‘भारतीय भाषा उत्सव’
प्रो. हसमुख परमार
मनुष्य द्वारा मनुष्य
के लिए भाषा का विकास मानव जीवन की एक महनीय उपलब्धि है। वैसे बिना बोले,
सुने, लिखे और पढ़े मनुष्य का अस्तित्व तो बिल्कुल संभव है,
किंतु उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना के विकास,
व्यावसायिक प्रगति तथा शिक्षा व ज्ञानार्जन हेतु भाषा की
अनिवार्यता को लेकर कोई संदेह नहीं। इस लिहाज से भाषा व्यवहार दुनियाभर के हर मानव
समाज के व्यवहार का एक अभिन्न आयाम रहा है। प्रांत-प्रदेश,
देश, परिवेश तथा शिक्षा-ज्ञान-व्यवसाय के विविध विषय क्षेत्र के
अनुसार भाषा के नाम, प्रयुक्ति और प्रवृत्ति में अनेकता-विविधता,
पर भाषा की उपयोगिता के मामले में तमाम भाषाओं की भूमिका
बिल्कुल एक जैसी ही। भाषा से अपनी महती व अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के चलते
हर भाषा की हर प्रयुक्ति के प्रति मान-सम्मान उस भाषा प्रयोक्ता का परम दायित्व है
।
हम जानते ही हैं कि
हमारे यहाँ वर्षभर के कैलेंडर में लगभग चार-पाँच तिथियाँ,
जो भाषा संबंधी कुछ खास दिवस के रूप में निश्चित-निर्धारित
हैं जहाँ भाषा को लेकर उत्सव मनाया जाता है। हिन्दी दिवस,
विश्व हिन्दी दिवस,
मातृभाषा दिवस, अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस तथा भारतीय भाषा दिवस । इन
भाषा दिवसों- भाषा उत्सवों में 11 दिसम्बर 'भारतीय भाषा दिवस' की परंपरा ज्यादा पुरानी नहीं है। 11 दिसम्बर चिन्नास्वामी सुब्रह्मण्य भारती की जन्म जयंती है।
सुब्रह्मण्य भारती जो तमिल भाषा के ही नहीं बल्कि उससे भी आगे एक महान भारतीय
साहित्यकार, एक समर्पित-प्रतिबद्ध भारतीय स्वाधीनता सेनानी,
समाजसुधारक तथा अपने समय के भारत के उत्तर व दक्षिण के बीच
एक सेतु के रूप में अपनी महती भूमिका का निर्वाह करने वाला महान भारतीय
व्यक्तित्त्व। 11 दिसम्बर, 1882 को तमिलनाडु के शिवपेरि नामक गाँव में जन्मे सुब्रह्मण्य
भारती के जीवन का एक प्रमुख लक्ष्य था स्वाधीनता की प्राप्ति । अपनी मातृभाषा तमिल
के साथ-साथ हिन्दी, संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर एक संतुलन-सामंजस्य
के वे प्रबल पक्षधर रहे। अपने काव्य में स्वतंत्रता के स्वर को बुलंद करने वाले इस
‘महाकवि भारती’ ने भारतवर्ष की उदात्त छवि अपनी रचनाओं में प्रस्तुत की। अखिल
विश्व में अतुलनीय उत्कर्ष बताने वाले भारती अपने ‘भारतनाडु’
गीत में देश की सांस्कृतिक विशेषताओं को बताते हुए –
ज्ञानत्तिले परमोनत्तिले उयर
मनत्तिले अन्नदानत्तिले
गानत्तिले अमुद तिरैन्द
कविदैयिले उयरन्दनाडु इन्दयारु कुल्ले
ज्ञान में,
आध्यात्मिक क्षेत्र में, मान-सम्मान, अन्नदान में,
संगीत में, साहित्य में श्रेष्ठ है हमारा भारत । अखिल विश्व में
अनुलनीय उत्कर्ष हमारा भारतवर्ष ।” [भारतीय साहित्य का राष्ट्रीय स्वर,
संकलन एवं संपादन - जगदीश तोमर,
पृ०40]
इसी तरह भारती जी
भारत की एकता और अखंडता को भी अपनी रचनाओं में बराबर बताते रहे। “भारती ने जिस
अखण्ड और अटल भारत का स्वरूप हमारे सामने रखा था,
उसको और अधिक उजागर करने की आवश्यकता है। भारती जी ने एक ऐसे भारत का रूप हमारे
सामने रखा जहाँ कि एक प्रांत से दूसरे प्रांत में परिपूर्ण मेल हो। उन्होंने एक
जगह गाया है - खूब उपजता गेहूँ गंगा के कछार में,
तांबूल अच्छे हैं कावेरी के तट के,
