सोमवार, 30 सितंबर 2024

सितंबर 2024, अंक 51



शब्द-सृष्टि

सितंबर 2024, अंक 51

संपादकीय – डॉ. पूर्वा शर्मा

भाषा 

शब्द संज्ञान – ‘अति आवश्यक’ तथा ‘अत्यावश्यक’ – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

व्याकरण विमर्श – वाक्य विचार – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

हिंदी दिवस विशेष – ऐसी बानी बोलिये... – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

साहित्य

आलेख – मछलियाँ और आदिवासी कविता – प्रो. शिवप्रसाद शुक्ल

ताँका – भीकम सिंह

पुस्तक चर्चा – आदिवासी जीवन का दस्तावेज़-‘कलम की तलवारें’(उषाकिरण आत्राम) – डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

संस्मरण – फादर कामिल बुल्के की जन्म जयंती पर – सुरेश चौधरी

लघुकथा – विरासत – गोपाल जी त्रिपाठी

आलेख – मानवता की संस्कृति : कामायनी – कुलदीप आशकिरण

लघुकथा – हकीकत – प्रीति अग्रवाल

साहित्येतर

धार्मिक आध्यात्मिक

अनंत चतुर्दशी 2024 – सुरेश चौधरी

लोक संस्कृति 

लोक परंपरा : ‘नांदुरवादेव’ तथा मृत्यु-पर्व : ‘दीयाळो’ – विमलकुमार चौधरी

सामयिक टिप्पणी – बुलडोज़र के आगे बोतल : लूट सके तो लूट! – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

आलेख – संघर्षरत :आदिवासी वर्ग – रूपल उपाध्याय


संपादकीय

डॉ. पूर्वा शर्मा

त्योहारों एवं विशेष दिवसों का बाहुल्य भारत वर्ष की पहचान-विशेषता है। प्रत्येक ऋतु एवं उसमें आने वाले-मनाये जाने वाले कतिपय दिन हमारे जीवन में विशेष स्थान रखते हैं। भारत में प्रत्येक छोटे-बड़े पर्व-त्योहार-दिवस के साथ कोई न कोई कहानी या भावना अवश्य जुड़ी हुई है। यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यहाँ की हवा की महक ही विशेष दिवसों-त्योहारों का आभास करवाने में समर्थ है। सितंबर माह के प्रथम सप्ताह में ‘गणपति बप्पा मोरिया’ की धुन हर गली में गूँजती रही और उसके साथ ही ‘मोदक’ की मनमोहक महक भी। गणेश चतुर्थी से लेकर अनंत चतुर्दशी तक के यह दस दिवसों को भारत के अधिकांश भाग में एक उत्सव की भाँति मनाया जाता है। ‘गणेश उत्सव’ को राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कराने में बाल गंगाधर तिलक का योगदान नहीं भुलाया जा सकता। यह त्योहार हमें एक होने और सबके साथ मिलकर सुख-दुख बाँटेने का, अपनी संस्कृति को समझने-समझाने का अवसर प्रदान करता है।

भारत वर्ष की पहचान ‘हिन्दी भाषा’ भारत में ही नहीं अपितु आज पूरे विश्वभर में अपनी छाप छोड़ चुकी है। 14 सितंबर को मनाया जाने वाला ‘हिन्दी दिवस’ हम भारतवासियों के लिए किसी उत्सव-पर्व से कम नहीं। ‘हिन्दी पर्व’ या यूँ कहिए ‘भाषा पर्व’ के रूप में यह विशेष दिवस हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है। ‘हिन्दी दिवस’ मनाने के पीछे की कहानी, ‘राजभाषा हिन्दी’ की महिमा-गरिमा से हम सभी भली-भाँति परिचित है। यह पर्व एक राष्ट्रीय पर्व है जो हमें अपनी भाषा-संस्कृति से जोड़े रखने का कार्य करता है। वैसे तो हमारे इस देश में प्रतिदिन ही हिन्दी के महत्त्व व उपयोगिता को देखा जा सकता है लेकिन 14 सितंबर के इस विशेष दिवस पर विभिन्न संस्थानों, कार्यालयों आदि में इसके निमित्त आयोजनों को देखा जा सकता है। हिन्दी के प्रयोग, हिन्दी के विकास में आने वाली चुनौतियों-बाधाओं को लेकर चिंतन के साथ-साथ चिंता प्रकट करने का यह विशेष दिन है। हिन्दी हमारी अपनी भाषा है, तो इस विशेष दिन के अवसर पर पूरे वर्षभर हिन्दी की सेवा करने का संकल्प ही सच्चे अर्थों में हिन्दी दिवस मनाना है।

भारतीय संस्कृति की एक और विशेषता है – सभी को मान-सम्मान देना। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, किसी भी धर्म-संप्रदाय-वर्ण आदि सभी के प्रति समान दृष्टि एवं उनको सम्मान देना हमारी परंपरा है। किसी भी धर्म-वर्ग अथवा पशु-पक्षियों को ही नहीं अपितु हम अपने मृतकों, अपने पूर्वजों के प्रति भी अपनी कृतज्ञता को प्रकट करने से भी पीछे नहीं हटते। वैसे तो हम पूरे वर्ष में कभी भी अपने पूर्वजों-पितरों के प्रति अपनी कृतज्ञता को ज्ञापित करते ही हैं लेकिन भारतीय संस्कृति में इस कार्य के लिए भाद्र की पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास कृष्ण पक्ष की अमावस्या (सर्व पितृ /महालया अमावस्या) तक के कुल विशेष सोलह दिन-तिथियों को तय किया गया है, इसे ‘श्राद्ध पक्ष’ कहा जाता है। ‘श्राद्ध पक्ष’ को ‘पितृ पक्ष’ भी कहा जाता है, इसके लिए एक लौकिक शब्द ‘कनागत’ भी प्रचलित है। कनागत अर्थात कन्या गत यानी सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है।

