लोक
परंपरा : ‘नांदुरवादेव’ तथा मृत्यु-पर्व
: ‘दीयाळो’
विमलकुमार चौधरी
‘नांदुरवादेव’
भारतवर्ष के विविध प्रांत के आदिवासियों के
पास अपनी लोक संस्कृति एवं आदिम परंपरा है । लोक परंपरा से तात्पर्य है कि- “ अपनी
मूल पहचान, सभ्यता एवं लोकजीवन के लोकपक्ष को संवृत एवं संस्तुत्य करने का विधान ।
प्रकृति के तमाम तत्त्वों की पूजा आदिवासी दर्शन का सर्वोत्तम जीवंत रूप है । इसी
कारण जंगल-पहाड़, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, जीव-जानवर, जीव जंतु, नदी-कोतर, वनचर- जलचर
सभी जीवों तथा सजीव-निर्जीव पदार्थों, कुदरत-अकुदरत तत्त्व सहचरी रहे है । प्रकृति
के साथ साथ अन्य तत्त्वों की चिंता एवं चिंतन आदिवासी लोकजीवन का व्यवहार है और
ऐसे अनेक दर्शन के साथ आदिवासी समूह धरती की पूजा करता है, पहाड़ की पूजा करता है,
नदी की पूजा करता है, पशु की पूजा करता है । वस्तुतः आदिवासी सभ्यता में तमाम
जीवों के संरक्षण का ख्याल है तथा अपने जीवन-चक्र में सभी की उपस्थिति विशेष गरिमा
रखती है ।
चौधरी
आदिवासियों में देवपूजा का विशेष महत्त्व है । किसी भी शुभ-अशुभ कार्य के प्रारंभ
में देव की स्तुति अनिवार्य है । चौधरी जनजाति में देवस्थानक प्रकृति के अत्यंत
निकट है या यूँ कहें कि जंगल-पहाड़ में ही देव के स्थानक है तथा अन्य जो देव है
जैसे- गाम देव, हिमारीयो देव, सीम देव का स्थानक गाँव के सीम में होता है । वर्षाऋतु
प्रारंभ होने के बाद धरती पर चारा, हरियाली घास, वनस्पतियाँ निकल आती हैं। प्रायः चौधरी में उसे ‘नांदुरा’ या ‘नांदुरवा’
कहते हैं । ‘नांदुरवा’ पशुधन का मुख्य भोजन
होता है, इसलिए चौधरी या दक्षिण गुजरात के अन्य आदिवासी समुदाय में उसे ‘नांदुरवादेव’
के रूप में विशेष पूजा होती है ।
चौधरी में ‘नांदुरवा’से तात्पर्य है:
प्रारंभिक वर्षा के बाद धरती पर उग आते चारा, हरियाली घास, जंगली भाजी या वनस्पतियों
आदि खाने योग्य हो जाने पर बैल, गाय, भेंस, बकरी के लिए ‘नांदुरवादेव’ से अनुमति
मांगने की विशिष्ट पूजा । चौधरी में अन्य ‘नांदीरवापूजन’ नाम भी लोक प्रचलन में है
। चौधरी में ‘नांदीरवापूजन’ से संबंधित
मंत्र का उदाहरण देखिए- “ जुहार....पूंज
पडी जाती हा आजे, नांदीरवादेवाणे, आजे तोहरे आशरे आमारे डोबअ् ठाडअ्हा.. आजे राते वधजे, दीहें वधजे, आमारे
गाय धणने खाता घटे नी तेंहे वधजे ।” (‘चौधरी संस्कृति-गरिमा’, पृ-१५४) (भावार्थ : जोहार, प्रकृति के तमाम तत्वों का
कल्याण हो, आज आपके स्मरण करके पूंज-शाक पड़ जाती है, हे ! देव तुम्हारे देवत्व को
वंदन हो, तुम्हारे भरोसे से ही हमारा पशुधन है, रात में न उगो उतना दिन में बढ़ना,
हमारे पशु को खाने में कम न पड़े इसतरह से निरंतर उगना ।)
‘नांदुरवा’ देवपूजा के समय कृषि कर्म से
संबंधित अनेक तथ्यों पर सामूहिक विचार-विमर्श किया जाता है । विशेष मजदूरी के
मानदंड-नियम क्या होंगे ? हल जोतने का दाम क्या होगा ? मजदूरी करने का समय कहाँ से
कहाँ तक होगा ? आदि अनेक कृषि सम्बन्धी निर्णय लिये जाते हैं । हाँ, प्रत्येक गाँव
के नियम अलग-अलग होते हैं ।
देवपूजा के बाद प्रतीक के रूप में सम्मिलित सभी को चावल दिया जाता है । मान्यता है कि यह चावल घर में अन्न रखने की जगह, कोठी या खेत में डाल दिया जाता है । वस्तुतः ‘नांदुरावा देव’ पूजा से लोगों की आस्था है कि “ पशुधन पर किसी प्रकार की आपत्ति न आये । बैल, गाय, भेंस, बकरी सभी पशु सुरक्षित रहे । कोई रोग न आये । जंगली जीव-जानवरों से रक्षा हो ऐसे अनेक शुभभावों के साथ नादुरवा देव की पूजा चौधरी जनजाति में होती है ।
