शनिवार, 31 अगस्त 2024

अनुवाद

 


आदिशंकराचार्य रचित गङ्गा स्तोत्र का अनुवाद लावणी छंद में

सुरेश चौधरी

 

गंगां वारि मनोहारि मुरारिचरणच्युतं ।

त्रिपुरारिशिरश्चारि पापहारि पुनातु माँ ।।

 

गंगा  वारि  है  मनोहारी, विष्णु  चरण  से   निकल   पड़ी

जो  शिव शीश  धरे पाप  हरे, मुझे  शुद्ध करो माँ सुरसरी

 

दॆवि! सुरॆश्वरि! भगवति! गङ्गॆ त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गॆ 

शङ्करमौलिविहारिणि विमलॆ मम मतिरास्तां तव पदकमलॆ ॥1॥

 

पावन माँ   भगवती     तरंगा,   तीन   लोक  को  यह तारे

मात शम्भु भाल विहार करे , विमल  बुद्धि   निज पद धारे

 

भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमॆ ख्यातः ।

नाहं जानॆ तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥

 

मात  भागिरथी  सुख  प्रदाता,    जल  महत्व  वेद बताते

अनभिज्ञ   आपकी   महिमा   से,  माँ  रक्षा    हेतु  बुलाते

 

हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गॆ हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गॆ ।

दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥

 

नीर क्षीर  चरनामृत  प्रभु का,  हिम  शशि सम श्वेत  तरंगा

नष्ट कर  मात  कष्ट  पाप   हर,  भव  पार  करो   माँ  गंगा

 

तव जलममलं यॆन निपीतं परमपदं खलु तॆन गृहीतम् ।

मातर्गङ्गॆ त्वयि यॊ भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥

 

ग्रहण कर जल परम पद पाए, दुख कभी उस घर न आये

  बिगाड़  सके यमराज  कभी, जो  भक्त मात  गुण गाये

 

पतितॊद्धारिणि जाह्नवि गङ्गॆ खण्डित गिरिवरमण्डित भङ्गॆ ।

भीष्मजननि हॆ मुनिवरकन्यॆ पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्यॆ ॥ 5 ॥

 

पतित  तारिणी मात जाह्नवी, हिम गिरी काट तू  निकली

आप  भीष्म  माता  जह्नु  सुता, त्रिलोक  पाप  हरने चली

 

कल्पलतामिव फलदां लॊकॆ प्रणमति यस्त्वां न पतति शॊकॆ ।

पारावारविहारिणिगङ्गॆ विमुखयुवति कृततरलापाङ्गॆ ॥ 6 ॥

 

पूर्ण  कामना  करने  वाली,  तेरी  स्तुति  कर   शोक   टले

आतुर जलधि से मिलन को ज्यूँ,पिय मिलनको नार मचले

 

तव चॆन्मातः स्रॊतः स्नातः पुनरपि जठरॆ सॊपि न जातः ।

नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गॆ कलुषविनाशिनि महिमॊत्तुङ्गॆ ॥ 7 ॥

 

स्नान  से  जन्म  बंधन   कटते,  महिमा  अपार   माँ  गंगे

नरकों  से   तू   मुक्ति   कराती, करे   कलुष  विनाश  गंगे

 

पुनरसदङ्गॆ पुण्यतरङ्गॆ जय जय जाह्नवि करुणापाङ्गॆ ।

इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणॆ सुखदॆ शुभदॆ भृत्यशरण्यॆ ॥ 8 ॥

 

पुण्य  तरंगे  करुणा   गंगे ,   दिव्य   नीर   से   शुद्ध  करो

इंद्र  मुकुट  मणि राजे पग पर, शरणागत  शुभम सुख भरो

 

रॊगं शॊकं तापं पापं हर मॆ भगवति कुमतिकलापम् ।

त्रिभुवनसारॆ वसुधाहारॆ त्वमसि गतिर्मम खलु संसारॆ ॥ 9 ॥

 

रोग  शोक  पाप  कुमति  तापा, भगवती  हरो  इन सबको

त्रिभुवन  सार  हार  वसुधा  की, सहारा  तू  बची  अबतो

 

अलकानन्दॆ परमानन्दॆ कुरु करुणामयि कातरवन्द्यॆ ।

तव तटनिकटॆ यस्य निवासः खलु वैकुण्ठॆ तस्य निवासः ॥ 10 ॥

 

अलकानंदा   परमानंदा ,   करुण   स्वर   से  वंदन  करूँ

सम्मान  दो  तट  निवासी  को, मिलता ज्यों  वैकुण्ठ बसूँ

 

वरमिह नीरॆ कमठॊ मीनः किं वा तीरॆ शरटः क्षीणः ।

अथवाश्वपचॊ मलिनॊ दीनस्तव न हि दूरॆ नृपतिकुलीनः ॥ 11 ॥

 

तुमसे दूर  रह  बनूँ  सम्राट ,  ऐसा  भी  क्या  जी  आना

अच्छा  हो  मछली  या  कछुआ, या  तट  चंडाल  बनाना

 

भॊ भुवनॆश्वरि पुण्यॆ धन्यॆ दॆवि द्रवमयि मुनिवरकन्यॆ ।

गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरॊ यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥

 

हे   देवि  ब्रह्माण्ड  स्वामीनि,  शुद्ध   मेरा  तन  मन  करो

नित्य  स्तोत्र  गंगा  का  गाऊँ, निश्चित जीवन सफल करो

 

यॆषां हृदयॆ गङ्गा भक्तिस्तॆषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।

मधुराकन्ता पञ्झटिकाभिः परमानन्दकलितललिताभिः ॥ 13 ॥

 

गंग  भक्ति  जिनके  ह्रदय बसे,  सुख और मुक्ति वो  पाता

लय  से  युक्त  यह  स्तोत्र  गंगा, उर  बहुत  आनंद लाता

 

गङ्गास्तॊत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।

शङ्करसॆवक शङ्कर रचितं पठति सुखी स्तव इति च समाप्तः ॥ 14॥

 

दोहा :

गंगा स्तुति भगवत चरण, करती तन  मन शुद्ध

दे वांछित फल स्तोत्र यह,  शंकर  रचित प्रबुद्ध




सुरेश चौधरी

एकता हिबिसकस

56 क्रिस्टोफर रोड

कोलकाता 700046

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