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बुधवार, 31 जुलाई 2024

कुछ विचार

 



प्रेमचंद की नज़र में साहित्य और साहित्यकार

 

मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गड्ढे तो हैं; पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों को स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाडों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें तो यहाँ निराशा ही होगी।

 

• हमें अपने साहित्य का मानदंड ऊँचा करना होगा, जिसमें वह समाज की अधिक मूल्यवान सेवा कर सके, जिसमें समाज में उसे वह पद मिले, जिसका वह अधिकारी है; जिसमें वह जीवन के प्रत्येक विभाग की आलोचना-विवेचना कर सके।

 

• साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सचाई है।

 

• मानव संस्कृति का विकास ही इसलिए हुआ है कि मनुष्य अपने को समझे । अध्यात्म और दर्शन की भाँति साहित्य भी इसी सत्य की खोज में लगा हुआ है –अन्तर इतना ही है कि वह इस उद्योग में रस का मिश्रण करके उसे आनन्दप्रद बना देता है, इसीलिए अध्यात्म और दर्शन केवल ज्ञानियों के लिए हैं, साहित्य मनुष्य मात्र के लिए ।

 

 

***

पत्र

 


हजारीप्रसाद द्विवेदी का पत्र प्रेमचंद के नाम 

 

शान्तिनिकेतन

२६ मार्च, १६५३


भंजन्मोहमहान्धकार वति सद्वृत्तमुच्चैर्भजन्

वैदग्ध्यं प्रथयन् सुसज्जनमनोवारांनिधि ह् लादयन् ।

ध्वान्तोद्घाभ्रान्तजनान् दिशन्ननुदिशं ध्वान्तप्रियान् स्वोभयन्

चन्द्रः कोऽपि चकास्त्यसावभिनवः श्री प्रेमचन्द्रः सुधीः ॥

प्रेमचन्द्रश्च चन्द्रश्च न कदापि समावुमौ ।

एकः पूर्णकलो नित्यमपरस्तु यदा कदा ।।

    मान्यवर, उस दिन पं० बनारसीदास जी के साथ गुरुदेव (कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर) से मिलने गया था। बातों ही बातों वर्तमान हिन्दी साहित्य के सम्बन्ध में चर्चा चली । ऐसे अवसरों पर आपका नाम सबसे पहले आता है। उस दिन भी आपकें रचित साहित्य की चर्चा बड़ी देर तक चलती रही। हम लोगों की इच्छा थी कि नव वर्ष के अवसर पर आप जैसे आदरणीय साहित्यिकों को निमंत्रित करें और गुरुदेव से परिचय करावें । गुरुदेव ने हम लोगों के विचार का उत्साह के साथ स्वागत किया । इसलिए हम लोगों ने निश्चित किया कि स्थानीय हिन्दी समाज का वार्षिकोत्सव नव वर्ष (१४ अप्रैल १६३५) को मनाया जाय । उस दिन गुरुदेव का प्रवचन होता है। उसके पहले दिन भी, जिस दिन वर्ष समाप्त होता है, उनका व्याख्यान होता है। कुछ और भी समारोह रहता है। गुरुदेव और आश्रम की ओर से निमंत्रण तो यथासमय जायगा ही, इसके पहले ही हम हिन्दी समाज की ओर से आपको निमंत्रित करते हैं । इस बार आप जरूर पधारें। हमारे आग्रहपूर्वक निमंत्रण को भाप अस्वीकार न करें। आपको गुरुदेव से मिलाकर हम गर्व अनुभव करेंगे ।

    आपके साहित्य ने हिन्दी को समृद्ध किया है और हिन्दीभाषियों को दुनिया में मुँह दिखाने लायक । इसीलिए आपके यश को हम लोग निर्विचार बाँट लिया करते हैं। जब हम रंगभूमि या कर्मभूमि को दूसरों को दिखाते हैं तो मन ही मन गर्वपूर्वक पूछा करते हैं-है तुम्हारे पास कोई ऐसी चीज ! और इस प्रकार का गर्व करते समय हमें प्रेमचंद नामक किसी अज्ञात अपरिचित व्यक्ति की याद भी नहीं रहती - मानो सब कुछ हमारी ही कृति है ! आज उस व्यक्ति को पत्र लिखते समय, उसकी अनुमति के बिना उसके सम्पूर्ण यश को स्वायत्त कर लेने के अप- राघ के लिए जो हम क्षमा नहीं माँगते, वह भी गर्व का ही एक दूसरा रूप है।

    आत्मीयता का इससे बड़ा प्रमाण हम क्या दे सकते हैं ?

    आप हमारा आदर और अभिनन्दन ग्रहण कीजिए ।

आपका

हजारी प्रसाद द्विवेदी

(साभार – प्रेमचंद : चिट्ठी-पत्री, सं. अमृतराय /मदनगोपाल)

इण्टरव्यू

 

पं. बनारसीदास चतुर्वेदी का पत्र-इण्टरव्यू

 

पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने 21 मई, 1930 को कलकत्ता से पत्र लिखते हुए प्रेमचन्द को सात प्रश्न भेजे थे, जिनका उत्तर प्रेमचन्द ने 3 जून, 1930 को लिखे पत्र में दिया था। यह पत्र-इण्टरव्यू यहाँ प्रस्तुत है।

चतुर्वेदी : आपने गल्प लिखना कब प्रारम्भ किया ?

