डॉ. रामविलास शर्मा का भाषा-चिंतन
डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र
कुछ समय पूर्व डॉ. रामविलास शर्मा के भाषा-चिंतन पर लिखे गए चार लेख देखने को मिले –
1. ‘भाषा-विमर्श’ के दिसंबर-2012, के अंक में प्रकाशित डॉ. ऋषिकेश राय का लेख ‘एक क्रांतिकारी किंतु अलक्षित ग्रंथ – भारत के प्राचीन भाषा-परिवार और हिंदी’,
2. उद्भावना के ‘रामविलास शर्मा महाविशेषांक’ में प्रकाशित डॉ. अमरनाथ का लेख ‘रामविलास शर्मा और भाषाविज्ञान के अध्ययन की समस्याएँ’,
3. पूर्वग्रह के जनवरी-मार्च-2013 के अंक में प्रकाशित डॉ. भगवान सिंह का लेख ‘रामविलास शर्मा – हिंदी अस्मिता के उद्गाता’ तथा
4. वर्तमान साहित्य के अगस्त-2013 के अंक में प्रकाशित डॉ. ऋषिकेश राय का लेख ‘रामविलास शर्मा के भाषा-चिंतन का महत्त्व’।
इन लेखों से कुछ उद्धरण नीचे दे रहा हूँ, जिनके आधार पर मैं अपनी बात करूँगा –
(क) रामविलास शर्मा – हिंदी अस्मिता के उद्गाता – श्री भगवान सिंह
1. पारंपरिक भाषाशास्त्रियों ने डॉ. शर्मा के भाषा-चिंतन को बहुत महत्त्व
नहीं दिया है।
टिप्पणी – यही तो विचारणीय है कि
भाषाशास्त्रियों ने डॉ. शर्मा के भाषा-चिंतन को क्यों महत्त्व नहीं दिया?
2. ऐतिहासिक भाषाविज्ञानियों ने यही बताया है कि हिंदी तो संस्कृत
की बेटी है – संस्कृत से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश और तब अपभ्रंश से हिंदी का जन्म हुआ। कतिपय
संस्कृत प्रेमी तो हिंदी को संस्कृत का जूठन तक कह जाते हैं।
टिप्पणी – किसी भाषाविज्ञानी ने
हिंदी को संस्कृत की बेटी नहीं कहा है। यह सामान्य जन की काव्यात्मक या भावुकतापूर्ण
उक्ति है। किसी सिरफिरे संस्कृत-प्रेमी ने हिंदी को संस्कृत का जूठन कहा हो, तो इसमें भाषाविज्ञानी
क्या करें? संस्कृत प्रेमी तो यह
भी कहते हैं कि दुनिया की सारी भाषाएँ संस्कृत से उत्पन्न हैं। इसको आप क्या कहिएगा?
3. ऐतिहासिक भाषाविज्ञान ने यही सिखाया कि हिंदी की मौलिकता संस्कृत
की बेटी होने में है।
टिप्पणी - यह बड़ी अटपटी धारणा है।
महाशय, जहाँ यह सच है कि प्रत्येक
भाषा किसी अपनी पूर्ववर्ती भाषा से उत्पन्न है, वहीं यह भी सच है कि प्रत्येक भाषा की अपनी स्वतंत्र पहचान होती
है। बेटी-पोती वाली धारणा ऐतिहासिक भाषाविज्ञान
की नहीं है। इसे भी आप सिरफिरे संस्कृत प्रेमियों की उक्ति मानिए - किसी भाषाविज्ञानी की
नहीं। कोई भाषाविज्ञानी ऐसी बात नहीं कह सकता।
4. हिंदी जो कुछ है, उसमें विभिन्न बोलियों का अंशदान के सिवाय कुछ नहीं है।
5. हिंदी का जन्म उर्दू से हुआ है यानी उर्दू हिंदी की माँ है।
टिप्पणी - भाषाविज्ञान की कसौटी
पर उर्दू स्वतंत्र भाषा ही नहीं है। भाषाविज्ञानी उसे स्वतंत्र भाषा नहीं मानते। फिर
उसके हिंदी की माँ होने का सवाल कहाँ? राजनीति के चलते कोई उर्दू को हिंदी की माँ कहे या दादी - इसमें भाषाविज्ञानी क्या
कर सकते हैं? भाषाविज्ञान की दृष्टि
