सही राह पर ले आता है। इस प्रकार लेखक ने आदर्शवाद की प्रतिष्ठा करते हुए इस कहानी को प्रस्तुत किया है।वे कहते हैं-’प्यार समर्पण माँगता है जिसमें इंसान सबसे पहले स्वयं को समर्पित करता है जैसे कि तुमने किया, परंतु क्या ऐसा समर्पण तुम्हारे दोस्त ने दिखाया |’(पृष्ठ-18)

मेरी खता क्या है?’ कहानी में लेखक ने मूल्यहीन समाज के कटु दृश्य प्रस्तुत किए हैं| ईरान में अनैतिक व्यवहार के नाम पर दो स्त्रियों को क्रूरतापूर्ण पत्थर मारकर मृत्युदंड दिए जाने की घटना को केंद्र में रख कर इस कहानी के ताने-बाने को संवेदना के धरातल पर प्रस्तुत किया गया है | मानव के जीवन-मूल्यों की सारी सीमाएँ तोड़ते हुए माँ स्वयं अपनी मासूम पुत्री को जिस्मफरोसी में धकेल देती है | स्त्री तस्करी के अमानवीय स्वरूप को चित्रित करते हुए कथानायिका आलिया के दर्द को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है-’आपा, मेरी खता क्या है, मेरा कसूर क्या है? मैं तो ता-जिंदगी वही करती रही जो मेरी अम्मी ने कहा, अब्बू ने चाहा | न करती तो अम्मी बहुत मारती थीं, खाना भी नहीं देती थीं और जब माना तो....’(पृष्ठ-31)

 मंजिल दूर नहींके माध्यम से लेखक ने आदिवासी महिला सशक्तिकरण को केंद्र में रख कर कहानी को आदर्श के धरातल पर लिखा है | आदिवासी स्त्री लाढ़ कुँवर को आरक्षण के कारण सरपंच बनाकर उसका पति तथा गाँव के तहसीलदार मिलकर गैरकानूनी कार्यों के माध्यम से लाभ कमाते हैं | लेकिन मार्गेट और हाकिंस की प्रेरणा से लाढ़ कुँवर पूरे समर्पण के साथ सरपंच की जिम्मेदारियों को स्वयं निभाते हुए आदिवासी गाँव को विकास के राह पर आगे लेकर चलती है |

            फोन--फ्रेंडजैसी आधुनिक जीवनशैली से जुड़ी कथा, “नोटबंदीतीसरे विश्वयुद्ध की आहटजैसी सामाजिक-राजनीतिक दृष्टियुक्त कहानियाँ पाठकों को अपने आम जीवन की समस्याओं में खींचती है। साथ ही, इनकी कहानियों में दैनिक जीवन की व्यावहारिक समस्याएँ और हास्य-व्यंग्य भी सम्मिलित हैं। इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि यह संग्रह केवल भावुकता में नहीं बहता, बल्कि यथार्थ से गहरे जुड़ा हुआ है।

सुरेन्द्र मिश्र के लेखन की विशेषताओं में उनकी हृदय से लिखी गई संवेदनशील कहानियाँ प्रमुख हैं। कहानियों की भाषा सरल, सहज और संवादात्मक प्रतीत होती है। प्रत्येक कहानी जीवन की सच्चाईको उद्घाटित करती है और पाठक को आत्ममंथन के लिए बाध्य करती है। इनमें न केवल पीड़ा और संघर्ष है, बल्कि जीवन को देखने का एक नया दृष्टिकोण भी निहित है।

कहानी-संग्रह का साहित्यिक महत्त्व निश्चित रूप से चिरस्थायी है। यह पुस्तक आधुनिक हिन्दी साहित्य में अनुभवजन्य कहानियों का एक महत्त्वपूर्ण संग्रह है। इसमें भावुकता और यथार्थ का संतुलन दिखाई देता है। जीवन-दर्शन, सामाजिक सरोकार और मानवीय रिश्तों की जटिलताओं को एक ही छत के नीचे समेटा गया है। यह कथा-संग्रह लेखक की बीस वर्षों की साहित्यिक और सामाजिक यात्राओं का दस्तावेज़ प्रतीत होता है। इसमें जीवन के विविध रंगविषाद, गहनता, परिचय-अपरिचय, धैर्य और संघर्ष आदिको मार्मिक ढंग से चित्रित किया गया है। लेखक ने गाँव और शहर, अतीत और वर्तमान, सुख और दुःख के द्वंद्व को बड़ी सहजता से कथा के रूप में प्रस्तुत किया है।