प्रेमचन्द : मैंने 1907 में गल्प लिखना शुरू किया। सबसे पहले 1908 में मेरा सोज़े-वतन’, जो पाँच कहानियों का संग्रह था, ज़माना प्रेस से निकला था, पर उसे हमीरपुर के कलेक्टर ने मुझसे जलवा डाला था। उनके ख़याल में वह विद्रोहात्मक था, हालाँकि तब से उसका अनुवाद कई संग्रहों और पत्रिकाओं में निकल चुका है।

चतुर्वेदी : अपनी कौन-कौन-सी गल्प आपको सर्वोत्तम लगती हैं?

प्रेमचन्द : इस प्रश्न का जवाब देना कठिन है। दो सौ से ऊपर गल्पों में कहाँ तक चुनूँ, लेकिन स्मृति से काम लेकर लिखता हूँ- (1) बड़े घर की बेटी, (2) रानी सारन्धा, (७) नमक का दारोगा, (4) सौत, (5) आभूषण, (6) प्रायश्चित्त, (7) कामना-तरु, (8) मन्दिर और मस्जिद, (9) घासवाली, (10) महातीर्थ, (11) सत्याग्रह, (12) लांछन, (13) सती, (14) लैला, (15) मन्त्र।

मंज़िले-मनसूदनामक उर्दू कहानी बहुत सुन्दर है। कितने ही मुसलमान मित्रों ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है, पर अभी तक उसका अनुवाद नहीं हो सका। अनुवाद में भाषा-सारल्य ग़ायब हो जायेगा।

चतुर्वेदी : आपकी लेखन-शैली पर देशी या विदेशी किन-किन गल्प-लेखकों की रचना का प्रभाव पड़ा है?

प्रेमचन्द : मेरे ऊपर किसी विशेष लेखक की शैली का प्रभाव नहीं पड़ा। बहुत कुछ प. रतननाय दर लखनवी और कुछ डॉ. रवीन्द्रनाथ ठाकुर का असर पड़ा है।

चतुर्वेदी : आपको अपने ग्रन्थों से, रचनाओं से क्या मासिक आय हो जाती है?

प्रेमचन्द : आय की कुछ न पूछिए। पहले की सब किताबों का अधिकार प्रकाशकों को दे दिया। प्रेम-पचीसी’, ‘सेवा-सदन’, ‘सप्त-सरोज’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘संग्रामआदि के लिए एकमुश्त तीन हज़ार रुपये हिन्दी पुस्तक एजेन्सी ने दिया। नव-निधिके लिए शायद अब तक दो सौ रुपये मिले हैं। रंगभूमिके लिए अठारह सौ रुपये दुलारेलाल ने दिये। और संग्रहों के लिए सौ-दो सौ मिल गये। कायाकल्प’, ‘आज़ाद-कथा’, ‘प्रेमतीर्थ’, ‘प्रेम-प्रतिमा’, ‘प्रतिज्ञामैंने खुद छापा, पर अभी तक मुश्किल से 600 रुपये वसूल हुए हैं, और प्रतियाँ पड़ी हुई हैं। फुटकर आमदनी लेखों से शायद 25 रुपये माहवार हो जाती है, मगर इतनी भी नहीं होती। मैं अब हंसऔर माधुरीके सिवा कहीं लिखता ही नहीं। कभी-कभी विशाल भारतऔर सरस्वतीमें लिखता हूँ, बस: हाँ, अनुवादों से भी अब तक शायद दो हजार से अधिक न मिला होगा। आठ सौ रुपये में रंगभूमि और प्रेमाश्रमदोनों का अनुवाद दे दिया था। कोई छापने वाला ही न मिलता था।

चतुर्वेदी : हिन्दी गल्प-साहित्य की वर्तमान प्रगति विषय में आपके क्या विचार हैं?

प्रेमचन्द : हिन्दी में गल्प-साहित्य अभी अत्यन्त प्रारम्भिक दशा में है। कहानी लिखने वालों में सुदर्शन, कौशिक, जैनेन्द्रकुमार, ‘उग्र’, प्रसाद, राजेश्वरी यही नज़र आते हैं। मुझे जैनेन्द्र जौर उग्र’ में मौलिकता और बाहुल्य के चिह्न मिलते हैं। प्रसाद जी की कहानियाँ भावात्मक होती हैं, realistic नहीं; राजेश्वरी अच्छा लिखते हैं, मगर बहुत कम। सुदर्शन जी की रचनाएँ सुन्दर होती हैं, पर गहराई नहीं होती और कौशिक जी अग्रसर बात को बेज़रूरत बढ़ा देते हैं। किसी ने अभी तक समाज के किसी विशेष अंग का विशेष रूप से अध्ययन नहीं किया। उग्रने किया, मगर बहक गये। मैंने कृषक समाज को लिया, मगर अभी कितने ही ऐसे समाज पड़े हैं जिन पर रोशनी डालने की जरूरत है। साधुओं के समाज को किसी ने स्पर्श तक नहीं किया। हमारे यहाँ कल्पना की प्रधानता है, अनुभूत की नहीं। बात यह है कि अभी तक साहित्य को हम व्यवसाय के रूप में नहीं ग्रहण कर सके। मेरा जीवन तो आर्थिक दृष्टि से असफल है और रहेगा। हंसनिकाल कर मैंने किताबों की बचत का भी वारा-न्यारा कर दिया। यों शायद इस साल चार-छः सौ मिल जाते, पर अब आशा नहीं।