 औरंगज़ेब-शाहजहाँ की एक कथा का जिक्र यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा – इस बात से सभी भली-भाँति परिचित हैं कि औरंगज़ेब ने सत्ता के लालच में अपने भाइयों, अपने रिश्तेदारों को न केवल मौत के घाट उतार दिया बल्कि अपने पिता शाहजहाँ को जेल में बंद कर दिया था। औरंगज़ेब ने शाहजहाँ को जेल में जौ की भूसी वाली सूखी रोटी भेजी और उस सूखी रोटी के दो निवाले बड़ी मुश्किल से शाहजहाँ पानी के साथ जैसे-तैसे गटके, इसके पश्चात शाहजहाँ ने अपने पुत्र औरंगज़ेब को एक चिट्ठी लिखी, जिसमें लिखा –

तुमसे तो अहल-ए-हुंदुस अच्छे हैं

अर्थात तुमसे तो वह हिन्दू अच्छे हैं जो मरने के बाद भी अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर उन्हें तृप्त करते हैं और तुम तो अपने जीवित पिता को न खाने योग्य ऐसी सूखी रोटी भेज रहे हो।

‘श्राद्ध’ का अर्थ श्रद्धा से है। ‘श्रद्धा क्रियते इति श्राद्धम्’ – जो श्रद्धा पूर्वक ही किया जाता है। यानी अपने पितरों-पूर्वजों के प्रति आपकी सच्ची श्रद्धा ही श्राद्ध है। वैसे तो श्राद्ध पक्ष से संबंधित अनेक धार्मिक-पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं लेकिन यदि हम इस परंपरा को वैज्ञानिक अथवा तर्कपूर्ण ढंग से समझने का प्रयास करें तो हम पाएँगे कि हमारे पूर्वजों ने सोच-समझकर बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से परम्पराएँ बनाईं। इस बात को हम नकार नहीं सकते कि हमारा अस्तित्व कहीं न कहीं हमारे पूर्वजों की वजह से है और उनका डी. एन. ए. हमारे भीतर विद्यमान है। हो सकता है कि हमारे नाक-नक्श या हमारी बुद्धि, कोई कला-हुनर उनके तरह ही हो। दरअसल यह पितृपक्ष अथवा श्राद्ध पक्ष उन्हें याद करने का, उनके गुणगान करने का एक तरीका है। इस बहाने हम अपने पूर्वज जिन्हें हमने कभी नहीं देखा उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से हमारे चित्त को परम शांति प्राप्त होगी। इस तरह से श्राद्ध कार्य करते हुए जब हमारे परिवार के बच्चे आदि सभी सदस्य हमें देखेंगे तो सोचेंगे कि हमारे माता-पिता अपने दादा-दादी-अपने पूर्वजों आदि का कितना मान-सम्मान करते हैं। यह भी माना जाता है कि अपनी तीन पीढ़ियों के पूर्वजों का गुण-गान करने से हमारे कुल के गौरव में वृद्धि तो होगी ही साथ ही साथ इन परंपराओं का निर्वाह करने का उत्साह भी बढ़ेगा। विचारणीय बात यह है कि जब कोई वर्तमान में मृतक के प्रति इतना सम्मान दे रहा है तो जीवित के प्रति उनका कितना मान-सम्मान होगा।

श्राद्ध पक्ष में हव्य और कव्य को महत्त्व दिया गया है। हव्य अर्थात यज्ञ करना, इसके द्वारा यज्ञ में आहूति देने  से वातावरण शुद्ध होता है एवं कव्य यानी भोज्य पदार्थ देकर समाज को लाभान्वित करना, परोपकार करना है। यह भोज्य पदार्थ ब्राहमण के अतिरिक्त गाय-कुत्ते, कीट-पतंग-कौवे आदि को दिया जाता है। यहाँ ब्राह्मण शब्द से तात्पर्य है जो ब्रह्म ज्ञानी है, जिसमें सत्विकता है, जो विद्वान है, परोपकारी है, धार्मिक है एवं जीतेंद्रिय है। इसे भी यदि हम इस तरह से समझें कि आवश्यकतानुसार किसी भी जरुरतमन्द को कोई भी वस्तु देने अथवा भोज्य पदार्थ-प्रसाद को अपने पुरुषार्थ की कमाई से देकर परोपकार करना है। इसके अतिरिक्त पानी के साथ काले तिल लेकर तर्पण किए जाने का विधान भी मिलता है।  भारतीय संस्कृति में श्राद्ध में चावल की खीर बनाने का विधान है। अब यदि हम आयुर्वेद की दृष्टि से देखें तो खीर पित्त के शमन में सहायक है क्योंकि शरद ऋतु में पित्त बढ़ता है । शरद ऋतु को वैद्यों की माता कहा जाता है अर्थात इस समय सबसे ज्यादा रोग होने की संभावना होती है।  इस तरह देखा जाए तो इस ऋतु में खीर खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी है।

माना जाता है कि मरने के बाद जीवात्मा नया शरीर धारण कर लेती है तो फिर श्राद्ध क्यों? भोजन आदि का दान क्यों? दरअसल देखा जाए तो यह हम अपने लिए ही कर रहे हैं, यह हमारे पूर्वजों के प्रति सम्मान है अर्थात हमारा स्वयं का सम्मान है। ‘श्रद्धा चेतस संप्रसाधन’ – श्रद्धा से हमारे चित्त में परम सुख-शांति-तृप्ति मिलती है। श्राद्ध के पीछे यही उत्तम भाव है। सर्व पितृ अमावस्या का दिन श्राद्ध की सोलह तिथियों में से अंतिम तिथि मानी जाती है। इसके अगले दिन से शारदीय नवरात्र का आरंभ हो जाता है।

डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा 

 



आलेख

संघर्षरत :आदिवासी वर्ग

रूपल उपाध्याय

भारतीय संस्कृति कोष के अनुसार आर्य और द्रविड़ इन दो मानव समाजों को छोड़कर इनसे भी पूर्व भारत में रहने वाले अथवा दूसरे देश से आकर इन वन -पर्वतों में रहने वाले ये मानव समूह आदिवासी कहलाते हैं। इन्हें आदिवासी, वनवासी,गिरिजन और सीमांतवासी आदि नाम दिए गए हैं।विमर्श का अर्थ किसी बात पर विचार करना या उसके संबंध में परामर्श देना माना जाता है ।

