बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

अक्टूबर 2024, अंक 52

 


शब्द-सृष्टि

अक्टूबर 2024, अंक 52

विशेषांक

ज्ञान, भारतीय ज्ञान परंपरा और ज्ञान साहित्य

लेखन, संकलन-संयोजन एवं संपादन –  डॉ. पूर्वा शर्मा / प्रो. हसमुख परमार

आरोह तमसो ज्योति:

इसी वेद-अभीप्सा के साथ

आलोक पर्व की मंगलकामनाएँ......


संपादकीय

खण्ड-1

1. ज्ञान

2. भारतीय ज्ञान परंपरा

3. वैदिक ज्ञान साहित्य

4. ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ : एक विरासत

5. जैन और बौद्ध दर्शन : कतिपय तथ्य

6. ज्ञान-विज्ञान के अन्य विषय-क्षेत्र (प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा के संदर्भ में)

7. भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली (गुरुकुलों का महत्व)

8. मध्यकालीन भारत : ज्ञान एवं शिक्षा के कुछेक संदर्भ

9. आधुनिक भारतीय ज्ञान-विज्ञान : सरोकार व उपलब्धियाँ

10. ज्ञान साहित्य

खण्ड-2  भारतीय ज्ञान-विज्ञान और चिंतन : कुछ प्रतिभाएँ 

1. स्वामी दयानंद सरस्वती

2. महान संत रामकृष्ण परमहंस

3. युग सृष्टा-युग दृष्टा स्वामी विवेकानंद

4. श्री अरविन्द घोष

5. गाँधी और गाँधीवाद

6. विनोबा भावे

7. डॉ. सी. वी. रमन

8. श्रीनिवास रामानुजन

9. डॉ. विक्रम साराभाई

10. डॉ. जगदीशचंद्र बोस

11. डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम

खण्ड-3 कुछ संदर्भ हिन्दी साहित्य से…..

1. सिद्ध साहित्य

2. नाथ साहित्य

3. संत काव्य [ ज्ञानाश्रयी शाखा]

4. गोस्वामी तुलसीदास का काव्य

5. सूरदास : भक्ति एवं कवित्त्व

6. बिहारी की बहुज्ञता

7. ‘व्यवहारविदे’ की दृष्टि से हिन्दी उपन्यास

8. हिन्दी हाइकु में पर्यावरणीय चेतना

9. ‘लोकवार्ता’ और ‘लोक साहित्य’

10. साहित्यिक हिन्दी



संपादकीय

संपादकीय

अज्ञान-अंधकार तथा ज्ञान-प्रकाश उभय शब्दयुग्मों में शब्दों की परस्पर प्रतीकात्मकता सर्वविदित है। इसी प्रतीकात्मकता के संदर्भ में उक्त शब्दों को पढ़ते-गुनते समय हमारे मन- मस्तिष्क में, हमारी चेतना में भारतीय मेधा के कतिपय महान सूत्र-मंत्र का सहज स्मरण स्वाभाविक है। यथा – तमसो मा ज्योतिर्गमय आरोह तमसो ज्योति: अप्प दीपो भवः,  अंधकार से जुझना है!, अंधकार पर प्रकाश की जीत प्रभृति, जो हमें प्रकाश की ओर, चेतना के संचार हेतु, ज्ञान की दिशा में अग्रसर होने, संवेदना-मनुष्यता को ज्यादा बलवती बनाने के लिए प्रेरित करते हुए अंधकार से, अज्ञान से, अमानवीयता से जुझने का, संघर्ष करने का बल प्रदान करते हैं।

वैसे दीपोत्सव है उजालों का महोत्सव । और इस पावन पर्व पर दीपमालाओं का, प्रकाश का और अमावस्या के घने अंधेरे को छँटने अगणित दीपों के ज्योतिपुंज की महत्ता व प्रासंगिकता, उसकी प्रतीकात्मकता के साथ और समय की अपेक्षा बहुत ही ज्यादा, मतलब पूर्णतः रहती है। जबकि ज्ञान-अज्ञान और अज्ञान को दूर कर ज्ञान की प्राप्ति की बात तो सदैव पूरी तरह से आवश्यक व प्रासंगिक । हाँ, ऊपर उल्लेखित प्रतीकात्मकता की दृष्टि से उक्त दोनों संदर्भों की चर्चा ‘दीपोत्सवपर कुछ ज्यादा ही रही है।