चतुर्वेदी : आपकी रचनाओं का अनुवाद किन-किन भाषाओं में हुआ है?

प्रेमचन्द : मेरी रचनाओं का अनुवाद मराठी, गुजराती, उर्दू, तमिल भाषाओं में हुआ है। सब का नहीं। सबसे ज़्यादा उर्दू में, उसके बाद मराठी में। तमिल और तेलगु के कई सज्जनों ने मुझसे आज्ञा माँगी जो मैंने दे दी। अनुवाद हुआ या नहीं, मैं नहीं कह सकता। जापानी में तीन-चार कहानियों का अनुवाद हुआ है, जिसके महाशय सब्बरवाल ने मुझे अभी कई दिन हुए 50 रुपये भेजे हैं। मैं उनका आभारी हूँ। दो-तीन कहानियों का अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ है, बस।

चतुर्वेदी : आपकी आकांक्षाएँ क्या-क्या हैं?

प्रेमचन्द : मेरी आकांक्षाएँ कुछ नहीं हैं। इस समय तो सबसे बड़ी आकांक्षा यही है कि हम स्वराज्य-संग्राम में विजयी हों। धन या यश की लालसा मुझे नहीं रही। खाने-भर को मिल ही जाता है। मोटर और बंगले की मुझे हविस नहीं। हाँ, यह जरूर चाहता हूँ कि दो-चार उच्च कोटि की पुस्तकें लिखें, पर उनका उद्देश्य भी स्वराज्य-विजय ही हो। मुझे अपने दोनों लड़कों के विषय में कोई बड़ी लालसा नहीं है। यही चाहता हूँ कि वे ईमानदार, सच्चे और पक्के इरादे के हों। विलासी, घनी, खुशामदी सन्तान से मुझे घृणा है। मैं शान्ति से बैठना भी नहीं चाहता। साहित्य और स्वदेश के लिए कुछ-न-कुछ करते रहना चाहता हूँ। हाँ, रोटी-दाल और तोला-भर घी और मामूली कपड़े मयस्सर होते रहें।

 

(प्रेमचन्द का अप्राप्य साहित्य-1,सं. कमल किशोर गोयनका, पृ. 392-394 से साभार )

पुस्तक-भूमिका


सोज़े-वतन की भूमिका 

प्रेमचंद 




(प्रेमचन्द का अप्राप्य साहित्य-1,सं. कमल किशोर गोयनका, पृ. 307-308 से साभार )



कहानी

 


रामलीला

प्रेमचंद

इधर एक मुद्दत से रामलीला देखने नहीं गया। बंदरों के भद्दे चेहरे लगाए, आधी टाँगों का पजामा और काले रंग का ऊँचा कुरता पहने आदमियों को दौड़ते, हु-हू करते देखकर अब हँसी आती है, मजा नहीं आता। काशी की रामलीला जगद्विख्यात है। सुना है, लोग दूर-दूर से देखने आते हैं। मैं भी बड़े शौक से गया, पर मुझे तो वहाँ की लीला और किसी वज्र देहात की लीला में कोई अंतर न दिखाई दिया। हाँ, रामनगर की लीला में कुछ साज-सामान अच्छे हैं। राक्षसों और बंदरों के चेहरे पीतल के हैं, गदाएँ भी पीतल की हैं, कदाचित् वनवासी भ्राताओं के मुकुट सच्चे काम के हों, लेकिन साज-सामान के सिवा वहाँ भी वही हू-हू के सिवा और कुछ नहीं। फिर भी लाखों आदमियों की भीड़ लगी रहती है।

लेकिन एक जमाना वह था, जब मुझे भी रामलीला में आनंद आता था। आनंद तो बहुत हलका सा शब्द है। वह आनंद उन्माद से कम न था। संयोगवश उन दिनों मेरे घर से बहुत थोड़ी दूर रामलीला का मैदान था और जिस घर में लीला पात्रों का रूप-रंग भरा जाता था, वह तो मेरे घर से बिलकुल मिला हुआ था। दो बजे दिन से पात्र की सजावट होने लगती थी। मैं दोपहर ही से वहाँ जा बैठता और जिस उत्साह से दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे काम करता, उस उत्साह से तो आज अपनी पेंशन लेने भी नहीं जाता। एक कोठरी में राजकुमारों का शृंगार होता था। उनकी देह में रामरज पीसकर पोती जाती, मुँह पर पाउडर लगाया जाता और पाउडर के ऊपर लाल, हरे, नीले रंग की बुंदकियाँ लगाई जाती थीं।सारा माथा, भौहें, गाल, ठोड़ी बुंदकियों से रच उठती थीं। एक ही आदमी इस काम में कुशल था। वही बारी-बारी से तीनों पात्रों का शृंगार करता था। रंग की प्यालियों में पानी लाना, रामरज पीसना, पंखा झलना मेरा काम था।

