भारतीय
लोकनाट्य
(‘नौटंकी’
और ‘भवाई’
के विशेष सन्दर्भ में)
डॉ.
हसमुख परमार
लोकगीत,
लोककथा व लोकगाथा की तरह लोकनाट्य भी लोकसाहित्य की एक प्रमुख, प्रसिद्ध व प्राचीन
विधा है। कथावस्तु के साथ गीत, संगीत व
नृत्य का साहचर्य लिए हुए अभिनय के ज़रिए लोक को ज्ञान एवं मनोरंजन प्रदान करने
वाला यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लोककला का रूप है। लोक की सहजता, स्वाभाविकता व सादगी लोक नाट्यों
की प्रस्तुति में बखूबी पायी जाती है। मंचसज्जा, वेशभूषा, संवाद, संगीत, दृश्यविधान, पात्रदृष्टि,
अभिनय आदि में लोकनाट्य शिष्ट नाट्य से थोड़ा भिन्न होता है। बाहरी ताम-झाम व कृत्रिमता से दूर रहने वाले
लोकनाट्य में शिष्ट रंगमंचों जैसी मंचसज्जा, प्रकाश योजना, पर्दा एवं अन्य अत्याधुनिक
सुविधाएँ नहीं होती। बहुत ही पारंपरिक व सादगीपूर्ण
ढंग से इन नाटकों का मंचन होता है। “लोकनाट्य
के आयोजन से पूर्व विशिष्ट ताम-झाम की आवश्यकता नहीं होती। गाँव में किसी भी उपयुक्त स्थान पर मंच के रूप
में एक तख़्त डाल दिया जाता है। जिसके चारों तरफ़ दर्शक बैठकर या खड़े होकर
लोकनाट्य का रस लेते हैं। कभी-कभी या कुछ
प्रकार के लोकनाट्यों में तख़्त डालने की भी आवश्यता नहीं होती। पात्र ज़मीन पर ही अभिनय करते हैं और दर्शक चारों
ओर घेरा बनाकर नाटक का आनंद लेते हैं। इसमें प्रकाश व्यवस्था भी अतिसाधारण होती है।
”1
लोकजीवन
के मनोरंजन एवं लोकजीवन की विविध भावनाओं को प्रकट करने हेतु होने वाले ये नाटक
शास्त्रीय नियमों से मुक्त होते हैं। धार्मिक,
ऐतिहासिक, पौराणिक कथावस्तु के अतिरिक्त सामाजिक कथा प्रसंगों से भी ये नाटक जुड़े रहे
हैं। इन नाटकों में ज्यादातर पुरुष पात्र
ही होते हैं। जहाँ स्त्री की भूमिका होती
है वहाँ स्त्रियों का अभिनय पुरुष ही करते हैं। कुछ प्रस्तुतियों में पुरुषों के साथ स्त्रियों
का भी समावेश किया जाता है। अलग-अलग
किरदारों का अभिनय ये पात्र बहुत ही अच्छी तरह से करते हैं इसके लिए इन्हें कुछ
विशेष प्रकार की तैयारी नहीं कराई जाती। इन
पात्रों की वेशभूषा और मेकअप भी सामान्य होता है। “इन नाटकों में किसी विशेष प्रकार के प्रसाधन, अलंकार,
बहुमूल्य वस्त्र आदि की आवश्यकता नहीं होती। कोयला, काजल, खड़िया आदि देशी प्रसाधन से
मुख को प्रसाधित कर तथा उपयुक्त वेशभूषा धारण कर पात्र मंच पर आते हैं। ”2
पात्रों
के संवादों की भाषा भी अकृत्रिम होती है। लोक
