पौधों
की वेदना
मालिनी त्रिवेदी पाठक
सुशिक्षित तुलसी बचपन से ही आत्मनिर्भर थी ।
वह अपना सारा काम खुद ही करती थी । जैसे घर की साफ-सफाई, खाना बनाना, कपडे धोना,
बर्तन माँजना आदि । वह अपने घर को एक पावन मंदिर ही समझती थी । स्नान कर के पूजा
पाठ करना उसके माता-पिता ने बचपन से ही सिखाया था ।
अब तो उसे जीव-जंतु, पशु-पक्षी, वनस्पति,
प्राणी मात्र में भी ईश्वर के ही दर्शन होते थे । तुलसी ने अपने घर के कम्पाउंड
में औषधीय वनस्पति के साथ-साथ रंग-बिरंगी फूलों के गमले सजा कर रखे थे । वह एक-एक पौधे
के पास जाकर उन्हें अपने बच्चे समझ कर बातें करती । फूल पत्ते भी झूम-झूम कर अपना
प्यार जताते ।
तुलसी कभी भी फूल नहीं तोड़ती थी । वह मानती
थी कि,फूल तोड़ना मतलब उसकी अकाल ही हत्या करना । फूलों की ऐसी हत्या कर के भगवान
कैसे प्रसन्न होंगे भला !
अपने पौधों को तृप्त, जीवंत और प्रसन्न
देखकर वह बहुत खुश हुई । आज उसका मन गजब उमंग और ऊर्जा से भर गया । फूलों की सुगंध
को अपने में समेट कर वह कॉलेज जाने के लिए तैयार हुई । उसे अध्यापिका के रूप में
नौकरी मिली थी । आज उसका कॉलेज में पहला दिन था । हरे रंग की साड़ी और हरी चूड़ियाँ
पहन कर कुछ ही देर में वह कॉलेज पहुँची । कॉलेज के विशाल प्रांगण को पार कर के
जैसे ही वह स्टाफरूम की ओर मुड़ी, सहसा उसने कॉरिडोर में रखे गए गमलों में मृतपायः
अवस्था में कुछ पौधें देखे । उसका संवेदनशील हृदय भर आया । वह दुःख के साथ उन
गमलों की ओर देखती रही । उसकी संवेदना महसूस कर के गमले रो-रो कर कहने लगे, “
परसों पर्यावरण दिन के अवसर पर नर्सरी से खरीद कर, टेम्पो में भरकर हमें यहाँ लाया
गया । हम बहुत खुश थे कि इतने बड़े प्रांगण में, हरी-भरी जगह पर हमें प्यार से
सजाया जायेगा । कुछ ही देर में हमने कानाफूसी सुनी कि, कॉलेज के इको क्लब की
गतिविधि के अंतर्गत प्रभारी के निर्णय पर हमें यहाँ लाया गया था । थोड़ी ही देर में
कुछ अनुभवहीन छात्रों ने हमें मिट्टी से आधा भर दिया और वृक्ष की डालियाँ तथा
अधमरे पौधे भी मिट्टी में ठूँस दिए । फिर मन की तसल्ली के लिए थोड़ा खाद और पानी भी
डाल दिया । हमारे प्रति ऐसे असंवेदनशील व्यवहार से मन में आनेवाले भय की एक लहर सी
दौड़ गई । इतना कह कर गमला मौन हो गया ।
“
अरे डरो मत ! फिर क्या हुआ ? बताओ तो ।”, तुलसी ने पूछा ।
गमले ने सुबकते हुए आगे कहा, “ फिर हमें
पौधों सहित यहाँ आये कुछ अध्यापकों के हाथों में थमा दिया गया, जैसे कि हम कोई
निराश्रित बच्चे हों । इतना ही नहीं, इस पूरे धटनाक्रम का फोटो सेशन भी किया गया ।
फिर क्या, उन अध्यापकों ने हमें या तो अपने कमरे के किसी कोने में या फिर कॉरिडोर
में उपेक्षित हालत में रख दिया । यहीं से शुरू हुई हमारे दुःख और दर्द की दास्तान
! वक्त पर कभी न मिला हमें जरुरी खाद और न ही पानी । कई पौधे हवा, सूर्य-प्रकाश और
पानी के बिना अपना दम तोड़ने लगे । अब केवल हम सब बिना पौधों के गमले ही एक दूसरे
को दूर से ताक रहे हैं । बचा लो हमे इंसानों की इस दरिंदगी से, बचा लो इन हत्यारों
से.......”
गमले की इस दुःख भरी दास्तान ने तुलसी को
और भी झकझोर कर रख दिया । उसे गमलों और पौधों के परस्पर गहरे संबंधों की अनुभूति
हुई । गमले मिट्टी के दीपक के समान और पौधे जैसे कि दीपक की बाती, दीये की लौ,
जिसमें हम सबको नेह भरना ही होगा ।
उसी दिन से तुलसी ने कॉलेज को भी अपना घर
मानते हुए ख़ुशी से गमलों और पौधों की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली ।
मालिनी त्रिवेदी पाठक
वड़ोदरा
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