जब इन तैयारियों के बाद विमान निकलता, तो उस पर रामचंद्रजी के पीछे बैठकर मुझे जो उल्लास, जो गर्व, जो रोमांच होता था, अब वह लाट साहब के दरबार में कुरसी पर बैठकर भी नहीं होता। एक बार होम-मेंबर साहब ने व्यवस्थापक-सभा में मेरे एक प्रस्ताव का अनुमोदन किया था, उस वक्त मुझे कुछ उसी तरह का उल्लास, गर्व और रोमांच हुआ था। हाँ, एक बार जब मेरा ज्येष्ठ पुत्र नायब तहसीलदारी में नामजद हुआ, तब भी ऐसी ही तरंगें मन में उठी थीं, पर इनमें और उस बाल-विह्वलता में बड़ा अंतर है। तब ऐसा मालूम होता था कि मैं स्वर्ग में बैठा हूँ।

निषाद नौका-लीला का दिन था। मैं दो-चार लड़कों के बहकाने में आकर गुल्ली-डंडा खेलने गया था। आज शृंगार देखने न गया। विमान भी निकला, पर मैंने खेलना न छोड़ा। मुझे अपना दाँव लेना था अपना दाँव छोड़ने के लिए उससे कहीं बढ़कर आत्मत्याग की जरूरत थी, जितना मैं कर सकता था। अगर दाँव देना होता तो मैं कब का भाग खड़ा होता; लेकिन पदाने में कुछ और ही बात होती है। खैर, दाँव पूरा हुआ। अगर मैं चाहता तो धाँधली करके दस-पाँच मिनट और बढ़ा सकता था, इसकी काफी गुंजाइश थी, लेकिन अब इसका मौका न था। मैं सीधे नाले की तरफ दौड़ा। विमान जल-तट पर पहुँच चुका था। मैंने दूर से देखा, मल्लाह किश्ती लिये आ रहा है। दौड़ा, लेकिन आदमियों की भीड़ में दौड़ना कठिन था। आखिर जब मैं भीड़ हटाता, प्राण-पण से आगे बढ़ता घाट पर पहुँचा तो निषाद अपनी नौका खोल चुका था।

रामचंद्र पर मेरी कितनी श्रद्धा थी। अपने पाठ की चिंता न करके उन्हें पढ़ा दिया करता था, जिससे वह फेल न हो जाएँ। मुझसे उम्र ज्यादा होने पर भी वह नीची कक्षा में पढ़ते थे, लेकिन वही रामचंद्र नौका पर बैठे इस तरह मुँह फेरे चले जाते थे, मानो मुझसे जान- पहचान ही नहीं। नकल में भी असल की कुछ-न-कुछ बू आ ही जाती है। भक्तों पर जिनकी निगाह सदा ही तीखी रही है, वह मुझे क्यों उबारते! मैं विकल होकर उस बछड़े की भाँति कूदने लगा, जिसकी गरदन पर पहली बार जुआ रखा गया हो कभी लपककर नाले की ओर जाता, कभी किसी सहायक की खोज में पीछे की तरफ दौड़ता, पर सब-के-सब अपनी धुन में मस्त थे, मेरी चीख-पुकार किसी के कानों तक न पहुँची। तब से बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ झेली, पर उस समय जितना दुख हुआ, उतना फिर कभी न हुआ।

मैंने निश्चय किया था कि अब रामचंद्र से न कभी बोलूँगा, न कभी खाने की कोई चीज ही दूंगा; लेकिन ज्यों ही नाले को पार करके वह पुल की ओर लौटे, मैं दौड़कर विमान पर चढ़ गया और ऐसा खुश हुआ, मानो कोई बात ही न हुई थी।

            रामलीला समाप्त हो गई थी। राजगद्दी होने वाली थी, पर न जाने क्यों देर हो रही थी। शायद चंदा कम वसूल हुआ था। रामचंद्र की इन दिनों कोई बात भी न पूछता था। न ही घर जाने की छुट्टी मिलती थी और न ही भोजन का प्रबंध होता था। चौधरी साहब के यहाँ से सीदा कोई तीन बजे दिन को मिलता था, बाकी सारे दिन कोई पानी को नहीं पूछता। लेकिन मेरी श्रद्धा अभी तक ज्यों-की-त्यों थी। मेरी दृष्टि में वह अब भी रामचंद्र ही थे। घर पर मुझे खाने की कोई चीज मिलती, वह लेकर रामचंद्र को दे आता। उन्हें खिलाने में मुझे जितना आनंद मिलता था, उतना आप खा जाने में भी कभी न मिलता। कोई मिठाई या फल पाते ही में बेतहाशा चौपाल की ओर दौड़ता। अगर रामचंद्र वहाँ न मिलते तो चारों ओर तलाश करता और जब तक वह चीज उन्हें न खिला देता, चैन न आता था।

