हमारे कंठ गह्वर की सुरसरिता है हिन्दी
डॉ.
सुशीला ओझा
संस्कृत की गोद से निकली हमारी भाषा,
संपूर्ण अभिव्यक्ति की भाषा है। हमारे कंठ गह्वर से निकली
पहली अमृतमयी भाषा, जिसमें पहली बार हम “माँ” की पीयूषवर्षिणी मानसरोवर में हंसिनी की तरह
मनोभावों को चुनते हैं, वह हमारी मातृभाषा है। जिसमें अद्भुत मिठास है वह हिन्दी है। सर्वप्रथम काव्य
के सिंहासन पर अपनी ‘देसिल बयना’ को
प्रतिष्ठित करने का श्रेय कवि विद्यापति को है। जिन्होंने हमें आत्मावलोकन की
दृष्टि दी है- “देसिल बयना सब जन मिठ्ठा”
इसीलिए तो उन्हें ‘मैथिल कोकिल’ भी कहा गया है और ‘अभिनव जयदेव’ की उपाधि से विभूषित किया गया है। अपनी भाषा अपनी पहचान है,
अपना गौरव है, अपनी सभ्यता, संस्कृति का वंदनवार है, अपने “स्व” का वंदन है, अभिनंदन है। अमीर खुसरो ने हिन्दी के गौरव को पहचाना। अपनी
आत्माभिव्यक्ति का सशक्त साधन है भाषा। हृदय में उठते भावों के सागर को अपनी भाषा
में ही अभिव्यक्त कर सकते हैं। हमारी हिन्दी समृद्ध भाषा है। यह हमारी
भावाभिव्यक्ति का अक्षय कोष है। हमारी हिन्दी अनपढ़ से ज्ञानी बनाती है। अंग्रेजी
एप्पल खिला कर जेबरा बनाती है। अवधी भाषा में रचित तुलसी का “रामचरितमानस” विश्व
साहित्य का सिरमौर है। सूर का “सूरसागर” भक्ति, वात्सल्य और शृंगार की त्रिवेणी में अवगाहन कराती है। हमारी
सभ्यता संस्कृति समृद्ध है, भाषा समृद्ध है। विदेशी आक्रांताओं ने हमारी संस्कृति,
हमारी भाषा को कुचलने का प्रयास किया। रीतिकाल में हमारी
भाषा दरबारी हो गई। जब कोई कवि या साहित्यकार अपना स्वाभिमान त्याग कर किसी दरबार
के अधीनस्थ हो जाते हैं तो भाषा भी उसी के अनुरूप हो जाती है।
मुगलों के पतन के बाद अंग्रेजों के आगमन से हिन्दू संस्कृति
का ह्रास होने लगा और हमारी भाषा उपेक्षित होने लगी। ‘मैकाले’ की शिक्षा नीति ने हिन्दी को गुलाम बना दिया। उनकी नीति के
अनुसार किसी देश को गुलाम बनाने के लिए सर्वप्रथम उसकी भाषा पर प्रहार करना जरूरी
है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में तीन विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई- मुम्बई,
कोलकाता और चेन्नई और अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व स्थापित
हुआ। हमारी मातृभाषा युगधर्म के लिए सिसक रही थी।
आधुनिक गद्य के निर्माता ‘भारतेन्दु’ का साहित्याकाश पर पदार्पण हुआ। नवीन सप्त रश्मियों से अपनी
मातृभाषा का अभिनंदन हुआ और नवयुग का आदर्श स्थापित हुआ। अपनी भाषा के बिना किसी
राष्ट्र का अभ्युत्थान असंभव है। भारतेन्दु ने कहा –
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।”
भारतेन्दु का काल प्राचीनता और नवीनता की संधि रेखा है।
राजभक्ति और राष्ट्रभक्ति दोनों के बीच भाषा खड़ी थी। अंग्रेजों की दमन नीति पर
आक्रोश व्यक्त करते हुए भारतेन्दु ने कहा –
“अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी,
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।”
भारतेन्दु ने हिन्दी के विकास में साहित्य की सभी विधाओं पर
कलम चलाई है। द्विवेदी युग हिन्दी के परिष्कार का युग है। छायावाद और प्रगतिवाद
में हिन्दी समृद्ध हुई है। आज हमारी हिन्दी वैश्विक भाषा हो गयी है। हमारी भाषा
