1.
लाज़्लो
: सर्वग्रासी अँधेरे में साहित्य की अदम्य लौ
डॉ.
ऋषभदेव शर्मा
जैसे
ही नोबेल समिति ने 2025 का साहित्य पुरस्कार हंगरी के लेखक लाज़्लो
क्राज़्नाहोरकाई को देने की घोषणा की, वैसे ही
विश्व साहित्य के आकाश में एक तारा मानो गुमनामी के बादलों को फाड़कर जगमगा उठा!
कहा गया कि उनकी सम्मोहक और दूरदर्शी कृतियाँ सर्वनाशी आतंक के बीच ‘कला की शक्ति’
की पुष्टि करती हैं! पता चला कि उनकी क़लम ने न केवल हंगरी की धुंधभरी घाटियों को
आवाज़ दी है, बल्कि मानव मन की गहरी उदासी और आकांक्षा को एक
ऐसी भाषा दी है, जो सीमाओं को लाँघकर हर दिल तक पहुँचती है।
लाज़्लो
क्राज़्नाहोरकाई का जीवन एक तपस्वी की कहानी है। 1954 में हंगरी के ग्युला शहर में
जन्मे इस लेखक ने सोवियत दमन के साये में अपनी आँखें खोलीं। वह दौर था जब आज़ादी एक
सपना थी,
और ख़ुफ़िया पुलिस ने उनका पासपोर्ट तक छीन लिया था। लेकिन इस अँधेरे
ने उनकी आत्मा को और निखारा। क्राज़्नाहोरकाई एकांत के साथी हैं। उनकी आँखों में
बौद्ध दर्शन की शांति और झेन की गहराई झलकती है। मगर उनके भीतर एक ऐसी उदासी बसी
है, जो उनकी रचनाओं में सिसकती है। वे कहते हैं,
"मैं दुनिया को देखता हूँ, लेकिन उसका
हिस्सा नहीं बनता।" (शायद ही उन्हें मालूम हो कि हम भारतीय इसे साक्षीभाव
कहते हैं! लेकिन) यह वाक्य उनकी जिंदगी का दर्शन है। एक लेखक, जो अपने दर्द को काग़ज़ पर उकेरता है, ताकि हमारी
आत्माएँ उसमें अपनी छवि देख सकें। उनकी हँसी में हल्का-सा व्यंग्य है, पर बातों में करुणा है, जो हमें अपनेपन का अहसास
दिलाती है।
सयाने
बता रहे हैं कि क्राज़्नाहोरकाई का कृतित्व एक ऐसी नदी है,
जो गहरे जंगलों से होकर बहती है - रहस्यमयी, जटिल,
और फिर भी मन को बाँध लेने वाली। 1985 में प्रकाशित उपन्यास
‘सैटनटैंगो’ (शैतान का नाच) में उन्होंने एक गाँव की टूटती साँसों को उभारा,
जहाँ हर किरदार अपनी हार और उम्मीद के बीच जूझता है। 'द मेलान्कोली ऑफ रेसिस्टेंस' (1989) में एक सर्कस के
बहाने सत्ता और अराजकता की तस्वीर खींची, जो बेला तार की
फिल्म 'वर्कमास्टर हार्मनीज' में जीवंत
हो उठी। ‘वॉर एंड वॉर' (1999) एक भटकती आत्मा की कहानी है,
जो प्राचीन शहरों में अपनी पहचान तलाशती है। उनकी हालिया कृति 'बारन वेंकहाइम्स होमकमिंग' (2016) हंगरी के ग्रामीण
जीवन की विडंबनाओं को हृदयस्पर्शी ढंग से बयान करती है। क्राज़्नाहोरकाई के लंबे,