में उर्दू हिंदी की एक शैली है। किसी भाषा को स्वतंत्र भाषा होने के लिए उसके अपने
सर्वनामों तथा क्रियापदों का होना आवश्यक है। उर्दू के न तो अपने सर्वनाम हैं, न क्रियापद।
6. लब्बोलुबाल यह कि हिंदी का अपना कुछ भी मौलिक नहीं है। या तो
उसमें संस्कृत से लिया गया है या फिर उर्दू या अन्य जनपदीय बोलियों से गृहीत है। डॉ. शर्मा पुष्ट तथ्यों तथा
तर्कों के आधार हिंदी के मौलिक शब्द-भंडार, व्याकरण, धातुरूप तथा उसकी सामाजिक विकास की प्रक्रिया को सामने रखते
हुए ऐसी धारणाओं का प्रत्याख्यान करते हैं और हिंदी कीस्वतंत्र अस्मिता के उद्गाता
के रूप में हमारे सामने आते हैं।
टिप्पणी - यह किसने कहा कि ‘हिंदी का अपना कुछ भी
मौलिक नहीं है।’ भाषाविज्ञान तो ऐसा कहता
नहीं।
हाँ, यह शर्माजी का गढ़ा हुआ
प्रतिपक्ष हो सकता है।
7. डॉ. शर्मा ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की उस मान्यता से टकराते हैं, जिसके अनुसार सभी आधुनिक
भाषाओं की उत्पत्ति का स्रोत कोई आदि भाषा है।
टिप्पणी - इसके बारे में आगे चर्चा
करेंगे।
8. संस्कृत के पंडित होते हुए भी वाजपेयीजी का यह कहना कि हिंदी
संस्कृत की पुत्री नहीं है, बौद्धिक ईमानदारी की मिसाल है। (डॉ. शर्मा का कथन)
टिप्पणी - वाजपेयीजी के बारे में
भी आगे बात करेंगे।
9. हिंदी की उत्पत्ति उस संस्कृत भाषा से नहीं है, जो कि वेदों में, उपनिषदों में तथा वाल्मीकि
या कालिदास के काव्यग्रंथों में हमें उपलब्ध है। (आ. किशोरीदास वाजपेयीजी का कथन)
टिप्पणी - भाषाविज्ञान की महत्त्वपूर्ण
स्थापनाओं में एक स्थापना यह है कि ‘भाषा निरंतर परिवर्तनशील वस्तु है।’ यानी कोई भी भाषा सदा एकरूप नहीं रह सकती। किसी भाषा का जो स्वरूप
आज है, वह दो-चार सौ या पाँच सौ-हजार वर्ष पहले नहीं था तथा बाद में
भी नहीं रहने वाला है। प्रत्येक भाषा किसी न किसी पूर्ववर्ती भाषा से उत्पन्न है। और
यह बात हमारे अनुभव के दायरे में भी आती है। उपलब्ध साहित्य से पता चलता है कि आधुनिक
भारतीय आर्यभाषाओं के पूर्व ‘अपभ्रंश’ भाषाएँ थीं, उनके पूर्व प्राकृतें थीं, प्राकृतों के पूर्व संस्कृत थी। संस्कृत से पूर्व क्या कोई भाषा
नहीं रही होगी? निश्चय ही रही होगी। परंतु
उसका कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है। इसलिए हम संस्कृत से पूर्व की भाषा के बारे में कुछ
नहीं जानते।
एक बात और ध्यान देने योग्य है कि प्रत्येक काल की भाषा के दो रूप होते हैं - परिनिष्ठित रूप तथा बोलचाल का रूप।
परिनिष्ठित रूप साहित्य-रचना तथा हर प्रकार के चिंतन के काम आता है। परंतु उसका विकास
रुक जाता है। जबकि बोलचाल का रूप जीवंत तथा गतिशील होता है।
साथ ही, इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि परिनिष्ठित रूप
बोलचाल की भाषा से ही
निर्मित होता है। वह आसमान
से नहीं टपकता।
यह भी सच है कि कोई भी भाषा अपने पूर्ववर्ती किसी परिनिष्ठित भाषा से विकसित नहीं
होती। वह बोलचाल की भाषा से विकसित होती। परंतु बोलचाल की भाषा में साहित्य-रचना नहीं होती। इसलिए वह समय के साथ