के रंग व राग भी हम इन लोकनाट्यों में देख-सुन सकते हैं। भाषा व अभिनय की सहजता की वजह से ही अभिनय करने
वाले पात्रों और दर्शकों में बड़ा ‘गैप’
नहीं रहता। डॉ. कुंदनलाल उप्रेती के
शब्दों में “लोकनाटक शास्त्रीय तंत्र तथा रचना विधान से इतर लोकमानस की सहज
स्वाभाविक अभिव्यक्ति है जिसमें लोक परंपरा तथा चिर विकसित नाट्य रूढ़ियों का प्रदर्शन
लोक मंच पर होता है। इस लोक मंच का
निर्माण भी लोक मानसिक होता है जो व्यवसायार्थन होकर अखाड़े के रूप में गली
गलियारों में विद्यमान रहता है। सभी
लोकक्षेत्रों के उपादानों से निर्मित इन नाटकों का रचयिता भी लोक होता है। ”3
भारत
के विविध प्रांत प्रदेशों में अलग-अलग नाम से विभिन्न प्रकार के लोकनाटक प्रचलित है – नौटंकी, रामलीला(उत्तर भारत) ; रासलीला (पश्चिमी
उत्तरप्रदेश - ब्रजप्रदेश) ; विदेसिया (बिहार) ; कीर्तनिया (मिथिला जनपद) ; स्वांग
(हरियाणा) ; माच (मालवा) ; भाँड (कश्मीर) ; जात्रा, गंभीरा (बंगाल) ; तमाशा (महाराष्ट्र)
; भवाई (गुजरात) ; ख्याल, कठपुतली (राजस्थान) ; यक्षगान (दक्षिण भारत)।
डॉ.
मदनमोहन शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘प्रतिनिधि : भारतीय लोकरंग शैलियाँ’ में भारतवर्ष
के विविध प्रदेशों में प्रचलित लोकरंग शैलियों (लोकनाट्य) की सूची इस प्रकार दी है
–
· उत्तरभारत
की लोकरंग शैलियाँ - जश्न (भाँड पथ), नौटंकी,
रामलीला, रासलीला, भगत, विदेसिया, करियाला
· पूर्वीभारत
की लोकरंग शैलियाँ – अंकिया नाट, जात्रा, कीर्तनिया
· पश्चिमी
भारत की लोकरंग शैलियाँ –तमाशा, भवाई, ख्याल, गवरी
· दक्षिण
भारत की लोकरंग शैलियाँ – यक्षगान, कथकली, वीथिभागवतमू, तेरूकुल
· मध्यभारत
की लोकरंग शैलियाँ – माच, नाचा
· अन्य
भारतीय लोकरंग शैलियाँ – ढाढीलीला, ललित,
गोंधल, दशावतार, गंभीरा, नकाब, सांग, जटजटिन, कूटियाट्टम
नौटंकी
:

उत्तरभारत का प्रमुख व अत्यधिक प्रसिद्ध लोकनाटक
नौटंकी है। लोकजीवन को मनोरंजन प्रदान
करने में यह नाटक अपना सानी नहीं रखता। यह
नाटक धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, के साथ- साथ सामाजिक एवं राष्ट्रीय कथावस्तु पर
आधारित होता है। नौटंकी के नामकरण व
उत्पत्ति के संबंध में कई मत प्रचलित है। पंजाब
की एक लोककथा को नौटंकी की उत्पत्ति से जोड़ा गया है। “नौटंकी नाम की एक राजकुमारी थी। अपनी भाभी से ताने सुनकर फूलसिंह नामक एक नवयुवक
उससे शादी करने के लिए निकल पड़ा। एक मालिन
की सहायता से वह महल में स्त्रीवेश में पहुँच गया। राजकुमारी और नवयुवक खूब घुलमिल गए। राजकुमारी बोली – हमारे में से एक पुरुष होता तो