ताम्बूल दे विनियम कर लेंगे गेहूँ का,
सिंह समान मरहठों की ओजस कविता के पुरस्कार में उनको हम
केरल गजदंत लुटाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।” [ वही - पृ० 24]
इसी कर्मवीर
की जयंती 11 दिसम्बर को भारतीय भाषा दिवस या भारतीय भाषा उत्सव के रूप में मनाना मतलब
भारती जी के सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक तथा भाषागत सामंजस्य-समन्वय सम्बधी
दृष्टि की महत्ता को रेखांकित करना ।
दरअसल भारतीय
भाषा उत्सव हमें राष्ट्रीय स्तर पर एक सांस्कृतिक,
भाषिक एवं भावात्मक एकता का संदेश देता है । भारतीय भाषा
समिति (शिक्षा मंत्रालय-भारत सरकार) की ओर से प्रस्तुत भारतीय भाषा दिवस (भारतीय
भाषा उत्सव) के अवधारणा पत्र में भारतीय भाषा उत्सव के आयोजन के निम्नलिखित
उद्देश्य बताए गए हैं –
• अपनी मातृभाषा के साथ साथ अधिक से अधिक भारतीय भाषाओं को सीखने के लिए अनुकूल
वातावरण बनाने तथा 'पड़ोसी भाषा' के प्रति प्रेम और आनंद की अनुभूति के लिए 'भाषाई सौहार्द' विकसित करना ।
• छात्रों को भारतीय भाषाओं के बारे में जानकारी देना
• लोगों को कुछ और भाषाएँ सीखने के लिए प्रोत्साहित करना ।
• संस्कृति, कला आदि में विविधता का उत्सव मनाने के लिए और लोगों को भारतीय भाषाओं के
माध्यम से राष्ट्रीय एकता, सद्भाव और अखण्डता का अनुभव कराना ।
• यह दिखाना कि भाषा सीखना कैसे एक मनोरंजक और आनंददायी अनुभव हो सकता है ।
राष्ट्र के विकास और 'एक भारत श्रेष्ठ भारत'
के लक्ष्य को साकार करने के लिए भारतीय भाषाओं की आवश्यकता
को रेखांकित करना ।
वैसे भौगोलिक,
सांस्कृतिक और भाषाई विविधता भारत देश की एक बुनियादी पहचान
रही है, और विशेषतः सांस्कृतिक व भाषाई इस विविधता के मूल में एकता के लक्षण की
विद्यमानता तो भारतीय समाज, संस्कृति और दर्शन का आधार स्तंभ है । यह एकता-समानता हमारी 'भारतीयता' 'भारतीयत्व' व राष्ट्रीयता की
संकल्पना को लेकर है । अतः भारत की विविध संस्कृतियों व अनेक भाषाओं के
अंतःसम्बधों की शक्ति तथा उसमें पाए जाने
वाला एकत्व का गुण, देश की एकता-अखंडता को पहले से मजबूती प्रदान करते रहे हैं।
भारतीय संस्कृतियों के बीच की एकरूपता ने इन भारतीय भाषाओं के अंतःसंबंधों को और
ज्यादा गाढ़ा किया है।
भारत बहुभाषी
देश है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल २२ भाषाओं के अलावा भारत के कई
राज्यों में और क्षेत्रों में असंख्य क्षेत्रिय भाषाएँ-बोलियाँ बोली जाती हैं।
भारतीय भाषाएँ मूलतः आर्य परिवार, द्रविड़ परिवार और आग्नेय परिवार की भाषाएँ हैं। इसमें भी
आर्य परिवार और द्रविड़ परिवार की भाषाएँ ही प्रमुख हैं। आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं
में दक्षिण की तमिल, तेलुगु, कन्नड और मलयालम द्रविड परिवार से संबद्ध हैं और बाकी की
भाषाएँ आर्य परिवार से । “एक परिवार की भाषाओं में समानता होना स्वाभाविक है। यह
समानता शब्दावली, वाक्य विन्यास, व्याकरण संरचना, अर्थबोध आदि अनेक रूपों में दृष्टिगत होती है। जैसे हिन्दी
और गुजराती दोनों एक परिवार की भाषाएँ हैं। इन दोनों भाषाओं का विकास शौरसेनी
अपभ्रंश से हुआ है, अतः दोनों में सभी दृष्टियों से अत्यधिक साम्यता है।” (प्राक्कथन
से, हिन्दी-गुजराती की समान स्त्रोतीय शब्दावली,डॉ. रजनीकान्त जोशी) दोनों में व्याकरणिक समानताएँ विशेष प्रमाण में