विलुप्त होती है। नमूने के तौर पर बचा रहता है उस भाषा के परिनिष्ठित रूप में लिखा
साहित्य।
संस्कृत के नाम पर हमारे पास उसका विपुल साहित्य उपलब्ध है। परंतु उसका बोलचाल
का रूप काल-प्रवाह में बह गया है।
‘हिंदी की उत्पत्ति उस संस्कृत भाषा से नहीं है, जो कि वेदों में, उपनिषदों में तथा वाल्मीकि
या कालिदास के काव्यग्रंथों में हमनें उपलब्ध है।’
यह कहकर वाजपेयीजी कोई नयी बात नहीं कह रहे हैं। इसे वाजपेयी जी के नाम से
चिपकाने की जरूरत नहीं है। यह भाषा-विकास की सहज प्रक्रिया है। भाषाविज्ञान की यह
स्थापना है।
10. शब्दों से तत्सम, तद्भव, देशी-विदेशी जैसे वर्गीकरण पर प्रश्न-चिह्न खड़ा करते हुए वे हिंदी
आदि भाषाओं के शब्द-भंडार की प्राचीनता और स्वतंत्र सत्ता - आंशिक रूप में ही सही - को रेखांकित करते हैं।
हिंदी एवं आधुनिक भाषाओं के मूल शब्द-भंडार के संबंध में उनका तर्क है - जो शब्द संस्कृत और प्राकृत
से सिद्ध न हों, उन्हें देशी नाम देने से ऐसा बोध होता है कि स्वयं संस्कृत के
शब्द परदेशी हैं।
टिप्पणी - विरोध के अतिरेक में
सामान्यतः लोग कुतर्क करने लगते हैं तथा बाल की खाल निकालने लगते हैं। हिंदी या दूसरी
आर्यभाषाओं के शब्द-भंडार के, समझने की सुविधा की दृष्टि
से, स्रोत के आधार पर, चार वर्ग माने गए हैं
- तत्सम, तद्भव, विदेशी तथा देशी या देशज।
संस्कृत से सीधे आए शब्दों को तत्सम, संस्कृत से व्युत्पन्न शब्दों को तद्भव, विदेशी भाषाओं के शब्दों
को विदेशी तथा जिन शब्दों के स्रोत का पता अभी तक नहीं चल सका है, उन्हें देशी या देशज नाम
दिया गया है।
कल अगर किसी देशी शब्द के स्रोत का पता चल जाए, यानी कि यह पता चल जाए कि वह शब्द फलाँ विदेशी भाषा से आया है
या संस्कृत के अमुक शब्द से व्युत्पन्न है, तो वह देशी के खाते से निकलकर विदेशी या तद्भव के खाते में चला
जाएगा।
यह वर्गीकरण मात्र शब्दों के स्रोत की जानकारी के लिए किया गया है। यह कोई आत्यंतिक
स्थापना नहीं है।
ऐसी स्थिति में यह कहना कि ‘जो शब्द संस्कृत या प्राकृत से सिद्ध न हों, उन्हें देशी नाम देने
से ऐसा बोध होता है कि स्वयं संस्कृत के शब्द परदेशी हैं।’ यह कुतर्क नहीं तो और क्या है?
11. हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ केवल उधार लेने वाली भाषाएँ नहीं
हैं। उनमें अपनी सृजनात्मक क्षमता है। संस्कृत से भिन्न स्तर पर ये अपनी क्षमता के
उपयोग से अपना विकास करती रही हैं। (डॉ. शर्मा का कथन)
टिप्पणी - यह किस भाषाविज्ञानी
ने कहा है कि ये भाषाएँ ‘केवल उधार लेने वाली भाषाएँ’ हैं?
महाशय, सभी भाषाएँ उधार लेती
हैं। परंतु, इसका मतलब यह नहीं कि
वे ‘केवल उधार लेने वाली भाषाएँ’ बन जाती हैं। सभी भाषाएँ
अपने आप में सृजनशील होती हैं। यह खुद भाषाविज्ञान की स्थापना है। परंतु डॉ. शर्मा इसे प्रतिपक्ष का
मुद्दा बनाकर भाषाविज्ञान पर हमला करें, तो इसे क्या कहा जाए?