में संबंधों का विस्तार है। अंग्रेजी भाषा में जहाँ चाची,
मौसी, फुवा के लिए एक ही संबोधन है- ‘आन्टी’। हमारी भाषा में संबंधों की एक अलग गरिमा है। सबका अलग-अलग
अर्थ है। अपनी भाषा विचार और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। इसमें तरलता है,
सहजता है, सरलता है। अंग्रेज चले गए, हमारा देश स्वतंत्र हुआ। हमारे संविधान में राजभाषा के रूप
में हिन्दी प्रतिष्ठित हुई। 1953 से प्रत्येक 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है। विश्व हिन्दी दिवस 10 जनवरी को मनाया जाता है।
अंग्रेज चले गए फिर भी हम
अंग्रेजी के गुलाम हो गए। बच्चे अंग्रेजी मीडियम में पढ़ने लगे। क ख ग घ अब स्टेटस
सिम्बल नहीं रह गया। हिन्दी बोलने में शर्म आती है। अभिभावक गर्व के साथ कहते हैं-
“हमारे बच्चे १,२,३,४ गिनती नहीं जानते, पहाड़ा नहीं जानते। हमारे बच्चे टेबल जानते हैं।” उनकी दृष्टि में भोजपुरी
भाषा गँवारु भाषा है। अपनी मातृभाषा का इतना अपमान! आश्चर्य है! माँ अगर गँवार हो
लेकिन विवेकशील हो, संस्कारवान हो तो क्या वह मांँ नहीं है? जो आधुनिकता के रंग में रंगी नहीं हो,
क्या वह माँ कहलाने योग्य नहीं है?
अंग्रेजों ने कहा था कि भारत तो बंदर,
हाथी और मदारियों का देश है। हमारी भाषा को गँवार कहकर अपनी
भाषा के वर्चस्व को थोपना उनका उद्देश्य था। यही उनका लक्ष्य था कि अंग्रेजी
विद्वानों की भाषा है। आत्मावलोकन की दृष्टि से अपनी भाषा समृद्ध होती है। अपनी
भाषा में चहुँमुखी विकास होता है, आत्मा का विस्तार होता है, चेतना की व्यापकता आती है। जापान,
रुस, चीन के पास उनकी अपनी भाषा है। अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व केवल भारत में है।
भाषा सभी के ज्ञान का केन्द्र है लेकिन अपनी भाषा की प्राथमिकता शीर्ष पर है।
दूसरे की भाषा में पराधीनता की दुर्गन्ध रहती है। इजराइल की भाषा हिब्रु है,
ईरान की भाषा फारसी है, श्री लंका की भाषा सिंहली, तमिल है। अंग्रेजी भाषा पराधीनता का केन्द्र बिन्दु है।
अंग्रेजों की नीति “फूट डालो और राज करो।” में भाषा पर पहला प्रहार है। कांग्रेस
का अंग्रेजों से अत्यंत मधुर संबंध था। उनकी वेश-भूषा,
भाषा- उन्हें सब कुछ प्रिय था। कांग्रेस के समय संघ लोक
सेवा आयोग की परीक्षा अंग्रेजी में होती थी। जनता पार्टी की पहली गैर कांग्रेसी
सरकार ने क्षेत्रीय भाषा के महत्त्व को स्वीकारा और परीक्षा के लिए अपनी भाषा को
सर्वश्रेष्ठ माना। इस तरह 1979 से परीक्षार्थियों को अंग्रेजी भाषा से मुक्ति मिली। हमारी
भाषा हिन्दी है, इसके
साथ ही हमारी क्षेत्रीय भाषाएँ भी समृद्ध हैं। पंजाब के लोग पंजाबी भाषा बोलते हैं,
बंगाल के लोग बांगला भाषा बोलते हैं,
दक्षिण भारत के लोग कन्नड़, तेलगु, तमिल, मलयालम बोलते हैं। फिर बिहार के लोग अपनी भोजपुरी में क्यों
नहीं बोलते? वे
कहते हैं भोजपुरी गँवारों की भाषा है, इससे बच्चों की भाषा खराब हो जाएगी। तथाकथित पढ़ी-लिखी
महिलाएँ टूटी-फूटी अंग्रेजी बोल लेती हैं पर अपनी मातृभाषा में बोलने में उन्हें
हिचकिचाहट होती है। अपने को बिहारी कहने में भी उन्हें शर्म आती है। जब तक हमें
अपनी मौलिकता की पहचान नहीं होगी, हमारी भाषा कैसे समृद्ध हो सकती है?