‘शब्द सृष्टिका यह 52 वाँ अंक आप सुधी पाठकों के सम्मुख ठीक आलोक पर्वके अवसर पर ही प्रस्तुत है। प्रस्तुत अंक विशेषतः ज्ञान-विज्ञान, दर्शन-चिंतन से संदर्भित विषय वस्तु को लेकर है। अंक की इस विषय सामग्री को लिखने एवं संकलित-संपादित करने में इस बार शब्द सृष्टि’ के परामर्शक तथा मेरे शोध-समीक्षा कार्य के कुशल मार्गदर्शक आदरणीय प्रो. हसमुख परमार जी  का भी बहुत ही ज्यादा सहयोग रहा एतदर्थ सरका आभार।

अंत में, इसी आशा के साथ कि प्रस्तुत ‘विशेषांकआपको पसंद आएगा । आपको पुनः एक बार आलोक पर्वकी अशेष मंगलकामनाएँ।

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डॉ. पूर्वा शर्मा

जन्म : 5 अक्टूबर, 1978  इंदौर (म.प्र.) 

शिक्षा : एम. ए., पीएच.डी. (हिन्दी), डिप्लोमा इन आर्किटेक्चर, कंप्यूटर एवं वास्तु में सर्टिफिकेट कोर्स, योग शिक्षक कोर्स

सृजन-लेखन-प्रकाशन :

   4 पुस्तकें

   36 शोध आलेख

   17 पुस्तक समीक्षा

   विविध पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में कविता, हाइकु, ताँका, चोका, सेदोका, माहिया, हाइबन, क्षणिका, लघुकथा, संस्मरण आदि से संबंधी अनेक रचनाएँ प्रकाशित

 यू ट्यूब चैनल ‘शब्द चितेरे’ एवं ‘कचनार’ से अनेक हाइकु और क्षणिकाओं का प्रसारण।  

सम्प्रति :

‘शब्द सृष्टि’ वेब पत्रिका

(ब्लॉग – https://shabdsrushtihindi.blogspot.com/) का संपादन

मेम्बर ऑफ़ बोर्ड ऑफ़ स्टडीज़ – एन. एस. पटेल आर्ट्स कॉलेज, आणंद (गुजरात)          

संपर्क :  201 एरीज-3, 42 यूनाइटेड कॉलोनी, नवरचना स्कूल के पास, समा, वड़ोदरा - 390 002 (गुजरात)

चलभाष :  09428174255

ई-मेल : purvacsharma@gmail.com   एवं  purvac@yahoo.com

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प्रो. हसमुख परमार

जन्म :  27 जनवरी, 1975 बड़ौदा जिले के करजण तहसील का एक गाँव- देथाण(गुजरात)

शिक्षा : एम. ए. , पीएच.डी., नेट 

लेखन-प्रकाशन :

  9 पुस्तकें

  50 शोध आलेख

शोध निर्देशन :

  पीएच. डी. - 5

  8 पीएच. डी. शोधार्थी कार्यरत

  एम. फ़िल. - 45

सम्प्रति : सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर (गुजरात) के हिन्दी विभाग में प्रोफ़ेसर (फरवरी 2002 से)

विशेष :

परामर्शक : ‘शब्द सृष्टि’ वेब पत्रिका

(ब्लॉग – https://shabdsrushtihindi.blogspot.com/ )

विभाग एवं विश्वविद्यालय की विविध अकादमिक समीतियों में सदस्यता

संपर्क : डी- 43, यूनिवर्सिटी स्टाफ़ कॉलोनी, वल्लभ विद्यानगर – 388120 (गुजरात)

चलभाष : 09909035053 

ई-मेल : hmparmar1975@gmail.com

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खण्ड-3

10

साहित्यिक हिन्दी

प्रयोग क्षेत्र के आधार पर  भाषा के निर्मित विविध रूपों में एक रूप है - साहित्यिक भाषा । भाषाविज्ञान कोश के अनुसार साहित्यिक भाषा का मतलब है- “किसी भाषा की वह विभाषा जो सर्वश्रेष्ठ समझकर साहित्य रचना के लिए प्रयुक्त की जाय तथा बोलचाल की अपेक्षा कुछ विशिष्ट हो । साहित्यिक या सर्जनात्मक भाषा में विशिष्ट शब्द-चयन, शैली वैविध्य, अर्थ की अभिव्यक्ति में अभिधा के साथ-साथ लक्षणा तथा व्यंजना की भी प्रधानता, अलंकारिता, काव्य-गुण जैसी विशेषताएँ होती हैं ।

डॉ.नगेन्द्र कहते हैं कि प्रयोजनमूलक हिन्दी के विपरित अगर कोई हिन्दी है तो वह है आनन्दमूलक हिन्दी । साहित्य की हिन्दी इसी आनंदमूलक हिन्दी से जुड़ी है ।