12. इस प्रकार डॉ. शर्मा संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश से हिंदी की सापेक्ष स्वायत्तता का स्थापत्य खड़ा करके
उसकी अस्मिता के महान उद्गाता होने का परिचय देते हैं। श्री भगवान सिंह
टिप्पणी - हिंदी संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश से
स्वायत्त भाषा है ही। डॉ. शर्मा को उसकी अस्मिता के लिए उद्गाता बनने की जरूरत नहीं है, और न ही उसका स्थापत्य खड़ा करने की
आवश्यकता है।
(ख) रामविलास शर्मा और भाषाविज्ञान के अध्ययन की समस्याएँ
- डॉ. अमरनाथ
1. कलकत्ता विश्वविद्यालय का भाषाविज्ञान विभाग देश का सबसे पुराना
भाषाविज्ञान विभाग है। एक दिन मैंने उस विभाग के एक प्रतिष्ठित और वरिष्ठ प्रोफेसर
से पूछा कि क्या वे भाषाविज्ञान के क्षेत्र में रामविलास शर्मा के अवदानों से परिचित
हैं, तो उन्होंने उनके अवदानों
से ही नहीं उनके नाम से भी अपनी अनभिज्ञता जाहिर की। मैं हतप्रभ था। सोचने लगा कि यदि
रामविलास शर्मा ने भाषाविज्ञान की अपनी किताबें अंग्रेजी में लिखी होतीं, तो कलकत्ता विश्वविद्यालय
के भाषाविज्ञान विभाग के शिक्षक रामविलास शर्मा से परिचय की कौन कहे, उन्हें कोर्स में रखने
के लिए बाध्य होते। - डॉ. अमरनाथ।
टिप्पणी – क्या एक भाषाविज्ञानी
के रूप में डॉ. रामविलास शर्मा के नाम तक
से अनभिज्ञ होने का केवल यह कारण था कि उन्होंने अपनी पुस्तकें हिन्दी में लिखीं –
अंग्रेजी में नहीं लिखीं? इसकी चर्चा आगे करेंगे।
2. रामविलास शर्मा ने ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की कमजोरियों को पहचाना, साम्राज्यवादियों की साजिश
का पर्दाफाश किया तथा भारत को एक भाषायी क्षेत्र प्रतिष्ठापित किया। भाषा को लेकर पहले
से प्रचलित एक जननी भाषा संस्कृत और उससे विकसित आधुनिक भारतीय भाषाओं की अवधारणा को
खारिज किया। - डॉ. अमरनाथ।
टिप्पणी - कितना सुंदर वाग्विलास
है!
3. रामविलास शर्मा ने लक्ष्य किया कि ऐतिहासिक भाषाविज्ञान में
भाषा के रूप तत्त्व पर अधिक जोर दिया गया, अर्थतत्त्व की उपेक्षा की गई। जबकि, इनमें किसी भी स्तर पर भाषा का विवेचन अर्थतत्त्व को ध्यान में
रखे बिना संभव नहीं है। - डॉ. अमरनाथ।
टिप्पणी – आगे चर्चा होगी।।
(ग) एक क्रांतिकारी किंतु अलक्षित ग्रंथ - भारत के प्राचीन भाषा-परिवार और हिंदी - डॉ. ऋषिकेश राय
1. समाजभाषावैज्ञानिक क्षेत्र में संस्थानों और उनके बुद्धिजीवियों
की काहिली और उदासीनता दुख और क्षोभ उत्पन्न करने वाली है। और अगर यह आपराधिक चुप्पी
किसी ऐसे व्यक्ति के कृतित्व के प्रति हो, जिसने आजीवन सामंतवादी, रूढ़िवादी और साम्रज्यवादी अनुगमन की वैचारिक खिलाफत की हो, तो उत्तरऔपनिवेशिक बुद्धिजीवी
की बौद्धिक नियति पर तरस आता है।- डॉ. ऋषिकेश राय
2. रामविलास शर्मा का विशद भाषिक विवेचन इसी बौद्धिक उदासीनता का
शिकार है। परंपरागत अर्थों में उनके भाषावैज्ञानिक न होने के कारण भाषाविज्ञान की चौहद्दी
में उनके भाषा-चिंतन को प्रवेश से वंचित करना क्या बौद्धिक सामंतवाद से प्रेरित एक किस्म का वर्णवाद
नहीं है।- डॉ. ऋषिकेश राय
3. वैसे तो रामविलास शर्मा का समग्र भाषा-चिंतन ही भारत के भाषाशास्त्रियों
की उपेक्षा का शिकार रहा है, परंतु उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘भारत के प्राचीन भाषा-परिवार और हिंदी’ उथल-पुथलकारी स्थापनाओं पर
विमर्शहीनता हैरानी का सबब है।- डॉ. ऋषिकेश राय
4. दस वर्षों के अथक परिश्रम से तैयार यह ग्रंथ न केवल आधुनिक भाषावैज्ञानिक
विवेचन पर एक सार्थक टिप्पणी और हस्तक्षेप है। न केवल किसी भी भारतीय भाषा में बल्कि
पश्चिम की भाषाओं में भी भाषा संबंधी ऐसा क्रांतिकारी ग्रंथ दुर्लभ है।- डॉ. ऋषिकेश राय।
टिप्पणी - डॉ. रामविलास शर्मा निःसंदेह
हिंदी के बहुत बड़े लेखक हैं। उनके जितने समर्थक हैं, उतने ही उनके विरोधी भी हैं। उनके प्रबल समर्थक डॉ. शिवकुमार मिश्र कहा करते
थे कि हिंदी आलोचना में जैसे आ. शुक्ल से टकराए बिना कोई आगे नहीं बढ़ सकता, वैसे ही डॉ. रामविलास शर्मा को दरकिनार
करके कोई आगे नहीं बढ़ सकता।
शर्माजी के अध्ययन, चिंतन और लेखन का फलक इतना व्यापक है, इतने विषयों पर उन्होंने
काम किया है कि सहज ही यह कल्पना करना मुश्किल हो जाता है कि कोई एक व्यक्ति क्या इतना
काम कर सकता है? परंतु यह सच है।
मिश्रजी बहुत खुले मन से यह भी स्वीकार करते थे कि ‘डॉ. शर्मा में बहुत कुछ एकायामी
है।’
यहाँ, सहज ही एक सवाल उठता है
कि इतने सारे विषयों पर काम करते हुए या इतने विविध विषयों पर काम करते हुए क्या प्रत्येक
विषय के साथ पर्याप्त न्याय किया जा सकता है?