लेखक का दृष्टिकोण केवल घटनाओं का बयान करना नहीं है, बल्कि उनके पीछे छिपे जीवन-सत्य और मानवीय संवेदनाओं को उद्घाटित करना है। प्रत्येक कहानी पाठक को भीतर तक झकझोरती है और आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करती है। यही विशेषता इस संग्रह को साधारण कहानी-संग्रह से अलग बनाती है।

इस संग्रह की कथाएँ पाठक को हँसाएँगी भी और रुलाएँगी भी। कभी वे गुज़रे हुए समय की याद दिलाकर संवेदनशील बना देंगी, तो कभी वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों पर गहरी टिप्पणी करेंगी। इनका सौंदर्य यह है कि इनमें कृत्रिमता नहीं है; बल्कि जीवन के स्वाभाविक अनुभवों की सहज अभिव्यक्ति है।

भूमिका में प्रयुक्त धूप-छाँव और इन्द्रधनुषका रूपक विशेष रूप से आकर्षक है। यह रूपक संकेत देता है कि मानव-जीवन केवल संघर्षों और दुःखों से ही नहीं भरा है, बल्कि उसमें आनंद, रंग और आशा का इन्द्रधनुष भी निहित है।

इस संग्रह में सामाजिक, व्यक्तिगत, राजनीतिक और भावनात्मकसभी आयामों को स्पर्श करने का प्रयास किया गया है। इसमें सत्रह कहानियाँ सम्मिलित हैं, जिनके शीर्षक ही पाठक को आकर्षित करते हैं। यह पुस्तक समकालीन जीवन के विविध पक्षों को प्रस्तुत करती है। मन की आस”, “एक युवती की मनोदशा”, “मेरी ख़ता क्या है?” और तुम मुझे समझते क्यों नहींजैसे शीर्षक मानव मन की गहन संवेदनाओं, रिश्तों की जटिलताओं और जीवन की भावनात्मक पीड़ा को उजागर करते हैं। दूसरी ओर नोटबंदी”, “राजतंत्र में नया उद्योग”, “तीसरे विश्वयुद्ध की आहटजैसे निबंध राजनीति, अर्थव्यवस्था और वैश्विक परिप्रेक्ष्य से जुड़े गंभीर मुद्दों पर विचार-विमर्श प्रस्तुत करते हैं।

लेखक ने सामाजिक यथार्थ और व्यक्तिगत अनुभवों के बीच ऐसा संतुलन साधा है कि पाठक एक ही पुस्तक में आत्मकथात्मक संवेदनाओं से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय चिंतन तक की यात्रा कर लेता है। फोन-ए-फ्रेंड”, “भँवर”, “मैडम, आप मेकअप क्यों नहीं करती?” जैसे शीर्षक आधुनिक जीवन-शैली, सामाजिक मान्यताओं और बदलते जीवन-मूल्यों की ओर संकेत करते हैं।

Bottom of Form

    लेखन-शैली का अनुमान शीर्षकों से ही लगाया जा सकता है, जो सरल, संवादात्मक और पाठक को सीधे छू लेने वाली है। प्रत्येक विषय समकालीन समाज की किसी न किसी विडंबना, समस्या या आकांक्षा को उद्घाटित करता है। विधि का विधानकहानी में अविनाशउर्मिला के प्रेम और उनके जीवन की त्रासदी के माध्यम से मानवीय सोच के विडंबनात्मक पहलू पर ध्यान केंद्रित किया गया है। किसी दूसरी लड़की में अपनी दिवंगत बेटी की छवि देखकर उससे बात करने के लिए उत्सुक अविनाश को जब उसी लड़की से झिड़की मिलती है, तो वे ग्लानिभाव से वशीभूत होकर सदमे के कारण मृत्यु की गोद में पहुँच जाते हैं।

पतिपत्नी के संबंधों की गहनता मानव-सृष्टि में एक पहेली-सी है, जहाँ प्रायः एक-दूसरे से यह शिकायत रहती है कि वे आपस में एक-दूसरे को नहीं समझते। तुम मुझे समझते क्यों नहींऐसी ही एक कहानी है, जहाँ राजन और रजनी अपनी आयु के सातवें दशक में शिकायतों की चिट्ठी के माध्यम से एक-दूसरे के प्रति अपने भाव व्यक्त करते हैं। पत्रात्मक शैली में लिखी गई इस कहानी को पढ़ते हुए पाठक स्वयं के जीवन से जुड़े बिना नहीं रह पाता।