    विगत लगभग हजार-बारह सौ वर्षों के हिन्दी साहित्य को भाषागत वैविध्य की दृष्टि से देखें तो साहित्येतिहास के क्रमशः कालखण्डों में हिन्दी साहित्य की भाषा में परिवर्तन होता रहा है ।

आदिकाल के साहित्य में अर्धमागधी अपभ्रंश से प्रभावित भाषा, सधुक्कडी भाषा, अपभ्रंश भाषा जो प्राचीन हिन्दी, डिंगल भाषा, मैथिली व खड़ीबोली का प्रयोग । मध्यकाल में अवधी और ब्रज, रीतिकाल में ब्रज भाषा साहित्य की भाषा रही । आधुनिक काल में खड़ीबोली की प्रधानता ।

जैसा कि हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में साहित्य की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में खड़ीबोली का ही वर्चस्व रहा । काव्यभाषा के रूप में खड़ीबोली का क्रमबद्ध और व्यवस्थित विकास आधुनिक काल से मिलता है, परंतु हम यह भी देखते हैं और हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों ने बताया है-खड़ीबोली का प्रायः विकास, कम मात्रा में ही सही प्रारंभ से यानी आदिकाल से मिलता है । आदिकाल में नाथों-सिद्धों की बानियों में, खुसरो की हिन्दी रचनाओं में और मध्यकाल में संतों की वाणी में भी मिलता है । 

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खण्ड-3

9.

लोक-वार्ता’ और ‘लोक-साहित्य’

लोक-वार्ता’ के लिए अंग्रेजी में ‘Folk lore’ शब्द प्रयुक्त होता है । ‘लोक-वार्ता’ के मर्मज्ञ डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के मतानुसार- “ लोक-वार्ता एक जीवित शास्त्र है- लोक का जितना जीवन है उतना ही लोकवार्ता का विस्तार है । लोक में बसने वाला जन, जन की भूमि और भौतिक जीवन तथा तीसरे स्थान में उस जन की संस्कृति- इन तीनों क्षेत्रों में लोक के पूरे ज्ञान का अन्तर्भाव होता है, और लोकवार्ता का सम्बन्ध भी उन्हीं के साथ है ।”

दरअसल लोकवार्ता का विषय क्षेत्र काफी विस्तृत व वैविध्यपूर्ण है । लोकजीवन-लोक संस्कृति-लोकभाषा-लोकसाहित्य-सृष्टि से लोक के सरोकार सभी का समावेश इसमें होता है । डॉ. सत्येन्द्र ने लोकवार्ता के विषय को तीन भागों में विभक्त किया है- 1. लोक विश्वास और आचरण 2. रीतिरिवाज और 3. कहानियाँ,लोक गाथाएँ, गीत, कहावतें आदि ।

डॉ.श्याम परमार ने लोकवार्ता के विषयों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है- 1. लोकगीत, लोकगाथाएँ, कहावतें-पहेलियाँ आदि 2. रीतिरिवाज, पूजा-अनुष्ठान, व्रत आदि ।3. जादू-टोना, टोटके, भूतप्रेत संबंधी विश्वास 4. लोकनृत्य तथा नाट्य एवं आंगिक अभिनय 5. बच्चों के विभिन्न खेल, ग्रामीण अन्य खेल आदि ।

          लोकसाहित्य, लोकवार्ता का अभिन्न अंग है । साहित्य की दो धाराएँ-शिष्ट साहित्य और लोकसाहित्य । कहते हैं कि प्राचीनता, परिमाण एवं गुणवत्ता को लेकर लोकसाहित्य को शिष्ट साहित्य से कम नहीं आँका जा सकता । प्राचीनता के मामले में तो लोकसाहित्य शिष्ट साहित्य से भी बाजी मार लेता है । यहाँ तक कि यह साहित्य किसी न किसी रूप में शिष्ट साहित्य को भी प्रभावित करता रहा है । “ लोकसाहित्य शिष्ट साहित्य की, परिनिष्ठित साहित्य की आधारशिला है । लोक वेद मति मंजुल कूला सदृश वेद से भी पूर्व मौखिक परंपरा में प्रचलित व प्रतिष्ठित रहा है । ”( भरथरी लोकगाथा की परंपरा, डॉ.रामनारायण धुर्वे, पृ-39)