पाई जाती हैं। इसी तरह हिन्दी और बांग्ला का अंतःसंबंध बहुत पहले से ही है। कहने
का मतलब बहुभाषी भारत की अनेक भाषाओं की प्रवृत्ति व प्रकृति में अधिक साम्य
दृष्टिगोचर होता है।
इसमें कोई
संदेह नहीं कि हमारे देश में भाषिक चेतना बड़ी प्रबल और प्रभावशाली है। एक साथ
अनेक उन्नत भाषाएँ यहाँ बोली जाती हैं, लिखी जाती हैं। इन विविध भाषाओं में संरचना के आधार पर
विविधता के बावजूद उनके अंदर उतरने पर तमाम तरह की समानता दिखाई पडती हैं और तभी
हम एक साथ भारतीय भाषाओं की संकल्पना के अंतर्गत बात करते हैं। भारतीय भाषाओं की
विविधता में भी एकता का एक कारण यह है कि ये ज्यादातर भारतीय भाषाएँ संस्कृत के
भाषिक तत्वों को लेकर विकसित हुई है, अतः एकसूत्रता सभी भाषाओं में मिलती है। इस संदर्भ में
अनेकों तथ्य भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन से प्राप्त होते हैं। डॉ. रामविलास
शर्मा के मतानुसार “भारत में आर्य - द्रविड़ भाषा परिवारों का विकास परस्पर एक
दूसरे के संपर्क से ही हुआ है। दोनों परिवारों के समानार्थक शब्दों में केवल ध्वनि
साम्य नहीं वरन् उनके अर्थ विकास की प्रक्रिया भी मिलती-जुलती है और यह प्रक्रिया
उनके परस्पर सम्पर्क की धारणा को पुष्ट करती है।”
भारतीय भाषाओं
में बाहरी विविधता के बावजूद उनके मूल में पाये जाने वाले समान तत्त्व के कतिपय
कारणों के संबंध में भारतीय साहित्य [ डॉ. लक्ष्मीकांत पाण्डेय और डॉ. प्रमिला
अवस्थी ] शीर्षक पुस्तक के कुछ अंश देखिए -
• प्राचीन काल में संस्कृत का भारतीय भाषाओं पर प्रभाव । आर्य भाषाएँ तो संस्कृत
के विभिन्न रूपों से विकसित हुई हैं पर द्रविड भाषाएँ भी संस्कृत से कम प्रभावित
नहीं हुई। संस्कृत की अन्तर्धारा ही समस्त भाषाओं में व्याप्त होने के कारण बाह्य
रूप से पृथक-पृथक भाषाओं में एकता के तत्त्व समाहित हैं।
• प्राचीन काल से ही आर्य, मुंडा तथा द्रविड संस्कृतियों तथा उससे सम्बद्ध भाषाओं का
एक-दूसरे पर पर्याप्त प्रभाव पडा जिससे ध्वन्यात्मक तथा शब्दावली के स्तर पर काफी
आदान-प्रदान बढ़ा ।
• मध्यकाल में मुस्लिम संस्कृति तथा राजभाषा अरबी-फारसी का भारत की भाषाओं पर
समान प्रभाव पड़ा ।
• आधुनिक काल में यूरोप की भाषाओं, विशेषत: अंग्रेजी भाषा और साहित्य का आधुनिक भारतीय भाषाओं
पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा।
• धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक कारणों के अतिरिक्त प्रेस का विकास,
साक्षरता का प्रसार,
शिक्षा के प्रति अभिरुचि के फलस्वरूप भारतीय भाषाओं में
शब्दावली, मुहावरों तथा कहावतों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है।
भारतीय भाषा की अवधारणा और भारतीय भाषाओं में एक भाषिक एकता को एक और दृष्टि
से भी हम देख सकते हैं। जैसे एक होती है व्यक्त वाणी [यानी भाषा] तथा दूसरी होती
है अव्यक्त वाणी [ यानी भाषा] । व्यक्त वाणी के रूप में सभी भारतीय भाषाएँ अलग-अलग
हैं। कारण कि सभी की ध्वनि-व्यवस्था अलग-अलग है। सभी के व्याकरण अलग अलग हैं। सभी
की लिपियाँ अलग- अलग हैं। परंतु अव्यक्त वाणी के रूप में सभी भाषाएँ एक हैं। कारण
कि सभी की आत्मा एक है। यही है 'भारतीय भाषा' की अवधारणा।
भारतीय भाषाओं में