आदिवासी समाज का इतिहास उतना ही पुराना माना जाएगा जितना की मानव की उत्पत्ति का। मानव की उत्पत्ति के साथ ही आदिवासी समाज की सभ्यता का इतिहास जुड़ा है। आदिवासी जाति पाँच हज़ार वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता और संस्कृति को संजोए हुए हैं। रामदयाल मुंडा का ग्रंथ "आदिधरम" आदिवासी समाज की प्राचीनता को दर्शाता है। आज भूमंडलीकरण का अश्वमेध यज्ञ निर्बाध रूप से चल रहा है जिसमें मूल्यों,अवधारणाओं एवं संस्कृति के आयामों की आहुति दी जा रही है।औद्योगिक क्रांति जहाँ अन्य सामाजिक वर्गों के लिए नए अवसर लेकर आई वही यह वनवासियों के विस्थापन का दंश बन समक्ष आई ।

आदिवासी वर्ग अपना सरल एवं साधारण जीवन व्यतीत करता आया है ।यह प्रकृति के सहचर हैं।पेड़ -पौधे, झील ,सूर्य ,चंद्र ,नदी ,झरना ,सरोवर, कंद-मूल, भेड़ -बकरी चराना, मेहनत करके अपना जीवनयापन करना और नृत्य- संगीत एवं महुआ रसपान करके अपनी थकान मिटाना यह इनकी दिनचर्या के अंतर्गत आतीं थी किंतु जैसे -जैसे वृक्ष कटे वैसे- वैसे इनके जीवन से इनके अधिकार भी कटते गए ।यह छिन्न-भिन्न होकर यहाँ- वहाँ जाने लगे।आदिवासी जाति की शाखाएँ लगभग हर क्षेत्र विशेष में स्थित हैं। जैसे- उत्तर और पूर्वोत्तर क्षेत्र में भेरिया,नागा व थारू आदि जनजातियाँ बसती है ,वही मध्यक्षेत्र में संथाल ,मुंडा ,भील व गोंड आदि जनजातियाँ निवास करती है ।वहीं पश्चिमक्षेत्र में कटकरी तथा दक्षिण क्षेत्र में कोटा ,इरूला आदि जनजातियों निवास करती हैं। "भारत में आदिवासियों की अनेकों जातियाँ, विभिन्न समुदाय अनादिकाल से चले आ रहे हैं। आज भी उनके वंशज अपनी परंपरा का पूर्ण रूपेण निर्वाह कर रहे हैं।आदिवासियों के इन जातियों में कोल,किरात,भील,उरांव,कोरबा,बोडा ,संथाल,कोकरू, गोंड, मुंडा,कबूतरा,वारली,गुलगुलिया,नागा,धारूँ , खोंड ,मीणा आदि प्रमुख है ।"1 समाज के ठेकेदारों ने इन्हें सदैव मुख्यसीमा से बाहर का ही रास्ता दिखाया है।इन आदिवासी समाज वर्ग के पास इनकी खुद की एक सत्ता थी। यह सत्ता स्वतंत्र थी जो प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ी थी ।जिन पर उनको आधिपत्य प्राप्त था किंतु साम्राज्यवादी ताकतों तथा औपनिवेशीकरण के चलते इन आदिवासी वर्ग पर शोषण का कहर बरस पड़ा।जिसका संघर्ष वे अनादि काल से करते आ रहे हैं।

    आदिवासी जनजातियों में स्थित माँ एवं उसके बच्चे का वर्णन भवानी प्रसाद मिश्र ने इस प्रकार किया है -

" गाँव ...इसमें झोपड़ी है,  घर नहीं है।

 झोपड़ियों के पटकियाँ है,दर नहीं है।

 धूल उड़ती है, धुएँ से दम घूटा है ।

मानवों के हाथों से मानव लूटा है।

 सो रहा है शिशु कि माँ चक्की लिए है।

 पेट पापी के लिए पक्की लिए है।"2

        पर्यावरण से लेकर नर -नारी,संस्कृति,कला,नृत्य,संगीत ,सभ्यता,परिवेश तथा आदिवासी समाज के हर पक्षों को क्षति पहुँचाई गई है।यह संघर्ष आदिवासी समाज के अस्तित्व एवं अस्मिता का है।आदिवासी समाज विस्थापन और अस्मिता के अधिकारों के लिए आज भी संघर्षरत है।

        यह वनवासी मानव मन के एक साफ दर्पण का पर्याय बन कर हमारे समक्ष आते हैं। यह आदिवासी वर्ग हमें बहुत कुछ सिखाते हैं। प्रकृति से जुड़े हर तत्व का पूजनीय स्थान बताना हो ,चाहे सूर्य ,तारे ,नक्षत्र हो ,नदी हो, झरने हो ,ज़मीन ,आसमान हो इन सब का पूजनीय स्वरूप की नींव इस वर्ग ने रखी। पशुपालन व्यवस्था हो या खेती-बाड़ी, चित्र लिपि हो ,नृत्य -संगीत हो इन सब प्रवृत्तियों के यह सूत्रधार है।यह आत्मनिर्भरता सिखाते हैं ,अपने अधिकारों के प्रति सतर्कता सिखाते हैं,अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाते हैं, एकता का पाठ सिखाते हैं,प्रकृति के सानिध्य की गरिमा सिखाते हैं, प्रकृति एवं मानव के अन्तर्सम्बन्धों के जरिए नए ज्ञान की शिक्षा देते हैं,अपनी अस्मिता व गौरव की रक्षा करना सिखाते हैं, यह भारतीय संस्कृति की नींव को उजागर करना सिखाते हैं ,यह ईश्वर द्वारा सौंपी हुई मानवीय मूल्यों का सम्मान करना सिखाते हैं ।

        यह वर्ग किसी भी समुदाय से कोरी संवेदनशीलता की अपेक्षा नहीं रखता। यह अपना अधिकार जानता है व जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्ति की प्रतीक्षा करता है। रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित "रश्मिरथी" के तृतीय सर्ग में हम भगवान कृष्ण के मुख से यह शब्द सुनते हैं -

'दो न्याय अगर तो आधा दो,

पर, इसमें भी यदि बाधा हो,

तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

रक्खो अपनी धरती तमाम।

हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!'