          लोक साहित्य या लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोक-नाट्य, लोक सुभाषित आदि लोकविधाओं में व्यक्त-निरूपित विषय की दृष्टि से देखें तो यह लोकजीवन-लोकसंस्कृति का दर्पण व प्रमाणिक दस्तावेज़ है । तात्पर्य यह कि लोक की वैयक्तिक अनुभूतियों से लेकर उसके बाह्य जीवन व्यवहार की अभिव्यक्ति इसमें होती है । लोक से संबंधी जितने पक्ष-पहलू होते हैं, लोक जिन तत्वों से रागात्मक एवं सामाजिक स्तर पर जुड़ा है, वह सब लोक साहित्य का विषय बना है । विद्वानों ने लोक साहित्य को लोक की प्रतिभा तथा उसका बहुआयामी ज्ञान का संचित कोष कहा है । लोकविधाओं की अनेकों रचनाओं में नीति-उपदेश-शिक्षा का, लोक की व्यावहारिक बुद्धि-ज्ञान के संदर्भ वर्णित हैं । साथ ही समाज विज्ञान,  मनोविज्ञान, विज्ञान, आयुर्वेद-चिकित्सा, प्रकृति-पर्यावरण, दर्शन-शास्त्र, इतिहास, धर्म आदि ज्ञान-विज्ञान विषयों-शाखाओं से जुड़े विविध तथ्यों-तत्वों का उल्लेख भी लोकसाहित्य में बराबर होता रहा है, जो इसके इन विषयों से गहरे-घनिष्ठ संबंध को दर्शाता है । 

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खण्ड-3

8

हिन्दी हाइकु में पर्यावरणीय  चेतना

‘पर्यावरण’ एक ऐसा शब्द है जो सम्पूर्ण सृष्टि को अपने में समाहित कर लेता है। मनुष्य पर्यावरण के बगैर नहीं रह सकता। मनुष्य के अच्छे-बुरे प्रत्येक मनोभावों की अभिव्यक्ति  साहित्य करता है। साहित्य में मनुष्य जीवन के सरोकारों की अभिव्यक्ति स्वाभाविक ही है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर पूरा विश्व चिंतित है, इसी तरह बड़ी सहज बात है कि हमारे साहित्यकारों का प्रकृति एवं पर्यावरण की सुंदरता के प्रति आकर्षण व अनुराग तथा इसकी संरक्षण संबंधी चिंता-चिंतन जो उनके सृजन कर्म में पहले से ही दिखाई देता है।

वृक्ष काटते / आत्मा हचमचायी / मित्र से आघात । 

डॉ. भगवतशरण अग्रवाल

इक्कीसवीं सदी में भूमंडलीकरण, औद्योगिकरण आदि के चलते प्राकृतिक असंतुलन और पर्यावरण प्रदूषण में काफी वृद्धि हुई। इसने भारतीय संस्कृति, जीवन, रहन-सहन, भाषा आदि को प्रभावित करके उसे कहीं-न-कहीं नुकसान भी पहुँचाया है। जिस गति से हम आधुनिक बनने की होड़ में हमारे प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास करते जा रहे हैं यदि उस गति से हम चलते रहे तो शीघ्र ही हमारी धरती पर कोई भी स्थान प्रदूषण से मुक्त नहीं रहेगा और इस पृथ्वी के विनाशको रोकना मुश्किल होगा। शायद कोई भी प्राणी पृथ्वी पर जीवित रह पाएगा । प्रकृति की सुन्दरता का वर्णन करने वाले हाइकुकार आज प्रकृति को दूषित होते हुए देखकर चिंतित है । जंगलों को काटते चले जाना और हर जगह कंक्रीट के नगर बसा देना, एक गंभीर समस्या बन चुकी है ।

उकडूँ बैठी / शर्मसार पहाड़ी / ढूँढती साड़ी । 

उर्मिला कौल

आज हम विभिन्न प्रकार के प्रदूषण की समस्या से जूझ रहे हैं । इसकी वजह से पर्यावरण को तो नुकसान हो ही रहा है, साथ में मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी इसका असर दिखाई दे रहा है । पर्यावरण प्रदूषण से होने वाले विभिन्न प्रकार के रोगों से तो हम सभी परिचित ही हैं।

दूषित हवा / पूरी रात खाँसता / बेचारा चाँद ।  

– रचना श्रीवास्तव

बढ़ती हुई जनसंख्या और सीमित संसाधन जिससे प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता जा रहा है।  औद्योगिक कारखानों से निकला कूड़ा-कचरा, गन्दा जल, विषैले रासायनिक पदार्थ, मल-मूत्र, शव, एवं अन्य दूषित वस्तुओं आदि को पानी के स्रोत में प्रवाहित करने से पानी तो प्रदूषित होता ही है साथ ही इसके कारण कई जलीय जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ भी लुप्त होने की कगार पर है। और ऐसा ही चलता रहा तो नदियाँ भी सिर्फ नक़्शे में ही नज़र आएँगी। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि जल प्रदूषण को रोका नहीं गया तो अगला विश्व युद्ध जल के लिए हो सकता है।      

गंदला पानी / रो रहीं मछलियाँ / वो जाएँ कहाँ ! 