कितना अच्छा होता, फूलसिंह ने तत्काल अपना वास्तविक रूप प्रकट कर दिया। नौटंकी यह देख कर घबरा गई परंतु बाद में विवाह
के लिए तैयार हो गई। परंतु नौटंकी के पिता
ने यह संबंध स्वीकार नहीं किया। उसने
फूलसिंह को प्राणदंड दिया। इस पर नौटंकी
ने पुरुष वेश धारण कर उसकी रक्षा की। अंत
में फिर इन दोनों का विवाह हो गया। ”4
इस लोककथा को सर्वप्रथम ‘शहजादी नौटंकी
उर्फ़ फूलसिंह पंजाबी’ के नाम से मथुरा के पंडित नथाराम शर्मा ने प्रस्तुत किया। आगे चलकर इसकी प्रस्तुति में विविध कथावस्तु
जुड़ते गए और इस तरह यह उत्तर भारत की एक प्रमुख लोकरंग शैली के रूप में ख्यात हुई।
उत्तरप्रदेश
में नौटंकी को स्वांग और भगत के नाम से भी पहचाना जाता है।
कुछ
अध्येता नौटंकी की उत्पत्ति ‘नाटकी’ शब्द से बतलाते हैं।
नौटंकी के नामकरण को इस नाटक की प्रस्तुति में
बजाये जाने वाले वाद्ययंत्रों से भी जोड़ा गया है –“इसमें नये प्रकार के वाद्य-प्रयोग
के कारण इसका नाम नौटंकी पड़ा। नौ +टंकी =
नौटंकी के आधार पर ‘नौ’ से तात्पर्य नयी अथवा नौ की संख्या से है और टंकी से
तात्पर्य टंकार की चोट से है। इस प्रकार
नौ वाद्यों पर किसी लकड़ी से चोट करके विशेष ध्वनियाँ उत्पन्न करना नौटंकी का
प्रमुख अंग रहा है। ”5
बहुत ही सादगीपूर्ण रंगमंच पर नौटंकी की प्रस्तुति होती है। इस तरह के रंगमंच के लिए कुछ खास पूर्व तैयारी
की आवश्यकता नहीं होती। किसी खुले स्थान
पर ज़मीन पर दरी बिछाकर या तख़्त डालकर मंच तैयार कर लिया जाता है। इस तरह के खुले रंगमंच में प्रेक्षागृह जैसी
सुविधाएँ भले ना हो पर कलात्मकता तो अवश्य दिखती है। रंगमंच पर सुविधानुसार प्रकाश की व्यवस्था की
जाती है। गाँव में बिजली की सुविधा हो तो बल्ब
या ट्यूबलाईट लगाई जाती है। बिजली के अभाव
में पेट्रोमेक्स या मशालों से काम चलाया जाता है। व्यवसायिक रूप में प्रस्तुत की जाने वाली नौटंकी
का रंगमंच ज्यादा व्यवस्थित व सुंदर होता है।
नौटंकी का प्रारंभ ज्यादातर रात्रि के दस-ग्यारह
बजे होता है और लगभग पूरी रात इसका प्रदर्शन होता है। इसकी प्रस्तुति बहुत ही कलात्मक एवं सुंदर होती
है जिससे रात-रातभर दर्शक आनंद लेते हैं।
नौटंकी गीत, संगीत, नृत्य व अभिनय का बहुत ही
सशक्त लोक कला रूप है। इस लोकनाट्य के
वाद्ययंत्रों में नगाड़ा, हारमोनियम, ढोलक,
झाँझ, मंजीरा, चिमटा, डफली आदि होते हैं। नगाड़ा
तो इस लोकनाट्य का प्राणवाद्य कहा जाएगा। रात्रि