सर्पिल वाक्य पाठक को थकाते हैं, लेकिन यही
उनकी जादुई शक्ति है। (बाणभट्ट की कादंबरी की तरह!) वे आपको कहानी में खींच लेते
हैं, जैसे कोई मंत्रमुग्ध कर देने वाला स्वप्न।
कथाकार
क्राज़्नाहोरकाई की विचारधारा मानवता के लिए एक करुण पुकार है। वे दुनिया को एक
ऐसे चश्मे से देखते हैं, जहाँ सभ्यता का अंत करीब
लगता है। लेकिन निराशा के इस समंदर में, वे कला को एक
टिमटिमाता दीया मानते हैं - "साहित्य वह रोशनी है, जो
अँधेरे को चीरती है!” बौद्ध और झेन प्रभाव उनकी रचनाओं में क्षणभंगुरता का बोध
जगाते हैं। दमन, पर्यावरणीय संकट और मानव का अकेलापन - ये
उनके लेखन के मूल स्वर हैं। फिर भी, उनकी कहानियाँ हार नहीं
मानतीं। वे हमें सिखाती हैं कि सबसे गहरे दु:ख में भी आशा की किरण छिपी होती है।
आज के दौर में जब युद्ध, महामारी और जलवायु संकट से दुनिया
त्रस्त है, क्राज़्नाहोरकाई का साहित्य हमें हिम्मत देता है।
कला के सहारे जीने की हिम्मत!
कहना
न होगा कि विश्व साहित्य में क्राज़्नाहोरकाई का योगदान अप्रतिम है। आज जब साहित्य
बाज़ार की चमक में खो रहा है, उनकी जटिल, गहरी रचनाएँ एक विद्रोह हैं। वे पाठक को एक ऐसी दुनिया में ले जाते हैं,
जो आत्मा को झकझोर देती है। भारतीय पाठक को उनकी रचनाएँ प्रेमचंद की
ग्रामीण ट्रैजेडी और मंटो की बेचैनी की याद दिला सकती हैं। हिंदी लेखक उनसे सीख
सकते हैं कि स्थानीय दर्द को वैश्विक कैनवास पर कैसे उकेरा जा सकता है।
भारत
की धरती से, हिंदी साहित्य प्रेमियों की ओर से,
लाज़्लो क्राज़्नाहोरकाई का हार्दिक अभिनंदन!
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2.
मारिया
कोरिना मचादो यानी लोकतंत्र की लौ!
दस
अक्टूबर,
2025 को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए वेनेज़ुएला की साहसी विपक्षी
नेता मारिया कोरिना मचादो के चयन की घोषणा हुई। बेशक़, नॉर्वे
की राजधानी ओस्लो से आई खबर ने पूरी दुनिया को लोकतंत्र की ताक़त का अहसास कराया।
ग़ौरतलब है कि नॉर्वेजियन नोबेल समिति ने उन्हें यह सम्मान 'लोकतंत्र
के अधिकारों को बढ़ावा देने और शांतिपूर्ण परिवर्तन के संघर्ष' के लिए दिया है। मारिया कोरिना को हार्दिक बधाई! आपकी यह जीत न सिर्फ
वेनेज़ुएला की, बल्कि पूरे लैटिन अमेरिका और दुनिया की उन
आवाज़ों की जीत है, जो अँधेरे में भी रोशनी जलाए रखती हैं!