मैं शर्माजी को जितना पढ़ सका हूँ या जब भी कुछ पढ़ता हूँ, उसके आधार पर मेरी धारणा
बनी है कि वे कई बार किसी मुद्दे पर लिखते हुए उसके बाहर बहुत दूर तक चले जाते हैं।
उनका अध्ययन इतना व्यापक है, उनके पास इतनी विपुल सामग्री है कि वह अनपेक्षित रूप से सर्वत्र
घुसपैठ करने लगती है। पाठक उनके व्यापक अध्ययन से आक्रांत हो उठता है। बहुत कुछ पढ़
लेने के बाद कुछ ठोस उसके हाथ नहीं लग पाता। ऐसा मुझे लगता है; और ऐसा किसी आग्रह के
तहत नहीं लगता। संभव है मैं पूरी तरह से गलत होऊँ।
डॉ. रामविलास शर्मा की ‘भाषा-चिंतन’ संबधी पुस्तकों को पढ़ने की मैं बहुत कोशिश करता हूँ। परंतु दो-चार पन्नों से आगे नहीं बढ़ पाता।
मेरा विषय भाषाविज्ञान है। इसलिए मैं अपने को शर्माजी के भाषा-चिंतन तक ही सीमित रखूँगा।
भाषा-चिंतन से संबंधित उनकी पाँच किताबें
हैं –
1. भाषा और समाज,
2. भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास-परंपरा,
3. आर्य और द्रविड़ भाषा परिवारों का संबंध,
4. भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी (तीन खंडों में) तथा
5. ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और हिंदी भाषा।
कहते हैं कि यह सारा काम करने में उन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य बीस वर्ष लगाए।
उसके बावजूद उनके इस अतिमहत्त्वपूर्ण कार्य की नोटिस नहीं ली गई। इसका मलाल उनके समर्थकों
को तो है ही, शायद शर्माजी को भी रहा
हो।
डॉ. रामविलासजी के इस कार्य
की महत्ता प्रतिपादित करते हुए डॉ. ऋषिकेश राय लिखते हैं कि - “भाषा और समाज’ में ही उनकी स्थापनाओं ने ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की चूलें हिला
दी थीं। पर इसकी विधिवत् पूर्णाहुति तीन खंडों में प्रकाशित उनके वृहद् ग्रंथ ‘भारत की प्राचीन भाषाएँ
और हिंदी’ में हुई।’
टिप्पणी - डॉ. राय की इस धारणा पर क्या
टिप्पणी की जाए?
‘चूलें हिलाने’ तथा ‘पूर्णाहुति’ से उनका क्या आशय है?
डॉ. राय आगे लिखते हैं कि
- ‘दस वर्षों के अथक परिश्रम
से तैयार यह ग्रंथ आधुनिक भाषावैज्ञानिक विवेचन पर एक सार्थक टिप्पणी और हस्तक्षेप
है।
डॉ. राय के अनुसार - न केवल
किसी भी भारतीय भाषा में बल्कि पश्चिम की भाषाओं में भी ऐसा क्रांतिकारी ग्रंथ दुर्लभ है।’
परंतु प्रश्न उठता है कि डॉ. शर्मा का भाषा-चिंतन संबंधी यह कार्य इतना ही ‘अनूठा’ और ‘क्रांतिकारी’ है, तो फिर संपूर्ण हिंदी जगत् में उसकी नोटिस क्यों नहीं ली गई?