के समय नगाड़े की ध्वनि दूर-दूर तक, यहाँ तक कि मीलों दूर दूसरे गाँव तक सुनाई देती
है। इस ध्वनि को सुनकर दूसरे गाँव के लोग
भी पैदल चलकर, जिस गाँव में नौटंकी होती है, वहाँ उसे देखने के लिए पहुँच जाते हैं।
नगाड़ा
नौटंकी की शुरुआत मंगलाचरण से होती है जिसमें देवी
देवताओं एवं गुरु की स्तुति से की जाती है। नौटंकी मूलतः गेय लोकनाट्य है। अभिनय से भी गायकी का महत्त्व इसमें ज्यादा होता
है। लोकधुनों व लोकछंदों पर आधारित नौटंकी
में मंगलाचरण से लेकर नाटक की समाप्ति तक की कथा छंदोबद्ध में रूप में गाकर बताई
जाती है। “इन छंदों में प्रमुख रूप से
दोहा, चौबोला, बहरेतबील, लावणी, रागीनी, रसिया, कवित्त, चोक, चौपाई, झड, भजन, ग़ज़ल,
शेरो-शायरी आदि का समावेश होता है। चौबोला
और बेहरेतबील हर नौटंकी के प्राण छंद होते हैं। हर छंद की गायकी समाप्त होने पर नक्कारे की
विशिष्ट ताने बाजई जाती है और संवादों की झड़ी लग जाती है। ”6
नौटंकी की मंडली में ज्यादातर पुरुष ही होते हैं। अतः इससे प्रस्तुत होने वाली कथा में आने वाले
पुरुष पात्रों की भूमिका का निर्वाह तो पुरुष करते ही है, स्त्री पात्रों की
भूमिका भी सुंदर लड़कों द्वारा निभाई जाती है। हास्य रस की सृष्टि के लिए विदूषक होता है जिसे जोकर कहा जाता है, जो लोगों को हँसाता भी
है और बीच-बीच में सामाजिक बुराइयों पर व्यंग्यात्मक भाषा में प्रहार भी करता है। पात्रों की मुख सज्जा एवं वेशभूषा भी सामान्य
होती है। इसमें ज्यादा आडंबर की गुंजाइश
नहीं होती। हाँ, व्यवसायिक नौटंकियों में
इन दोनों का विशेष ध्यान रखा जाता है। अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार पात्र अपना मेकअप व वेशभूषा
अपनाते हैं।
नौटंकी के खेलों में राजा हरिशचंद्र, भक्त प्रहलाद,
सुल्तान डाकू, अमरसिंह राठौर, गोपीचंद भरथरी, श्रवणकुमार, लैला-मजनू, हीर-राँझा आदि
कथाएँ प्रस्तुत की जाती है। “नौटंकी के
रचयिताओं में हाथरस के पं. नत्थाराम शर्मा, फर्रुखाबाद के हरिमोहन, कानपुर के श्री
कृष्ण राधेश्याम कथावाचक तथा लम्बरदार है। ”7
अलग-अलग क्षेत्रों में इस लोकनाट्य की विविध शैलियाँ
अपनाई जाती है, जैसे – हाथरसी शैली, कानपुरी शैली रोहतकी शैली आदि।
भवाई
:
गुजरात
का प्रमुख लोकनाट्य भवाई है। ‘भवाई’ नामकरण
के संबंध में कई मत प्रचलित है। ‘भवाडवुं’
का अर्थ है पसंद करना या शोभा बढ़ाना। श्री हरिवल्लभ भायाणी के अनुसार - “भवाई शब्द का
अर्थ सजधज या शोभा सजावट हो सकता है। ”8
डॉ.