        यह इस बात का द्योतक है कि जब भगवान कृष्ण भी मनुष्य का अवतार लेकर पृथ्वी पर आते हैं तो भगवान को भी अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठानी पड़ी थी।अपनी माँग को सामने रखना पड़ा और इसी का पर्याय हमें आदिवासी विमर्श में साफ़- साफ़ दिखता है।डॉ.मायाप्रकाश पांडेय इस विषय में लिखते हैं कि -"आदिवासियों का विरोध सत्ता और राजकाज से नहीं था उनका विरोध तो साम्राज्यवादी व्यवस्था व सामंती व्यवस्था के खिलाफ था।वे अपने विरुद्ध हो रहे शोषण, अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठा रहे थे ।वे समाज में समान रूप से जी सकें, उनके साथ भी समाज में आदमी की तरह व्यवहार किया जाए, उन्हें भी मानव समझा जाए ,आज भी उनका संघर्ष इसी के लिए है।"3

        अनेकता में एकता की मिसाल कायम करते हुए भारतवर्ष में आदिवासी वर्ग अपने अधिकारों की माँग करता है। विभिन्न वर्गों में विभक्त होते हुए वर्ग वर्ण में परिवर्तित हुए, वर्णों से जाती ,उपजातियाँ तथा प्रजातियाँ बनी और हर वर्ग,समाज, जाति ,प्रजाति  ,उपजाति का अपना स्वतंत्र अस्तित्व रहता है। उनका रहन-सहन ,परिवेश,विचारधाराएँ मान्यताएँ,सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों का विकास भी अलग-अलग होता है । डॉ.कल्पना  गवली लिखतीं हैं कि -"विश्व के अनेक भागों में आज भी ऐसी आदिवासी जन-जातियाँ पाई जाती है जो संभवतःवर्तमान समय में भी 'पाषाणयुग' में रह रही हैं। धरती के प्रत्येक भाग में सभ्यता का विकास समान गति से नहीं हुआ। कहीं पहले और कहीं बाद में आदिवासी मानव -समाज सभ्यता की ओर बढ़े ।उन्होंने खेती करना सीखा, पशुपालन एवं अपनी बस्तियाँ बसायी।"4

        कई रचनाकारों ने आदिवासी समुदाय पर अपनी सशक्त विचारों की कलम चला कर समाज को एक कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है और यह प्रश्न उपस्थित किया है कि कब तक यह आदिवासी वर्ग अपने अधिकारों से अपने सामान्य जीवन जीने के हक से वंचित रहेगा? कबीरदास जी कहते हैं कि-'जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।' मनुष्य सदैव से संवेदनशील प्राणी रहा है इसीलिए क्रोध के साथ-साथ वात्सल्य भाव की अनुभूति तथा हर भावों को स्वीकार करके उस पर अपनी प्रतिक्रिया करने की प्रयास आदि  सब स्वाभाविक प्रक्रिया के अंतर्गत आती है। समय-समय पर कई कवियों ने यातना पीड़ित वर्ग के लिए आशा रूपी द्वार खोले हैं ।लीलाधर जगूड़ी जी लिखते हैं कि-

 "मैं वहाँ तुम्हारे दिमाग में

जहाँ एक मरुस्थल है

आना चाहता हूँ

मैं आऊँगा

मगर उस तरह नहीं

बर्बर लोग जैसे कि पास आते हैं

उस तरह भी नहीं

गोली जैसे कि निशाने पर लगती है।

 मैं आऊँगा

आऊँगा तो उस तरह

जैसे कि हारे हुए

थके हुए में दम आता है।"5

        समय-समय पर कई हिंदी साहित्यकारों ने आदिवासी वर्ग के विभिन्न प्रश्नों को विभिन्न दृष्टिकोण से उनके कल्याण की भावना को ध्यान में रखते हुए अपनी कलम रूपी शक्ति का परचम लहराया है। उदाहरण स्वरूप - गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'रामचरितमानस' में निषादराज एवं शबरी का स्नेह वर्णन। महाश्वेता देवी-'अग्निगर्भ',मैत्रेयी पुष्पा -'इदन्नमम',संजीव-'धार',वृंदावनलाल शर्मा-'कचनार',फणीश्वरनाथ रेणु -'मैला आँचल',नागार्जुन-'वरुण के बेटे', डॉ.मायाप्रकाश पांडेय- 'हाशिये का समाज एवं आदिवासी साहित्य',रांगेय राघव -'कब तक पुकारूँ',डॉ.कल्पना गवली -'आदिवासी संस्कृति तथा मौखिक साहित्य' इत्यादि अनेक रचनाकारों ने अनेक विधाओं में एवं अनेक संदर्भों में आदिवासी समाज की पीड़ा, वेदना तथा प्रश्नों को अपने कलम द्वारा उजागर करने का प्रयत्न किया है।द्रोणाचार्य द्वारा भील आदिवासी जाति के एकलव्य से गुरु दक्षिणा में अंगूठा माँग कर इन जातियों के साथ चले आ रहे छल कपट का प्रमाण दिया। भगवानदास पटेल द्वारा संकलित 'भीलों का भारथ' यह भील लोकगीतों पर आधारित है। जिसमें महाभारत की कथाओं का अलग दृष्टिकोण से वर्णन किया गया है।भुखमरी ,गरीबी,कुपोषण,बीमारी ,शोषण,अशिक्षा, उपेक्षा और विस्थापन का शिकार यह वर्ग बना है। सत्ताधारीओं के पास इन सभी जानकारियों की कोई कमी नहीं है किंतु राजनैतिक ,सामाजिक, भौगोलिक,आर्थिक ऐसे कई कारणों के दुष्प्रभाव से छिन्न-भिन्न होकर आदिवासी समाज अपने अधिकारों को लेकर सदैव भारतीय समाज के सामंती ढाँचे के हाशिए पर रहा है। "आदिवासी समाज दोहरी लड़ाई लड़ रहा है एक तो वह अपनों के बीच अपने पिछड़ेपन से और दूसरी बाहर की दुनिया से जो उसे आगे बढ़ने से रोक रहे हैं ।आदिवासी समाज में से बुद्धिजीवी, लेखक ,साहित्यकार ,चिंतक निकल कर आ रहे हैं और अपने समाज को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। अन्याय ,अत्याचार ,ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं ।अपने अधिकारों की माँग कर रहे हैं। सरकार भी आदिवासी जनजातियों के विकास के लिए अनेकों परियोजनाएँ चला रही है जिससे लाभान्वित होकर यह समाज कष्टमुक्त हो रहा है। सरकार भी इनकी सुरक्षा के प्रति सजग है ,उनके विकास के लिए हरसंभव कदम उठाए जा रहे हैं ।सभी के प्रयत्नों से यह आदिवासी समाज जल्द ही मुख्यधारा में आएगा और सभी की तरह वह भी अपनी आवाज़ बुलंद करेगा।"6