लेखक मानव-जीवन की बहुआयामी मानसिक स्थितियों को अपनी राजनीतिक विषय-युक्त कहानी तीसरे विश्वयुद्ध की आहटके माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। साथ ही इस कहानी में उनके डिजिटल ज्ञान का भी परिचय मिलता है, जिसमें अमेरिका, चीन, हमास, इज़राइल, फ़िलिस्तीनी आदि देशों की राजनीतिक और तकनीकी स्थितियों का उल्लेख है। इस कहानी में लेखक ने रिपोर्टिंग-शैली का प्रयोग किया है।

सुरेन्द्र मिश्रा की कहानियों में विषय-वैविध्य के अंतर्गत व्यक्तिगत पीड़ा से लेकर वैश्विक संकट तक का विस्तार देखा जा सकता है। कहानियों में नोटबंदी, वैश्विक युद्ध जैसी तात्कालिक घटनाओं पर विमर्श उन्हें समकालीन संदर्भों से जोड़ता है। उनकी प्रत्येक कहानी के केंद्र में मनुष्य और उसकी जिजीविषा है। साथ ही कहानियों के आकर्षक शीर्षक पाठक को पढ़ने के लिए उत्सुक करते हैं।

उपसंहार

यह पुस्तक मात्र कहानियों का संग्रह नहीं, बल्कि जीवन के बहुआयामी अनुभवों की झलक है। इसमें व्यक्तिगत संवेदना, सामाजिक यथार्थ और भविष्य की आशाएँ, तीनों का सुंदर समन्वय है। लेखक ने अपने अनुभव, संवेदनशीलता और व्यंग्यात्मक दृष्टि से इसे समृद्ध किया है। निस्संदेह, यह कृति पाठकों को मनोरंजन के साथ-साथ आत्ममंथन और चिंतन के लिए प्रेरित करती है। यह पुस्तक न केवल पाठक का मनोरंजन करती है, बल्कि उसे सोचने और आत्ममंथन के लिए भी प्रेरित करती है। इसमें जीवन की व्यथा, संघर्ष, हास्य, व्यंग्य और भविष्य की आशा आदि सब कुछ समाहित है। यह संग्रह आधुनिक भारतीय समाज की नब्ज़ को छूने वाला और चिंतन-उत्तेजक कृति प्रतीत होती है। समग्र रूप से, यह कथा-संग्रह लेखक की साहित्यिक परिपक्वता और मानवीय सरोकारों का उत्कृष्ट प्रमाण है। यह न केवल मनोरंजन करता है, बल्कि पाठकों को गहन चिंतन और संवेदनशीलता से भी जोड़ता है।

संदर्भ सूची

1.      मिश्र, सुरेंद्र. धूप-छाँव और इन्द्रधनुष (कथा-संग्रह), अस्तित्व प्रकाशन,नई दिल्ली, 2025

2.      मिश्र, सुरेंद्र. “दर्पणपत्रिका में प्रकाशित पूर्ववर्ती रचनाएँ

3.      मधुरेश, "हिंदी कहानी का विकास, प्रकाशन, लोक भारती,2018 

4.      कमलेश्वर, नई कहानी की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, 2020

5.      चतुर्वेदी, रामस्वरूप, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, 2005 

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डॉ.सुषमा देवी

एसोसिएट प्रोफेसर

हिंदी विभाग

बद्रुका कॉलेज

हैदराबाद-27, तेलंगाना


पुस्तक समीक्षा

भारतीय भाषा दिवस का जादू फैलाने में सक्षम ‘जादूगर’

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

भारतीय भाषा दिवस के उपलक्ष्य में अगर यह प्रश्न उठाया जाए कि भाषा की आवश्यकता सबसे अधिक किसे है? तो उत्तर यही होगा कि मनुष्य को अपनी बाल्यावस्था से ही सबसे अधिक भाषा की आवश्यकता रहती है। बचपन में ही जैसी भाषा बच्चा सीख लेता है उसका प्रभाव जीवनपर्यंत तक उस पर रहता है। इसलिए आवश्यक है कि बच्चा अच्छी भाषा सुने, सीखे, लिखे, बोले। यह तभी संभव है जब बचपन से ही सुसाहित्य के साथ जुड़ जाए। इस विषय पर तमिल कवि और स्वतन्त्रता सेनानी सुब्रमण्य भारती ने काफी सोच-विचार किया था। सुब्रमण्य भारती ने बच्चों को भाषा के साथ जोड़ने के लिए ‘बालभारत’ नामक पत्रिका का भी संपादन किया था। उन्होंने सबसे पहले जटिल तमिल से हटकर सरल शब्दों और लय का प्रयोग करके बच्चों को सामाजिक संदेश, शिक्षा और साहित्य के माध्यम से देने का प्रयास किया। इसी कारण से शिक्षा मंत्रालय ने 11 दिसंबर जो कि सुब्रमण्य भारती का जन्मदिवस है उसे “भारतीय भाषा दिवस” के रूप में मनाने का निर्णय लिया जिससे कि भारत की भाषाई विविधता और सांस्कृतिक विरासत को सम्मान मिले। 2025 में जब सुब्रमण्य भारती की 143वीं जन्मशती मनाई जा रही है। उस समय हैदराबाद निवासी साहित्यकार के सद्य:प्रकाशित बाल उपन्यास ‘जादूगर’ की जानकारी भारत के नन्हें-मुन्नों को  मिलनी चाहिए। यह उपन्यास उन्हीं के लिए तो लिखा गया है। मोबाइल के  बनावटी कार्टूनों के स्थान पर सुंदर चित्रों से पुस्तक को सजाया गया है।