डॉ. राय इतने क्षुब्ध हैं
कि ‘समाज भाषावैज्ञानिक क्षेत्र
के संस्थानों और उनके बुद्धिजीवियों’ को काहिल घोषित करते हैं तथा उनकी
उदासीनता को ‘आपराधिक चुप्पी’ की संज्ञा देते हैं।
डॉ. शर्मा की उक्त पुस्तकों
की नोटिस न लिए जाने का कारण डॉ. अमरनाथ उन पुस्तकों का अंग्रेजी में न लिखा जाना बताते हैं।
उनके अनुसार –
‘यदि रामविलास शर्मा ने भाषाविज्ञान की अपनी पुस्तकें अंग्रेजी
में लिखी होतीं, तो कलकत्ता विश्वविद्यालय के भाषाविभाग के शिक्षक रामविलास शर्मा
के नाम से परिचय की कौन कहे, उन्हें कोर्स में रखने के लिए बाध्य होते।’
डॉ. अमरनाथ जी के इस कथन में
व्यक्त रामविलासजी के प्रति उनकी भावना समझी जा सकती है। परंतु शास्त्र-चर्चा या ज्ञान-चर्चा भावुकता के अधीन नहीं होती।
अपनी अल्पमति से इस विषय पर आगे कुछ कहने से पहले मैं डॉ. रामविलास शर्मा के भाषा-चिंतन पर की गई डॉ. नामवर सिंह की एक टिप्पणी
का उल्लेख करना चाहता हूँ। डॉ. नामवर सिंह कहते हैं -
‘तीन विशाल खंडों में उन्होंने ऐतिहासिक भाषाविज्ञान पर लिखा।
अब उसको मैंने पढ़ा नहीं है, तो कैसे उसके बारे में कह सकता हूँ? वह पुस्तक असमीक्षित चली
गई। अब यह कैसे लिखा गया, इसकी पृष्ठभूमि कुछ लोगों को पता है, कुछ लोगों को पता नहीं
है। आगरा में वे ‘कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी संस्थान’ के निदेशक थे। चूँकि उस
पोस्ट पर भाषावैज्ञानिक ही जाते रहे हैं। जब ये पोस्ट पर गए, तब लोगों ने कहा कि ये
तो अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं और हिंदी के आलोचक; भाषाविज्ञान से उनका क्या लेना-देना? उन्होंने कहा कि अच्छा
मैं साबित करता हूँ कि भाषाविज्ञान पर भी मैं लिख सकता हूँ। ... इसे उन्होंने चुनौती के
रूप में लिया।’ (उद्भावना, रामविलास शर्मा विशेषांक)
डॉ. नामवर सिंह की यह टिप्पणी
डॉ. शर्मा के भाषा एवं भाषाविज्ञान
संबंधी कार्य के यथार्थ को समझने में मदद करती है।
जब कोई काम प्रतिक्रियास्वरूप किया जाता है, किसी को दिखाने के लिए किया जाता है, तब उसमें अपनी सहज गति
और दिशा से भटकने की संभावना ज्यादा रहती है।
रामविलासजी की पढ़ने और लिखने की अपार क्षमता के बारे में तो किसी को शंका हो ही
नहीं सकती। भाषा-चिंतन संबंधी अपनी पुस्तकों में उन्होंने जितनी सामग्री ठूँस-ठूँसकर भरी है, उसे पढ़कर साधारण पाठक
को चक्कर आ जाए। इतनी सामग्री एकत्र करने के लिए उन्हें कितना पढ़ना पड़ा होगा! फिर भी, यह सवाल ज्यों का त्यों
है कि उस पढ़ने और लिखने का फलितार्थ क्या हुआ?