खैर, राजगद्दी का दिन आया। रामलीला के मैदान में एक बड़ा सा शामियाना ताना गया। उसकी खूब सजावट की गई। वेश्याओं के दल भी आ पहुँचे। शाम को रामचंद्र की सवारी निकली और प्रत्येक द्वार पर उनकी आरती उतारी गई। श्रद्धानुसार किसी ने रुपए दिए, किसी ने पैसे। मेरे पिता पुलिस के आदमी थे, इसलिए उन्होंने बिना कुछ दिए ही आरती उतारी। उस वक्त मुझे जितनी लज्जा आई, उसे बयान नहीं कर सकता। मेरे पास उस वक्त संयोग से एक रुपया था। मेरे मामाजी दशहरे के पहले आए थे और मुझे एक रुपया दे गए थे। उस रुपए को मैंने रख छोड़ा था। दशहरे के दिन भी उसे खर्च न कर सका। मैंने तुरंत वह रुपया लाकर आरती की थाली में डाल दिया। पिताजी मेरी ओर कुपित नेत्र से देखकर रह गए। उन्होंने कुछ कहा तो नहीं, लेकिन मुँह ऐसा बना लिया, जिससे प्रकट होता था कि मेरी इस धृष्टता से उनके रोब में बट्टा लग गया। रात के दस बजते-बजते यह परिक्रमा पूरी हुई। आरती की थाली रुपयों और पैसों से भरी हुई थी। ठीक तो नहीं कह सकता, मगर अब ऐसा अनुमान होता है कि चार-पाँच सौ रुपयों से कम न थे। चौधरी साहब इनसे कुछ ज्यादा ही खर्च कर चुके थे। उन्हें इसकी बड़ी फिक्र हुई कि किसी तरह कम-से-कम दो सौ रुपए और वसूल हो जाएँ और इसकी सबसे अच्छी तरकीब उन्हें यही मालूम हुई कि वेश्याओं द्वारा महफिल में वसूली हो। जब लोग आकर बैठ जाएँ और महफिल का रंग जम जाए, तो आबादीजान रसिकजनों की कलाइयाँ पकड़ पकड़कर ऐसे हाव-भाव दिखाएँ कि लोग शरमाते- शरमाते भी कुछ-न-कुछ दे ही मरें। आबादीजान और चौधरी साहब में सलाह होने लगी। मैं संयोग से उन दोनों प्राणियों की बातें सुन रहा था। चौधरी साहब ने समझा होगा कि यह लौंडा क्या मतलब समझेगा। पर यहाँ ईश्वर की दया से अक्ल के पुतले थे। सारी दास्तान समझ में आती जाती थी।

चौधरी, "सुनो आबादीजान, यह तुम्हारी ज्यादती हैं। हमारा और तुम्हारा कोई पहला साबिका तो है नहीं। ईश्वर ने चाहा तो हमेशा तुम्हारा आना-जाना लगा रहेगा। अबकी चंदा बहुत कम आया, नहीं तो मैं तुमसे इतना इसरार न करता।"

आबादीजान, "आप मुझसे भी जमींदारी चालें चलते हैं, क्यों? मगर यहाँ हुजूर की दाल न गलेगी। वाह! रुपए तो मैं वसूल करूँ और मूँछों पर ताव आप दें। कमाई का अच्छा ढंग निकाला है। इस कमाई से तो वाकई आप थोड़े दिनों में राजा हो जाएँगे। उसके सामने जमींदारी झक मारेगी! बस कल ही से एक चकला खोल दीजिए! खुदा की कसम, मालामाल हो जाइएगा।"

चौधरी, "तुम दिल्लगी करती हो और यहाँ काफिया तंग हो रहा है।"

आबादीजान, "तो आप भी तो मुझी से उस्तादी करते हैं। यहाँ आप जैसे कइयों को रोज उँगलियों पर नचाती हूँ।"

चौधरी,"आखिर तुम्हारी मंशा क्या है?"

आबादीजान, "जो कुछ वसूल करूँ, उसमें आधा मेरा, आधा आपका। लाइए, हाथ मारिए।"

चौधरी, "यही सही।"

आबादीजान, "तो पहले मेरे सौ रुपए गिन दीजिए। पीछे से आप अलसेट करने लगेंगे।"

चौधरी, "वह भी लोगी और यह भी।"

आबादीजान, "अच्छा! तो क्या आप समझते थे कि अपनी उजरत छोड़ दूँगी? वाह री आपकी समझ खूब क्यों न हो। दीवाना बकारे दरवेश हुशियार!"

चौधरी, "तो क्या तुमने दोहरी फीस लेने की ठानी है?"

आबादीजान," अगर आपको सौ दफे गरज हो तो। वरना मेरे सौ रुपए तो कहीं गए ही नहीं। मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो लोगों की जेब में हाथ डालती फिरूँ?"