आजकल तो किसी भी प्रकार की घटना या वाक्य से बाल साहित्य प्रारंभ हो जाता है। लेकिन, लेखक ने पुरानी शैली में ही मतलब, ‘एक समय की बात है’ उपन्यास को प्रारंभ किया है। साथ ही वे भूले नहीं कि बच्चे अपने आप में खुशियों का ख़जाना होते हैं और उनको किसी भी घटना का अंत सुखांतकी में ही देखना पसंद होता है। भोला नामक व्यक्ति के स्वप्न दर्शन के द्वारा उपन्यास सस्पेंस के साथ शुरू हुआ है।  राजकुमार-राजकुमारी के विवाह और दुर्जन राजा के सज्जन बन जाने के सुख के साथ उपन्यास का अंत हुआ है। सस्पेंस से सुखांतकी की इस यात्रा के बीच में लेखक ने ‘प्राण जाए, पर वचन न जाए’ के रामायणकालीन नैतिक मूल्य को बच्चों के भीतर चंद्रनगरी के राजा चंद्रभान के कार्यों के द्वारा स्थापित किया है। राजकुमारी के द्वारा पिता के वचन को मान देते हुए दिखाकर माता-पिता को केवल ‘टेकन फ़ॉर ग्रांटेड’ नहीं मानना चाहिए। अभिभावक के प्रति बच्चों के भी कुछ कर्तव्य होते हैं। बढ़ते हुए वृद्धाश्रमों के दौर में देश की भावी पीढ़ी को यह शिक्षा केवल अच्छी भाषा में लिखा गया अच्छा साहित्य ही दे सकता है। विश्वास करना अच्छी बात है। किन्तु अंधविश्वास, सावधान! राजा विराटचंद्र ने व्यापारी का भेष बनाकर आए हुए दुनिचंद पर अंधविश्वास किया और फल केवल उन्हें ही नहीं उनके परिवार और जनता को भी भुगतना पड़ा।  आज की पीढ़ी जब कई बार सीमाहीन होकर, अंधविश्वासी होकर मर्यादा की बेड़ियाँ तोड़ती दृष्टिगोचर हो रही है। ऐसे में, उनके हाथ में ‘जादूगर’ पुस्तक की प्रति को रख देना अनुचित नहीं होगा। गलती मनुष्य से होती है, यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। मनुष्य अपनी गलती को माने और उसे सुधारे यह बहुत आवश्यक है। ‘कैकेयी का पश्चाताप’ मैथिलीशरण गुप्त ने दिखाया था। रवि वैद  ने कपटी राजा दुनिचंद का हृदय परिवर्तित होते हुए दिखाकर ‘मानवता विजयिनी होती है’ इस उक्ति को प्रमाणित करते हुए कहीं न कहीं सुब्रमण्य भारती  के लक्ष्य को कि भाषा के द्वारा, साहित्य के द्वारा संस्कार आरोपित हो, विशेष रूप से बच्चों में मूर्त रूप देने का ही प्रयास किया है। 

जादूगर

रवि वैद

बाल उपन्यास

वनिका पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली- 110018

प्रथम संस्कारण-2025

मूल्य-160/-

ISBN- 978-93-49084-97-1

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डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

हैदराबाद

पुस्तक समीक्षा

तथ्यों एवं कल्पना का सुंदर मिश्रण

किसकी परछाई?’