डॉ. रामविलास शर्मा अपनी पुस्तक ‘भाषा और समाज’ के पहले संस्करण की भूमिका
की शुरुआत इस वाक्य से करते हैं –
‘प्रस्तुत पुस्तक में सामाजिक विकास के संदर्भ में भाषा के विकास
का अध्ययन किया गया है।’
यानी तकनीकी दृष्टि से यह भाषाविज्ञान की पुस्तक नहीं हुई।
‘भाषाविज्ञान’ का केंद्रीय विषय है भाषा की संरचना का अध्ययन। भाषाविज्ञान
की मान्यता के अनुसार ‘भाषा’ मनुष्य के मन में स्थित
होती है और समाज में उसका व्यवहार होता है। भाषाविज्ञान स्वयं समाज के बाहर भाषा का
कोई अस्तित्व नहीं मानता। फिर भी, वह अध्ययन की सुविधा के लिए भाषा को समाज से काटकर, उसे मात्र एक वस्तु मानकर
उसकी संरचना का अध्ययन करता है।
ऐसा किए बिना भाषा की संरचना का अध्ययन हो ही नहीं सकता। भाषा को समाज सापेक्ष
मानते हुए भी उसे समाज से अलग करके उसे समाजनिरपेक्ष वस्तु मानना भाषाविज्ञान का प्रस्थानबिंदु
है।
शर्माजी भाषा-विकास का अध्ययन समाज विकास के संदर्भ में करने की बात करते हैं। यह उनका प्रस्थानबिंदु
है। दोनों के प्रस्थानबिंदु भिन्न हैं। तो फिर, भाषाविज्ञान के कार्यों की आलोचना का कोई औचित्य नहीं बनता।
उसके लिए तो भाषाविज्ञान की जमीन पर आना जारूरी है।
‘भाषा और समाज’ के दूसरे संस्करण की भूमिका में वे लिखते हैं –
‘भाषा और समाज’ पुस्तक में मैंने
ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की मान्यताओं को अस्वीकार किया है।’
यानी शर्माजी के संपूर्ण भाषा-चिंतन के मूल में अस्वीकार है। ऐसे में कुछ कहने-सुनने के
लिए रह ही नहीं जाता। भाषाविज्ञान भाषा की जमीन पर खड़े होकर भाषा के बारे बात
करता है और शर्मा जी समाज विकास की जमीन पर खड़े होकर भाषा की बात करते हैं। यानी
दोनों के दो धरातल हैं। ऐसे में शर्मा जी ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की आलोचना कैसे कर
सकते हैं। ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की आलोचना करने के लिए ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की
जमीन पर तो आना पड़ेगा।
अब थोड़ा ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की बात करते हैं।
भाषा-चिंतन के इतिहास में सर विलियम जोन्स
तथा सस्यूर - ये दो नाम ऐसे हैं, जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती
भाषा-चिंतन के पूरे आयाम को बदल दिया। सन् 1746 में जन्मे सर विलियम जोन्स
मूलतः भाषाविज्ञानी नहीं थे। वे विधिवेत्ता थे। किंतु प्राचीन भाषाओं में उनकी गहरी
रुचि थी। सन् 1783 में वे कलकत्ता हाईकोर्ट
के जज नियुक्त हुए। कलकत्ता पहुँचते ही उन्होंने संस्कृत का विधिवत् अध्ययन किया तथा
थोड़े ही समय में संस्कृत की विशेषज्ञता हासिल कर ली। ग्रीक तथा लैटिन का ज्ञान उन्हें
पहले से था। विधिवेत्ता की पैनी दृष्टि ने संस्कृत, ग्रीक तथा लैटिन भाषाओं को तुलनात्मक दृष्टि से देखा। 2 फरवरी, 1786, को उन्होंने रॉयल एशियाटिक
सोसाइटी की नींव रखते हुए अपने उद्घाटन भाषण में संस्कृत भाषा के असाधारण महत्त्व की
घोषणा की। अपने भाषण में उन्होंने संस्कृत को ग्रीक तथा लैटिन से अधिक परिष्कृत तथा
विलक्षण संरचना वाली भाषा कहा। उन्होंने यह भी कहा कि इन भाषाओं में व्याकरण तथा रूप-रचना की दृष्टि से समानता की पर्याप्त
संभावना लक्षित होती है। भाषा विशेषज्ञों को इसकी खोज करनी चाहिए। उनका यह भाषण यूरोप
के अखबारों में प्रकाशित होते ही भाषा-चिंतन के क्षेत्र में एक हलचल-सी मच गई और इस तरह ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक भाषाविज्ञान की नींव
पड़ी।
भाषाओं के ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक अध्ययन का कार्य लगभग सवा सौ वर्षों तक अनवरत
चलता रहा। यह सारा कार्य प्राचीन भाषाओं के लिखित साहित्य पर आधारित था।