चौधरी की एक न चली। आबादीजान के सामने दबना पड़ा। नाच शुरू हुआ। आबादीजान बला की शोख औरत थी। एक तो कमसिन, उस पर हसीन और उसकी अदाएँ तो इस गजब की थीं कि मेरी तबीयत भी मस्त हुई जाती थी। आदमियों को पहचानने का गुण भी उसमें कुछ कम न था। जिसके सामने बैठ गई, उससे कुछ-न-कुछ ले ही लिया। पाँच रुपए से कम तो शायद ही किसी ने दिए हों। पिताजी के सामने भी वह बैठी। मैं मारे शरम के गड़ गया। जब उसने उनकी कलाई पकड़ी, तब तो मैं सहम उठा। मुझे यकीन था कि पिताजी उसका हाथ झटक देंगे और शायद दुत्कार भी दें, किंतु यह क्या हो रहा है ईश्वर! मेरी आँखें धोखा तो नहीं खा रही हैं। पिताजी मूँछों में हँस रहे हैं। ऐसी मृदु हँसी उनके चेहरे पर मैंने कभी नहीं देखी थी। उनकी आँखों से अनुराग टपका पड़ता था। उनका एक-एक रोम पुलकित हो रहा था, मगर ईश्वर ने मेरी लाज रख ली। वह देखो, उन्होंने धीरे से आबादीजान के कोमल हाथों से अपनी कलाई छुड़ा ली। अरे! यह फिर क्या हुआ? आबादी तो उनके गले में बाँहें डाले देती है। अब पिताजी उसे जरूर पीटेंगे। चुड़ैल को जरा भी शरम नहीं।

एक महाशय ने मुसकराकर कहा, "यहाँ तुम्हारी दाल न गलेगी, आबादीजान और दरवाजा देखो।"

बात तो इन महाशय ने मेरे मन की कही और बहुत ही उचित कही, लेकिन न जाने क्यों पिताजी ने उसकी ओर कुपित नेत्र से देखा और मूँछों पर ताव दिया। मुँह से तो वह कुछ न बोले, पर उनके मुख की आकृति चिल्लाकर सरोष शब्दों में कह रही थी, 'तू बनिया, मुझे समझता क्या है? यहाँ ऐसे अवसर पर जान तक निसार करने को तैयार हैं। रुपए की हकीकत ही क्या! तेरा जी चाहे, आजमा ले। तुझसे दूनी रकम न डालूँ तो मुँह न दिखाऊँ!' महान् आश्चर्य! घोर अनर्थ अरे, जमीन तू फट क्यों नहीं जाती। आकाश, तू फट क्यों नहीं पड़ता? अरे, मुझे मौत क्यों नहीं आ जाती! पिताजी जेब में हाथ डाल रहे हैं। कोई चीज निकाली और सेठजी को दिखाकर आबादीजान को दे डाली। आहा यह तो अशरफी है।

चारों ओर तालियाँ बजने लगीं। सेठजी उल्लू बन गए। पिताजी ने मुँह की खाई, इसका निश्चय मैं नहीं कर सकता। मैंने केवल इतना देखा कि पिताजी ने एक अशरफी निकालकर आबादीजान को दी। उनकी आँखों में इस समय इतना गर्वयुक्त उल्लास था मानो उन्होंने हातिम की कब्र पर लात मारी हो। यही पिताजी हैं, जिन्होंने मुझे आरती में एक रुपया डालते देखकर मेरी ओर इस तरह से देखा था, मानो मुझे फाड़ ही खाएँगे। मेरे उस परमोचित व्यवहार से उनके रोब में फर्क आता था और इस समय इस घृणित, कुत्सित और निंदित व्यापार पर गर्व और आनंद से फूले न समाते थे।

आबादीजान ने एक मनोहर मुसकान के साथ पिताजी को सलाम किया और आगे बढ़ी, मगर मुझसे वहाँ न बैठा गया। मारे शरम के मेरा मस्तक झुका जाता था, अगर मेरी आँखों देखी बात न होती, तो मुझे इस पर कभी ऐतबार न होता। मैं बाहर जो कुछ देखता-सुनता था, उसकी रिपोर्ट अम्मा से जरूर करता था। पर इस मामले को मैंने उनसे छिपा रखा। मैं जानता था, उन्हें यह बात सुनकर बड़ा दुख होगा।

रात भर गाना होता रहा, तबले की धमक मेरे कानों में आ रही थी। जी चाहता था, चलकर देखें, पर साहस न था। मैं किसी को मुँह कैसे दिखाऊँगा? कहीं किसी ने पिताजी का जिक्र छेड़ दिया तो मैं क्या करूँगा?

प्रातकाल रामचंद्र की विदाई होने वाली थी। मैं चारपाई से उठते ही आँखें मलता हुआ चौपाल की ओर भागा। डर रहा था कि कहीं रामचंद्र चले न गए हों। पहुँचा तो देखा, तवायफों की सवारियाँ जाने को तैयार हैं। बीसों आदमी हसरत नाक-मुँह बनाए उन्हें घेरे खड़े हैं। मैंने उनकी ओर आँख तक न उठाई। सीधा रामचंद्र के पास पहुँचा। लक्ष्मण और सीता बैठे रो रहे थे और रामचंद्र खड़े काँधे पर लुटिया-डोर डाले उन्हें समझा रहे थे। मेरे सिवा वहाँ और कोई न था। मैंने कुंठित स्वर में रामचंद्र से पूछा, "क्या तुम्हारी विदाई हो गई?"