डॉ. घनश्याम बादल

रवीना प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित, अमेजॉन पर उपलब्ध उपन्यासकार मनोज पाण्डेय विवेकका उपन्यास किसकी परछाई’ “एक खोई हुई पहचान,एक अनसुलझा रहस्यपहली दृष्टि से देखने पर ऐतिहासिकता का पुट लिए हुए दिखाई देता है । आवरण पृष्ठ इस तथ्य की पुष्टि करता है तो 184 पृष्ठों और 15 अध्यायों में सिमटा कथानक बांधकर रखने में कामयाब है। 

उपन्यासकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के अनसुलझे प्रकरण को खंगालने के तथ्य परक एवं काल्पनिक सम्मिश्रण को सहज और सरल भाषा में प्रस्तुत किया है । हालांकि विवाद से बचने के लिए लेखक ने स्वयं इस बात की घोषणा भी की है कि इस उपन्यास को ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित न माना जाए लेकिन जिस तरह उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की फौज आई एन ए से जुड़ी बातें लिखी हैं और उनके तथा जापानियों के बीच अविश्वास, सैनिकों के संघर्ष, अंग्रेजों के डर और नेताजी के प्रति आमजन का लगाव तथा उनकी मदद के जज्बे की बात को उकेरा है वह प्रभावशाली बन पड़ा है ।

जासूसी उपन्यास जैसे कथानक को सहज व साहित्यिक शैली में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है जिसमें नेताजी के हम शक्ल प्रणव मंडल नाम के पात्र के माध्यम से गुमनामी बाबाकी कहानी भी जोड़ी गई है तथा नेताजी के निकट के असली पात्रों को भी अपने तरीके से लिया गया है।  साथ ही साथ उनकी मृत्यु पर गठित किए गए अयोगों की रिपोर्ट, तरीक़े एवं नीयत पर भी लेखक ने शक की सुई अलग-अलग पात्रों के माध्यम से घुमाई है । 

    शुरू में ऐसा लगता है कि लेखक कुछ नया रहस्य उद्घाटित करना चाहता है लेकिन आखिर में वह इस ज़िम्मेदारी से साफ बचकर निकल गया है । नेताजी के हमशक्ल प्रणव मंडल के मेमोरी लॉस का  सहारा लेकर उपन्यासकार ने इस अनसुलझे रहस्य को अनसुलझा ही छोड़ दिया है । कथानक में अंडमान निकोबार द्वीप समूह से लेकर बंगाल, बर्मा, रंगून सिंगापुर और जापान तक के दृश्य सजीव बन पड़े हैं । कई धर्मशालाओं, रेलगाड़ियों , बंदरगाहों , एवं बाजारों का वर्णन पुनरावृत्ति के बावजूद पाठक को बांधे रखता है। जिस तरह से लेखक ने इमेजरीका प्रयोग किया है वह रोचक बन पड़ा है और स्थान या यात्रा के बिंदु दर बिंदु वर्णन के बावजूद कहीं भी उबाऊ नहीं लगता। 

   छपाई साफ सुथरी एवं प्रूफ्र रीडिंग अच्छी है कहीं -कहीं कुछ अशुद्धियाँ रह गईं हैं , मगर न के बराबर। उपन्यास के पात्रों का चयन, उनका वर्णन, बोलने का ढंग, रहन-सहन और वार्तालाप सहज बन पड़ा है । जिस तरह उपन्यास का केंद्रीय पात्र प्रणव मंडल नेताजी की धरोहर 78 लाख के खजाने को लिए घूमता है और उसे सही हाथों में सौंपने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाता है ईमानदारी एवं निष्ठा का परिचय देता है उससे उसका प्रभा मंडल अधिक चमकदार हो गया है लेकिन जैसे तत्कालीन सरकार उसके पत्र भेजने के बावजूद कोई रुचि नहीं दिखाती वह तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों को भी इंगित करता है। 

गुमनामी बाबा की मृत्यु के बाद भी उस अमानत का क्या होता है यह रहस्य भी अंत तक अनसुलझा ही रह गया है जो ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है। 

अस्तु, एक बार शुरू करके उपन्यास को अंत तक आराम से पढ़ा जा सकता है । भाषा, कथानक, शैली, मुद्रण और मूल्य भी बाँधे रखने लायक है । कुल मिलाकर किसकी परछाईखरीद कर पढ़े जाने लायक उपन्यास है। 

समीक्षित कृति :  ‘किसकी परछाई ?’ 

(एक खोई हुई पहचान, एक अनसुलझा रहस्य । )

उपन्यासकार: मनोज पाण्डेय विवेक 

प्रकाशक: रवीना प्रकाशन, दिल्ली 

मूल्य :  ₹399.00 

पृष्ठ संख्या 184,  सॉफ्ट बाउंड कवर। 

समीक्षक: डॉ घनश्याम बादल


डॉ. घनश्याम बादल

215, पुष्परचना कुंज,

गोविंद नगर पूर्वाबली

रुड़की - उत्तराखंड - 247667

सामयिक टिप्पणी

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