बुलडोज़र के आगे बोतल : लूट सके तो लूट!
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
हाल ही में आंध्र प्रदेश में गुंटूर के बहादुर नागरिकों
द्वारा 50 लाख रुपये मूल्य की शराब की बोतलों को नष्ट करने के थकाऊ
काम से स्थानीय अधिकारियों को मुक्त करने की ज़िम्मेदारी लेने की घटना से यह स्पष्ट
हो गया है कि राज्य को अपशिष्ट प्रबंधन के प्रति अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार
करना चाहिए। वास्तव में, वह घटना जिसमें बहादुर आत्माएँ बुलडोज़र के अपमानजनक जबड़े से शराब की बोतलों
को बचाने के लिए टिड्डियों की तरह झुंड में आ गईं, सरकार के लिए अपने तरीकों का पुनर्मूल्यांकन करने का अवसर
प्रस्तुत करती है।
कौन नहीं जानता कि शराब महँगी और सर्वकालिक माँग वाली वस्तु
है। माना कि आजकल सर्वत्र बुलडोज़र न्याय की जय-जयकार है,
फिर भी क्या सदा चुनावी मूड में रहने वाले विराट महादेश में
इस अमूल्य रत्न को इस तरह नष्ट किया जाना चाहिए! जबकि इसे समाज की ‘भलाई’ के लिए
आम जनता में वितरित किया जा सकता है। रेवड़ी ही क्यों,
शराब क्यों नहीं?
सबसे पहले, अच्छी शराब को बरबाद करने की तथाकथित बुद्धिमत्ता पर विचार
करें। बेशक, इरादा
नेक है: विचाराधीन बोतलें या तो ज़ब्त की गई प्रतिबंधित वस्तुएँ थीं या एक्सपायर
हो चुकी थीं, जो
बिक्री या उपभोग के लिए अनुपयुक्त थीं। फिर भी, जैसा कि जनता के हाल के वीरतापूर्ण प्रयासों से पता चला है,
यह निर्णय बहुत जल्दबाज़ी में लिया गया था। साधनसंपन्न
स्थानीय लोगों ने स्पष्ट रूप से यह निर्धारित करने की अपनी अचूक क्षमता का
प्रदर्शन किया है कि क्या पीने योग्य है। उन्होंने एक अच्छी तरह से प्रशिक्षित
मिलिशिया की शालीनता और गति के साथ बोतलें लूटीं। सयानों को उनकी इस दक्षता की
प्रशंसा करनी चाहिए, जो विडंबना यह है कि उन्हें रोकने के लिए पुलिस द्वारा किए गए सुस्त और असहाय
प्रयासों के बिल्कुल विपरीत है!
सवाल यह भी है कि राज्य की भूमिका क्या है,
अगर वह अपने लोगों की इच्छा का सम्मान और ऊर्जा का दोहन न
करे?
यह एक हास्यास्पद बात होगी कि उसी उत्पाद को बर्बाद करना
जारी रखा जाए जिसने लोगों के बीच इतनी मेहनती गतिविधि को बढ़ावा दिया है। क्या ही
अच्छा हो कि शराब को नष्ट करने के बजाय, पुलिस व्यवस्थित तरीके से उसके वितरण की सुविधा प्रदान
करती! क्यों नहीं एक विशेष "शराब पुनर्वितरण दिवस" मासिक
रूप से आयोजित किया जा सकता, जहाँ कानून प्रवर्तन अधिकारी, बुलडोजर के स्टील के पैरों के नीचे बोतलों को तोड़ने की
व्यर्थ कोशिश करने के बजाय, उन्हें सबसे योग्य नागरिकों को सौंप सकते हैं?
निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए,
पात्रता के लिए कुछ मानदंड स्थापित किए जा सकते हैं। बेशक,
उन व्यक्तियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए जिन्होंने मूल
शराब-बचत प्रयासों में भाग लेकर अपनी चपलता और प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया है।
ये दृढ़ निश्चयी आत्माएँ, जिन्होंने पहले ही अपना समर्पण साबित कर दिया है,
निस्संदेह इस राशन को प्राप्त करने के लिए सबसे योग्य हैं।
बाकी बोतलें लॉटरी सिस्टम के माध्यम से वितरित की जा सकती हैं,
यह सुनिश्चित करते हुए कि हाल की घटनाओं की विशेषता वाली
प्रतिस्पर्धा की उत्तेजना और भावना बनी रहे।
लेकिन इस प्रस्ताव के लाभ यहीं समाप्त नहीं होते। इस नई
व्यवस्था से राज्य को अच्छा-ख़ासा लाभ होने वाला है। जब शराब के वितरण के अधिकार को
इच्छुक विक्रेताओं को नीलाम किया जा सकता है, तो उसे नष्ट क्यों किया जाए? इससे भी बेहतर, पुनर्वितरित शराब पर कर लगाया जा सकता है,
जिससे प्राप्त आय से आवश्यक सरकारी सेवाओं को वित्तपोषित
किया जा सकता है - शायद एक या दो नए बुलडोज़र भी खरीदे जा सकते हैं ताकि यह
सुनिश्चित किया जा सके कि भविष्य में शराब-तोड़फोड़ अभियान अधिक मजबूत हो (यदि इस
तरह के बर्बर कृत्यों की आवश्यकता फिर कभी उत्पन्न हो)!
अतः आंध्र प्रदेश की सरकार को जनता की माँग के ख़िलाफ़ लड़ने
के बजाय उसे गले लगाना चाहिए। बुलडोज़र और बैरिकेड्स के बजाय,
जश्न और सहयोग होना चाहिए। आइए हम एक ऐसे भविष्य का जश्न
मनाएँ जहाँ शराब की बोतलें तोड़ी नहीं जाएँगी बल्कि उनका स्वाद लिया जाएगा,
जहाँ लोग और पुलिस हाथ में हाथ डालकर चलेंगे - एक दूसरे के
साथ बढ़िया शराब की बोतलें लूटकर!
अंततः स्वयंसिद्ध शायर ‘शौहर खतौलवी’ के शब्दों में –
“बुलडोज़र के क्रोध से, रही बोतलें टूट!
यह दक्खिन की लूट है, लूट सके तो लूट!!”
डॉ.
ऋषभदेव शर्मा
पूर्व
आचार्य एवं अध्यक्ष,
उच्च
शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण
भारत हिंदी प्रचार सभा,
हैदराबाद
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