रामचंद्र, "हाँ, हो तो गई। हमारी विदाई ही क्या? चौधरी साहब ने कह दिया, जाओ, चले जाते हैं।"

"क्या रुपया और कपड़े नहीं मिले?"

"अभी नहीं मिले। चौधरी साहब कहते हैं, "इस वक्त बचत में रुपए नहीं हैं, फिर आकर ले जाना।"

"कुछ नहीं मिला?"

"एक पैसा भी नहीं। कहते हैं, कुछ बचत नहीं हुई। मैंने सोचा था कि कुछ रुपए मिल जाएँगे तो पढ़ने की किताबें ले लूँगा। सो कुछ न मिला। राह खर्च भी नहीं दिया। कहते हैं, कौन दूर है, पैदल चले जाओ!"

मुझे ऐसा क्रोध आया कि चलकर चौधरी को खूब आड़े हाथों लें। वेश्याओं के लिए रुपए, सवारियाँ, सबकुछ, पर बेचारे रामचंद्र और उनके साथियों के लिए कुछ भी नहीं। जिन लोगों ने रात को आबादीजान पर दस-दस, बीस-बीस रुपए न्योछावर किए थे, उनके पास क्या इनके लिए दो-दो, चार-चार आने पैसे भी नहीं? पिताजी ने भी आबादीजान को एक अशरफी दी थी। देखें, इनके नाम पर क्या देते हैं। मैं दौड़ा हुआ पिताजी के पास गया। वह कहीं तफ्तीश पर जाने को तैयार खड़े थे। मुझे देखकर बोले,"कहाँ घूम रहे हो? पढ़ने के वक्त तुम्हें घूमने की सूझती है।"

मैंने कहा, "गया था चौपाल रामचंद्र विदा हो रहे थे। उन्हें चौधरी साहब ने कुछ नहीं दिया "

"तो तुम्हें इसकी क्या फिक्र पड़ी है?"

"वह जाएँगे कैसे? उनके पास राह-खर्च भी तो नहीं है।"

"क्या कुछ खर्च भी नहीं दिया? यह चौधरी साहब की बेइनसाफी है।"

"आप अगर दो रुपया दे दें तो मैं उन्हें दे आऊँ। इतने में शायद वह घर पहुँच जाएँ।"

पिताजी ने तीव्र दृष्टि से देखकर कहा," जाओ अपनी किताब देखो, मेरे पास रुपए नहीं है।" यह कहकर वह घोड़े पर सवार हो गए। उसी दिन से पिताजी पर से मेरी श्रद्धा उठ गई। मैंने फिर कभी उनकी डाँट-डपट की परवाह नहीं की। मेरा दिल कहता, 'आपको मुझको उपदेश देने का कोई अधिकार नहीं है मुझे उनकी सूरत से चिढ़ हो गई। वह जो कहते, में ठीक उसका उलटा करता। यद्यपि इसमें मेरी हानि हुई। लेकिन मेरा अंतकरण उस समय विप्लवकारी विचारों से भरा हुआ था।

मेरे पास दो आने पड़े हुए थे मैंने उठा लिये और जाकर शरमाते-शरमाते रामचंद्र को दे दिए। उन पैसों को देखकर रामचंद्र को जितना हर्ष हुआ, वह मेरे लिए आशातीत था। टूट पड़े, मानो प्यासे को पानी मिल गया। यही दो आने पैसे लेकर तीनों मूर्तियाँ विदा हुईं। केवल मैं ही उनके साथ कस्बे के बाहर तक पहुँचाने आया।

उन्हें विदा करके लौटा तो मेरी आँखें सजल थी, पर हृदय आनंद से उमड़ा हुआ था।



उपन्यास-अंश



कमला के नाम विरजन का पत्र

वरदान (प्रेमचंद) से ...

 

मझगाँव

प्यारे,         

         तुम्हारी प्रेम-पत्रिका मिली। छाती से लगायी। वाह । चोरी और मुँहजोरी। अपने न आने का दोष मेरे सिर धरते हो? मेरे मन से कोई पूछे कि तुम्हारे दर्शन की उसे कितनी अभिलाषा है? अब यह अभिलाषा प्रतिदिन व्याकुलता के रूप में परिणित होती है। कभी-कभी बेसुध हो जाती है। मेरी यह दशा थोड़े ही दिनों से होने लगी है। जिस समय यहाँ से गये हो, मुझे ज्ञात न था कि वहाँ जाकर मेरी दलेल करोगे। खैर, तुम्हीं सच और मैं ही झूठ। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि तुमने मेरे दोनों पत्र पसन्द किये। पर प्रतापचन्द्र को व्यर्थ दिखाये। वे पत्र बड़ी असावधानी से लिखे गये हैं। सम्भव है कि अशुद्धियाँ रह गयी हों। मुझे विश्वास नहीं आता कि प्रताप ने उन्हें मूल्यवान समझा हो। यदि वे मेरे पत्रों का इतना आदर करते हैं कि उनके सहारे से हमारे ग्राम्य जीवन पर कोई रोचक निबन्ध लिख सकें, तो मैं अपने को परम भाग्यवान् समझती हूँ।