सुधाबहन देसाई के मत से ‘भावन’ का अर्थ है भक्ति या गुणगान या लीला विस्तार। भवाई में इस भावन शब्द का अनेकों बार प्रयोग
देखा जा सकता है। मांडण नायक ने अपनी
रचनाओं को ‘भावन’ कहा है। “जो व्यक्ति ‘भावन’
खेलता है वह भावक कहलाता है। उसी प्रकार
भवाई खेलने वालों को भवैया कहते हैं। इसका
अर्थ यही हुआ कि अंबा माता के चाचर में खेल करने वाली भावन ही भवाई है। ”9
“आईने-अकबरी
में भवाया जाति का उल्लेख मिलता है तो कुछ विद्वान इसे ‘भवानी’ से जोड़कर देखते हैं।
गणपति रचित ‘माधवानल कामकंदला’ में भी
भवाई जाति का सन्दर्भ विद्यमान है। ‘भवइया’ शब्द का संबंध संस्कृत शब्द ‘भ्रुकुस’ से
भी जोड़कर देखा जा सकता है जिसका तात्पर्य ‘स्त्रीवेशभ्रत नट’अर्थात् नारी वेश धारण
करने वाले नट के अर्थ से लिया जाता है। साथ
ही ‘भव’ यानी जीवन और ‘वाही’ अर्थात् वहन करने वाली (कला) के रूप में भववाहिनी (भवाई)
को स्वीकार किया जाता है। ”10
भवाई
के उद्भव की कथा 14 वीं शताब्दी में उत्तर गुजरात के सिद्धपुर में हुए असाइत ठाकर से जुड़ी है। अतः भवाई के प्रवर्तक के रूप में असाइत ठाकर का
नाम लिया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि असाइत
ठाकरजो एक कणबी कन्या को मुसलमानों के
हाथों से बचाने के लिए उस कन्या के साथ एक ही थाली में भोजन किया तो उसकी जाति
वालों ने उसे बिरादरी बाहर कर दिया और वो अपने परिवार के साथ ऊँझा में आ गया और तरगाडा
के नाम से अपनी पहचान बनाई। गायक, कथाकार,
माता का उपासक तथा नृत्यकला में प्रवीण के रूप में असाइत की प्रसिद्धि रही। इसी ने भवाई के रूप को विकसित किया। “असाइत अपने परिवार, तीनों बेटों के साथ गाँव-गाँव घूम
फिरकर कला से सबका मनोरंजन करते हुए आजीविका चलने लगे और प्रारंभ में ये कलाकार भमाया
(घूमन्तु) कहलाए फिर धीरे-धीर उनको भवाया कहा जाने लगा तथा उनकी कला का नामकरण ‘भवाई’
हो गया। ”11
भवाई
के उद्भव व नामकरण के संदर्भ में राजस्थान के नागजी नामक एक जाट कलाकार की कथा भी
प्रचलित है। नागजी जाट का कलाप्रेम उनकी
जाति के लोगों को पसंद नहीं था और उसे भूंगल आदि वाद्य यंत्र देकर स्थान व जाति से
निकाल दिया जाता है। नागजी जाट अलग-अलग
जगहों पर अपनी कला प्रस्तुत करता था। घूम-घूमकर
कला प्रस्तुत करने की वजह से भमाई के नाम से जाना जाता और बाद में उसी शब्द से ‘भवाई’
शब्द अस्तित्व में आया।
भवाई
की प्रस्तुति के लिए गाँव में खुले चौक, चबूतरा या मंदिर के बाहर की खुली जगह पर
अस्थाई रूप से मंच तैयार कर लिया जाता है। सबसे पहले भवाई की मंडली के मुखिया के द्वारा
रंगभूमि निश्चित की जाती है। एक-दो घंटे
से लेकर रातभर तक इसका अभिनय होता है। ‘भूंगल’ तो भवाई का प्राण वाद्य कहा जाता है। भूंगल भी दो प्रकार की होती है। जिसमें से तीव्र स्वर निकलते है वह नर भूंगल और
मंदस्वर वाली मादा भूंगल के नाम से जानी जाती है। ढोल-तबला वाला तबलची, हारमोनियम बजाने वाला
उस्ताद-पेटी मास्टर, झाँझ बजाने वाले को झाँझिया कहा जाता है।
भूंगल
भवाई
की टीम या मंडली को पेडुं नाम से भी जाना जाता है। “मंडल का मुखिया या मुख्य नायक बेशगोर कहलाता है।