    डॉ. मायाप्रकाश पांडेय जी के इस आशावादी दृष्टिकोण का समर्थन देते हुए मैं अपने विचारों को विराम देती हूँ ।

संदर्भ:

हाशिये का समाज एवं आदिवासी साहित्य- डॉ.मायाप्रकाश पांडेय, पृष्ठ संख्या-29, संस्करण :प्रथम 2022

समकालीन सृजन ,भवानी प्रसाद मिश्र के आयाम, संपादक -डॉ. शंभुनाथ, पृष्ठ संख्या- 249

हाशिये का समाज एवं आदिवासी साहित्य- डॉ.मायाप्रकाश पांडेय, पृष्ठ संख्या-28, संस्करण :प्रथम 2022

आदिवासी संस्कृति तथा मौखिक साहित्य- डॉ. कल्पना गवली, प्रस्तावना, पृष्ठ संख्या -11

हिंदी- कक्षा 9 आऊँगा (कविता)- लीलाधर जगूड़ी, पृष्ठ संख्या- 31 ,गुजरात राज्य शाला पाठ्यपुस्तक मंडल गांधीनगर 382010

हाशिये का समाज एवं आदिवासी साहित्य- डॉ.मायाप्रकाश पांडेय, लेखकीय, पृष्ठ संख्या-22, संस्करण :प्रथम 2022


रूपल उपाध्याय

शोधार्थिनी

हिंदी विभाग, कला संकाय ,

महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय ,बड़ौदा, गुजरात

सामयिक टिप्पणी

बुलडोज़र के आगे बोतल : लूट सके तो लूट!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

हाल ही में आंध्र प्रदेश में गुंटूर के बहादुर नागरिकों द्वारा 50 लाख रुपये मूल्य की शराब की बोतलों को नष्ट करने के थकाऊ काम से स्थानीय अधिकारियों को मुक्त करने की ज़िम्मेदारी लेने की घटना से यह स्पष्ट हो गया है कि राज्य को अपशिष्ट प्रबंधन के प्रति अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना चाहिए। वास्तव में, वह घटना जिसमें बहादुर आत्माएँ बुलडोज़र के अपमानजनक जबड़े से शराब की बोतलों को बचाने के लिए टिड्डियों की तरह झुंड में आ गईं, सरकार के लिए अपने तरीकों का पुनर्मूल्यांकन करने का अवसर प्रस्तुत करती है।

कौन नहीं जानता कि शराब महँगी और सर्वकालिक माँग वाली वस्तु है। माना कि आजकल सर्वत्र बुलडोज़र न्याय की जय-जयकार है, फिर भी क्या सदा चुनावी मूड में रहने वाले विराट महादेश में इस अमूल्य रत्न को इस तरह नष्ट किया जाना चाहिए! जबकि इसे समाज की ‘भलाई’ के लिए आम जनता में वितरित किया जा सकता है। रेवड़ी ही क्यों, शराब क्यों नहीं?

सबसे पहले, अच्छी शराब को बरबाद करने की तथाकथित बुद्धिमत्ता पर विचार करें। बेशक, इरादा नेक है: विचाराधीन बोतलें या तो ज़ब्त की गई प्रतिबंधित वस्तुएँ थीं या एक्सपायर हो चुकी थीं, जो बिक्री या उपभोग के लिए अनुपयुक्त थीं। फिर भी, जैसा कि जनता के हाल के वीरतापूर्ण प्रयासों से पता चला है, यह निर्णय बहुत जल्दबाज़ी में लिया गया था। साधनसंपन्न स्थानीय लोगों ने स्पष्ट रूप से यह निर्धारित करने की अपनी अचूक क्षमता का प्रदर्शन किया है कि क्या पीने योग्य है। उन्होंने एक अच्छी तरह से प्रशिक्षित मिलिशिया की शालीनता और गति के साथ बोतलें लूटीं। सयानों को उनकी इस दक्षता की प्रशंसा करनी चाहिए, जो विडंबना यह है कि उन्हें रोकने के लिए पुलिस द्वारा किए गए सुस्त और असहाय प्रयासों के बिल्कुल विपरीत है!

सवाल यह भी है कि राज्य की भूमिका क्या है, अगर वह अपने लोगों की इच्छा का सम्मान और ऊर्जा का दोहन न करे? यह एक हास्यास्पद बात होगी कि उसी उत्पाद को बर्बाद करना जारी रखा जाए जिसने लोगों के बीच इतनी मेहनती गतिविधि को बढ़ावा दिया है। क्या ही अच्छा हो कि शराब को नष्ट करने के बजाय, पुलिस व्यवस्थित तरीके से उसके वितरण की सुविधा प्रदान करती! क्यों नहीं एक विशेष "शराब पुनर्वितरण दिवस" ​​​​मासिक रूप से आयोजित किया जा सकता, जहाँ कानून प्रवर्तन अधिकारी, बुलडोजर के स्टील के पैरों के नीचे बोतलों को तोड़ने की व्यर्थ कोशिश करने के बजाय, उन्हें सबसे योग्य नागरिकों को सौंप सकते हैं?

निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए, पात्रता के लिए कुछ मानदंड स्थापित किए जा सकते हैं। बेशक, उन व्यक्तियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए जिन्होंने मूल शराब-बचत प्रयासों में भाग लेकर अपनी चपलता और प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया है। ये दृढ़ निश्चयी आत्माएँ, जिन्होंने पहले ही अपना समर्पण साबित कर दिया है, निस्संदेह इस राशन को प्राप्त करने के लिए सबसे योग्य हैं। बाकी बोतलें लॉटरी सिस्टम के माध्यम से वितरित की जा सकती हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि हाल की घटनाओं की विशेषता वाली प्रतिस्पर्धा की उत्तेजना और भावना बनी रहे।

लेकिन इस प्रस्ताव के लाभ यहीं समाप्त नहीं होते। इस नई व्यवस्था से राज्य को अच्छा-ख़ासा लाभ होने वाला है। जब शराब के वितरण के अधिकार को इच्छुक विक्रेताओं को नीलाम किया जा सकता है, तो उसे नष्ट क्यों किया जाए? इससे भी बेहतर, पुनर्वितरित शराब पर कर लगाया जा सकता है, जिससे प्राप्त आय से आवश्यक सरकारी सेवाओं को वित्तपोषित किया जा सकता है - शायद एक या दो नए बुलडोज़र भी खरीदे जा सकते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भविष्य में शराब-तोड़फोड़ अभियान अधिक मजबूत हो (यदि इस तरह के बर्बर कृत्यों की आवश्यकता फिर कभी उत्पन्न हो)!

अतः आंध्र प्रदेश की सरकार को जनता की माँग के ख़िलाफ़ लड़ने के बजाय उसे गले लगाना चाहिए। बुलडोज़र और बैरिकेड्स के बजाय, जश्न और सहयोग होना चाहिए। आइए हम एक ऐसे भविष्य का जश्न मनाएँ जहाँ शराब की बोतलें तोड़ी नहीं जाएँगी बल्कि उनका स्वाद लिया जाएगा, जहाँ लोग और पुलिस हाथ में हाथ डालकर चलेंगे - एक दूसरे के साथ बढ़िया शराब की बोतलें लूटकर!

अंततः स्वयंसिद्ध शायर ‘शौहर खतौलवी’ के शब्दों में –

बुलडोज़र के क्रोध से, रही बोतलें टूट!

यह दक्खिन की लूट है, लूट सके तो लूट!!”

 

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष,

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,

हैदराबाद

 

लोक संस्कृति

लोक परंपरा : नांदुरवादेव’ तथा मृत्यु-पर्व : ‘दीयाळो’

विमलकुमार चौधरी

‘नांदुरवादेव’

भारतवर्ष के विविध प्रांत के आदिवासियों के पास अपनी लोक संस्कृति एवं आदिम परंपरा है । लोक परंपरा से तात्पर्य है कि- “ अपनी मूल पहचान, सभ्यता एवं लोकजीवन के लोकपक्ष को संवृत एवं संस्तुत्य करने का विधान । प्रकृति के तमाम तत्त्वों की पूजा आदिवासी दर्शन का सर्वोत्तम जीवंत रूप है । इसी कारण जंगल-पहाड़, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, जीव-जानवर, जीव जंतु, नदी-कोतर, वनचर- जलचर सभी जीवों तथा सजीव-निर्जीव पदार्थों, कुदरत-अकुदरत तत्त्व सहचरी रहे है । प्रकृति के साथ साथ अन्य तत्त्वों की चिंता एवं चिंतन आदिवासी लोकजीवन का व्यवहार है और ऐसे अनेक दर्शन के साथ आदिवासी समूह धरती की पूजा करता है, पहाड़ की पूजा करता है, नदी की पूजा करता है, पशु की पूजा करता है । वस्तुतः आदिवासी सभ्यता में तमाम जीवों के संरक्षण का ख्याल है तथा अपने जीवन-चक्र में सभी की उपस्थिति विशेष गरिमा रखती है । 

चौधरी आदिवासियों में देवपूजा का विशेष महत्त्व है । किसी भी शुभ-अशुभ कार्य के प्रारंभ में देव की स्तुति अनिवार्य है । चौधरी जनजाति में देवस्थानक प्रकृति के अत्यंत निकट है या यूँ कहें कि जंगल-पहाड़ में ही देव के स्थानक है तथा अन्य जो देव है जैसे- गाम देव, हिमारीयो देव, सीम देव का स्थानक गाँव के सीम में होता है । वर्षाऋतु प्रारंभ होने के बाद धरती पर चारा, हरियाली घास, वनस्पतियाँ निकल आती हैं।  प्रायः चौधरी में उसे ‘नांदुरा’ या ‘नांदुरवा’ कहते हैं  । ‘नांदुरवा’ पशुधन का मुख्य भोजन होता है, इसलिए चौधरी या दक्षिण गुजरात के अन्य आदिवासी समुदाय में उसे ‘नांदुरवादेव’ के रूप में विशेष पूजा होती है ।

चौधरी में ‘नांदुरवा’से तात्पर्य है: प्रारंभिक वर्षा के बाद धरती पर उग आते चारा, हरियाली घास, जंगली भाजी या वनस्पतियों आदि खाने योग्य हो जाने पर बैल, गाय, भेंस, बकरी के लिए ‘नांदुरवादेव’ से अनुमति मांगने की विशिष्ट पूजा । चौधरी में अन्य ‘नांदीरवापूजन’ नाम भी लोक प्रचलन में है ।  चौधरी में ‘नांदीरवापूजन’ से संबंधित मंत्र का उदाहरण देखिए-  “ जुहार....पूंज पडी जाती हा आजे, नांदीरवादेवाणे, आजे तोहरे आशरे आमारे डोबअ्  ठाडअ्हा.. आजे राते वधजे, दीहें वधजे, आमारे गाय धणने खाता घटे नी तेंहे वधजे ।” (‘चौधरी संस्कृति-गरिमा’, पृ-१५४)  (भावार्थ : जोहार, प्रकृति के तमाम तत्वों का कल्याण हो, आज आपके स्मरण करके पूंज-शाक पड़ जाती है, हे ! देव तुम्हारे देवत्व को वंदन हो, तुम्हारे भरोसे से ही हमारा पशुधन है, रात में न उगो उतना दिन में बढ़ना, हमारे पशु को खाने में कम न पड़े इसतरह से निरंतर उगना ।)