      कल यहाँ देवीजी की पूजा थी। हल, चक्की, पुर, चूल्हे सब बन्द थे। देवीजी की ऐसी ही आज्ञा है। उनकी आज्ञा का उल्लंघन कौन करे? हुक्का-पानी बन्द हो जाये। साल भर में यही एक दिन है, जिसे गाँव वाले भी छुट्टी का समझते हैं। अन्यथा होली-दिवाली भी प्रतिदिन के आवश्यक कामों को नहीं रोक सकती। बकरा चढ़ा। हवन हुआ। सत्तू खिलाया गया। अब गाँव के बच्चे-बच्चे को पूर्ण विश्वास है कि प्लेग का आगमन यहाँ न हो सकेगा। ये सब कौतुक देखकर सोयी थी। लगभग बारह बजे होगे कि सैकड़ों मनुष्य हाथ में मशालें लिये कोलाहल मचाते निकले और सारे गाँव का फेरा किया। इसका यह अर्थ था कि इस सीमा के भीतर बीमारी पैर न रख सकेगी। फेरे के समाप्त होने पर कई मनुष्य अन्य ग्राम की सीमा में घुस गये और थोड़े फूल, पान, चावल, लौंग आदि पदार्थ पृथ्वी पर रख आये। अर्थात् अपने ग्राम की बला दूसरे गाँव के सिर डाल आये। जब ये लोग अपना कार्य समाप्त करके वहाँ से चलने लगे तो उस गाँववालों को सुनगुन मिल गयी। सैकड़ों मनुष्य लाठियाँ लेकर चढ़ दौड़े। दोनों पक्षवालों में खूब मारपीट हुई। इस समय गाँव के कई मनुष्य हल्दी पी रहे हैं।

      आज प्रातःकाल बची-बचाई रस्में पूरी हुई, जिनको यहाँ कढ़ाई देन' कहते हैं। "मेरे द्वार पर एक भट्टा खोदा गया और उस पर एक कड़ाह दूध से भरा हुआ रखा गया। काशी नाम का एक भर है। वह शरीर में भभूत रमाये आया। गाँव के आदमी टाट पर बैठे। शंख बजने लगा। कड़ाह में चतुर्दिक माला-फूल बिखेर दिये गये। जब कड़ाह में खूब उबाल आया तो काशी झट उठा और जय कालीजी कहकर कड़ाह में कूद पड़ा। मैं तो समझी, अब यह जीवित नहीं निकलेगा। पर पाँच मिनट पश्चात् काशी ने फिर छलाँग मारी और कड़ाह के बाहर था। उसका बाल भी बाँका न हुआ। लोगों ने उसे माला पहनायी। वे कर बाँधकर पूछने लगे- महाराज ! अबके वर्ष खेती की उपज कैसी होगी ? पानी कैसा बरसेगा ? बीमारी आवेगी या नहीं ? गाँव के लोग कुशल से रहेंगे ? गुड़ का भाव कैसा रहेगा ? आदि। काशी ने इन सब प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट किंचित रहस्यपूर्ण शब्दों में दिये। इसके पश्चात् सभा विसर्जित हुई। सुनती हूँ ऐसी क्रिया प्रतिवर्ष होती है। काशी की भविष्यवाणियाँ सब सत्य सिद्ध होती हैं। और कभी एकाध असत्य निकल भी जाये तो काशी उनका समाधान बड़ी योग्यता से कर देता है। काशी बड़ी पहुँच का आदमी है। गाँव में कहीं चोरी हो, काशी उसका पता देता है। जो काम पुलिस के भेदियों से पूरा न हो, उसे वह पूरा कर देता है। यद्यपि यह जाति का भर है तथापि गाँव में उसका बड़ा आदर है। इन सब भक्तियों का पुरस्कार वह मदिरा के अतिरिक्त और कुछ नहीं लेता। नाम निकलवाइये, पर एक बोतल उसको भेंट कीजिये। आपका अभियोग न्यायालय में है; काशी उसके विजय का अनुष्ठान कर रहा है। बस आप उसे एक बोतल 'लाल जल' दीजिये।

            होली का समय अति निकट है, एक सप्ताह से अधिक नहीं। अहा। मेरा हृदय इस समय कैसा खिल रहा है? मन में आनन्दप्रद गुदगुदी हो रही है। आँखें तुम्हें देखने के लिए अकुला रही हैं। यह सप्ताह बड़ी कठिनाइयों से कटेगा। तब मैं अपने पिया के दर्शन कर पाऊँगी।

 

तुम्हारी,

विरजन

 

(साभार : वरदान उपन्यास , मुंशी प्रेमचंद, साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर, संस्करण 1990, पृष्ठ-85/86)

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