वह अपने सर्वाधिक विश्वसनीय व्यक्ति भाई,
भतीजा या पुत्र को व्यवस्थापक के रूप में नियुक्त करता है। मंडल में पुरुष भूमिका करने वाले छह से सात
मूछैल होते हैं और मुख्य नायक के अतिरिक्त इसमें उपनायक, प्रतिनायक, रंगातरो (प्रश्न
पूछने वाला) आदि का भी समावेश होता है। कांचलिया
की संख्या छह से सात की होती है। एक भगत
होता है जो समय-समय पर डागलो, जूठण, रंगलो, हसाउलो, बटावो आदि की भूमिकाएँ करता है।
वादकों में दो भूंगल वादक, एक उस्ताद (पेटी
मास्टर) तबलची तथा दो झाँझ बजाने वालों का समावेश होता है। इसके उपरांत मंडल में कोतवाल,पडपतिया (छोटे मोटे
काम करने वाला), चाय बनाने वाला आदि अन्य व्यक्तियों को भी समाविष्ट किया जाता है।
परंपरागत रूप से और पूर्व व्यवस्था से अनुरूप
मंडल गाँव-गाँव जाकर भवाई खेलते हैं। ”12
जैसा
कि ऊपर बताया है भवाई में स्त्रियों की भूमिका पुरुष ही करते हैं जिसे कांचलिया
कहा जाता है। कुंचकी धारण करने की वजह से
ही इसे कांचलिया के नाम से जाना जाता है। इनकी
अधिक संख्या से ही भवाई के मंडल को ज्यादा महत्त्व प्राप्त होता है। भवाई में रंगलो और रंगली संवाद व अभिनय से दर्शकों
को खूब हँसाते हैं।
भवाई
की प्रस्तुति में सबसे पहले ‘भूंगल’ बजाई जाती है, फिर गणपति वंदना और तत्पश्चात् प्रस्तुत
किए जाने वाले वेश-कथाप्रसंग की घोषणा की जाती है।
भवाई
में धार्मिक, पैराणिक व ऐतिहासिक के अतिरिक्त सामाजिक कथाप्रसंगों को प्रस्तुत किया
जाता है। भवाई के कुछ प्रसिद्ध वेशों में शंकर-पार्वती, राम-रावण युद्ध, राजा
हरिशचन्द्र, वीर मांगडावालो, भाथी लूटेरो, भरथरी-पिंगला, झंडा-झूलण, छैल-बटाऊ, बंजारा,
जसमा ओडण आदि को उदाहरणतया देख सकते हैं। कथावस्तु की प्रस्तुति ज्यादातर गद्य में ही
होती है। साथ ही कथा के कुछ अंशों को पद्य
रूप में गाकर भी प्रस्तुत किया जाता है। इसमें
गीतों का समावेश अनिवार्य रूप से किया जाता है। इस लोकनाट्य का मूल उद्देश्य भले ही लोक का
मनोरंजन करना हो किंतु इसके साथ-साथ इस लोकनाट्य के द्वारा जनशिक्षा व समाज में सुधार
का कार्य भी होता है।
(‘लोक
साहित्य’ पुस्तक से साभार)
संदर्भानुक्रम
–
1.
लोकसाहित्य का शास्त्रीय
अनुशीलन, डॉ. महेश गुप्त, पृ. 67
2.
लोकसाहित्य की
भूमिका, कृष्णदेव उपाध्याय, पृ. 147
3.
लोकसाहित्य के
प्रतिमान, डॉ. कुंदनलाल उप्रेती, पृ. 171
4.
वही, पृ. 184
5.
लोकसाहित्य का शास्त्रीय
अनुशीलन, डॉ. महेश गुप्त, पृ. 325
6.
प्रतिनिधि भारतीय
लोकरंग शैलियाँ, डॉ. मदनमोहन शर्मा, पृ. 07
7.
लोकसाहित्य के
प्रतिमान, डॉ. कुंदनलाल उप्रेती, पृ. 185
8.
लोकनाट्य – भवाई, कृष्णकान्त
कडकिया, अनु. –अविनाश श्रीवास्तव, पृ. 13
9.
वही, पृ. 13-14
10.
प्रतिनिधि भारतीय
लोकरंग शैलियाँ, डॉ. मदनमोहन शर्मा, पृ. 27
11.
वही, पृ. 27
12.
लोकनाट्य – भवाई, कृष्णकान्त
कडकिया, अनु. –अविनाश श्रीवास्तव, पृ. 16
डॉ. हसमुख परमार
एसोसिएट प्रोफ़ेसर
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय,
वल्लभ
विद्यानगर
जिला-
आणंद (गुजरात) – 388120