पाई जाने वाली एकता-साम्यता से कहीं ज्यादा समानता इन भाषाओं में लिखे साहित्य में
मिलती है। जैसे भाषाएँ अलग तो उनका साहित्य भी अलग, परन्तु हमारे साहित्य की चेतना
एक है। हमारी सांस्कृतिक,
धार्मिक, सामाजिक चेतना एक है । अतः सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य का
मूल स्वर एक है। सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में व्यक्त-निरुपित भाव,
विचार, दर्शन, प्रकृति, संस्कृति आदि में अच्छी खासी साम्यता देखी जा सकती है। यहाँ
तक कि किसी विशेष कालखंड की विशेष साहित्यिक प्रवृत्ति संवेदना एक ही समय में सभी
भारतीय भाषाओं का वर्ण्य विषय रही। 'राष्ट्रीयता' 'भारतीयता'
तो भारतीय साहित्य का प्रधान स्वर रहा और स्वाधीनता आंदोलन
के समय अधिकांश भारतीय भाषाओं के साहित्य में इस विषय का प्रभाव एक जैसा रहा।
भाषा अपने आप में
संस्कृति है, संस्कृति का एक महत्वपूर्ण आयाम है और
संस्कृति की अभिव्यक्ति का भी मजबूत माध्यम । तमाम भारतीय भाषाएँ भारतीय संस्कृति
को बखूबी व्यक्त करती है अतः हमारे द्वारा इन तमाम भाषाओं का संरक्षण व सम्मान अति
आवश्यक है। अपनी मातृभाषा, अपनी शिक्षा-व्यवसाय की भाषा तथा जानी-समझी जाने वाली
अन्य भाषा के साथ साथ बाकी भाषाओं को सीखने की ललक हममें होनी चाहिए और उन तमाम
भाषाओं के प्रति सम्मान का भाव होना ही चाहिए क्योंकि भाषा का मान-सम्मान किसी की
भावना और संस्कृति का सम्मान है।
जो भारतीय
अपनी भारतीय भाषाओं की अपेक्षा अंग्रेजी भाषा को ही अधिक महत्त्व देते हैं वे एक
तरह से मानो अपनी भारतीयता और भारतीय अस्मिता के गौरव को लेकर ज्यादा गंभीर व सजग
नहीं कहे जा सकते। इसमें कोई संदेह नहीं कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर
व्यापार, व्यवसाय, शिक्षा की एक बड़ी भाषा है। साहित्य तथा चिंतन-विचार को लेकर भी वह काफी
समृद्ध भाषा है। इस दृष्टि से इसकी उपयोगिता-आवश्यकता को लेकर कोई सवाल नहीं,
परंतु यह भाषा जब हमारे संस्कारों पर संस्कृति पर,
व्यवहार पर हावी हो जाए तो वह चिंता की बात है। अंग्रेजी को
बढ़ते वर्चस्व तथा उसके प्रभाव से गुलाम होते हमारे मस्तिष्क को बचाना बहुत जरूरी।
हमारी भारतीय भाषाओं तथा हमारी मातृभाषा पर पूरा विश्वास,
उनके प्रति लगाव व मान सम्मान हर भारतीय की एक नैतिक
जिम्मेदारी है। इस संदर्भ में स्वाधीनता संग्राम के समय महात्मा गांधी की कही गई
यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है.. “यदि हमारा विश्वास हमारी भाषाओं पर से उठ
गया हो तो वह इस बात की निशानी है कि हमारा अपने आप पर विश्वास नहीं रहा। यह हमारी
गिरी हुई हालत की साफ निशानी है और जो भाषाएँ हमारी माताएँ बोलती हैं उनके लिए
हमें जरा भी मान न हो तो किसी भी तरह की स्वराज की योजना,
भले ही वह कितनी ही परोपकारी वृत्ति या उदारता से हमें दी
जाए हमें कभी स्वराज भोगने वाली प्रजा नही
बना सकेगी ।”
प्रो. हसमुख परमार
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ विद्यानगर
(गुजरात)
अदभुत ज्ञान
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक और सही ज्ञानवर्धक बात
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आलेख।सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धक , सराहनीय 👌🙏
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