भोजपुरी विश्व में बोली जाने वाली सबसे प्रमुख भाषा है।
भोजपुरी भाषा को भी उन्नत बनाना हमारा महान कर्तव्य है।
गुलामी की मानसिकता भाषा की समृद्धि में सबसे बड़ा रोड़ा
है। अंग्रेजियत का ऐंठन हमारे संस्कार को विकृत कर रहा है। ना हम देशी रह जाते हैं
और न विदेशी। नकल का जीवन आत्मप्रसार में बाधक होता है। जीवन में सार्वभौमिक,
चहुँमुखी विकास अपनी निजता, मौलिकता से ही संभव है। अपनी हीनग्रन्थि से बाहर निकलने का
प्रयास आवश्यक है। अपनी भाषा के माध्यम से राष्ट्र की पहचान है,
राष्ट्र का गौरव है। अपनी सभ्यता,
संस्कृति, अपनी भाषा, अपनी वेश-भूषा पर गर्व करना ही सच्ची देशभक्ति है। हमारी
वर्तनी,
हमारा व्याकरण अत्यंत समृद्ध है। हम जो पढ़ते हैं,
वही बोलते हैं और वही लिखते भी हैं। हमारी हिन्दी समृद्ध
भाषा है। यह संस्कृत की गोद से निकली है। संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है। यह वेदों
की भाषा है। ‘अभिज्ञान
शाकुन्तलं’ जैसी
कालजयी कृति को पढ़ने के लिए जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने संस्कृत का अध्ययन किया
था। ऐसी समृद्ध भाषा की गोद में हिन्दी गुनगुनाती है,
चहकती है। व्यापकता की ओर हिन्दी ने आगे बढ़कर विश्वपटल पर
अपना ध्वज फहराया है। हमारे प्रधान मंत्री विदेशों में भी अपनी हिन्दी की
प्रगाढ़ता का दीप प्रज्ज्वलित करते हैं। अटल बिहारी बाजपेयी जी ने भी अपनी भाषा को,
अपनी सनातन संस्कृति को, अपने राष्ट्र के गौरव को श्रेष्ठ माना था। वे विदेशों में
भी अपनी भाषा को पहली प्राथमिकता देते थे। उन्नीसवीं सदी अंग्रेजों की थी,
बीसवीं सदी कांग्रेसियों की थी,
अब इक्कीसवीं सदी संपूर्ण हिन्दू राष्ट्र का है। हिन्दी हमारी भारती की वैदुष्य मणि है। अगर
हिमालय राष्ट्र का मुकुट है तो हिन्दी राष्ट्र की मंगलमय बिन्दी है। हिन्दी के
बिना राष्ट्र की कल्पना नहीं हो सकती है। हिन्दी माँ भारती के हाथ की वीणा है,
स्वर-लय-छन्द की साम्राज्ञी है। हमारे देश का गौरव,
अखंडता, विशालता, उदारता की मूल अभिव्यंजना हिन्दी से है। हिन्दी विश्व के
शिखर तक पहुँचे, ऐसी
कामना है।
जय भारती! जय हिन्दी! नव सृजन की महिमामयी,
गरिमामयी अभिव्यक्ति! हिन्दी का उत्तरोत्तर विकास हो।
राष्ट्र के समेकित विकास में तुम्हारा कोटि कोटि अभिनंदन हो।
डॉ. सुशीला ओझा
पूर्व विभागाध्यक्ष
माहेश्वरनाथ महामाया महिला महाविद्यालय
बेतिया, प० चम्पारण, बिहार
सुन्दर और सारगर्भित आलेख.. हार्दिक बधाई 🙏
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