 – डॉ. हरदीप कौर सन्धु

एक तरफ मनुष्य धरती की कोख से खनन कर उसमें से खनिज पदार्थों को निकाल कर अपने स्वार्थ की पूर्ति कर रहा है तो दूसरी ओर अनेक रासायनिक-रडियोधर्मी पदार्थों, कीट नाशकों के प्रयोग से मृदा को प्रदूषित भी कर रहा है और उसकी उपजाऊ क्षमता कम करता जा रहा है। वनों के कटाव का असर बारिश एवं वन्य जीवों पर तो पड़ ही रहा है साथ ही मृदा अपरदन से मिट्टी भी बही चली जा रही है। एक ही नहीं अनेकों दुष्परिणाम है जो सभी एक दूसरे से संबंधित है।  

कैसा उत्थान ? / छीनते परिंदों से / नीड़ व गान । 

  कृष्णा वर्मा

हम प्रकृति की गोद में पैदा हुए हैं इसलिए चिड़िया का चहचहाना नदी की कल-कल, हवा के सायं-सायं का स्वर सभी से हम भली-भाँति परिचित हैं, लेकिन आज कारखानों एवं वाहनों का शोर, हर जगह पर मशीनों का शोर, कहीं पर डीजे का शोर आदि से ध्वनि प्रदूषण पैदा होता है जो मनुष्य को ही नहीं अपितु अन्य जीव सृष्टि को भी नुकसान पहुँचाता है ।  सोने पे सुहागा यह मोबाइल का स्वर, मानव को कहीं भी चैन नहीं है। मनुष्य अपनी भौतिक सुविधा के लिए भिन्न-भिन्न उपकरणों एवं उत्पादों का उपयोग करता है जिनमें से कई उपकरणों से हानिकारक (क्लोरो-फ्लोरो आदि) गैस ओज़ोन परत को क्षति पहुँचाती है । ग्लोबल वार्मिंग भी इसका दुष्परिणाम है। जंगलों के लगातार काटे जाने से पशु-पक्षियों की कई प्रजातियाँ लुप्त होती जा रही हैं और कई तो पहले ही लुप्त हो चुकी है । वनों से प्राप्त होने वाली कई बहुमूल्य जड़ी-बूटियाँ और वनस्पतियाँ भी नष्ट हो रही हैं । वनों के नष्ट होने से जैविक संतुलन भी बिगड़ता जा रहा है, साँस लेने वाली प्राणवायु ऑक्सीजन भी कम हो रही है ।

पराग कहाँ ? / लायी बारूदी गंध / बासंती हवा। 

– डॉ. पूर्वा शर्मा

          हाइकुकारों ने प्रकृति के प्रति अपना प्रेम सदा ही प्रस्तुत किया है ।  प्रकृति के मनोहारी वर्णन करने वाले हाइकुकार आज प्रदूषण के परिणामों एवं उससे होने वाले नुकसान को भी अपने काव्य में प्रस्तुत कर रहे हैं । सभी हाइकुकार ने बहुत ही संवेदनशील रूप से प्रदूषण और उससे होने वाले परिणामों की ओर संकेत किया है ।  

अशुभ दौर /आश्विन में कोहरा / माघ में बौर । 

डॉ. सुधा गुप्ता

आज हमें प्रकृति के संरक्षण के बारे में सोचते हुए ही विकास के लिए कदम उठाने होंगे ।  विकास के नाम पर प्रकृति के साथ कोई छेड़खानी नहीं चलेगी । आज मानव कई प्रयासों में जुटा है कि पर्यावरण को कम नुकसान पहुँचाए और अपनी धरती को जीने योग्य बनाए । इसी को लेकर समाधान हेतु आजकल इको फ्रेंडली वस्तुओं का निर्माण हो रहा है। प्रकृति की सुरक्षा की जिम्मेदारी तो मानव को ही उठानी होगी । हम अपने पर्यावरण को प्रदूषण से बचाए बस यही संकल्प है ।  

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अक्टूबर 2024, अंक 52

  शब्द-सृष्टि अक्टूबर 202 4, अंक 52 विशेषांक ज्ञान, भारतीय ज्ञान परंपरा और ज्ञान साहित्य लेखन, संकलन-संयोजन एवं संपादन –   डॉ. पूर्...