मृत्यु-पर्व : ‘दीयाळो’
चौधरी जनजाति में मृत्यु-पर्व की विशेष
विधि है । मृत्यु के तीन दिन बाद चौधरियों में ‘दीयाळो’ की परंपरा है । भाषा की
दृष्टि से ‘दीयाळो’ या ‘दीयाडो’ दोनों नाम लोक प्रचलन में है । क्षेत्र-गाँव के
अनुरूप चौधरी में ‘नानों दीयाळो’ एवं ‘मोटो दीयाळो’ दोनों प्रकार से ‘दीयाळो’ की
मृत्यु विधि होती है । एक गाँव में प्रचलित परंपरा से दूसरें गाँव की परंपरा में थोडा
बहुत परिवर्तन देखा जाता है फिर भी अपनी पारंपरिक विधान-सभ्यता का सहज रूप आलेखित
होता है ।
चौधरी
जनजाति में मृत्यु के ठीक तीन दिन बाद ‘दीयाळो’ की मृत्यु विधि की लोक परंपरा है ।
‘दीयाळो’ की विधि में पुरूषों और स्त्रियों दोनों वर्ग द्वारा मृतकों की विधि अपने
अपने विधियों के अनुसार अलग-अलग करते हैं । स्त्रियाँ घर की विधि करते हैं, जबकि
पुरुषों घर से लेकर श्मशान तक जाते हैं । उस दिन लोकवाद्य तुर या नगारु बजता है । मृत्यु
के दिन जिस जगह पर शव (लाश) रखा गया हो, उसे पवित्र करने के लिए गोबर से लिपा जाता
है । मृतक के लिए घर में खाना या खिचड़ी बनाई होती है, वह अर्पण करने के लिए जिसने टूटी
हुई हांड़ी में आग दिया हो, वो ही खिलाता है । चौधरियों में आग का विशेष महत्त्व है
। व्यक्ति की मृत्यु के बाद अग्निदाह भी पुरूष ही देता है तथा जिस घर में मृत्यु
हुई हो, वहाँ बारह दिन तक रात को आग जलाई जाती है । भगत (मंत्र या मृत्यु विधि का
जानकार), घर का मुख्य व्यक्ति, परिवार-समाज के अन्य लोग ‘दीयाळो’ विधि के लिए दिन
में श्मशान जाते हैं । भगत के कहने पर घर का मुख्य व्यक्ति ( जिसने हांड़ी निकाली
हो) अपने पूर्वजों को नोतरू देकर आमंत्रित करता है तथा विधिवत स्मरण करके उनके नाम
की शाक-पूंज रखता है । एक मान्यता है अनुसार ‘दीयाळो’ विधि के समय स्वयं मृत आत्माएँ
वहाँ पर हाजिर होती हैं। वैसे तो पारंपरिक पूजा बहुत लम्बी चलती है। यहाँ पर मृत्यु
विधि से संबंधित एक मंत्र का उदाहरण देखिए-
“ फलाणो मन्नारों आवतो हा, तीयाणे ओलखी नेजा, पालखी नेजा, तुमारे खोले
राखजा, हाथ थरीने खेंचजा, पाग थरीने खेंचजा,
ओलखी नेजा, पालखी नेजा,हारी राखजा । ” (चौधरी संस्कृति-गरिमा, पृ-९८.९९) ( भावार्थ : अमुक(आतो) नाम का मृत व्यक्ति आपके
पास आता है, उन्हें पहचान लेना, तुम्हारे शरण में आश्रय देना, हाथ पकड़ के खींच
लेना, पग पकड़ के पकड़ लेना, अमुक (आतो) आ रहा है, उन्हें पहचानो और अपने साथ रखना )
श्मशान में विधि पूर्ण करने के बाद वापिस
घर से थोड़े दूर विहामो के जगा पुनः पारंपरिक पूजा होती है । पूर्वजों एवं मृत
व्यक्ति के लिए दारू की शाक (पूंज) रखी
जाती है । दक्षिण गुजरात में मृत्यु से संबंधित एक लोकभजन में आग-हांड़ी का उल्लेख
है- जैसे
“
तुटेली हांड़ीमां आग, जीव तमे क्या जई रहेशो रात ।
हेरे ! कोठारी हांड़ीमां आग, जीव तमे क्या जई रहेशो रात । ” ( कंठस्थ- बाबुसिंगभाई सनजी चौधरी )
संदर्भ :-
ग्रंथ-
१.
चौधरी संस्कृति-गरिमा, शंकरभाई चौधरी, पार्श्व पब्लिकेशन,अमदावाद,
प्रथम आवृत्ति-२०१६
साक्षात्कार
मनोजभाई
अमरसिंगभाई चौधरी, उम्र- ७० के करीब, गाँव:- अलगट, तहसील-वालोड, जिला:-तापी,गुजरात
सुखाभाई मनाभाई
चौधरी , उम्र-६३ के करीब, गाँव:- खाटीजामण, तहसील-उमरपाडा, जिला:- सुरत,गुजरात
विमलकुमार
चौधरी
(
शोध-छात्र )
स्नातकोत्तर
हिन्दी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ
विद्यानगर
जिला
:- आणंद,
गुजरात
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