‘सामान्य भाषाविज्ञान’ पर, सन् 1916 में प्रकाशित सस्यूर की पुस्तक ने भाषा-चिंतन के पूर्ववर्ती समस्त आयामों
को पूरी तरह से बदल दिया। सस्यूर ने पहली बार प्रतिपादित किया कि भाषा वह नहीं है, जो लिखी जाती है, बल्कि भाषा वह है, जो बोली जाती है। उसके
बाद भाषा-अध्ययन के एक नए युग का आरंभ हुआ।
परंतु हम यहाँ ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक भाषाविज्ञान के स्वरूप की चर्चा करेंगे; क्योंकि डॉ. रामविलास शर्मा का सारा
भाषा-चिंतन उसी पर आधारित है। वे ऐतिहासिक
भाषाविज्ञान की समस्त स्थापनाओं को अस्वीकार करते हैं। सबसे पहली बात यह है कि ऐतिहासिक
एवं तुलनात्मक भाषाविज्ञान बहुत बड़े-बड़े दावे नहीं करता। उसकी सबसे बड़ी सीमा यह है कि उसका सारा
कार्य प्राचीन भाषाओं की उपलब्ध लिखित सामग्री पर आधारित है। वह विविध भाषाओं की उपलब्ध
सामग्री का अध्ययन करके उनकी आधारभूत शब्दावली, ध्वनि-प्रक्रिया, रूप-रचना-प्रक्रिया तथा अर्थ में पाई जाने वाली समानताओं के आधार पर उनके
एक परिवार की भाषा होने की संभावना व्यक्त करता है। उनके इतिहास की एक धुँधली
तस्वीर बनाता है। इससे ज्यादा वह कुछ कर भी नहीं सकता।
इस अध्ययन के बीच में कहीं भी समाज या समाज-विकास की थियरी नहीं आती। जबकि शर्माजी के भाषा-चिंतन का प्रस्थान-बिंदु ही समाज-विकास की थियरी है।
डॉ. शर्मा को ‘एक परिवार की सारी भाषाओं
के किसी एक मूल भाषा से उत्पन्न होने’ की थियरी पर घोर आपत्ति है। परंतु सच यह है कि ऐतिहासिक भाषाविज्ञानी
भी किसी ऐसी भाषा के ‘वास्तव में’ होने की बात नहीं करते।
बल्कि वे किसी ऐसी भाषा की मात्र ‘कल्पना’ करते हैं, जिससे ये सारी भाषाएँ विकसित हुई होंगी। उस भाषा का नाम वे ‘प्रोटो-इंडो-यूरोपियन’ रखते हैं। ऐसी किसी मूल भाषा की कल्पना की जरूरत क्यों पड़ी?
गणित में किसी अज्ञात राशि का पता लगाने के लिए माना जाता है कि ‘माना मूलधन/ मिश्रधन/ ब्याज ‘क’ है।’ फिर प्रश्न में दिए गए
विवरण के आधार पर हम समीकरण तैयार करते हैं। फिर समीकरण को हल करके अज्ञात राशि पता
करते हैं। कुछ वैसी ही स्थिति यहाँ समझनी चाहिए। एक ‘मूल भाषा’ की कल्पना (hypothesis = an idea or
explanation for something that is based on known facts but has not yet been
proved) सिर्फ इसलिए की गई है ताकि ज्ञात भाषाओं के जो उपलब्ध तथ्य हैं, उनके आधार पर उन भाषाओं
के बीच आपसी संबंध की एक रूपरेखा तैयार की जा सके।
ऐतिहासिक भाषाविज्ञान ने संसार की ज्ञात भाषाओं के बीच पाई जाने वाली संरचनागत
समानताओं के आधार पर उनके पारिवारिक वर्ग बनाए हैं। भाषाओं के पारिवारिक विभाजन का
अर्थ केवल इतना ही है कि संसार की विभिन्न भाषाओं के बीच पाई जाने वाली भिन्नताओं के
बावजूद उनमें मौलिक शब्द-समूह, उनके अर्थ तथा रूपात्मक गठन की दृष्टि से समानताएँ हैं।
यहाँ एक बात ध्यान देने की है कि पारिवारिक वर्गीकरण कोई आत्यंतिक वर्गीकरण नहीं
है। इसका कारण यह है कि अभी तक विश्व की सारी भाषाओं का अध्ययन हो ही नहीं सका है।
भाषा-परिवारों की संख्या भाषाविज्ञानियों
की निजी मान्यताओं पर आधारित है। इसलिए कोई भाषाविज्ञानी 10 परिवार मानता है, कोई 13, कोई 26, तो कोई 100 भी मानता है। यह सिर्फ एक सामान्य रूपरेखा है और इस तरह के वर्गीकरण
का सिर्फ इतना ही फायदा है कि हमें विश्व की भाषाओं के बारे में थोड़ी सापेक्ष जानकारी
मिलती है। इस विषय में ऐतिहासिक भाषाविज्ञान कोई बड़े दावे नहीं कर सकता।
ऐसे में डॉ. शर्मा ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की किन मान्यताओं को अस्वीकार करते
हैं? शर्मा जी में
प्रबल तर्कशक्ति थी। तर्कों से तो किसी भी चीज को स्थापित-विस्थापित किया जा सकता
है।
डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र