‘नांदुरवा’ देवपूजा के समय कृषि कर्म से संबंधित अनेक तथ्यों पर सामूहिक विचार-विमर्श किया जाता है । विशेष मजदूरी के मानदंड-नियम क्या होंगे ? हल जोतने का दाम क्या होगा ? मजदूरी करने का समय कहाँ से कहाँ तक होगा ? आदि अनेक कृषि सम्बन्धी निर्णय लिये जाते हैं । हाँ, प्रत्येक गाँव के नियम अलग-अलग होते हैं ।

 देवपूजा के बाद प्रतीक के रूप में सम्मिलित सभी को चावल दिया जाता है । मान्यता है कि यह चावल घर में अन्न रखने की जगह, कोठी या खेत में डाल दिया जाता है । वस्तुतः ‘नांदुरावा देव’ पूजा से लोगों की आस्था है कि “ पशुधन पर किसी प्रकार की आपत्ति न आये । बैल, गाय, भेंस, बकरी सभी पशु सुरक्षित रहे । कोई रोग न आये । जंगली जीव-जानवरों  से रक्षा हो ऐसे अनेक शुभभावों के साथ नादुरवा देव की पूजा चौधरी जनजाति में होती है ।

मृत्यु-पर्व : ‘दीयाळो’

चौधरी जनजाति में मृत्यु-पर्व की विशेष विधि है । मृत्यु के तीन दिन बाद चौधरियों में ‘दीयाळो’ की परंपरा है । भाषा की दृष्टि से ‘दीयाळो’ या ‘दीयाडो’ दोनों नाम लोक प्रचलन में है । क्षेत्र-गाँव के अनुरूप चौधरी में ‘नानों दीयाळो’ एवं ‘मोटो दीयाळो’ दोनों प्रकार से ‘दीयाळो’ की मृत्यु विधि होती है । एक गाँव में प्रचलित परंपरा से दूसरें गाँव की परंपरा में थोडा बहुत परिवर्तन देखा जाता है फिर भी अपनी पारंपरिक विधान-सभ्यता का सहज रूप आलेखित होता है ।

चौधरी जनजाति में मृत्यु के ठीक तीन दिन बाद ‘दीयाळो’ की मृत्यु विधि की लोक परंपरा है । ‘दीयाळो’ की विधि में पुरूषों और स्त्रियों दोनों वर्ग द्वारा मृतकों की विधि अपने अपने विधियों के अनुसार अलग-अलग करते हैं । स्त्रियाँ घर की विधि करते हैं, जबकि पुरुषों घर से लेकर श्मशान तक जाते हैं । उस दिन लोकवाद्य तुर या नगारु बजता है । मृत्यु के दिन जिस जगह पर शव (लाश) रखा गया हो, उसे पवित्र करने के लिए गोबर से लिपा जाता है । मृतक के लिए घर में खाना या खिचड़ी बनाई होती है, वह अर्पण करने के लिए जिसने टूटी हुई हांड़ी में आग दिया हो, वो ही खिलाता है । चौधरियों में आग का विशेष महत्त्व है । व्यक्ति की मृत्यु के बाद अग्निदाह भी पुरूष ही देता है तथा जिस घर में मृत्यु हुई हो, वहाँ बारह दिन तक रात को आग जलाई जाती है । भगत (मंत्र या मृत्यु विधि का जानकार), घर का मुख्य व्यक्ति, परिवार-समाज के अन्य लोग ‘दीयाळो’ विधि के लिए दिन में श्मशान जाते हैं । भगत के कहने पर घर का मुख्य व्यक्ति ( जिसने हांड़ी निकाली हो) अपने पूर्वजों को नोतरू देकर आमंत्रित करता है तथा विधिवत स्मरण करके उनके नाम की शाक-पूंज रखता है । एक मान्यता है अनुसार ‘दीयाळो’ विधि के समय स्वयं मृत आत्माएँ वहाँ पर हाजिर होती हैं। वैसे तो पारंपरिक पूजा बहुत लम्बी चलती है। यहाँ पर मृत्यु विधि से संबंधित एक मंत्र का उदाहरण देखिए-  “ फलाणो मन्नारों आवतो हा, तीयाणे ओलखी नेजा, पालखी नेजा, तुमारे खोले राखजा, हाथ थरीने खेंचजा, पाग थरीने खेंचजा,  ओलखी नेजा, पालखी नेजा,हारी राखजा । ” (चौधरी संस्कृति-गरिमा, पृ-९८.९९)  ( भावार्थ : अमुक(आतो) नाम का मृत व्यक्ति आपके पास आता है, उन्हें पहचान लेना, तुम्हारे शरण में आश्रय देना, हाथ पकड़ के खींच लेना, पग पकड़ के पकड़ लेना, अमुक (आतो) आ रहा है, उन्हें पहचानो और अपने साथ रखना )  श्मशान में विधि पूर्ण करने के बाद वापिस घर से थोड़े दूर विहामो के जगा पुनः पारंपरिक पूजा होती है । पूर्वजों एवं मृत व्यक्ति के लिए  दारू की शाक (पूंज) रखी जाती है । दक्षिण गुजरात में मृत्यु से संबंधित एक लोकभजन में आग-हांड़ी का उल्लेख है- जैसे

“ तुटेली हांड़ीमां आग, जीव तमे क्या जई रहेशो रात ।

हेरे ! कोठारी  हांड़ीमां आग, जीव तमे क्या जई रहेशो रात । ” ( कंठस्थ- बाबुसिंगभाई सनजी चौधरी )

संदर्भ :-

ग्रंथ-

१.    चौधरी संस्कृति-गरिमा, शंकरभाई चौधरी, पार्श्व पब्लिकेशन,अमदावाद, प्रथम आवृत्ति-२०१६ 

 साक्षात्कार

            मनोजभाई अमरसिंगभाई चौधरी, उम्र- ७० के करीब, गाँव:- अलगट, तहसील-वालोड, जिला:-तापी,गुजरात

सुखाभाई मनाभाई चौधरी , उम्र-६३ के करीब, गाँव:- खाटीजामण, तहसील-उमरपाडा, जिला:- सुरत,गुजरात

 

विमलकुमार चौधरी

( शोध-छात्र )

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर

जिला :- आणंद, गुजरात

 