सयाने
बता रहे हैं कि मारिया कोरिना मचादो का जन्म 1967 में वेनेज़ुएला के वैलेंसिया शहर
में एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे
राजनीति के मंच पर उतरीं। 2002 में उन्होंने सुमेटे नामक संगठन की स्थापना की,
जो नागरिकों को मतदान और लोकतंत्र की समझ सिखाता है। यह संगठन
अमेरिकी फंडिंग से जुड़ा रहा, लेकिन इसका मक़सद वेनेज़ुएला
में पारदर्शी चुनाव सुनिश्चित करना था। 2012 में वे संसद पहुँचीं, जहाँ उन्होंने ह्यूगो शावेज़ के शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की। शावेज़ के
बाद निकोलस मादुरो के आने पर तो उनका संघर्ष और तेज़ हो गया। 2023 में विपक्षी
प्राइमरी चुनावों में उन्होंने भारी बहुमत से जीत हासिल की और राष्ट्रपति पद की
उम्मीदवार बनीं। लेकिन मादुरो शासन ने उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया। फिर भी,
मारिया ने हार नहीं मानी। वे भूमिगत हो गईं, लेकिन
सोशल मीडिया और गुप्त सभाओं के सहारे लाखों लोगों को एकजुट किया। उनकी पार्टी
वेंते वेनेज़ुएला ने 2024 के राष्ट्रपति चुनावों में मादुरो के ख़िलाफ़ अभियान
चलाया। याद रहे कि मारिया ने हमेशा अहिंसक रास्ता अपनाया। प्रदर्शन, अंतरराष्ट्रीय दबाव और कानूनी लड़ाई! नोबेल समिति ने कहा कि वे 'लोकतंत्र की लौ जलाए रखने वाली' हैं; तानाशाही के बढ़ते अँधेरे में भी उम्मीद की किरण हैं! उनके प्रयासों से
वेनेज़ुएला में लाखों लोग सड़कों पर उतरे, और अंतरराष्ट्रीय
समुदाय ने मादुरो पर प्रतिबंध लगाए। मारिया की यह यात्रा एक ऐसी साधारण महिला की
असाधारण हिम्मत की कहानी है, जो आर्थिक संकट, दमन और निर्वासन के बावजूद डटी रहीं।
स्वाभाविक
ही,
वेनेज़ुएला के विपक्ष ने मारिया को शांति का नोबेल दिए जाने की
घोषणा को 'लोकतंत्र की नैतिक जीत' बताया।
पूर्व राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार एडमुंडो गोंजालेज ने कहा, 'यह हमारी साझा लड़ाई का सम्मान है।' रोचक तथ्य यह है
कि मारिया ने यह पुरस्कार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को समर्पित किया।
व्हाइट हाउस ने भी उन्हें बधाई दी और कहा कि यह 'लोकतंत्र की
रक्षा का संदेश' है। यूरोपीय संघ और कनाडा जैसे देशों ने इसे
तानाशाही के ख़िलाफ़ वैश्विक संकेत माना। अचरज नहीं कि भारत में भी इसे 'गांधीवादी अहिंसा की याद' कहा जा रहा है। दुनियाभर
में लोग मारिया को 'आयरन लेडी' कह रहे
हैं। मारिया की भावुक प्रतिक्रिया वायरल हो रही है - 'मेरे पास शब्द नहीं,
लेकिन यह जीत सबकी है!'
दूसरी
ओर,
विवाद भी कम नहीं। मादुरो शासन ने इसे 'अमेरिकी
साज़िश' करार दिया। कहा कि मारिया 'तेल
के लिए विदेशी एजेंट' हैं! कुछ वामपंथी समूहों का आरोप है कि
नोबेल समिति अमेरिकी हितों की पिट्ठू है! यह भी कि यह पुरस्कार रिजीम चेंज के लिए
है, शांति के लिए नहीं! मारिया के इज़राइल समर्थन और बिटकॉइन
को 'तानाशाही के ख़िलाफ़ हथियार' बताने
पर भी बहस छिड़ी है। और हाँ, इस पुरस्कार के प्रबल प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों की हताशा तो
जगज़ाहिर है ही! फिर भी, ये प्रतिक्रियाएँ साबित करती हैं कि
नोबेल शांति पुरस्कार प्रायः विवादास्पद होता है! इसके बावजूद, मारिया का चयन दुनिया को चेतावनी
देता है –
“तानाशाही
को चुनौती दो, वरना अँधेरा फैलेगा!’
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डॉ.
ऋषभदेव शर्मा
सेवा
निवृत्त प्रोफ़ेसर
दक्षिण
भारत हिन्दी प्रचार सभा
हैदराबाद
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