धार्मिक आध्यात्मिक


अनंत चतुर्दशी 2024

सुरेश चौधरी

अनंत चतुर्दशी अर्थार्थ भगवान विष्णु के अनंत रूप की आराधना का दिन है। अनंत चतुर्दशी का हिंदू धर्म के ग्रंथों में विशेष महत्व है। यह दिन भगवान विष्णु के अनंत रूप की पूजा के लिए समर्पित है। पुराणों और अन्य धार्मिक ग्रंथों में इसका वर्णन विस्तार से मिलता है। इस दिन भगवान विष्णु के अनंत रूप की पूजा की जाती है, और अनंत सूत्र (एक विशेष प्रकार का धागा) को धारण करने का महत्व होता है। ऐसा माना जाता है कि इस धागे को धारण करने से व्यक्ति के जीवन से सभी समस्याएँ समाप्त होती हैं और सुख-समृद्धि आती है।

आज ही के दिन कहते हैं गणेश जी ने महाभारत का लेखन पूर्ण कर अपने ऊपर दस दिनों के अथक परिश्रम के चलते हुए स्वेद कण धूल कण से निवृति लेने हेतु जल में स्नान कर उन्हें विसर्जित किया था अतः गणेश विसर्जन मनाया जाता है जबकि यह विसर्जन उनके मैल का है।

महाभारत के अनुसार, पांडवों के वनवास के समय भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को अनंत चतुर्दशी का व्रत करने का उपदेश दिया था। उन्होंने बताया कि इस व्रत को करने से सभी कष्टों का नाश होता है और मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

 "अनंत" शब्द वेदों में भगवान के अनंत और असीमित स्वरूप का प्रतीक है। भगवान विष्णु को उनके अनंत रूप में आदिकाल से माना गया है। वेदों में भगवान को निराकार, अनादि, और अनंत कहा गया है, जो इस बात की पुष्टि करता है कि ईश्वर का स्वरूप सीमाओं से परे है।

ऋग्वेद और यजुर्वेद जैसे ग्रंथों में भगवान के अनंत स्वरूप की महिमा गाई गई है। इस दृष्टिकोण से, अनंत चतुर्दशी एक धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व है, जो बाद के काल में पुराणों और अन्य धर्मग्रंथों के माध्यम से विकसित हुआ है।

मान्यता है कि अनंत चतुर्दशी के दिन भगवान विष्णु ने 14 लोकों की रचना के बाद इसके सरंक्षण और पालन के लिए चौदह रूप में प्रकट हुए थे और अनंत प्रतीत होने लगे थे, इसलिए अनंत चतुर्दशी को 14 लोकों और भगवान विष्णु के 14 रूपों का प्रतीक माना गया है।

ज्योतिषों के अनुसार अनंत सूत्र की चौदह गाठें भूलोक, भुवलोक, स्वलोक, महलोक, जनलोक, तपोलोक, ब्रह्मलोक, अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल, महातल, और  पताल लोक का प्रतीक है।

जैन कैलेंडर के उत्सवों में यह एक महत्वपूर्ण दिन है। जैन भादो महीने के आखिरी 10 दिनों में पर्युषण पर्व मनाते हैं- दिगंबर जैन दस दिन तक दस लक्षण पर्व मनाते हैं और चतुर्दशी (जिसे अनंत चौदस भी कहते हैं) दसलक्षण पर्व का आखिरी दिन होता है। क्षमावाणी , वह दिन जब जैन जानबूझकर या अनजाने में की गई गलतियों के लिए क्षमा मांगते हैं, अनंत चतुर्दशी के एक दिन बाद मनाई जाती है। यह वह दिन है जब वर्तमान ब्रह्मांडीय चक्र के 12वें तीर्थंकर वासुपूज्य ने निर्वाण प्राप्त किया था।

आईये परम ईश की आराधना में यह वन्दना पढ़ें।

नमन  नमन  आपको,  हे  सृष्टि की सजग रचनाकार

आप  ही  ईश्वर  ब्रह्माण्ड  मध्य, प्रकृति-त्रय गुणाकार

प्रत्यक्ष  सृष्टा  स्वप्नातित  परम  नियामक   पृथककार

अप्रतिम   परम   ब्रह्म  आदिरूप   निराकार  साकार

 

अक्षय  अक्षर  अमर  अनादि  अनंत  अभिराम  ईश्वर

हे  गोलोक  स्वामी   सर्व   साधक   शरण  देह  नश्वर

श्वेत  वस्त्र  प्रसन्न  बदन  चंद्र  वर्ण  चतुर  भुज स्वामी

विस्तारक    स्थावर   स्थायी   विश्व   प्राण   अंतर्यामी

 

हो   मनःप्रसाद    देख  आमुख,  शेशशैया   विभूषित

सुरपति,  पद्मनाभ,  जगदाधार,  मेघवर्ण, गगन स्थित

रमापति,  रमेश,  राजीव,  लोचन,  छवि-मनोहर चित्त

हे  त्रिभुवन  स्वामी  भयहर,  कोटि  शीश हो नतश्रीत

 

हे  विश्वात्मा,  जन्म-मरण  के  बंधन  से  आप हैं मुक्त

प्रादुर्भाव  होता  जन  कल्याण   हेतु, जब  जग  सुप्त

करे  सब  कुछ  आप  ही, आप  ही साक्षात् कालयुक्त

निरंतर  मनन, चिंतन, पूजन  कर  दिव्य  रूप  संयुक्त

 

जयति अविकारी शुद्ध  नित्य परमात्मन श्री हरि विष्णु

काम क्रोध मद मोह लोभ अहंकार विजित प्रभु जिष्णु

  नमो  भगवते  वषटकार  भूत  भव्य  भवत   प्रभो

  नमो  परम  पुरुष  अमोघ  पुंडरीकाक्ष  निरत प्रभो

 

सुरेश चौधरी

एकता हिबिसकस

56 क्रिस्टोफर रोड

कोलकाता 700046

 

 

सितंबर 2024, अंक 51

शब्द-सृष्टि सितंबर 202 4, अंक 51 संपादकीय – डॉ. पूर्वा शर्मा भाषा  शब्द संज्ञान – ‘अति आवश्यक’ तथा ‘अत्यावश्यक’ – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र ...